सारांश
इस अभिभाषण में 1985 में गंगा की सफाई को लेकर आरंभ हुई गंगा कार्य योजना व केंद्रीय गंगा प्राधिकरण के गठन से लेकर आज तक इस दिशा में हुई प्रगति की समीक्षा की गई है, कार्य योजना की परिणतियों और निष्पत्तियों पर विमर्श भी किया गया है।योजना की खामियों को लेकर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की विवेचना की गई है और भारत सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की रूपरेखा भी प्रस्तुत की गई है जिसके सफल होने की आशाएं हैं।
गंगा स्वच्छता अभियान आज तक
'गंगे तव दर्शनात् मुक्तिः का उद्घोष करने वाली भारतीय संस्कृति में नदियों, सरोवरों, झीलों, तड़ागों के प्रति बड़ी पुण्य आस्था थी सरिताएं ही क्या, भारतीय संस्कृति तो प्रकृति की सभी शक्तियों में दैवी स्वरूप का दर्शन करती थी ।
लेकिन समय के अनुसार प्रयुक्त हो रहे जल पर जन भार बढ़ता गया, औद्योगिक बस्तियां उभरने लगीं और निर्बाध रूप से नदियों में औद्योगिक उच्छिष्ट और कूड़ा-करकट तथा मल जल प्रवाहित किए जाने लगे, फलतः पुण्यदायिनी नदियों ने अपनी पवित्रता खो दी, मानवीय कृत्यों ने उनकी पवित्रता अक्षुण्ण नहीं रहने दी। आज पुण्य तोया. पुण्य सलिला गंगा पुण्य तोया नहीं रही, अपितु वह नगरीय बस्तियों का कचरा होने वाली मात्र एक नदी रह गयी है।
गंगा पर प्रदूषण का हमला मैदानी भाग में उतरते ही हरिद्वार से शुरू हो जाता है और फिर सागर में मिलने तक इसके 2525 किमी. लंबे बहाव मार्ग के दोनों ओर बसे शहरों का मल, कूड़ा-कचरा इसे अपने में समेटना पड़ता है। शहरी मल के अतिरिक्त उद्योगों से निकले व्यर्थ पदार्थ, रसायन, अधजली लाशें, राख आदि गंगा में मिलते रहते हैं जो इसे दूषित करते हैं।
औद्योगिक अपशिष्ट और मल ऐसे 29 शहरों से आकर गंगा में गिरता है, जिनकी आबादी 1 लाख से ऊपर है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ऐसे शहरों में से केवल 15 शहरों में ही स्वच्छ मल निपटान की व्यवस्था है 23 ऐसे शहर, जिनकी आबादी 55 हजार से ऊपर है, अपनी मैल गंगा को सौंपते हैं। इसके अतिरिक्त 48 और छोटे-बड़े शहर अपना उच्छिष्ट गंगा में प्रवाहित करते हैं। ये सभी शहर उ.प्र. बिहार और पश्चिम बंगाल में गंगा के किनारे बसे हुए हैं।
यह देखा जाये इसे दूषित करने में उ.प्र. का स्थान सर्वोपरि है। उ.प्र. के प्रमुख औद्योगिक नगर कानपुर के चमड़े कपड़े और अन्य उद्योगों के अपशिष्टों के प्रभाव तले वहां गंगा का जल काला हो जाता है। गंगोत्री से लेकर वाराणसी तक गंगा नदी में 1611 नदियां और नाले गिरते हैं तथा केवल वाराणसी के विभिन्न घाटों पर लगभग 30,000 लाशों का दाह संस्कार होता है। इस कृत्य से लगभग डेढ़ लाख टन राख गंगा में प्रतिवर्ष प्रवाहित होती है।इतना ही नहीं, अकेले वाराणसी में ही लगभग 20 करोड़ गैलन बिना साफ की हुई मल की गंद रोज गंगा में मिलती रहती है। टनों राख के अतिरिक्त अधजली लाशें, जानवरों के ढांचे भी गंगा की धारा में गिरते ही रहते हैं।
गंगा घाटी में बसे कुल 100 शहरों की गंदगी का 82 प्रतिशत ऊपर बताये गये 1 लाख से अधिक आबादी वाले 29 शहरों से आता है और इनमें से 28 शहर कुल 100 शहरों के मल संस्थानों से आने वाली गंदगी का 89 प्रतिशत हिस्सा गंगा को सौंपते हैं। कुल मिलाकर जो तस्वीर उभरती है, वह बड़ी चिंताजनक है और गंगा ही क्या, आज भारत की सारी नदियां दूषित हो चुकी हैं, चाहे वह गंगा-यमुना हो या कि कृष्णा-कावेरी, प्रदूषण की मार से कोई अछूती नहीं ।
प्रदूषण की मार से नदियों को बचाने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने पहली बार ठोस कदम उठाने की कार्य योजना बनायी थी। उनकी पहल पर केंद्रीय टेम्स अधिकरण के पैटर्न पर केंद्रीय गंगा अधिकरण (Central Ganga Authority) 1985 में अस्तित्व में आया और इस प्रकार गंगा स्वच्छता अभियान' (Operation Clean Ganga) का शुभारंभ हुआ। इस अधिकरण का उद्देश्य गंगा की पावनता को अक्षुण्ण बनाए रखना है।
गंगा कार्य योजना - चरण 1 (Ganga Action Plan - GAP-I)
इस कार्य योजना का उद्देश्य नदी में बहने वाली मौजूदा गंदगी की निकासी करके उसे किन्हीं दूसरे स्थानों पर एकत्र करना और उपयोगी ऊर्जा स्रोत में परिवर्तित करना है। इस योजना में निम्न कार्य शामिल हैं: दूषित पदार्थों की निकासी हेतु बने नालों और नालियों का नवीनीकरण ताकि वे गंगा नदी में न बह जाएं, अनुपयोगी और अन्य दूषित द्रव पदार्थों को गंगा में जाने से रोकने के लिए नए अवरोधकों का निर्माण तथा वर्तमान पंपिंग स्टेशनों और जल-मल संयंत्रों का नवीनीकरण ताकि इससे अधिकतम संभावित संसाधन फिर से प्राप्त हो सकें। इसके अलावा सामुदायिक शौचालय बनाना, पुराने शौचालयों को फ्लश में बदलना, विद्युत शवदाह गृह बनवाना, गंगा के घाटों का विकास करना और जल-मल प्रबंध योजना का आधुनिकीकरण आदि कुछ लघु योजनाएं भी बनायी गयी थीं, जिससे गंगा में प्रदूषण को रोका जा सके।
लेकिन दुर्भाग्य, गंगा नदी के संरक्षण और उसकी पवित्रता को अक्षुण्ण रखने की यह अतीव महत्त्वाकांक्षी योजना संपूरित नहीं हो सकी। जब यह कार्य आरंभ किया गया था तो निश्चय ही इसके संकल्प शुभ थे, भावना पवित्र थी लेकिन योजनाओं का क्रियान्वयन ठीक से नहीं किया गया। सरकारी धन का अपव्यय किया गया और इसमें इतनी लेट लतीफी हुई कि इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय तक को दखल देनी पड़ी। उसने अपने एक आदेश में इस महाअभियान को निरस्त करने का आदेश दे दिया। फलतः 1985 में आरंभ गंगा कार्य योजना चरण-1 को 31 मार्च, 2000 को समाप्त कर दिया गया।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि भारत सरकार स्वयं मानती है कि परियोजना के पहले चरण में गंगा में फैले प्रदूषण को पूरी तरह से समाप्त करने का लक्ष्य नहीं प्राप्त किया जा सका है। (देखिए - भारत - 2011, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली)
इस महायोजना के संचालन के निमित्त प्रायः दो दशकों में केंद्र और संबद्ध राज्य सरकारों ने जो संसाधन मुहैया किए, उसकी लागत लगभग 250 मिलियन डॉलर है इतने अकूत संसाधनों के परिव्यय के उपरांत भी गंगा मैली की मैली रह गयी। (देखिए Cost Benefit Analysis of the Ganga Action Plan, Oxford University Press, 2000)।
इस प्रकरण का सबसे हास्यास्पद पहलू तो यह है कि नीति नियामकों ने योजना संपूरण में विलंब और लब्धियों की विफलता का कारण संसाधनों की अनुपलब्धता बताया, विवशतः भारत सरकार को विदेशी साहाय्य प्राप्त करना पड़ा। ऐसे में आगे चलकर यमुना कार्य योजना चरण I और II * (YAP Phase-I&II ) के निमित्त जापान बैंक फॉर इंटरनेशनल कोऑपरेशन ( Japan Bank for International Co-opreation- JBIC) से हमें सहायता लेनी पड़ी।
आगे भी भारत सरकार ने उसी एजेंसी से ऋण अनुबंध किया जिससे वाराणसी में गंगा नदी में प्रदूषण कम किया जा सके। इलाहाबाद, लखनऊ, कानपुर (उ.प्र.) में गंगा नदी तथा पंबा नदी (केरल) में इसी तरह की परियोजनाओं के लिए पुनः जेबीआईसी ने हमारी मदद की लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात!
( देखिए- http://www.pib.nic.in)।
शीघ्र ही इस कार्य योजना का विस्तार राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (National River Conservation Plan NRCP) के रूप में 1995 में किया गया। गंगा कार्य योजना के दूसरे चरण का 'राष्ट्रीय नदी संरक्षण कार्य योजना के साथ विलय कर दिया गया है।
गंगा कार्य योजना चरण - II ( Ganga Action Plan Phase II - GAP-II) : यमुना कार्य योजना (YAP)
चूंकि गंगा कार्य योजना के लक्ष्य पूरित नहीं किए जा सके थे, अतः इसके दूसरे चरण में गंगा नदी को प्रदूषण से मुक्त करने के साथ-साथ उसकी सहायक नदियों- दामोदर, गोमती, महानंदा और यमुना को भी सम्मिलित किया गया। प्रदूषण की अत्यधिक मार झेल रही यमुना को इस योजना में अधिक तरजीह दी गयी।
गंगा कार्य योजना के दूसरे चरण में विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर 5 जून 1993 को यमुना सफाई योजना आरंभ की गयी। गंगा कार्य योजना के इस द्वितीय चरण में दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा के 21 प्रमुख नगरों में संचालित करने का प्रावधान किया गया जिनमें से 12 हरियाणा में 8 उ.प्र. और 1 दिल्ली में इस योजना के तहत हरियाणा में यमुना नगर जगाधरी, पानीपत, सोनीपत, गुड़गांव और फरीदाबाद में और उत्तर प्रदेश में सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, नोएडा, मथुरा वृन्दावन आगरा एवं इटावा तथा दिल्ली में यमुना नदी को स्वच्छ किया जाएगा। सबसे अधिक कचरा राजधानी के 16 नालों से यमुना नदी में जाता है।
इस कार्य योजना में प्रदूषित जल को नदी में न गिरने दिये जाने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बैठाने, अल्प लागत की नालियां बनाने, शवों को जलाने के लिए लकड़ी का शवदाह गृह बनाने, नदियों के किनारे वृक्षारोपण करने तथा नदियों में प्राणियों के जैविक संरक्षण के लिए योजना बनाने का प्रावधान है। वस्तुतः अपने उद्गम स्थल यमुनोत्री से निकल कर 1376 किमी. की लंबी यात्रा में कई औद्योगिक महानगरों के विषाक्त व्यर्थ पदार्थ और मल के ग्रहण से यमुना ने भी अपना मूल स्वरूप खो दिया हैं और देश की अति प्रदूषित नदियों की श्रेणी में आ गई है।
अपने प्रवाह मार्ग के प्रथम 170 किमी. की यात्रा ( शिवालिक पर्वत श्रृंखला) में कृषि गंगा, उंता, हनुमान गंगा, तीनस और गिरि आदि सहायक नदियां इससे आ मिलती हैं। यमुनोत्री से निकलकर हरियाणा के तेजेवाला तक इसका जल स्वच्छ रहता है। यहां से इलाहाबाद तक आते-आते यह अत्यंत विकृत हो जाती है। इस दौरान इसमें हिंडन, काली सिंधु, बेतवा, केन और चंबल नदियां मिलती हैं। मध्य प्रदेश से निकलकर, राजस्थान से गुजरते हुए चंबल यमुना को पुनर्जीवन प्रदान करती है। रावतभाटा, कोटा से धौलपुर से होती हुई भी चंबल अपनी पवित्रता अक्षुण्ण रखती है। उसी के साथ बारां में भीषण गर्जना करने वाली काली सिंध चंबल के समान्तर चलती है और यमुना को अपना सर्वस्व न्यौछावर करती है। इस तरह यमुना का क्षेत्र उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और मध्य प्रदेश तक विस्तारित है और इसका जल ग्रहण क्षेत्र 345848 वर्ग किमी. तक विस्तृत है। इस विस्तार में नाना रूपों में यमुना में प्रदूषण बढ़ता रहता है, केवल चंबल और काली सिंध के संगम मार्ग पर इसके जल की गुणवत्ता में सुधार होता है। बढ़ते दूषण की चिंता को लेकर ही पर्यावरण मंत्रालय ने यमुना सफाई की विशाल और महत्त्वाकांक्षी योजना बनाई थी ।
गंगा एक्शन प्लान के द्वितीय चरण के रूप में शुरू की जाने वाली इस परियोजना में गोमती नदी के किनारे बसे लखनऊ, सुल्तानपुर और जौनपुर को शामिल किया गया है। गोमती एक्शन प्लान की शुरूआत में राजधानी के मध्य बह रही गोमती नदी के पानी को कचरे तथा गंदगी से बचाया जाएगा। उल्लेखनीय है कि लखनऊ नगर की आबादी के 70 फीसदी लोगों को गोमती नदी से ही पेयजलापूर्ति की जाती है। जलस्तर उत्तरोत्तर गिरने के कारण नदी पर जलापूर्ति का दबाव दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है।
नदी में शहर के 25 नाले गिरते हैं जिनसे लगभग 250 मिलियन लीटर गंदगी नदी में गिरती है। योजनानुसार इन नालों को सीवर से जोड़ा जाएगा और इनको पम्प करके पिपराघाट स्थित लखनऊ - बाराबंकी रेलवे लाइन के निकट ट्रीट किया जाएगा।
गंगा कार्य योजना के द्वितीय चरण में 635.66 करोड़ रुपये के आबंटन की स्वीकृति दी जा चुकी है जिसमें गंगा के प्रवाह मार्ग में पड़ने वाले 60 नगरों को सम्मिलित किया गया है।
अपने उद्गम स्थल से हरिद्वार तक गंगा प्रायः शुद्ध है। इसके जल में जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग (BOD) प्रायः शून्य है लेकिन अपने अंतिम पड़ाव हुगली तक गंगा नदी को 29 शहरों और 120 औद्योगिक इकाइयों का उच्छिष्ट अपने में समेटना पड़ता है जिससे यह प्रदूषित हो चली है।
ऋषिकेश (उत्तराखंड) और उलबेरिया (प. बंगाल) में 1986 से गंगा के पानी की गुणवत्ता का परीक्षण किया जाता रहा है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का मानना है कि अधिकतर स्थानों पर जैव रासायनिक मांग और घुलनशील ऑक्सीजन जैसे पानी की गुणवत्ता के निर्धारित मापदंडों पर गंगा का पानी खरा उतरा है केवल उत्तर प्रदेश में दो स्थलों कन्नौज और वाराणसी में परिस्थितियां विषम हैं।
समस्या का मूल कारक
इस समस्या का मूल कारक है गंगा के किनारे बसे शहरों का मलजल और फैक्ट्रियों का उच्छिष्ट (effulents ) जो बिना उपचारित किए ही सीधे गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। केवल हरिद्वार में ही लगभग 37.66 मिलियन लीटर अनुपचारित सीवेज गंगा में प्रवाहित किया जाता है। यही कारण है कि उसकी गुणवत्ता निरंतर घटती जा रही है। मनुष्य समेत जलीय जैवतंत्र के लिए भी यह घातक है। गंगा के प्रदूषित जल में जैव रासायनिक ऑक्सीजन की मांग और फीकल कोलीफार्म में वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही है जिससे हैजा और आंत्र शोध जैसी व्याधियां मनुष्यों में पनप रही हैं।
गंगा कार्य योजना के प्रथम चरण के समापन तक (वर्ष 2000 ) 865 एम. एल. डी. (मिलियन लीटर प्रतिदिन) क्षमता के मल-जल उपचार संयंत्र विकसित किए जा चुके थे। ताजातरीन मामला यह है कि फिलहाल 3000 एम.एल.डी. मलजल उत्पन्न होता है जिसके सापेक्ष मात्र 1000 एम.एल.डी. सीवेज का ही ट्रीटमेंट हो पा रहा है। शेष मलजल बिना उपचारित किए ही गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।यही हैं गंगा के प्रदूषण के असली कारक। सीवेज का तीन चौथाई भाग बिना ट्रीट किए ही गंगा में प्रवाहित करने के कारण ही उसकी दुर्दशा हुई है और उसकी गुणवत्ता समाप्त हो गई है।
राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (National River Consevration Plan - NRCP)
इस कार्य योजना को 1995 में और व्यापक स्वरूप प्रदान किया गया। इस प्रकार राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना अस्तित्व में आई।एन.आर.सी.पी. का उद्देश्य निर्दिष्ट सर्वोत्तम प्रयोग के स्तर तक प्रदूषण को रोकने के उपायों के क्रियान्वयन के माध्यम से नदियों के पानी की गुणवत्ता में सुधार लाना है।
एन. आर. सी. पी. के अंतर्गत निम्न प्रावधान हैं-
- खुले नालों के माध्यम से नदी में बह रहे कच्चे सीवेज को रोकने तथा उनके शोधन के लिए अवरोध एवं विपथन कार्य ।
- विपथित सीवेज के शोधन के सभी सीवेज संयंत्रों की स्थापना ।
- कम लागत से स्वच्छता शौचालयों का निर्माण ।
- लकड़ी का प्रयोग रोकने के लिए विद्युत शवदाह गृहों एवं परिष्कृत काष्ठ शवदाह गृहों का निर्माण ।
- नदी मुहाना विकास।
- नदी के तटों पर वृक्षारोपण |
- सार्वजनिक भागीदारी एवं जागरूकता आदि ।
इस संदर्भ में यहां जानना जरूरी है कि अब तक इन कार्य योजनाओं में जन सहभागिता न के बराबर थी। अतः सरकार ने कार्यक्रम को सीधे जन-मानस से संपृक्त करने की योजना बनायी सार्वजनिक भागीदारी सुनिश्चित होने और नागरिकता बोध से यह योजना लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है। इसके लिए देश की जनता मात्र में नदियों ही नहीं अपितु पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी जागरूकता विकसित करनी होगी।
गंगा कार्य योजना को लोगों ने सरकारी उपक्रम मानकर इसकी उपेक्षा की जो इस तस्वीर का सबसे श्याम पक्ष है। इसमें सभी का प्रतिभाग वांछनीय है, कोई एक भगीरथ भी इस अभियान को संपूरित नहीं कर सकता है।राष्ट्रीय नदी संरक्षण परियोजना के अंतर्गत 20 राज्यों में 167 शहरों में 38 नदियों में व्याप्त प्रदूषण को रोकने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। फिलहाल अभी तक इस निमित्त 4691.54 करोड़ रुपये का परिव्यय हो चुका है। निष्पत्तियां समीक्षाधीन
हैं।
राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण (National Ganga River Basin Authority - NGBRA)
गंगा हमारे लिए मात्र नदी ही नहीं है, अपितु वह हमारी संस्कृति की संवाहिनी भी है। गंगा ही क्यों, राष्ट्र की सभी सरिताएं राष्ट्र की धमनियां हैं और गंगा तो महाधमिनी है। गंगा नदी हम भारतवासियों के जीवन की समर्थन प्रणाली है क्योंकि भारत की 40 प्रतिशत जनसंख्या के लोग गंगा घाटी के पार्श्व में आवास करते हैं। इतना ही नहीं, भारत के कुल संचित क्षेत्र का 47 प्रतिशत अवदान अकेले गंगा का ही है अतः देश की अर्थव्यवस्था में भी गंगा नदी की महत्वपूर्ण भूमिका है। कदाचित इसीलिए प्रधानमंत्री ने 4 नवंबर, 2004 को गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिया है। इसी के अनुगमन में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अनुच्छेद 3(3) के तहत न्दकमत मबजपवद 3 (3 ) of the Environment ( Protection) Act, 1986) 20 फरवरी, 2009 को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण का गठन कर दिया गया जिसके दूरगामी लक्ष्य सुनिश्चित किए गए हैं।
- समग्र दृष्टिकोण अपनाते हुए एन. जी. आर. बी.ए. को गंगा नदी के संरक्षण हेतु एक शक्ति संपन्न नियोजन, वित्तपोषण मॉनिटरिंग और समन्वयन प्राधिकरण के रूप में स्थापित किया गया है
- प्राधिकरण स्थायी विकास की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए गंगा को प्रदूषण मुक्त करने और उसके संरक्षण के लिए प्रभावी कदम उठाने को उद्यत है।
- गंगा कार्य योजना के संचालन में दो दशकों में जहां 250 मिलियन डॉलर का परिव्यय हुआ था. वहीं 2010-2011 की अवधि के लिए 600 मिलियन डॉलर की धनराशि इस योजना हेतु आबंटित की जा चुकी है।
- एन. जी. आर. बी.ए. को अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए 4 बिलियन डॉलर का निवेश करने का आकलन किया गया है।
- लक्ष्य यह है कि वर्ष 2020 तक गंगा नदी में प्रवाहित अनुपचारित व्यर्थ जल की मात्रा शून्य हो ।
समाहार
यह लक्ष्य दुष्कर नहीं है, प्राप्य है बशर्ते नीति नियामकों की मंशा साफ हो, सरकारी धन का दुरुपयोग न किया जाये और जन सहभागिता भी सुनिश्चित हो। हर आदमी यदि नदियों को प्रदूषित न किए जाने के प्रति कृतसंकल्प हो और प्रतिबद्ध भी हो तो गंगा ही क्या सारी नदियों की मलिनता समाप्त हो जायेगी। कल-कल निनादिनी गंगा अपनी शुभ्र धवलता को प्राप्त कर लेगी और अपनी पूर्णता में, सर्वांगता में जीवंत हो जायेगी।
गंगा के माहात्म्य के बारे में शास्त्रोक्त मत है:
इंद्र ब्रह्मा इदं विष्णु इदं देवो महेश्वरः
इदमेव निराकारं निर्मलं जाहन्वी जलय
यह गंगा साकार रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर है और निराकार रूप में जाहन्वी जल है । अब भारतीय वांड्मय और मनीषा में वर्णित सरिताओं के प्रति अप्रतिम उद्गारों को अपने में आत्मसात करने की बेला आ गयी है और मनसा वाचा कर्मणा अपनी जीवन शैली में भी इसे उतारना होगा अन्यथा गंगा और अन्य सरिताओं की मलिनता दूर करना दूर की बात होगी, वे सीवेज डंपिंग यार्ड बनकर अपना अस्तित्व ही खो देंगी।
खतरे की घंटी बज चुकी है। हमें पर्यावरण संरक्षण के प्रति आत्मबोध विकसित करने की आवश्यकता है क्योंकि हम पर्यावरण से अपने जुदा अस्तित्व की परिकल्पना भी नहीं कर सकते। पर्यावरणीय विनाश समग्र मानव जाति के लिए आत्मघाती है। आशा की जानी चाहिए कि हम अपने घर की गंदगी दूसरे के घर के सामने फेंक कर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर लेंगे क्योंकि हम जो गंदगी प्रकृति को सौंपते है, वह हमें वैसे का वैसा ही लौटा देती है शुभ संकल्पमस्तु !
शुकदेव प्रसाद ,पूर्व सदस्य, संयुक्त हिंदी सलाहकार समिति (इलेक्ट्रॉनिकी, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष विभाग ) 135 / 27 सी, छोटा बघाड़ा, इलाहाबाद - 211002 (उ.प्र.)
सोर्स:- राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की
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