गंगा के साथ ही गदेरों की भी सुध लीजिए


गंगा को बचाने की मुहिम में बड़े-बड़े लोग शामिल हुए हैं, लेकिन इसमें उन लोगों को शामिल करना अभी शेष है, जिन्होंने गंगा को पूरी निष्ठा के साथ स्वच्छ और अविरल रूप में हरिद्वार तक पहुंचाया है। इसके लिए जरूरी है कि गंगा के मायके के लोगों को इस अभियान से जोड़ा जाए। हरिद्वार से आगे गंगा मैली हुई है, तो इसका संज्ञान संबद्ध क्षेत्रों के लोगों को लेना चाहिए। गंगा के उद्गम प्रदेश से तो गंगा आज भी पूर्ववत हरिद्वार तक आ रही है।

एक सभ्यता को अपने तटों पर विकसित करने वाली इस नदी के वर्तमान स्वरूप को लेकर मुख्यत: दो तरह की चिंताएं हैं-एक तो गंदगी से लगातार प्रदूषित होती जलधारा और पानी की मात्रा में लगातार आती कमी। गंगा के प्रदूषण को दूर करने के लिए शुरू किए गए गंगा ऐक्शन प्लान का हश्र हम देख चुके हैं। बढ़ते प्रदूषण के अलावा नदी का घटता जल-स्तर भी समस्या है। गंगा में पानी कम क्यों हो रहा है, इसके कारणों का भी खुलासा अभी तक नहीं हो पाया है। बल्कि यों कहें कि गंगा में पानी का घटता स्तर वैज्ञानिक कारणों के विरुद्ध जाने वाला तथ्य है। वैज्ञानिक कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। ऐसे में तो गंगा के जल में वृद्धि होनी चाहिए। लेकिन पानी घट रहा है।

असल में, गंगा जिस रूप में हरिद्वार से नीचे नजर आती है, उस रूप में वह अपने उद्गम प्रदेश में नहीं होती। गोमुख से निकलने वाली गंगा वस्तुत: किसी समृद्ध और सदानीरा पहाड़ी गदेरे से बड़ी नहीं है। इस छोटी-सी जलधारा को समृद्ध रूप देने में उन नदियों का महत्वपूर्ण योगदान है, जो जगह-जगह मूल गंगा में मिलकर अपना अस्तित्व खो देती हैं। इसमें भागीरथी, विष्णु गंगा, नंदाकिनी, पिंडर और मंदाकिनी प्रमुख हैं। गंगा में पानी कम होने का अर्थ है कि उसकी सहायक नदियों का पानी भी घट रहा है। इन नदियों का पानी इसलिए घट रहा है कि इन्हें पानी देने वाले पहाड़ी गदेरे तेजी से सूख रहे हैं। वस्तुत: अगर किसी का बचाव सबसे पहले किया जाना चाहिए, तो वे गदेरे ही हैं। इन गदेरों की संख्या दो सौ से भी ज्यादा है। इनमें से कुछ में कभी इतना पानी होता था कि बिना पुल के इन्हें पार करना संभव ही नहीं था।

उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग के लोगों को पानी इन्हीं गदेरों ने दिया है। गंगा तो नीचे घाटी में बहती है और पहाड़ का भूगोल ऐसा नहीं रहा कि गंगा तट पर कहीं गांव बसाने लायक समतल जमीन उपलब्ध हो। ऐसे में गांव हमेशा गंगा की जलधारा से ऊपर ढलुवा तप्पड़ों में ही आबाद हुए। आज भले पंपिंग कर गंगा जल को पहाड़ी कसबों तक पहुंचाया जा रहा हो, लेकिन चार दशक पहले तक यह स्थिति नहीं थी। पहाड़ के लोग पीने से लेकर सिंचाई करने तक के काम में गदेरों का पानी ही इस्तेमाल करते थे। यही गदेरे सूख रहे हैं। कुछ तो पत्थरों का ढेर बनकर रह गए हैं। इन गदेरों में अधिकांश उच्च हिमालयी शिखरों के हिमनदों से ही निकलते हैं।

उद्गम-स्थल से लेकर नदियों में समाने तक की अपनी यात्रा में ये गदेरे आज भी कई गांवों के लोगों को पीने और सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराते हैं। वन्य जीवों का अस्तित्व तो पूरी तरह इन पर निर्भर है। हिमालयी क्षेत्र के अनेक पादप इन्हीं गदेरों के आसपास की नम जगहों पर पनपते हैं। आज भले ही घराटों के दिन लद चुके हैं, लेकिन तीन-चार दशक पहले तक इन्हीं गदेरों से निकाली गई गूलों के पानी से घराट घूमा करते थे। तब उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र का जीवन इन गदेरों पर निर्भर था। लिहाजा गंगा को बचाने के लिए इन गदेरों को बचाना जरूरी है और यह स्थानीय लोगों की सहभागिता के बिना संभव ही नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 
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