धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती
धुँधली नदी में
Posted on 22 Sep, 2013 04:10 PM
आज मैं भी नहीं अकेला हूँ
शाम है, दर्द है, उदासी है

एक खामोश साँझ-तारा है
दूर छूटा हुआ किनारा है
इन सबों से बड़ा सहारा है
एक धुँधली अथाह नदिया है
और बहकी हुई दिशा-सी है

नाव को मुक्त छोड़ देने में
और पतवार तोड़ देने में
एक अज्ञात मोड़ लेने में
क्या अजब-सी, निराश-सी,
सुखप्रद एक आधारहीनता-सी है
साँझ के बादल
Posted on 22 Sep, 2013 04:09 PM
साँझ के बादलये अनजान नदी की नावें
जादू के-से पाल
उड़ाती
आतीं
मंथर चाल!

नीलम पर किरनों
की साँझी
एक न डोरी
एक न माँझी
फिर भी लाद निरंतर लातीं
सेंदुर और प्रवाल!

कुछ समीप की
कुछ सुदूर की
कुछ चंदन की
कुछ कपूर की
कुछ में गेरू, कुछ में रेशम
कुछ में केवल जाल!

ये अनजान नदी की नावें
गंगा-लहरी
Posted on 22 Sep, 2013 04:07 PM
सदियों से जमी भावनाशून्य बर्फ को बूँद-बूँद गलाती
अड़ियल ठस चट्टानों को कण-कण बालू बनाती
काल के अनंत प्रवाह को हराती
लहर-लहर आगे ही आगे बहती जाने वाली गंगा
अपनी एक लहर, सिर्फ एक छोटी-सी लहर मुझे लौटा दो!
सही कहती हो माँ, कि तुम लहर-लहर
आगे सिर्फ आगे ही बढ़ती हो
लौटना-लौटाना तुम्हारी प्रकृति में नहीं
पर कभी ध्यान से देखना-लौटी हैं लहरें
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