समूचे गंगा के मैदान को पानी उपलब्ध करवाने वाला उत्तराखंड स्वयं प्यासा है। क्रुद्ध पर्वतवासी जन-संस्थान के दफ्तरों और अफसरों का घेराव कर रहे हैं। आंदोलनों से सरकारी मशीनरी अक्सर सक्रिय होती भी है लेकिन उसकी सक्रियता का परिणाम नगरों और कस्बों तक ही सीमित होता है। गांव प्यासे रह जाते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि इस पर्वतीय प्रदेश की 75 प्रतिशत जनसंख्या 15,828 गांवों में निवास करती है। नगरीय इलाकों में रहने वाले प्रभावशाली लोग कई बार जल-संस्थान पर दबाव बनाकर गांवों को जाने वाली पानी की सप्लाई की दिशा भी अपने नलों की तरफ करवा देते हैं। यात्रा मार्गो पर बने होटल भी अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर मनमाफिक पानी बटोर लेते हैं।
उत्तराखंड के इन पहाड़ों का भूगोल कुछ इस तरह का है कि गांव पहाड़ों की चोटियों पर ही आबाद हुए। गहरी घाटी में जहां गंगा बहती है, वहां गंगा-तट पर गांव बसने लायक समतल जमीन उपलब्ध नहीं रही। लेकिन लोग पहाड़ों की इन चोटियों पर यों ही नहीं बसे। वे वहीं बसे जहां आस-पास कहीं प्राकृतिक जल-स्त्रोत मौजूद रहा हो। गदेरे, प्रपात, धारे और नौले इन प्राकृतिक स्त्रोतों में शामिल हैं। पिछले दो-तीन दशकों में जंगलों के विनाश, तापमान में बढ़ोतरी, भूगर्भीय हलचलों और अन्यान्य कारणों से अधिसंख्य प्राकृतिक जल-स्त्रोत या तो सूख गए हैं अथवा उनका पानी प्रदूषित होकर पीने योग्य नहीं रहा। ऐसे में ग्रामीण लोगों की जल-संस्थान की पाइप लाइनों पर निर्भरता बढ़ गई है। पाइप लाइनों में भी इतना पानी नहीं है कि वह ऊंचे इलाकों तक पहुंचने के लिए दबाव बना सके। अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर बसे नगरीय इलाकों के अवैध पम्प रही-सही जल की मात्र को भी गांवों तक नहीं पहुंचने दे रहे हैं।
पिछले कुछ सालों से जल-संस्थान ने पहाड़ों में हैण्डपम्प लगाने की शुरुआत की है, लेकिन हैण्डपम्प का लाभ भी मोटर-मार्ग से जुड़े इलाकों को ही मिल पाता है। दुर्गम इलाकों तक बोरिंग मशीन ढोना संभव नहीं है।
एशिया का वाटर टावर कहलाने वाले उत्तराखंड के इस पर्वतीय भू-भाग से भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी, नंदाकिनी, पिण्डर, टौन्स, यमुना, काली, नयार, भिलंगना, सरयू और रामगंगा जैसी बड़ी नदियां गुजरती हैं। बावजूद इसके पहाड़ प्यासा है तो इसके लिए हमारे सरकारी तंत्र की अदूरदर्शिता और कंजूस प्रवृत्ति भी जिम्मेदार है। नदियों से पानी पम्पों के द्वारा खींचकर एकत्रित करने और फिर वितरित करने की योजनाएं सरकार को हमेशा खर्चीली लगती रही हैं। उच्च हिमालयी शिखरों से उतरने वाले गदेरों और प्रपातों के जल को संग्रहित करने के लिए सरकारी एजेंसियों ने बड़े-बड़े टैंकों का निर्माण किया। उच्च इलाकों में बनाए गए इन टैंकों के पानी को तमाम निचले इलाकों में नलों का जाल बिछाकर बांटा जाता रहा। अब यह प्राकृतिक स्त्रोत सूखने लगे हैं तो सरकार भी हाथ खड़े करने की मुद्रा में आ गई है। वह दावा करती है कि प्राकृतिक जल स्त्रोतों को रिचार्ज करने की व्यवस्था की जाएगी। यह दावा ही अपने आप में हास्यास्पद है। जो व्यवस्था सामने बहती गंगा का पानी ऊपर लिफ्ट करवाने में आनाकानी करती हो वह व्यवस्था इन प्राकृतिक स्नोतों के सैकड़ों मील दूर, उच्च हिमालयी शिखरों पर स्थित उद्गमों पर फिर से पानी रिचार्ज कर देगी- इस बात पर कैसे विश्वास किया जा सकता है?
श्रीनगर (गढ़वाल) से पौड़ी पानी पहुंचाने की योजना पर पूरे डेढ़ दशक तक कछुआ चाल से काम होता रहा। अब यह योजना क्रियान्वित की जा चुकी है लेकिन पौड़ी नगर आज भी पानी के लिए तरस रहा है। दरअसल, गंगा के पानी को लिफ्ट करने के लिए आज तक कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। पहाड़ों में कहावत प्रचलित है कि यहां का पानी और जवानी कभी यहां के काम नहीं आते। पानी पहाड़ों की मिट्टी को काटता मैदानों की तरफ चला जाता है और यहां के नवयुवक गांव छोड़कर शहरों की तरफ चले जाते हैं। इस कहावत में दम है। हालिया परिसीमन आयोग की रिपोर्ट स्पष्ट संकेत देती है कि पहाड़ में गांव के गांव पिछले तीन दशकों में खाली हो गए हैं। पृथक राज्य गठन के बाद यानी बीते एक दशक में ही 59 गांव पूरी तरह मनुष्यविहीन हो गए हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और रोजगार के अवसरों के घोर अभाव के बाद अब पानी की किल्लत भी मनुष्यों के पलायन का कारण बन रही है। टिहरी जिले की हिण्डोलाखाल पट्टी और रुद्रप्रयाग जिले की नागनाथ पोखरी वाले इलाके में दर्जन भर गांव केवल पानी के अभाव के चलते खाली हो गए हैं। सामरिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील इस पर्वतीय प्रदेश के सीमांत गांवों का खंडहरों में बदलना सामान्य घटना नहीं कही जा सकती, खासकर तब तो बिल्कुल भी नहीं जबकि हमारा पड़ोसी सीमा तक रेल ले आया हो।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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