हिन्दुस्तान में अनगिनत नदियां है, इसलिए संगमों का भी कोई पार नहीं हैं। इन सभी संगमों में हमारे पुरखों ने गंगा-यमुना का यह संगम सबसे अधिक पसन्द किया है, और इसीलिए उसका ‘प्रयागराज’ जैसा गौरवपूर्ण नाम रखा है। हिन्दुस्तान में मुसलमानों के आने के बाद जिस प्रकार हिन्दुस्तान के इतिहास का रूप बदला, उसी प्रकार दिल्ली-आगरा और मथुरा-वृन्दावन के समीप से आते हुए यमुना के प्रवाह के कारण गंगा का स्वरूप भी प्रयाग के बाद बिलकुल बदल गया है। गंगा कुछ भी न करती, सिर्फ देवव्रत भीष्म को ही जन्म देती, तो भी आर्य-जाति की माता के तौर पर वह आज प्रख्यात होती। पितामह भीष्म की टेक, भीष्म की निःस्पृहता, भीष्म का ब्रह्मचर्य और भीष्म का तत्त्वज्ञान हमेशा के लिए आर्यजाति का आदरपात्र ध्येय बन चुका है। हम गंगा को आर्यसंस्कृति के ऐसे आधारस्तंभ महापुरुष की माता के रूप में पहचानते हैं।
नदी को यदि कोई उपमा शोभा देती है, तो वह माता की ही। नदी के किनारे पर रहने से अकाल का डर तो रहता ही नहीं। मेघराजा जब धोखा देते हैं तब नदी माता ही हमारी फसल पकाती है। नदी का किनारा यानी शुद्ध और शीतल हवा। नदी के किनारे-किनारे घूमने जायें तो प्रकृति के मातृवात्सल्य के अखंड प्रवाह का दर्शन होता है। नदी बड़ी हो और उसका प्रवाह धीरगंभीर हो, तब तो उसके किनारे पर रहनेवालों की शानशौकत उस नदी पर ही निर्भर करती है। सचमुच नदी जन समाज की माता है। नदी-किनारे बसे हुए शहर की गली-गली में घूमते समय एकाध कोने से नदी का दर्शन हो जाय, तो हमें कितना आनंद होता है! कहां शहर का वह गंदा वायुमंडल और कहां नदी का यह प्रसन्न दर्शन! दोनों के बीच का अंतर फौरन मालूम हो जाता है। नदी ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर का स्मरण कराने वाला देवता है। यदि गुरु को वंदन करना आवश्यक है तो नदी को भी वंदन करना उचित है।
यह तो हुई सामान्य नदी की बात। किन्तु गंगामैया तो आर्यजाति की माता है। आर्यों के बड़े-बड़े साम्राज्य इसी नदी के तट पर स्थापित हुए हैं। कुरु-पांचाल देश का अंगबंगादि देशों के साथ गंगा ने ही संयोग किया है। आज भी हिन्दुस्तान की आबादी गंगा के तट पर सबसे अधिक है।
जब हम गंगा का दर्शन करते हैं तब हमारे ध्यान में फसल से लहलहाते सिर्फ खेत ही नहीं आते, न सिर्फ माल से लदे जहाज ही आते हैं; किन्तु वाल्मिकी का काव्य, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक, समुद्रगुप्त या हर्ष जैसे सम्राटों के पराक्रम और तुलसीदास या कबीर जैसे संतजनों के भजन-इन सबका एक साथ स्मरण हो आता है। गंगा का दर्शन तो शैत्य-पावनत्व का हार्दिक तथा प्रत्यक्ष दर्शन है।
किन्तु गंगा के दर्शन का एक ही प्रकार नहीं है। गंगोत्री के पास के हिमाच्छादित प्रदेशों में इसका खिलाड़ी कन्यारूप, उत्तरकाशी की ओर चीड़-देवदार के काव्यमय प्रदेश में मुग्धारूप, देवप्रयाग के पहाड़ी और संकरे प्रदेश में चमकीली अलकनंदा के साथ उसकी अठखेलियां, लक्ष्मण झूले की विकराल दंष्ट्रा में से छूटने के बाद हरिद्वार के पास उसका अनेक धाराओं में स्वच्छंद विहार, कानपुर से सटकर जाता हुआ उसका इतिहास-प्रसिद्ध प्रवाह, प्रयाग के विशाल पट पर हुआ उसका कालिन्दी के साथ का त्रिवेणी संगम-हरेक की शोभा कुछ निराली ही है। एक दृश्य देखने पर दूसरे की कल्पना नहीं हो सकती। हरेक का सौंदर्य अलग, हरेक का भाव अलग, हरेक का वातावरण अलग, हरेक का माहात्म्य अलग।
प्रयाग से गंगा अलग ही स्वरूप धारण कर लेती है। गंगोत्री से लेकर प्रयाग तक की गंगा वर्धमान होते हुए भी एक रूप मानी जा सकती है। किन्तु प्रयाग के पास उससे यमुना आकर मिलती है। यमुना का तो पहले से ही दोहरा पाट है। वह खेलती है, कूदती है, किन्तु क्रिड़ा-सक्त नहीं मालूम होती। गंगा शकुंतला जैसी तपस्वी कन्या दीखती है। काली यमुना द्रौपदी जैसी मानिनी राजकन्या मालूम होती है। शर्मिष्ठा और देवयानी की कथा जब हम सुनते हैं, तब भी प्रयाग के पास गंगा और यमुना के बड़ी कठिनाई के साथ मिलते हुए शुक्ल-कृष्ण प्रवाहों का स्मरण हो आता है। हिन्दुस्तान में अनगिनत नदियां है, इसलिए संगमों का भी कोई पार नहीं हैं। इन सभी संगमों में हमारे पुरखों ने गंगा-यमुना का यह संगम सबसे अधिक पसन्द किया है, और इसीलिए उसका ‘प्रयागराज’ जैसा गौरवपूर्ण नाम रखा है। हिन्दुस्तान में मुसलमानों के आने के बाद जिस प्रकार हिन्दुस्तान के इतिहास का रूप बदला, उसी प्रकार दिल्ली-आगरा और मथुरा-वृन्दावन के समीप से आते हुए यमुना के प्रवाह के कारण गंगा का स्वरूप भी प्रयाग के बाद बिलकुल बदल गया है।
प्रयाग के बाद गंगा कुलवधू की तरह गंभीर और सौभाग्यवती दीखती है। इसके बाद उसमें बड़ी-बड़ी नदीयां मिलती जाती है। यमुना का जल मथुरा-वृन्दावन से श्रीकृष्ण के संस्मरण अर्पण करता है, जब की अयोध्या होकर आनेवाली सरयू आदर्श राजा रामचंद्र के प्रतापी किन्तु करुण जीवन की स्मृतियां लाती है। दक्षिण की ओर से आने वाली चंबल नदी रंतिदेव के यज्ञयाग की बाते करती है, जब कि महान कोलाहल करता हुआ शोणभद्र गजग्राह के दारुण द्वंद्व-युद्ध की झांकी कराता है। इस प्रकार हृष्ट-पुष्ट बनी हुई गंगा पाटलीपुत्र के पास मगध साम्राज्य जैसी विस्तीर्ण हो जाती है। फिर भी गंडकी अपना अमूल्य करभार लेते हुए हिचकिचाई नहीं। जनक और अशोक की, बुद्ध और महावीर की प्राचीन भूमि से निकल कर आगे बढ़ते समय गंगा मानो सोच में पड़ जाती है कि अब कहां जाना चाहिये। जब इतनी प्रचंड वारिराशि अपने अमोघ वेग से पूर्व की ओर बह रही हो, तब उसे दक्षिण की ओर मोड़ना क्या कोई आसान बात है? फिर भी वह उस ओर मुड़ गई है सही। दो सम्राट या दो जगद्गुरु जैसे एकाएक एक-दूसरे से नहीं मिलते, वैसा ही गंगा और ब्रह्मपुत्रा का हाल है। ब्रह्मपुत्रा हिमालय के उस पार का सारा पानी लेकर आसाम से होती हुई पश्चिम की ओर आती है और गंगा इस ओर से पूर्व की ओर बढ़ती है। उनकी आमने-सामने भेंट कैसे हो? कौन किसके सामने पहले झुके? कौन किसे पहले रास्ता दे? अंत में दोनों ने तय कि दोनों को दाक्षिण्य धारण कर सरित्पति के दर्शन के लिए जाना चाहिये और भक्ति-नम्र होकर, जाते-जाते जहां संभव हो, रास्ते में एक-दूसरे से मिल लेना चाहिये।
इस प्रकार गोआलंदो के पास जब गंगा और ब्रह्मपुत्रा का विशाल जल आकर मिलता है तब मन में संदेह पैदा होता है कि सागर और क्या होता होगा? विजय प्राप्त करने के बाद कसी हुई खड़ी सेना भी जिस प्रकार अव्यवस्थित हो जाती है और विजयी वीर मन में आये वैसे जहां तहां घूमते हैं, उसी प्रकार का हाल इसके बाद इन दो महान नदियों का होता है। अनेक मुखों द्वारा वे सागर में जाकर मिलती है। हरेक प्रवाह का नाम अलग-अलग है और कुछ प्रवाहों के तो एक से भी अधिक नाम हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्रा एक होकर पद्मा का नाम धारण करती हैं। यही आगे जाकर मेघना के नाम से पुकारी जाती है।
यह अनेकमुखी गंगा कहां जाती है? सुन्दरवन में बेंत के झुंड उगाने? या सगर-पुत्रों की वासना को तृप्त कर उनका उद्धार करने? आज जाकर आप देंखेगे तो यहां पुराने काव्य का कुछ भी शेष नहीं होगा। जहां देखों वहां पटसन की बोरियां बनाने वाली मिलें और ऐसे ही दूसरे बेहूदे विश्री कल-कारखाने दीख पड़ेगें। जहां से हिन्दुस्तानी कारागरी की असंख्य वस्तुएं हिन्दुस्तानी जहाजों से लंका या जावा द्वीप तक जाती थीं, उसी रास्ते से अब विलायती और जापानी आगबोटें (स्टीमरें) विदेशी कारखानों में बना हुआ भद्दा माल हिन्दुस्तान के बाजारों में भर डालने के लिए आती हुई दिखाई देती हैं। गंगामैया पहले ही की तरह हमें अनेक प्रकार की समृद्धि प्रदान करती जाती है। किन्तु हमारे निर्बल हाथ उसको उठा नहीं सकते!
गंगामैया! यह दृश्य देखना तेरी किस्मत में कब तक बदा है?
फरवरी, 1926
नदी को यदि कोई उपमा शोभा देती है, तो वह माता की ही। नदी के किनारे पर रहने से अकाल का डर तो रहता ही नहीं। मेघराजा जब धोखा देते हैं तब नदी माता ही हमारी फसल पकाती है। नदी का किनारा यानी शुद्ध और शीतल हवा। नदी के किनारे-किनारे घूमने जायें तो प्रकृति के मातृवात्सल्य के अखंड प्रवाह का दर्शन होता है। नदी बड़ी हो और उसका प्रवाह धीरगंभीर हो, तब तो उसके किनारे पर रहनेवालों की शानशौकत उस नदी पर ही निर्भर करती है। सचमुच नदी जन समाज की माता है। नदी-किनारे बसे हुए शहर की गली-गली में घूमते समय एकाध कोने से नदी का दर्शन हो जाय, तो हमें कितना आनंद होता है! कहां शहर का वह गंदा वायुमंडल और कहां नदी का यह प्रसन्न दर्शन! दोनों के बीच का अंतर फौरन मालूम हो जाता है। नदी ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर का स्मरण कराने वाला देवता है। यदि गुरु को वंदन करना आवश्यक है तो नदी को भी वंदन करना उचित है।
यह तो हुई सामान्य नदी की बात। किन्तु गंगामैया तो आर्यजाति की माता है। आर्यों के बड़े-बड़े साम्राज्य इसी नदी के तट पर स्थापित हुए हैं। कुरु-पांचाल देश का अंगबंगादि देशों के साथ गंगा ने ही संयोग किया है। आज भी हिन्दुस्तान की आबादी गंगा के तट पर सबसे अधिक है।
जब हम गंगा का दर्शन करते हैं तब हमारे ध्यान में फसल से लहलहाते सिर्फ खेत ही नहीं आते, न सिर्फ माल से लदे जहाज ही आते हैं; किन्तु वाल्मिकी का काव्य, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक, समुद्रगुप्त या हर्ष जैसे सम्राटों के पराक्रम और तुलसीदास या कबीर जैसे संतजनों के भजन-इन सबका एक साथ स्मरण हो आता है। गंगा का दर्शन तो शैत्य-पावनत्व का हार्दिक तथा प्रत्यक्ष दर्शन है।
किन्तु गंगा के दर्शन का एक ही प्रकार नहीं है। गंगोत्री के पास के हिमाच्छादित प्रदेशों में इसका खिलाड़ी कन्यारूप, उत्तरकाशी की ओर चीड़-देवदार के काव्यमय प्रदेश में मुग्धारूप, देवप्रयाग के पहाड़ी और संकरे प्रदेश में चमकीली अलकनंदा के साथ उसकी अठखेलियां, लक्ष्मण झूले की विकराल दंष्ट्रा में से छूटने के बाद हरिद्वार के पास उसका अनेक धाराओं में स्वच्छंद विहार, कानपुर से सटकर जाता हुआ उसका इतिहास-प्रसिद्ध प्रवाह, प्रयाग के विशाल पट पर हुआ उसका कालिन्दी के साथ का त्रिवेणी संगम-हरेक की शोभा कुछ निराली ही है। एक दृश्य देखने पर दूसरे की कल्पना नहीं हो सकती। हरेक का सौंदर्य अलग, हरेक का भाव अलग, हरेक का वातावरण अलग, हरेक का माहात्म्य अलग।
प्रयाग से गंगा अलग ही स्वरूप धारण कर लेती है। गंगोत्री से लेकर प्रयाग तक की गंगा वर्धमान होते हुए भी एक रूप मानी जा सकती है। किन्तु प्रयाग के पास उससे यमुना आकर मिलती है। यमुना का तो पहले से ही दोहरा पाट है। वह खेलती है, कूदती है, किन्तु क्रिड़ा-सक्त नहीं मालूम होती। गंगा शकुंतला जैसी तपस्वी कन्या दीखती है। काली यमुना द्रौपदी जैसी मानिनी राजकन्या मालूम होती है। शर्मिष्ठा और देवयानी की कथा जब हम सुनते हैं, तब भी प्रयाग के पास गंगा और यमुना के बड़ी कठिनाई के साथ मिलते हुए शुक्ल-कृष्ण प्रवाहों का स्मरण हो आता है। हिन्दुस्तान में अनगिनत नदियां है, इसलिए संगमों का भी कोई पार नहीं हैं। इन सभी संगमों में हमारे पुरखों ने गंगा-यमुना का यह संगम सबसे अधिक पसन्द किया है, और इसीलिए उसका ‘प्रयागराज’ जैसा गौरवपूर्ण नाम रखा है। हिन्दुस्तान में मुसलमानों के आने के बाद जिस प्रकार हिन्दुस्तान के इतिहास का रूप बदला, उसी प्रकार दिल्ली-आगरा और मथुरा-वृन्दावन के समीप से आते हुए यमुना के प्रवाह के कारण गंगा का स्वरूप भी प्रयाग के बाद बिलकुल बदल गया है।
प्रयाग के बाद गंगा कुलवधू की तरह गंभीर और सौभाग्यवती दीखती है। इसके बाद उसमें बड़ी-बड़ी नदीयां मिलती जाती है। यमुना का जल मथुरा-वृन्दावन से श्रीकृष्ण के संस्मरण अर्पण करता है, जब की अयोध्या होकर आनेवाली सरयू आदर्श राजा रामचंद्र के प्रतापी किन्तु करुण जीवन की स्मृतियां लाती है। दक्षिण की ओर से आने वाली चंबल नदी रंतिदेव के यज्ञयाग की बाते करती है, जब कि महान कोलाहल करता हुआ शोणभद्र गजग्राह के दारुण द्वंद्व-युद्ध की झांकी कराता है। इस प्रकार हृष्ट-पुष्ट बनी हुई गंगा पाटलीपुत्र के पास मगध साम्राज्य जैसी विस्तीर्ण हो जाती है। फिर भी गंडकी अपना अमूल्य करभार लेते हुए हिचकिचाई नहीं। जनक और अशोक की, बुद्ध और महावीर की प्राचीन भूमि से निकल कर आगे बढ़ते समय गंगा मानो सोच में पड़ जाती है कि अब कहां जाना चाहिये। जब इतनी प्रचंड वारिराशि अपने अमोघ वेग से पूर्व की ओर बह रही हो, तब उसे दक्षिण की ओर मोड़ना क्या कोई आसान बात है? फिर भी वह उस ओर मुड़ गई है सही। दो सम्राट या दो जगद्गुरु जैसे एकाएक एक-दूसरे से नहीं मिलते, वैसा ही गंगा और ब्रह्मपुत्रा का हाल है। ब्रह्मपुत्रा हिमालय के उस पार का सारा पानी लेकर आसाम से होती हुई पश्चिम की ओर आती है और गंगा इस ओर से पूर्व की ओर बढ़ती है। उनकी आमने-सामने भेंट कैसे हो? कौन किसके सामने पहले झुके? कौन किसे पहले रास्ता दे? अंत में दोनों ने तय कि दोनों को दाक्षिण्य धारण कर सरित्पति के दर्शन के लिए जाना चाहिये और भक्ति-नम्र होकर, जाते-जाते जहां संभव हो, रास्ते में एक-दूसरे से मिल लेना चाहिये।
इस प्रकार गोआलंदो के पास जब गंगा और ब्रह्मपुत्रा का विशाल जल आकर मिलता है तब मन में संदेह पैदा होता है कि सागर और क्या होता होगा? विजय प्राप्त करने के बाद कसी हुई खड़ी सेना भी जिस प्रकार अव्यवस्थित हो जाती है और विजयी वीर मन में आये वैसे जहां तहां घूमते हैं, उसी प्रकार का हाल इसके बाद इन दो महान नदियों का होता है। अनेक मुखों द्वारा वे सागर में जाकर मिलती है। हरेक प्रवाह का नाम अलग-अलग है और कुछ प्रवाहों के तो एक से भी अधिक नाम हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्रा एक होकर पद्मा का नाम धारण करती हैं। यही आगे जाकर मेघना के नाम से पुकारी जाती है।
यह अनेकमुखी गंगा कहां जाती है? सुन्दरवन में बेंत के झुंड उगाने? या सगर-पुत्रों की वासना को तृप्त कर उनका उद्धार करने? आज जाकर आप देंखेगे तो यहां पुराने काव्य का कुछ भी शेष नहीं होगा। जहां देखों वहां पटसन की बोरियां बनाने वाली मिलें और ऐसे ही दूसरे बेहूदे विश्री कल-कारखाने दीख पड़ेगें। जहां से हिन्दुस्तानी कारागरी की असंख्य वस्तुएं हिन्दुस्तानी जहाजों से लंका या जावा द्वीप तक जाती थीं, उसी रास्ते से अब विलायती और जापानी आगबोटें (स्टीमरें) विदेशी कारखानों में बना हुआ भद्दा माल हिन्दुस्तान के बाजारों में भर डालने के लिए आती हुई दिखाई देती हैं। गंगामैया पहले ही की तरह हमें अनेक प्रकार की समृद्धि प्रदान करती जाती है। किन्तु हमारे निर्बल हाथ उसको उठा नहीं सकते!
गंगामैया! यह दृश्य देखना तेरी किस्मत में कब तक बदा है?
फरवरी, 1926
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