गोंड आदिवासी: बदला परिवेश और खानपान

आदिवासियों की वनों से बेदखली उन्हें भुखमरी की कगार पर ले आई है। बदले परिवेश में उनका पारंपरिक भोजन भी उनसे छिन गया है। बढ़ती महंगाई ने उनके पेट को जैसे और सिकोड़ दिया है। पीढ़ियों से वनों पर आश्रित समाज को वहां से बाहर “हकालते’’ समय शासन-प्रशासन ने इस बात पर गौर नहीं किया कि वे अंततः खाएंगे क्या? रीतेश पुरोहित गोंड समुदाय की पोषण परंपरा का अध्ययन कर रहे हैं।

अब सवाल यह उठता है कि कहने को तो करीब 40-50 साल पहले गोंड समाज के लोग तो बदतर स्थिति में थे और ज्यादा गरीब भी थे। और फिर उस समय वे इतने तंदुरुस्त और बलिष्ठ कैसे बने रहते थे? असल में उस समय वे अपने जीवन-यापन के लिए किसी बाहरी साधन पर निर्भर नहीं थे। आदिवासी अपने पोषण के लिए कई तरीके अपनाते थे। वे अपने घर के आसपास ही मक्का, ज्वार, कोदो-कुटकी जैसी फसलों को एक साथ बोते थे। वे इन फसलों को बाजार में बेचने के लिए नहीं, बल्कि खुद इस्तेमाल करने के लिए बोते थे। गोंड आदिवासी। यह शब्द सुनते ही हमारे जेहन में घुटने तक धोती पहने हुए हट्टे-कट्टे बलवान और श्याम वर्ण के युवक की तस्वीर उभरती है। सरकारी प्रकाशनों, कैलेंडरों, डायरियों में गोंड समाज के लोग कुछ ऐसे ही दिखाई देते हैं। हालांकि अब यह तस्वीर कुछ बदलती जा रही है। मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गोंड बहुल बरेली और सिलवानी तहसील में आपको हट्टे-कट्टे गोंड लोगों की जगह दुबले-पतले और मुरछाए हुए चेहरे वाले युवक मिलेंगे। इन गांवों के बूढ़े-बुजुर्ग बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में गोंड समाज के लोगों में यह परिवर्तन नजर आया है। उनका कहना है कि गरीबी की वजह से अच्छा भोजन न मिल पाने व शारीरिक श्रम में कमी आने के कारण यह स्थिति पैदा हुई है।

अब सवाल यह उठता है कि कहने को तो करीब 40-50 साल पहले गोंड समाज के लोग तो बदतर स्थिति में थे और ज्यादा गरीब भी थे। और फिर उस समय वे इतने तंदुरुस्त और बलिष्ठ कैसे बने रहते थे? असल में उस समय वे अपने जीवन-यापन के लिए किसी बाहरी साधन पर निर्भर नहीं थे। आदिवासी अपने पोषण के लिए कई तरीके अपनाते थे। वे अपने घर के आसपास ही मक्का, ज्वार, कोदो-कुटकी जैसी फसलों को एक साथ बोते थे। वे इन फसलों को बाजार में बेचने के लिए नहीं, बल्कि खुद इस्तेमाल करने के लिए बोते थे। अपनी जरूरत के हिसाब से इन फसलों का एक हिस्सा वे बीज के लिए बचा भी लेते थे। इन अलग-अलग फसलों से उन्हें कार्बोहाइड्रेट के साथ प्रोटीन, लौह तत्व, रेशा जैसे कई महत्वपूर्ण तत्व मिलते थे। इन फसलों की ठूंठ भी चारे के रूप में जानवरों के काम आते थे।

बरेली तहसील के जामगढ़ गांव के 80 वर्षीय पूर्व सरपंच रमेशचंद्र शर्मा बताते हैं कि पहले हर आदिवासी के घर में कम से कम एक गाय हुआ करती थी। जानवरों को गांव और जंगल में खूब चारा मिला करता था। अच्छा चारा मिलने पर गाय, भैंस दूध भी ज्यादा देती थी और पूरा परिवार दूध पिया करता था, लेकिन अब तो गांवों में चारा ही नहीं मिलता। गांवों में पड़ी चरनोई की जमीन खत्म हो गई है। अब इस जमीन का खेती में इस्तेमाल होने लगा है। गांव के पास एक बड़ा तालाब था, लेकिन अब जगह-जगह नलकूप खोद दिए गए हैं। दूसरी ओर तालाब में बरसात का पानी पहुंचने के रास्ते बंद हो गए है और तालाब का गहरीकरण भी नहीं हुआ। इन वजहों से तालाब सिकुड़ता गया और अब हालात यह हैं कि तालाब में बिल्कुल पानी नहीं है। पहले जानवर तालाब का पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते थे, लेकिन अब पानी पीने के लिए भी कोई स्थान नहीं बचा है। वन विभाग के सख्त नियमों की वजह से लोग जानवरों को जंगल में नहीं छोड़ पाते। इन सारे कारणों से लोगों ने अपने घर में गाय पालना बंद कर दिया और परिणाम स्वरूप उन्हें दूध के रूप में मिलने वाला महत्वपूर्ण पोषण मिलना बंद हो गया।

सिलवानी तहसील में सिंघौरी अभ्यारण्य से सटे हुए गांव जैतगढ़ में रहने वाले 90 वर्षीय गोबिंदी गोंड बताते हैं कि पहले कई बार ऐसी स्थिति होती थी कि खाने के लिए जब कुछ भी नहीं मिलता था तब जंगल हमारी मदद करता था। हम जंगल में जाकर जमीन में पेड़ों की जड़ में लगे ननमाटी, खिरसोला, गुलाखरी, बन सिंगारो, मूसली जैसे कंद निकालते थे। इन कंद को घर लाकर पानी से भरे बर्तन मे डालकर गर्म करते थे। गर्म करने के बाद ही इसे खाते थे। विशेषज्ञ बताते हैं कि इन कंद में कई तरह के पोषक तत्व होते थे, जो गोंड आदिवासियों को तंदुरुस्त और बीमारियों से दूर रखते थे। पहले शिकार करने से मिलने वाला मांस भी इनके पोषण की जरूरत पूरी करता था। चोर पिपरिया निवासी 50 वर्षीय मोतीलाल गोंड बताते हैं कि पहले समुदाय के लोग एकसाथ मिलकर शिकार किया करते थे, लेकिन वन विभाग की सख्ती की वजह से शिकार पूरी तरह बंद हो गया है। इनके पास अब इतना पैसा नहीं होता कि ये बाजार जाकर मांस खरीद सकें। शिकार बंद होने से जंगली जानवरों की संख्या में बहुत इजाफा हो गया है। ये जानवर अब कभी भी गांवों में घुस आते हैं। साथ ही खेतों में पैदा होने वाली फसलों को भी नुकसान पहुंचाते हैं।

स्थानीय लोग बताते हैं कि एक-दो दशक पहले तक खाने-पीने की जद्दोजहद के कारण कड़ी मेहनत करना पड़ती थी। खेत में दिनभर काम करने के बदले उन्हें अनाज मिलता था। उनकी तंदुरुस्ती का यह भी एक कारण था। सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने उन्हें अनाज तो दिया, लेकिन उनसे मेहनत करने का कौशल छुड़ा दिया। अब वे काम करने के बजाय राशन की दुकान से मिलने वाले अनाज का इंतजार करते रहते हैं। राशन की दुकानों से भी उन्हें गेहूं और चावल ही मिलता है, जो उनकी आवश्यकता से कम होता है। ऐसे में उन्हें पूरा पोषण नहीं मिल पाता। घर की महिला भी ऐसे में कुपोषण का शिकार होती है और वह अपने बच्चे को भी पोषण नहीं दे पाती।

छोटा-मोटा काम करके इन आदिवासियों को जो पैसा मिलता है, वे उसे अपने शौक पर खर्च करते हैं। सिनेमा, टेलीविजन के प्रभाव के साथ-साथ वे अन्य जाति या समुदाय के लोगों की तरह दिखना चाहते हैं और वैसा ही खाना चाहते हैं। बाजार में होटलों पर मिलने वाले खाद्य पदार्थ अब उनकी जीवनशैली में शामिल हो गए हैं। यही वजह है कि उन्हें वर्तमान में पोषणयुक्त भोजन नहीं मिल पा रहा है।

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