नदियों से लोक आस्था का गहरा नाता है। वे जीवनदायिनी है, सभ्यता और संस्कृति के सभी बदलाव इन्हीं के इर्द-गिर्द हुए हैं। लेकिन आज जब देश तरक्की के नए सोपान गढ़ रहा है, नदियां विषाक्त होने लगी हैं, उनके स्रोत संकुचित हो गए हैं। यमुना को बचाने के लिए साधु-संतों और किसानों ने दिल्ली में धरना दिया। उधर गोमती का दर्द जानने के लिए कुछ समाजसेवियों, वैज्ञानिकों और परिवर्तनकारी युवाओं ने यात्रा निकाली। पेश है यात्रा में साथ रहे युवा पत्रकार अजय शुक्ला की रिपोर्ट..
नदी का स्वाभाव है बहना पर लखनऊ में गोमती ठहरी-ठहरी सी दिखती है कल्पना थी कि जहां नदी का उद्गम है कम से कम वहां तो यह अविरल निर्मल धारा के रूप में बहती होगी। इसने ललक पैदा की कि झलक देखूं।...लेकिन माधौ टाण्डा पहुंच कर इस कल्पना को सदमा लगा।
हम लोग यहां एक ठाकुरद्वारा में रुके थे। सुबह उठकर सैर और कुछ स्थानीय लोगों से बातचीत के इरादे से कस्बे में घूम रहा था। मेरा सहज जिज्ञासा भरा सवाल था- ‘भैया गोमती कहां से निकली हैं? मैं दिशा जानने की अपेक्षा कर रहा था पर, लोगों के जवाब जिज्ञासा बढ़ाते जा रहे थे। इंटर के एक छात्र पवन ने बताया ‘बब्बू के खेत निकली है।’’ बुजुर्ग सुखमा और अधेड़ शंकर ने कहा- छंगाताल और धोबिया ताल से।‘’ मैं गोमत ताल सुनता आया था। सो भरोसा नहीं कर पा रहा था। डॉ. वेंकटेश रास्ते में चर्चा कर चुके थे कि सौ साल पहले की सैटेलाइट तस्वीरों में गोमती घने जंगलों के बीच से निकलती दिखती है। यही बात जब शंकर को बताई तो उसने माधौ टाण्डा में जंगलों को काटकर संगठित रूप से लकड़ी का अवैध कारोबार होने की पूरी कथा सुना दी। दलितों की अच्छी खासी आबादी वाले इस कस्बे में उच्च वर्ग की प्रभावशाली जाति विशेष के लोगों ने जंगलों को अपनी बपौती की तरह इस्तेमाल किया और जिसके पास जरा भी ताकत है वह भी ऐसे ही कर रहा है। आजादी के बाद विभिन्न योजनाओं के तहत भूमिहीनों को जो जमीन दी गई उस पर भी वास्तविक कब्जा इन्हीं लोगों का है।
कस्बे के बाहर कंचनपुलिया पड़ती है। पुलिया के एक छोर पर गोमती द्वार है जहां से 100 मीटर आगे जाने पर शंकर जी का मंदिर और गोमत ताल (फुलहर झील अब इसे कोई नहीं कहता) पड़ता है। पुलिया के दूसरे छोर को स्थानीय लोग कंचनपुलिया ताल के नाम से जानते हैं। यहां जगन्नाथ और रामचंद्र कश्यप ने बताया कि गोमत ताल में तो गोमती प्रकट हुई लेकिन मूल उद्गम हिमालय की तलहटी में काफी पहले हैं। मूल उद्गम से गोमत ताल तक गोमती के रास्ते में करीब सौ ताल पड़ते थे लेकिन, अब बमुश्किल आधा दर्जन रह गए हैं। छंगा, धोबिया, चमरहिया, कंचनपुलिया और गोमत ताल। तालाबों के बीच झील की कड़ी बनती थी लेकिन अब सब खेतों में बदल चुके हैं। छंगा ताल और धोबिया ताल पुश्तों से निजी प्रापर्टी हैं, जिसे आज भी बहुत से लोग गोमती का उद्गम मानते हैं।
जगन्नाथ बात को एक किंवदंती सुनाकर स्पष्ट करते हैं - बहुत पहले गोमत ताल के किनारे भक्त दुर्गादास रहते थे। वह रोज सुबह कई मील पैदल चलकर गोमती की धारा में स्नान करने जाते। अवस्था अधिक होने पर जब वह कमजोर हो गए तो गोमा मैया ने प्रकट होकर उनसे कहा कि अब तुम्हारी उम्र हो गई है, यहां मत आया करो। जो भी इच्छा हो, कहो मैं पूरी कर दूंगी। दुर्गादास ने कहा, बस एक ही इच्छा है कि रोज सुबह आपके दर्शन हों। गोमा मैया ने कहा ठीक है पर तुम यहां नहीं आओगे बल्कि मैं ही तुम्हारी पास आ जाऊंगी। अगले दिन गोमा भक्त दुर्गादास की बताई दिशा में आश्रम खोजते हुए जमीन के भीतर ही भीतर चल दी। बीच-बीच में वह सिर उठाकर देखती जातीं, आश्रम आया कि नहीं। जहां-जहां वह सिर उठाती वहां-वहां तालाब नजर आने लगा। गोमत ताल पहुंचकर वह जलस्रोत के रूप में प्रकट हुई और उनकी अविरल धारा ने पहले झील और फिर आगे चलकर नदी का रूप ले लिया। डॉ. वेंकटेश भी इसकी पुष्टि करते हैं। कहते हैं गोमती हिमालय से ही आंतरिक जलधारा के रूप में निकली हैं। तराई में होने के कारण माधौ टाण्डा में भूजल स्रोत महज पांच-सात फुट नीचे भी मिल जाते हैं। जहां स्रोत काफी ऊपर हैं वहां यह छोटी ताल- तलैया के रूप में दिखाई देती हैं। लोगों ने मिट्टी से पटाई और नदी के लिए नाली बराबर जगह छोड़कर खेत बना लिए हैं। जमीन इतनी उपजाऊ है कि बिना खाद पानी के फसल लहलहाती है। बरसात छोड़ बाकी महीनों में यहां नदी दिखती ही नहीं। अवैध कब्जों ने ही नदी को सर्पाकार रूप दे दिया है पर जब बारिश में नदी अपने यौवन पर आती है हर तरफ फुफकारती चलती है और मीलों पानी ही पानी नजर आता है।
भारत-पाक विभाजन और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बाद आए शर्णार्थियों को नदी व जंगल से लगती सामुदायिक भूमि पर जमीन देकर बसाया गया था। कुछ जमीन इन्हें खेती के लिए भी दी गई थी धीरे-धीरे यह थोड़ी जमीन बड़े रकबे में तब्दील हो गई। साल दर साल नदी का सीना छील कर उसमें मिट्टी भी जाती रही। नदी कभी इधर धकेली जाती, कभी उधर। इस धींगामुश्ती में वह सर्पाकार बन गई। गोमती के प्रति स्थानीय लोगों की निराशा और उदासीनता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जितने भी लोगों से बात हुई किसी ने इसे गोमती झील कहा, किसी ने नाला और किसी ने नाली। कई जगह तो नदी की पहचान ही मुश्किल से हुई। माधौ टाण्डा से 17-20 किमी दूर नवदिया सुल्तानपुर तक गोमती के बारे में यही देखा सुना पर उसे बहते कहीं नहीं देखा। यह स्थिति कमोबेस आगे एकोत्तरनाथ मंदिर तक है। इससे एक सोच उभरती है कि लखनऊ में हम गोमती को लेकर जिस तरह की चिंता करते हैं उस तरह की चिंता से गोमती का एक नदी के रूप में उद्धार संभव नहीं। चाहे कितने भी एक्शन प्लान बनें। अध्ययन दल का नेतृत्व कर रहे डॉ. वेंकटेश दत्ता ने जीपीएस के जरिए मैपिंग कर पाया कि माधौ टाण्डा फुलहर झील से एकोत्तर नाथ मंदिर तक (सीधी रेखा में 24 किलोमीटर तक) गोमती लुप्त हो गई है। अवैध कब्जों, वनों की कटाई और नदी की सफाई न होने के कारण नदी कहीं-कहीं तालाब के रूप में दिखती है और कहीं गहरी खंती के रूप में।
एकोत्तर नाथ के पास घना जंगल है। यह स्थान पीलीभीत में शाहजहांपुर की सीमा पर स्थित है। एकोत्तर नाथ में अनुकूल वनक्षेत्र मिलने के कारण गोमती में भूगर्भ जलस्रोत से पानी बढ़ता है। वनयुक्त तालाब से होकर यह बंडा शाहजहांपुर में सुनासिर नाथ के पास गड़ाई सांडा पहुंचती है। अध्ययन दल ने सुनासिर नाथ में पहली बार नदी में प्रवाह महसूस किया जो 75 एमएलडी रिकॉर्ड किया। गड़ाई सांडा से तीन किमी पहले बिजोरिया के पास सहायक नदी झुकना गोमती में मिलती है। इसका प्रवाह 100 से 125 एमएलडी है। यह नदी शहरामऊ उत्तरी ब्लाक में मातिन गांव के घनोधर तालाब से निकलती है। गोमती में मिलने से पहले तक झुकना के जल में ऑक्सीजन की मात्रा काफी अच्छी है। लखनऊ से पहले सिधौली (सीतापुर) में सरायन गोमती में मिलती है। सरायन में इससे पहले गोन मिलती है। एकोत्तरनाथ से लेकर लखनऊ तक गोमती में जगह-जगह पानी, प्रवाह और शुद्ध हवा बढ़ती दिखाई देती है। इसकी वजह सहायक नदियां हैं। गोमती को कच्छप वाहिनी कहा जाता है पर गोमत ताल के बाद कछुए नदी में यदा कदा ही मिलते हैं। मछलियां पूरे नदी मार्ग में हैं। कहीं कम और कहीं ज्यादा।
कहते हैं कि लखीमपुर सीतापुर में स्थित मिलों के गंदले जहरीले पानी ने नदी की जैव विविधता को काफी नुकसान पहुंचाया। पर वह पूरा सच नहीं है। अक्सर गोमती में मछलियां मरने की खबरें आती हैं तो इन्हीं मिलों की तरफ शक की सुई उठती है। बात पूरी तरह गलत नहीं पर मछलियों को मिलों के जहरीले पानी से ज्यादा आदमी का लालच मार रहा है। रास्ते में कई जगह लोग नदी के छिछले पानी में मेड़बंदी कर मछली मारते दिखे तो कई लोग चोरी छिपे नदी में खेतों के पास नजर आए। इनसे बात करने की कोशिश की तो न केवल इनके हावभाव संदेहास्पद दिखे बल्कि कुछ तो नाम पूछने पर थोड़ी देर में ही गायब हो गए। लखीमपुर के रवींद्रनगर में चारू विश्वास और अन्य स्थानीय लोगों ने बताया कि लालच में आकर कुछ लोग नदी में दवा डाल देते हैं ताकि मछलियां मरकर उतराने लगे। फिर इन्हें बिना मेहनत के बटोरकर बाजार में बेच लेते हैं। यात्रा के संयोजक और सीडीआरआई के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. नरेंद्र मेहरोत्रा ने बताया कि मछलियों को मारने में इंडोसल्फान नाम की दवा का प्रयोग होता है। यह दवा मछलियों के साथ नदी के अन्य जलीय जीवों की भी जान ले लेती है। जो लोग यह मछलियां खाते हैं उन्हें भी भुगतना पड़ जाता है। इंडोसल्फान के इफेक्ट से मछली खाने वालों की नसें कमजोर हो जाती हैं और दूसरी कई तरह की बीमारियां लग जाती हैं।
लखनऊ से आगे गोमती सहमी-सहमी और सिसकती नजर आई। लखनऊ में गऊघाट पर पहुंचते ही आबादी नदी का अपहरण करती नजर आती है। यहां बांध बनाकर प्रवाह रोक लिया गया है। माधौ टाण्डा से यहां तक नदी जो जल सहायक नदियों और भूगर्भ से उधार लेकर आती है उस पर आबादी अकस्मात मालिकाना हक का दावा कर देती है। शहर के बीचोबीच नदी अपने अस्तित्व के लिए मानव मल, गंदगी कबाड़ जैविक कचरा, जहरीला प्लास्टिक समेटे नदी में गिरते नालों के रहमो करम पर निर्भर दिखी। एसटीपी की योजना अभी असर नहीं दिखा पा रही। लखनऊ से थोड़ा आगे करीब 20 किमी दूरी पर राजा कोठी (सलेमपुर) में सहायक नदी लोनी गोमती को सांस लेने का बहाना देती है। लोनी नगराम रोड पर शारदा सहायक इंदिरा कैनाल से पानी लेकर गोमती में पहुंचाती है। डॉ. वेंकटेश कहते हैं, लखनऊ में एक तो बैराज बनाकर पानी को ठहराव दे दिया गया है। दूसरे नालों का बिना ट्रीटमेंट किया पानी नदी में छोड़ा जा रहा है। इससे अब तक हजारों ट्रक कूड़ा नदी तल में समा चुका है। प्राकृतिक जल स्रोत कूड़े में दब गए हैं और ठहरा हुआ पानी नालों को समेटकर और भी गंदा हो रहा है। लखनऊ 22 नाले गोमती में गंदगी घोल रहे हैं। यही हाल सुल्तानपुर में है। यहां पांच नाले सीधे गोमती में कचरा उड़ेल रहे हैं। माधौ टाण्डा (पीलीभीत) से सुल्तानपुर तक आठ जिलों में पूरी नदी में सबसे ज्यादा प्रदूषण लखनऊ और सुल्तानपुर में ही है। इसकी बड़ी वजह नाले हैं। नदी में घुलनशील ऑक्सीजन सबसे कम लखनऊ में ही है। यही वजह है कि मछलियां व अन्य जलीय जीव यहां न के बराबर जिंदगी पा रहे हैं। लखनऊ में गोमती में जो प्रदूषण है उसमें 20 फीसदी हिस्सा सीतापुर और बाकी अस्सी फीसदी यहां के नालों की वजह से है।
लखनऊ-सुल्तानपुर में शहरी आबादी की सीमा से निकलने के बाद कई जगह नदी सांस लेती दिखती है लेकिन जौनपुर पहुंचते ही लगता है कि यहां नदी जल्दी से आबादी की नजर बचाकर गंगा जी में विलीन हो जाना चाहती हो। जौनपुर में नदी का आबादी से गजब रिश्ता देखने को मिला। सुबह हनुमान घाट पहुंचने के लिए हम लोग संकरी गलियों से गुजर रहे थे। सामने कुछ बच्चे नाली के कीचड़ को छानते नजर आए। रुककर एक बच्चे गुफरान से पूछा तो पता चला कि वह कीचड़ में चांदी व अन्य धातुओं के टुकड़े खंगाल रहा है। अन्य लोगों को लगा कि हम लोग सरकारी अमले से हैं तो लोगों ने सीवरनाली की समस्या बतानी शुरू कर दी। घाट पर पहुंचे तो पक्का, डिजाइनदार, प्राचीन घाट देखकर पूर्वजों पर फक्र महसूस हुआ। जौनपुर वह पहला शहर है जहां गोमती बहुत पहले से शहर के बीचोंबीच से होकर बहती रही हैं। अगर कहा जाए कि जिस बड़ी आबादी का गोमती से सबसे पुराना और सबसे नज़दीकी रिश्ता है तो वह जौनपुर का है। लखनऊ और सुल्तानपुर में शहर के बीच आबादी के विस्तार के साथ हाल के बमुश्किल 50 सालों में आई है। हनुमान घाट जो शाही पुल मौजूद है उसके बारे में कुछ लोगों का कहना है कि अकबर ने और कुछ का कहना है कि शेरशाह सूरी ने बनवाया था। पर, इस गौरव की छाया में जो वर्तमान दिखा वह कतई खूबसूरत नहीं कहा जा सकता। घाट से लगते ऊंचे मकान दिखे जहां से लोग घरेलू कूड़ा नदी में सीधे फेंक देते हैं। नालियों के कीचड़ से लोग कीमती धातुएं तो बीन लेते हैं लेकिन मल-मूत्र जूते-चप्पल, प्लास्टिक सब सीधे नालों के जरिए नदी में जाता है। कुछ लोगों ने तो यह भी बताया कि नई कॉलोनी (तूतीपुर) का नाला सुबह लाल दिखता है। यहां नाले के किनारे भैंसे कटते हैं और उनका खून और छिछड़े बहकर सीधे नदी में जाता है। सुबह सबेरे घाट पर अजब नजारा था। कुछ लोग नदी किनारे शौच कर रहे, नदी में मल साफ कर रहे थे तो इसी के बमुश्किल 10-20 मीटर की दूरी पर लोग नहा रहे थे और इससे कुछ ही दूरी पर पूजा के लिए जल भर रहे थे। जौनपुर शहर से निकलने के बाद नदी एक बार फिर सांस लेती दिखी।
लखनऊ में ठहराव है पर यहां पानी में प्रवाह मिला इसलिए प्रदूषण आगे वह जाता है। जमैथा के पास नदी फिर बेहतर स्थिति में आती है। उसका फैलाव बढ़ जाता है। हरदोई से निकली सई नदी यहां अपनी गंदगी के साथ मिलती पर बेगवान गोमती सबकुछ खुद में समेटे गंगा से मिलने को उतावली कैथी की तरफ भागती है। कैथी पहुंचते ही गोमती एक तरह की निश्चिंतता ओढ़कर तमाम अपकार करने वाले अपने पुत्रों (मानवों) को आखिरी उपहार देती है।
लोकभारती के संगठन सचिव बृजेंद्र पाल सिंह का मानना है कि गोमती का एक नदी के रूप में गौरव जनजागरण और सघन वृक्षारोपण के जरिए ही वापस लौटना संभव है। नदी के निकट अनेक मंदिर और घाट हैं जहां स्नान पर्वों और मेलों पर हजारों लोगों की भीड़ जुटती है। इन्हें गोमती मित्र मंडल के जरिए जागरूक किया जा सकता है।
गोमती नदी साल भर पानी के लिए तरसती रहती है और बरसात में उफनाकर तबाही मचाती है। अगर जलग्रहण क्षेत्र में तालाब, पोखरों और झीलों का निर्माण कराकर बरसाती पानी रोका जाए तो बेहतर बदलाव आ सकता है। तबाही भी कम होगी और भूगर्भ जलस्रोत भी साल भर रिचार्ज रहेंगे। इसमें ग्राम प्रधानों और मनरेगा की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। इसमें कोई अतिरिक्त खर्च भी नहीं होगा। सिर्फ मनरेगा के तहत योजना के चयन में नदी का पहलू भी शामिल करना होगा।
विनोबा सेवा आश्रम के निदेशक और विनोबा भावे के निकट शिष्ट रमेश भैया कहते हैं कि नदी पर अवैध कब्जे हटवाने के लिए भूदान जैसा आंदोलन चलाना होगा ताकि लोग स्वयं कब्जे छोड़ दें लेकिन उसके पहले जहां नदी अवैध कब्जों और गाद भरने के कारण खो गई है वहां पंजाब के संत बलबीर सिंह सींचेवाल की तरह स्वयं जुटकर नदी को साफ करना होगा। सींचेवाल ने इसी तरह से कालीबेई नदी के 160 किमी क्षेत्र का पुनरोद्धार कर आज खूबसूरत पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर दिखाया। अब उनका सरकार भी सहयोग कर रही है। गोमती नदी के मामले में भी यही मॉडल कारगर होगा।
नदी का स्वाभाव है बहना पर लखनऊ में गोमती ठहरी-ठहरी सी दिखती है कल्पना थी कि जहां नदी का उद्गम है कम से कम वहां तो यह अविरल निर्मल धारा के रूप में बहती होगी। इसने ललक पैदा की कि झलक देखूं।...लेकिन माधौ टाण्डा पहुंच कर इस कल्पना को सदमा लगा।
हम लोग यहां एक ठाकुरद्वारा में रुके थे। सुबह उठकर सैर और कुछ स्थानीय लोगों से बातचीत के इरादे से कस्बे में घूम रहा था। मेरा सहज जिज्ञासा भरा सवाल था- ‘भैया गोमती कहां से निकली हैं? मैं दिशा जानने की अपेक्षा कर रहा था पर, लोगों के जवाब जिज्ञासा बढ़ाते जा रहे थे। इंटर के एक छात्र पवन ने बताया ‘बब्बू के खेत निकली है।’’ बुजुर्ग सुखमा और अधेड़ शंकर ने कहा- छंगाताल और धोबिया ताल से।‘’ मैं गोमत ताल सुनता आया था। सो भरोसा नहीं कर पा रहा था। डॉ. वेंकटेश रास्ते में चर्चा कर चुके थे कि सौ साल पहले की सैटेलाइट तस्वीरों में गोमती घने जंगलों के बीच से निकलती दिखती है। यही बात जब शंकर को बताई तो उसने माधौ टाण्डा में जंगलों को काटकर संगठित रूप से लकड़ी का अवैध कारोबार होने की पूरी कथा सुना दी। दलितों की अच्छी खासी आबादी वाले इस कस्बे में उच्च वर्ग की प्रभावशाली जाति विशेष के लोगों ने जंगलों को अपनी बपौती की तरह इस्तेमाल किया और जिसके पास जरा भी ताकत है वह भी ऐसे ही कर रहा है। आजादी के बाद विभिन्न योजनाओं के तहत भूमिहीनों को जो जमीन दी गई उस पर भी वास्तविक कब्जा इन्हीं लोगों का है।
कस्बे के बाहर कंचनपुलिया पड़ती है। पुलिया के एक छोर पर गोमती द्वार है जहां से 100 मीटर आगे जाने पर शंकर जी का मंदिर और गोमत ताल (फुलहर झील अब इसे कोई नहीं कहता) पड़ता है। पुलिया के दूसरे छोर को स्थानीय लोग कंचनपुलिया ताल के नाम से जानते हैं। यहां जगन्नाथ और रामचंद्र कश्यप ने बताया कि गोमत ताल में तो गोमती प्रकट हुई लेकिन मूल उद्गम हिमालय की तलहटी में काफी पहले हैं। मूल उद्गम से गोमत ताल तक गोमती के रास्ते में करीब सौ ताल पड़ते थे लेकिन, अब बमुश्किल आधा दर्जन रह गए हैं। छंगा, धोबिया, चमरहिया, कंचनपुलिया और गोमत ताल। तालाबों के बीच झील की कड़ी बनती थी लेकिन अब सब खेतों में बदल चुके हैं। छंगा ताल और धोबिया ताल पुश्तों से निजी प्रापर्टी हैं, जिसे आज भी बहुत से लोग गोमती का उद्गम मानते हैं।
जगन्नाथ बात को एक किंवदंती सुनाकर स्पष्ट करते हैं - बहुत पहले गोमत ताल के किनारे भक्त दुर्गादास रहते थे। वह रोज सुबह कई मील पैदल चलकर गोमती की धारा में स्नान करने जाते। अवस्था अधिक होने पर जब वह कमजोर हो गए तो गोमा मैया ने प्रकट होकर उनसे कहा कि अब तुम्हारी उम्र हो गई है, यहां मत आया करो। जो भी इच्छा हो, कहो मैं पूरी कर दूंगी। दुर्गादास ने कहा, बस एक ही इच्छा है कि रोज सुबह आपके दर्शन हों। गोमा मैया ने कहा ठीक है पर तुम यहां नहीं आओगे बल्कि मैं ही तुम्हारी पास आ जाऊंगी। अगले दिन गोमा भक्त दुर्गादास की बताई दिशा में आश्रम खोजते हुए जमीन के भीतर ही भीतर चल दी। बीच-बीच में वह सिर उठाकर देखती जातीं, आश्रम आया कि नहीं। जहां-जहां वह सिर उठाती वहां-वहां तालाब नजर आने लगा। गोमत ताल पहुंचकर वह जलस्रोत के रूप में प्रकट हुई और उनकी अविरल धारा ने पहले झील और फिर आगे चलकर नदी का रूप ले लिया। डॉ. वेंकटेश भी इसकी पुष्टि करते हैं। कहते हैं गोमती हिमालय से ही आंतरिक जलधारा के रूप में निकली हैं। तराई में होने के कारण माधौ टाण्डा में भूजल स्रोत महज पांच-सात फुट नीचे भी मिल जाते हैं। जहां स्रोत काफी ऊपर हैं वहां यह छोटी ताल- तलैया के रूप में दिखाई देती हैं। लोगों ने मिट्टी से पटाई और नदी के लिए नाली बराबर जगह छोड़कर खेत बना लिए हैं। जमीन इतनी उपजाऊ है कि बिना खाद पानी के फसल लहलहाती है। बरसात छोड़ बाकी महीनों में यहां नदी दिखती ही नहीं। अवैध कब्जों ने ही नदी को सर्पाकार रूप दे दिया है पर जब बारिश में नदी अपने यौवन पर आती है हर तरफ फुफकारती चलती है और मीलों पानी ही पानी नजर आता है।
भारत-पाक विभाजन और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बाद आए शर्णार्थियों को नदी व जंगल से लगती सामुदायिक भूमि पर जमीन देकर बसाया गया था। कुछ जमीन इन्हें खेती के लिए भी दी गई थी धीरे-धीरे यह थोड़ी जमीन बड़े रकबे में तब्दील हो गई। साल दर साल नदी का सीना छील कर उसमें मिट्टी भी जाती रही। नदी कभी इधर धकेली जाती, कभी उधर। इस धींगामुश्ती में वह सर्पाकार बन गई। गोमती के प्रति स्थानीय लोगों की निराशा और उदासीनता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जितने भी लोगों से बात हुई किसी ने इसे गोमती झील कहा, किसी ने नाला और किसी ने नाली। कई जगह तो नदी की पहचान ही मुश्किल से हुई। माधौ टाण्डा से 17-20 किमी दूर नवदिया सुल्तानपुर तक गोमती के बारे में यही देखा सुना पर उसे बहते कहीं नहीं देखा। यह स्थिति कमोबेस आगे एकोत्तरनाथ मंदिर तक है। इससे एक सोच उभरती है कि लखनऊ में हम गोमती को लेकर जिस तरह की चिंता करते हैं उस तरह की चिंता से गोमती का एक नदी के रूप में उद्धार संभव नहीं। चाहे कितने भी एक्शन प्लान बनें। अध्ययन दल का नेतृत्व कर रहे डॉ. वेंकटेश दत्ता ने जीपीएस के जरिए मैपिंग कर पाया कि माधौ टाण्डा फुलहर झील से एकोत्तर नाथ मंदिर तक (सीधी रेखा में 24 किलोमीटर तक) गोमती लुप्त हो गई है। अवैध कब्जों, वनों की कटाई और नदी की सफाई न होने के कारण नदी कहीं-कहीं तालाब के रूप में दिखती है और कहीं गहरी खंती के रूप में।
एकोत्तरनाथ के बाद नदी के रूप में दिखी गोमती
एकोत्तर नाथ के पास घना जंगल है। यह स्थान पीलीभीत में शाहजहांपुर की सीमा पर स्थित है। एकोत्तर नाथ में अनुकूल वनक्षेत्र मिलने के कारण गोमती में भूगर्भ जलस्रोत से पानी बढ़ता है। वनयुक्त तालाब से होकर यह बंडा शाहजहांपुर में सुनासिर नाथ के पास गड़ाई सांडा पहुंचती है। अध्ययन दल ने सुनासिर नाथ में पहली बार नदी में प्रवाह महसूस किया जो 75 एमएलडी रिकॉर्ड किया। गड़ाई सांडा से तीन किमी पहले बिजोरिया के पास सहायक नदी झुकना गोमती में मिलती है। इसका प्रवाह 100 से 125 एमएलडी है। यह नदी शहरामऊ उत्तरी ब्लाक में मातिन गांव के घनोधर तालाब से निकलती है। गोमती में मिलने से पहले तक झुकना के जल में ऑक्सीजन की मात्रा काफी अच्छी है। लखनऊ से पहले सिधौली (सीतापुर) में सरायन गोमती में मिलती है। सरायन में इससे पहले गोन मिलती है। एकोत्तरनाथ से लेकर लखनऊ तक गोमती में जगह-जगह पानी, प्रवाह और शुद्ध हवा बढ़ती दिखाई देती है। इसकी वजह सहायक नदियां हैं। गोमती को कच्छप वाहिनी कहा जाता है पर गोमत ताल के बाद कछुए नदी में यदा कदा ही मिलते हैं। मछलियां पूरे नदी मार्ग में हैं। कहीं कम और कहीं ज्यादा।
कहते हैं कि लखीमपुर सीतापुर में स्थित मिलों के गंदले जहरीले पानी ने नदी की जैव विविधता को काफी नुकसान पहुंचाया। पर वह पूरा सच नहीं है। अक्सर गोमती में मछलियां मरने की खबरें आती हैं तो इन्हीं मिलों की तरफ शक की सुई उठती है। बात पूरी तरह गलत नहीं पर मछलियों को मिलों के जहरीले पानी से ज्यादा आदमी का लालच मार रहा है। रास्ते में कई जगह लोग नदी के छिछले पानी में मेड़बंदी कर मछली मारते दिखे तो कई लोग चोरी छिपे नदी में खेतों के पास नजर आए। इनसे बात करने की कोशिश की तो न केवल इनके हावभाव संदेहास्पद दिखे बल्कि कुछ तो नाम पूछने पर थोड़ी देर में ही गायब हो गए। लखीमपुर के रवींद्रनगर में चारू विश्वास और अन्य स्थानीय लोगों ने बताया कि लालच में आकर कुछ लोग नदी में दवा डाल देते हैं ताकि मछलियां मरकर उतराने लगे। फिर इन्हें बिना मेहनत के बटोरकर बाजार में बेच लेते हैं। यात्रा के संयोजक और सीडीआरआई के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. नरेंद्र मेहरोत्रा ने बताया कि मछलियों को मारने में इंडोसल्फान नाम की दवा का प्रयोग होता है। यह दवा मछलियों के साथ नदी के अन्य जलीय जीवों की भी जान ले लेती है। जो लोग यह मछलियां खाते हैं उन्हें भी भुगतना पड़ जाता है। इंडोसल्फान के इफेक्ट से मछली खाने वालों की नसें कमजोर हो जाती हैं और दूसरी कई तरह की बीमारियां लग जाती हैं।
शहरों में सिसकती दिखी गोमती
लखनऊ से आगे गोमती सहमी-सहमी और सिसकती नजर आई। लखनऊ में गऊघाट पर पहुंचते ही आबादी नदी का अपहरण करती नजर आती है। यहां बांध बनाकर प्रवाह रोक लिया गया है। माधौ टाण्डा से यहां तक नदी जो जल सहायक नदियों और भूगर्भ से उधार लेकर आती है उस पर आबादी अकस्मात मालिकाना हक का दावा कर देती है। शहर के बीचोबीच नदी अपने अस्तित्व के लिए मानव मल, गंदगी कबाड़ जैविक कचरा, जहरीला प्लास्टिक समेटे नदी में गिरते नालों के रहमो करम पर निर्भर दिखी। एसटीपी की योजना अभी असर नहीं दिखा पा रही। लखनऊ से थोड़ा आगे करीब 20 किमी दूरी पर राजा कोठी (सलेमपुर) में सहायक नदी लोनी गोमती को सांस लेने का बहाना देती है। लोनी नगराम रोड पर शारदा सहायक इंदिरा कैनाल से पानी लेकर गोमती में पहुंचाती है। डॉ. वेंकटेश कहते हैं, लखनऊ में एक तो बैराज बनाकर पानी को ठहराव दे दिया गया है। दूसरे नालों का बिना ट्रीटमेंट किया पानी नदी में छोड़ा जा रहा है। इससे अब तक हजारों ट्रक कूड़ा नदी तल में समा चुका है। प्राकृतिक जल स्रोत कूड़े में दब गए हैं और ठहरा हुआ पानी नालों को समेटकर और भी गंदा हो रहा है। लखनऊ 22 नाले गोमती में गंदगी घोल रहे हैं। यही हाल सुल्तानपुर में है। यहां पांच नाले सीधे गोमती में कचरा उड़ेल रहे हैं। माधौ टाण्डा (पीलीभीत) से सुल्तानपुर तक आठ जिलों में पूरी नदी में सबसे ज्यादा प्रदूषण लखनऊ और सुल्तानपुर में ही है। इसकी बड़ी वजह नाले हैं। नदी में घुलनशील ऑक्सीजन सबसे कम लखनऊ में ही है। यही वजह है कि मछलियां व अन्य जलीय जीव यहां न के बराबर जिंदगी पा रहे हैं। लखनऊ में गोमती में जो प्रदूषण है उसमें 20 फीसदी हिस्सा सीतापुर और बाकी अस्सी फीसदी यहां के नालों की वजह से है।
लखनऊ-सुल्तानपुर में शहरी आबादी की सीमा से निकलने के बाद कई जगह नदी सांस लेती दिखती है लेकिन जौनपुर पहुंचते ही लगता है कि यहां नदी जल्दी से आबादी की नजर बचाकर गंगा जी में विलीन हो जाना चाहती हो। जौनपुर में नदी का आबादी से गजब रिश्ता देखने को मिला। सुबह हनुमान घाट पहुंचने के लिए हम लोग संकरी गलियों से गुजर रहे थे। सामने कुछ बच्चे नाली के कीचड़ को छानते नजर आए। रुककर एक बच्चे गुफरान से पूछा तो पता चला कि वह कीचड़ में चांदी व अन्य धातुओं के टुकड़े खंगाल रहा है। अन्य लोगों को लगा कि हम लोग सरकारी अमले से हैं तो लोगों ने सीवरनाली की समस्या बतानी शुरू कर दी। घाट पर पहुंचे तो पक्का, डिजाइनदार, प्राचीन घाट देखकर पूर्वजों पर फक्र महसूस हुआ। जौनपुर वह पहला शहर है जहां गोमती बहुत पहले से शहर के बीचोंबीच से होकर बहती रही हैं। अगर कहा जाए कि जिस बड़ी आबादी का गोमती से सबसे पुराना और सबसे नज़दीकी रिश्ता है तो वह जौनपुर का है। लखनऊ और सुल्तानपुर में शहर के बीच आबादी के विस्तार के साथ हाल के बमुश्किल 50 सालों में आई है। हनुमान घाट जो शाही पुल मौजूद है उसके बारे में कुछ लोगों का कहना है कि अकबर ने और कुछ का कहना है कि शेरशाह सूरी ने बनवाया था। पर, इस गौरव की छाया में जो वर्तमान दिखा वह कतई खूबसूरत नहीं कहा जा सकता। घाट से लगते ऊंचे मकान दिखे जहां से लोग घरेलू कूड़ा नदी में सीधे फेंक देते हैं। नालियों के कीचड़ से लोग कीमती धातुएं तो बीन लेते हैं लेकिन मल-मूत्र जूते-चप्पल, प्लास्टिक सब सीधे नालों के जरिए नदी में जाता है। कुछ लोगों ने तो यह भी बताया कि नई कॉलोनी (तूतीपुर) का नाला सुबह लाल दिखता है। यहां नाले के किनारे भैंसे कटते हैं और उनका खून और छिछड़े बहकर सीधे नदी में जाता है। सुबह सबेरे घाट पर अजब नजारा था। कुछ लोग नदी किनारे शौच कर रहे, नदी में मल साफ कर रहे थे तो इसी के बमुश्किल 10-20 मीटर की दूरी पर लोग नहा रहे थे और इससे कुछ ही दूरी पर पूजा के लिए जल भर रहे थे। जौनपुर शहर से निकलने के बाद नदी एक बार फिर सांस लेती दिखी।
लखनऊ में ठहराव है पर यहां पानी में प्रवाह मिला इसलिए प्रदूषण आगे वह जाता है। जमैथा के पास नदी फिर बेहतर स्थिति में आती है। उसका फैलाव बढ़ जाता है। हरदोई से निकली सई नदी यहां अपनी गंदगी के साथ मिलती पर बेगवान गोमती सबकुछ खुद में समेटे गंगा से मिलने को उतावली कैथी की तरफ भागती है। कैथी पहुंचते ही गोमती एक तरह की निश्चिंतता ओढ़कर तमाम अपकार करने वाले अपने पुत्रों (मानवों) को आखिरी उपहार देती है।
बातचीत
जनजागरण की अहम भूमिका बृजेंद्र पाल सिंह
लोकभारती के संगठन सचिव बृजेंद्र पाल सिंह का मानना है कि गोमती का एक नदी के रूप में गौरव जनजागरण और सघन वृक्षारोपण के जरिए ही वापस लौटना संभव है। नदी के निकट अनेक मंदिर और घाट हैं जहां स्नान पर्वों और मेलों पर हजारों लोगों की भीड़ जुटती है। इन्हें गोमती मित्र मंडल के जरिए जागरूक किया जा सकता है।
मनरेगा की भूमिका महत्वपूर्ण डॉ. नरेंद्र मेहरोत्रा
गोमती नदी साल भर पानी के लिए तरसती रहती है और बरसात में उफनाकर तबाही मचाती है। अगर जलग्रहण क्षेत्र में तालाब, पोखरों और झीलों का निर्माण कराकर बरसाती पानी रोका जाए तो बेहतर बदलाव आ सकता है। तबाही भी कम होगी और भूगर्भ जलस्रोत भी साल भर रिचार्ज रहेंगे। इसमें ग्राम प्रधानों और मनरेगा की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। इसमें कोई अतिरिक्त खर्च भी नहीं होगा। सिर्फ मनरेगा के तहत योजना के चयन में नदी का पहलू भी शामिल करना होगा।
पहले स्वयं फिर समाज और बाद में सरकार : रमेश भैया
विनोबा सेवा आश्रम के निदेशक और विनोबा भावे के निकट शिष्ट रमेश भैया कहते हैं कि नदी पर अवैध कब्जे हटवाने के लिए भूदान जैसा आंदोलन चलाना होगा ताकि लोग स्वयं कब्जे छोड़ दें लेकिन उसके पहले जहां नदी अवैध कब्जों और गाद भरने के कारण खो गई है वहां पंजाब के संत बलबीर सिंह सींचेवाल की तरह स्वयं जुटकर नदी को साफ करना होगा। सींचेवाल ने इसी तरह से कालीबेई नदी के 160 किमी क्षेत्र का पुनरोद्धार कर आज खूबसूरत पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर दिखाया। अब उनका सरकार भी सहयोग कर रही है। गोमती नदी के मामले में भी यही मॉडल कारगर होगा।
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