गंगा-लहरी

सदियों से जमी भावनाशून्य बर्फ को बूँद-बूँद गलाती
अड़ियल ठस चट्टानों को कण-कण बालू बनाती
काल के अनंत प्रवाह को हराती
लहर-लहर आगे ही आगे बहती जाने वाली गंगा
अपनी एक लहर, सिर्फ एक छोटी-सी लहर मुझे लौटा दो!
सही कहती हो माँ, कि तुम लहर-लहर
आगे सिर्फ आगे ही बढ़ती हो
लौटना-लौटाना तुम्हारी प्रकृति में नहीं
पर कभी ध्यान से देखना-लौटी हैं लहरें
बीच के हहराते जलप्रवाह के दोनों किनारों पर
चुपके लौटती हैं छोटी-छोटी लहरें-
उलटे थपेड़ों से
तट पर विसर्जित फूलों की झालर बनाती हुई-
उन्हीं में से एक लहर, सिर्फ एक लहर ही तो
माँग रहा हूँ माँ!
जलधार के टूटने-बनने के इस अनंत क्रम में
अभी भी कहीं वह एक लहर होगी
जिस पर तिरछी होकर पड़ रही होगी
परछाँही एक दुबली गोरी लड़की की
जिसके हाथों में है एक ताजा गुच्छा लाल कनेर के फूलों का
पानी के काँपने से लड़की के बदन की छाया
कभी दूर चली जाती है लाल फूलों से, कभी आती है पास
कभी-कभी एकमेक हो जाते हैं फूल और बदन और नदी-
नदी रे! दे दे
वह एक लहर मुझे चाहिए ही चाहिए!

जब वह लड़की पहली बार
मेरे घर आई, बैठी
घुटने सिकोड़े, चारों ओर से बदन को दाबे-ढाँके
खुले दीखते थे सिर्फ दो ललछौहें पाँव
और तुम्हारी धूप में तैरती झिलमिली सरीखी
उसके गुलाबी नखों की कटीली आभा

एक पूरी उम्र के बाद
इस पूजावेला में उन पाँवों को अंजुरी भर-भरकर
तुम्हारे जल से धोना चाहता हूँ
इतने लंबे सफर मे इतनी दृढ़ता से अनवरत चले
उन पाँवों पर बैठ गई होगी
सफर की धूल, राह की थकान, कसक और कभी-कभी भटकन-
इन सबको तुम्हारी लहर का जल नहीं हरेगा तो कौन हरेगा भला?

तुम्हारे जिस रेतीले तट पर उसके पाँवों की छापें छूट गई हैं
उसी रेत पर बैठा हूँ अंजुरी फैलाए...
अगर मुझे वह लहर, एक छोटी-सी लहर
भी तुम न लौटा सकीं ओ अनंत प्रवाहिनी
तो भी मैं हारूँगा नहीं
रेत में पड़ा धीरे-धीरे रेत भी हो गया
तो तुम्हारे इस रेतीले कछार में
लौटूँगा बनकर वसंत
और खिलेंगे पीली सरसों की मेड़ पर
कहीं एक गुच्छा लाल कनेर के लाल-लाल फूल!
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