गज उर ग्राह लड़े जल भीतर जब।
गज ने पुकार करी, करूणा से हरी की तब।
एक समय गज और ग्राह पानी के भीतर लड़े थे। तब गजराज ने प्रभु का स्मरण किया तो भक्त की करुणा भरी पुकार सुनकर प्रभु ने उसकी रक्षा की थी।
बांदकपुर नये धाम बनाये,
जागेसुर महराज
काहे की कांउर काहे को सीसा,
काहे को जल भर ल्याई
बंसा की कांउर कांच को सीसा,
रेवा को जल भर ल्याई।
बांदकपुर में शिवजी का नया धाम बनाया गया है जो जागेसुर धाम के नाम से जाना जाता है। जागेसुर जाने के लिए काँवर काहे की बनाई गई, उसमें कौन सा शीशा लगाया गया, कहाँ से जल भरकर लाया गया? बाँस की काँवर, काँच का आईना तथा नर्मदा जल भरकर उन्हें चढ़ाया।
चली आवै बदरिया जल भरें हो मां।
चली आवै मछरिया जल भरे हो मां।
अरे जमना के पुल बंदबाव, बदरिया जल भरे हों माँ।
पानी की बदली अपने साथ जल भरकर ला रही है। मछली भी जल में होकर आ रही है अगर बदली बरस गई तो यमुना का पुल बनवाना पड़ेगा।
भरन पनियां जांय हिलमिल ले,
कै पानियाँ जांय हिलमिल ले
चलो जिठानियां चल देवरानियां हिलमिल ले
भरन पनियां जांय हिलमिल ले।
हमें पानी भरने मिलकर जाना चाहिए। पानी जाने से पूर्व देवरानी-जिठानी आपस में मिली और पानी भरने गईं।
भुनसारे के पनियां ने जावरी ननदिया
नेहा तो लगा रे कौनऊ ले जेहे
बे तो कौनां ने कुंअला खुदाये री ननदिया,
कौनां ने कुंअला खुदायेते
बे तो कौनां डरा दयी पाट री ननदिया
अरी ननद बाई! तुम सुबह अकेले पानी भरने मत जाया करो क्योंकि कोई रसिक तुमसे प्रेम करेगा और तुम्हें अपने साथ ले जायेगा। कुआँ किसने खुदवाया तथा उस पर पाट किसने डलवायी?
कोस-कोस पै पानी बदले-बीस कोस पै बानी।
पानी तो हर कोस पर बदलता है। इसी तरह से बीस कोस पर वाणी या बोली बदल जाती है।
जिन जईयो भरन कोऊ नीर
कुंवर दोई ठांड़े सरजू तीर पै
अरी सखियों! तुम आज पानी भरने मत जाना, क्योंकि रास्ते में महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण खड़े हैं, वे सरयू के किनारे खड़े हैं।
इमरती के जल भरती रे, जल भरती रे
गौरा रानी खों देती चढ़ाय रे इमरती के हो
बाँदकपुर जाकर दर्शनार्थी इमरती से जल भरकर लाते हैं तथा वह जल गौरा पार्वती को चढ़ाया जाता है।
तुम बिन मोरे बिदेसी पियरवा,
कैंसे कटे बरसात रे।
सावन बरसे, बिजली गरजे,
और अंधिरिया रात रे।
पिया नहीं आये जिया मोरा डोले,
रह-रह जिया अकुलाय रे।
जल की मछरिया, जल ही मैं चमके,
रण चमके तलवार रे।
पिया की पगड़िया सभा बीज चमके,
सिजिया पै बिंदिया हमार रे।
हे परदेश जाने वाले मेरे प्रिय! जब आप चले जायेंगे तो आपके बिना यह बरसात कैसे कटेगी? श्रावण में लगातार पानी बरसता है, बिजली की चमक और गर्जना उस पर अँधेरी रात, मैं अकेले कैसे रह सकूँगी? आप नहीं आये तो मेरा मन व्याकुल होगा। जल में रहने वाली मछली जल में ही चमकती है, बाहर निकलने पर चमक नहीं रहती, उसी तरह से रण क्षेत्र में तलवार ही चमकती है, मेरे पति की पगड़ी तो जब वे सभा में बैठे होते हैं तब चमकती है और मेरी बिंदी सेज पर चमकती है।
नजर भरत हेरत काये नैयां
हम तो राजा पिया, बनकी हिरनियां,
तुम ठाकुर के लरका
तुपक तीर मारत काये नैयां......
हम तौ पिया जल की मछरिया,
तुम ढीमर के लरका
झमक जाल डारत काये नैयां
आप मेरी तरफ नजर भरकर क्यों नहीं देखते? मैं तो वन में रहने वाली हिरनी के जैसी हूँ। तुम क्षत्रिय ठाकुर हो मुझ पर तीर क्यों नहीं चलाते? मुझे आप जल में रहने वाली मछली जानो और तुम अपने आपको ढीमर का लड़का मान लो तो मेरे ऊपर तुम जाल क्यों नहीं फेंकते?
नदी बेवतै तोकों सुमरो,
तू मोरे देसा की रीढ़।
दैवै सुनवां और फुलवा नै,
करी आरती अर्घ चढ़ाय।
फल अर्पितकर फल सोई मांगो,
पानी पियो सो पानी राख।
करी प्रार्थना कालिन्दी सें,
देवै हाथ जोड़ भै ठांडू।
मात मोर विनती सुन लीजे,
रखियो मात्रभूम की लाज।
तुमरे भरोसें छोड़े महोवा,
अरिदल न रख पावै पांव।
एक समय चन्देल नरेश ने माहिल की बातों में आकर आल्हा-ऊदल को अपने राज्य से निकाल दिया था। महोबा छोड़ते समय आल्हा-ऊदल की पत्नी-सुनवा-फुलवा तथा माता दिवला बेतवा नदी पार करते समय बेतवा से प्रार्थना करती हैं कि हे माँ! बेतवा तू तो महोबा की रीढ़ है, आज हम महोबा छोड़ रहे हैं, हमने तेरा पानी पिया है, तेरे बहुत एहसान हैं, जिस प्रकार से तू अभी तक महोबा की रक्षक रही है, आगे भी रक्षा करना, हमारी यह विनती है। हम तुझे फल चढ़ाकर फल की अभिलाषा करते हैं कि महोबा के पानी की लाज रखना। हम तेरे भरोसे ही महोबा छोड़ रहे हैं। बस हमारी प्रार्थना यही है कि मातृभूमि महोबा पर दुश्मन के पाँव न पड़े। सबने विधिवत् पूजा-अर्चना की और प्रणाम करके आगे चलीं।
भर-भादों की रात झिमक जल बरसे,
भींजल मोरें को जैहें।
तुम दाई ओढ़ो दुशाला,
रिमझिम बरसत मेह भींजत दाई हम जैहें।
एक स्त्री को प्रसव पीड़ा हो रही है, उसका पति दाई को लेने उसके घर जाता है। दाई कहने लगती है-भादों का महीना है, मूसलाधार पानी बरस रहा है, ऐसे में मैं भीगते हुए कैसे जाऊँगी? पति बोला कि तुम मेरा शाल ओढ़लो, मैं भीगता हुआ चलूँगा, लेकिन कृपया जल्दी चलिए।
कन्हैया बिना कौन हरे मोरी पीरा
असाढ़ मास घन गरजन लागो, साहुन गगन गंभीरा
भादों में नभ बिजली चमके, जो मन धरत न धीरा
कुंआर मास की छुटक चांदनी, कातक निर्मल नीरा
अघन मास में बोनी हुइये, जो तन धरत न धीरा
पूष मास में ठंड जो ब्यापै, माव में हलत शरीरा।
फागुन में हरि होरी खेलें, कौन पै छिटके नीरा।
कृष्ण के बिना मेरा दर्द कोई नहीं मिटा सकता। आषाढ़ के महीने में मेघ गर्जना करते हैं, श्रावण में जल-वृष्टि होती है। भाद्र मास में आकाश में बिजली चमकती है पानी बरसता है, मेरा मन कृष्ण से मिलने को अधीर होता है। क्वाँर में स्वच्छ चाँदनी छिटकी होती है, कार्तिक में जलाशयों में पवित्र जल आ जाता है अगहन में किसान खेतों में बुआई करते हैं। इस मास में भी कृष्ण मिलन की लालसा मन में बनी रहती है। पूष में ठंड ज्यादा पड़ने लगी, माघ में तो ठंड अपने पूरे बेग पर होती है। ठंड की अधिकता से कंपकंपी रहती है। फाल्गुन में तो कृष्ण हमारे साथ होली खेलते थे लेकिन इस मास में वे नहीं हैं तो हम किसके साथ होली खेलेंगे, किस पर रंग मिश्रित जल डालें? हमारी पीड़ा तो वे ही दूर कर सकते हैं।
सखी री मोय ब्रज बिसरत नैयां
सोने सरूपे की बनी द्वारका।
गोकुल की छब नैयां
उज्ज्वल जल जमना की धारा।
बाकी भॉत जल नैंयां
जो सुख कहिये माय जसोदा।
सो सुख सपने नैया
कृष्ण द्वारिका में बस गये, लेकिन ब्रज में व्यतीत हुए बचपन को वे नहीं भुला पाये। वह कहते हैं कि यहाँ कितनी ही सुख सुविधायें हैं लेकिन ब्रज जैसा अपनत्व कहाँ मिलेगा? वहाँ का ममत्व स्नेह यहाँ नहीं है। यह द्वारिका सोने की बनी है लेकिन गोकुल की छवि इसमें तनिक भी नहीं है। जिस तरह का स्वच्छ जल यमुना का है वैसा यहाँ का जल भी नहीं है। और जो सुख मुझे मैया यशोदा से मिला है वह तो स्वप्न में भी नहीं मिलता।
बरसत बड़ी-बड़ी बूंद, बिजुरी चमक जीरा डर लगे
कौना दिसा बदरा भये, कौना बरस गये मेव
बिजुरी चमक जीरा डर लगे।
पानी बड़ी-बड़ी बूँदों में बरस रहा है। बिजली भी चमकती है इस समय मुझे बड़ा डर लगता है किस दिशा में बादल आये और किस दिशा से उन्होंने वर्षा की है?
गरजे बरसे रे बादरवा, बिजली चमके चारऊ ओर
साहुन गरजे भदवा बरसे, पवन चले चहुंओर
नानी-नानी बुदियां में मेहा बरसे, दादुर मचाये शोर
बादल गरज-गरज कर वर्षा कर रहे हैं, बिजली चारों दिशाओं से चमकती है। श्रावण में मेघों की गर्जना, भादों में मूसलाधार जल-वृष्टि और हवाओं का चारों दिशाओं से चलना यही क्रम बना हुआ है। फिर पानी छोटी-छोटी बूँदों से बरसना शुरू होता है, तेज बारिश होने पर मेंढक चारों तरफ से बोलते हैं।
किसे समझायें सब जग अंधा
पानी का रेला पवन का असुवा,
बरस पड़े जैसे ओस का बूंदा
किस-किस को समझाओगे यहाँ तो सारा संसार ही आँखे होते हुए भी अँधा बना है। यह जीवन तो पानी के रेले के समान है, ओस की बूँद जैसा क्षणिक है लेकिन लोग आपाधापी में लगे हैं कोई किसी की नहीं सुनता।
कहीं गई मैं जमना जल, भरन जाती
सिर पर घड़ा धरा था।
रस्ता पांव कदम की छैयां, जहां नंदलाल खड़ा था।
मैं यमुना जल भरने जा रही थी, अपने सिर पर घड़ा रखे हुए थी, लेकिन नंद बाबा का लाड़ला कदंब की छाँव में मेरा रास्ता रोककर खड़ा था।
बरसजा दो-दो बुंदिया रे, दो-दो बुदियां रे
मोरे कंता घरई रह जांय रे
अरे मेघराज! आप इस समय पानी बरसा दें तो अच्छा होगा क्योंकि पानी बरसेगा तो मेरे पति घर में ही रहेंगे, नहीं तो वे जाने की तैयारी में हैं।
सूरज मुख पनियां ने जेहों रे, पनियां ने जेहों रे
मोरी बेदी के रंग उड़ जाँय रे........
मैं ऐसी भीषण गर्मी में पानी भरने नहीं जाऊँगी। क्योंकि अगर मैं तेज धूप में पानी भरने गई तो मेरी बिंदी की चमक तेज गर्मी से फीकी पड़ जायेगी।
राम ने वन खो जॉय, भरत घर को न लौटें
भर-भर लोचन नीर, उमग नैनों में ल्यावें।
चित्रकूट में श्रीराम को लौटाने भरत जाते हैं वे सोचते हैं कि श्रीराम घर लौट चलें भले ही वनवास की अवधि भरत पूरी करें लेकिन न तो राम वन से घर लौटने को तैयार हैं और न ही भरत अयोध्या वापिस लौटना चाहते हैं। इस भ्रातृप्रेम की अधिकता में दोनो भाईयों की आँखों से लगातार अश्रुजल प्रवाहित हो रहा है।
बिन पानी झिर लागी पुरुष पोंड़े जहाँ
नहीं घटा नहीं मेघ नहीं सावन दरसायों
बरसे बारामास बूंद धरनी नहीं आयो
पानी के बिना बरसात हो रही है? वहाँ पर महापुरुष विराजमान हैं। न तो बादल है, न घटायें आच्छादित हैं, न श्रावण हैं, पानी बारहों महीने बरसता है, लेकिन उसकी एक बूँद भी धरती पर नहीं गिरती?
द्वारे खड़ी राधिका रानी
भरत चलत को पानी।
सिर पै घड़ा, घड़ा पै गागर
चाल चलत मस्तानी
वृषभान सुता राधा अपने द्वार पर खड़ी हैं, वे पानी भरने जाना चाहती हैं। राधा जी ने अपने सिर पर गागर रखी और पानी भरने को चल दीं।
जातीं नीर भरन जमुना के
दैकें काजन बांके
जोन खोरहो पैलां कढ़ गई, खिच गये हते सनाके।
एक युवती यमुना जी का जल भरने जाती है, उसने जाने से पूर्व अपनी आँखों में काजर आँजा और पानी भरने को गई। जिस गली से वह गुजरती है वहाँ सब उसे ही देखते हैं और सन्नाटा छा जाता है।
गज ने पुकार करी, करूणा से हरी की तब।
एक समय गज और ग्राह पानी के भीतर लड़े थे। तब गजराज ने प्रभु का स्मरण किया तो भक्त की करुणा भरी पुकार सुनकर प्रभु ने उसकी रक्षा की थी।
बांदकपुर नये धाम बनाये,
जागेसुर महराज
काहे की कांउर काहे को सीसा,
काहे को जल भर ल्याई
बंसा की कांउर कांच को सीसा,
रेवा को जल भर ल्याई।
बांदकपुर में शिवजी का नया धाम बनाया गया है जो जागेसुर धाम के नाम से जाना जाता है। जागेसुर जाने के लिए काँवर काहे की बनाई गई, उसमें कौन सा शीशा लगाया गया, कहाँ से जल भरकर लाया गया? बाँस की काँवर, काँच का आईना तथा नर्मदा जल भरकर उन्हें चढ़ाया।
चली आवै बदरिया जल भरें हो मां।
चली आवै मछरिया जल भरे हो मां।
अरे जमना के पुल बंदबाव, बदरिया जल भरे हों माँ।
पानी की बदली अपने साथ जल भरकर ला रही है। मछली भी जल में होकर आ रही है अगर बदली बरस गई तो यमुना का पुल बनवाना पड़ेगा।
भरन पनियां जांय हिलमिल ले,
कै पानियाँ जांय हिलमिल ले
चलो जिठानियां चल देवरानियां हिलमिल ले
भरन पनियां जांय हिलमिल ले।
हमें पानी भरने मिलकर जाना चाहिए। पानी जाने से पूर्व देवरानी-जिठानी आपस में मिली और पानी भरने गईं।
भुनसारे के पनियां ने जावरी ननदिया
नेहा तो लगा रे कौनऊ ले जेहे
बे तो कौनां ने कुंअला खुदाये री ननदिया,
कौनां ने कुंअला खुदायेते
बे तो कौनां डरा दयी पाट री ननदिया
अरी ननद बाई! तुम सुबह अकेले पानी भरने मत जाया करो क्योंकि कोई रसिक तुमसे प्रेम करेगा और तुम्हें अपने साथ ले जायेगा। कुआँ किसने खुदवाया तथा उस पर पाट किसने डलवायी?
कोस-कोस पै पानी बदले-बीस कोस पै बानी।
पानी तो हर कोस पर बदलता है। इसी तरह से बीस कोस पर वाणी या बोली बदल जाती है।
जिन जईयो भरन कोऊ नीर
कुंवर दोई ठांड़े सरजू तीर पै
अरी सखियों! तुम आज पानी भरने मत जाना, क्योंकि रास्ते में महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण खड़े हैं, वे सरयू के किनारे खड़े हैं।
इमरती के जल भरती रे, जल भरती रे
गौरा रानी खों देती चढ़ाय रे इमरती के हो
बाँदकपुर जाकर दर्शनार्थी इमरती से जल भरकर लाते हैं तथा वह जल गौरा पार्वती को चढ़ाया जाता है।
तुम बिन मोरे बिदेसी पियरवा,
कैंसे कटे बरसात रे।
सावन बरसे, बिजली गरजे,
और अंधिरिया रात रे।
पिया नहीं आये जिया मोरा डोले,
रह-रह जिया अकुलाय रे।
जल की मछरिया, जल ही मैं चमके,
रण चमके तलवार रे।
पिया की पगड़िया सभा बीज चमके,
सिजिया पै बिंदिया हमार रे।
हे परदेश जाने वाले मेरे प्रिय! जब आप चले जायेंगे तो आपके बिना यह बरसात कैसे कटेगी? श्रावण में लगातार पानी बरसता है, बिजली की चमक और गर्जना उस पर अँधेरी रात, मैं अकेले कैसे रह सकूँगी? आप नहीं आये तो मेरा मन व्याकुल होगा। जल में रहने वाली मछली जल में ही चमकती है, बाहर निकलने पर चमक नहीं रहती, उसी तरह से रण क्षेत्र में तलवार ही चमकती है, मेरे पति की पगड़ी तो जब वे सभा में बैठे होते हैं तब चमकती है और मेरी बिंदी सेज पर चमकती है।
नजर भरत हेरत काये नैयां
हम तो राजा पिया, बनकी हिरनियां,
तुम ठाकुर के लरका
तुपक तीर मारत काये नैयां......
हम तौ पिया जल की मछरिया,
तुम ढीमर के लरका
झमक जाल डारत काये नैयां
आप मेरी तरफ नजर भरकर क्यों नहीं देखते? मैं तो वन में रहने वाली हिरनी के जैसी हूँ। तुम क्षत्रिय ठाकुर हो मुझ पर तीर क्यों नहीं चलाते? मुझे आप जल में रहने वाली मछली जानो और तुम अपने आपको ढीमर का लड़का मान लो तो मेरे ऊपर तुम जाल क्यों नहीं फेंकते?
नदी बेवतै तोकों सुमरो,
तू मोरे देसा की रीढ़।
दैवै सुनवां और फुलवा नै,
करी आरती अर्घ चढ़ाय।
फल अर्पितकर फल सोई मांगो,
पानी पियो सो पानी राख।
करी प्रार्थना कालिन्दी सें,
देवै हाथ जोड़ भै ठांडू।
मात मोर विनती सुन लीजे,
रखियो मात्रभूम की लाज।
तुमरे भरोसें छोड़े महोवा,
अरिदल न रख पावै पांव।
एक समय चन्देल नरेश ने माहिल की बातों में आकर आल्हा-ऊदल को अपने राज्य से निकाल दिया था। महोबा छोड़ते समय आल्हा-ऊदल की पत्नी-सुनवा-फुलवा तथा माता दिवला बेतवा नदी पार करते समय बेतवा से प्रार्थना करती हैं कि हे माँ! बेतवा तू तो महोबा की रीढ़ है, आज हम महोबा छोड़ रहे हैं, हमने तेरा पानी पिया है, तेरे बहुत एहसान हैं, जिस प्रकार से तू अभी तक महोबा की रक्षक रही है, आगे भी रक्षा करना, हमारी यह विनती है। हम तुझे फल चढ़ाकर फल की अभिलाषा करते हैं कि महोबा के पानी की लाज रखना। हम तेरे भरोसे ही महोबा छोड़ रहे हैं। बस हमारी प्रार्थना यही है कि मातृभूमि महोबा पर दुश्मन के पाँव न पड़े। सबने विधिवत् पूजा-अर्चना की और प्रणाम करके आगे चलीं।
भर-भादों की रात झिमक जल बरसे,
भींजल मोरें को जैहें।
तुम दाई ओढ़ो दुशाला,
रिमझिम बरसत मेह भींजत दाई हम जैहें।
एक स्त्री को प्रसव पीड़ा हो रही है, उसका पति दाई को लेने उसके घर जाता है। दाई कहने लगती है-भादों का महीना है, मूसलाधार पानी बरस रहा है, ऐसे में मैं भीगते हुए कैसे जाऊँगी? पति बोला कि तुम मेरा शाल ओढ़लो, मैं भीगता हुआ चलूँगा, लेकिन कृपया जल्दी चलिए।
कन्हैया बिना कौन हरे मोरी पीरा
असाढ़ मास घन गरजन लागो, साहुन गगन गंभीरा
भादों में नभ बिजली चमके, जो मन धरत न धीरा
कुंआर मास की छुटक चांदनी, कातक निर्मल नीरा
अघन मास में बोनी हुइये, जो तन धरत न धीरा
पूष मास में ठंड जो ब्यापै, माव में हलत शरीरा।
फागुन में हरि होरी खेलें, कौन पै छिटके नीरा।
कृष्ण के बिना मेरा दर्द कोई नहीं मिटा सकता। आषाढ़ के महीने में मेघ गर्जना करते हैं, श्रावण में जल-वृष्टि होती है। भाद्र मास में आकाश में बिजली चमकती है पानी बरसता है, मेरा मन कृष्ण से मिलने को अधीर होता है। क्वाँर में स्वच्छ चाँदनी छिटकी होती है, कार्तिक में जलाशयों में पवित्र जल आ जाता है अगहन में किसान खेतों में बुआई करते हैं। इस मास में भी कृष्ण मिलन की लालसा मन में बनी रहती है। पूष में ठंड ज्यादा पड़ने लगी, माघ में तो ठंड अपने पूरे बेग पर होती है। ठंड की अधिकता से कंपकंपी रहती है। फाल्गुन में तो कृष्ण हमारे साथ होली खेलते थे लेकिन इस मास में वे नहीं हैं तो हम किसके साथ होली खेलेंगे, किस पर रंग मिश्रित जल डालें? हमारी पीड़ा तो वे ही दूर कर सकते हैं।
सखी री मोय ब्रज बिसरत नैयां
सोने सरूपे की बनी द्वारका।
गोकुल की छब नैयां
उज्ज्वल जल जमना की धारा।
बाकी भॉत जल नैंयां
जो सुख कहिये माय जसोदा।
सो सुख सपने नैया
कृष्ण द्वारिका में बस गये, लेकिन ब्रज में व्यतीत हुए बचपन को वे नहीं भुला पाये। वह कहते हैं कि यहाँ कितनी ही सुख सुविधायें हैं लेकिन ब्रज जैसा अपनत्व कहाँ मिलेगा? वहाँ का ममत्व स्नेह यहाँ नहीं है। यह द्वारिका सोने की बनी है लेकिन गोकुल की छवि इसमें तनिक भी नहीं है। जिस तरह का स्वच्छ जल यमुना का है वैसा यहाँ का जल भी नहीं है। और जो सुख मुझे मैया यशोदा से मिला है वह तो स्वप्न में भी नहीं मिलता।
बरसत बड़ी-बड़ी बूंद, बिजुरी चमक जीरा डर लगे
कौना दिसा बदरा भये, कौना बरस गये मेव
बिजुरी चमक जीरा डर लगे।
पानी बड़ी-बड़ी बूँदों में बरस रहा है। बिजली भी चमकती है इस समय मुझे बड़ा डर लगता है किस दिशा में बादल आये और किस दिशा से उन्होंने वर्षा की है?
गरजे बरसे रे बादरवा, बिजली चमके चारऊ ओर
साहुन गरजे भदवा बरसे, पवन चले चहुंओर
नानी-नानी बुदियां में मेहा बरसे, दादुर मचाये शोर
बादल गरज-गरज कर वर्षा कर रहे हैं, बिजली चारों दिशाओं से चमकती है। श्रावण में मेघों की गर्जना, भादों में मूसलाधार जल-वृष्टि और हवाओं का चारों दिशाओं से चलना यही क्रम बना हुआ है। फिर पानी छोटी-छोटी बूँदों से बरसना शुरू होता है, तेज बारिश होने पर मेंढक चारों तरफ से बोलते हैं।
किसे समझायें सब जग अंधा
पानी का रेला पवन का असुवा,
बरस पड़े जैसे ओस का बूंदा
किस-किस को समझाओगे यहाँ तो सारा संसार ही आँखे होते हुए भी अँधा बना है। यह जीवन तो पानी के रेले के समान है, ओस की बूँद जैसा क्षणिक है लेकिन लोग आपाधापी में लगे हैं कोई किसी की नहीं सुनता।
कहीं गई मैं जमना जल, भरन जाती
सिर पर घड़ा धरा था।
रस्ता पांव कदम की छैयां, जहां नंदलाल खड़ा था।
मैं यमुना जल भरने जा रही थी, अपने सिर पर घड़ा रखे हुए थी, लेकिन नंद बाबा का लाड़ला कदंब की छाँव में मेरा रास्ता रोककर खड़ा था।
बरसजा दो-दो बुंदिया रे, दो-दो बुदियां रे
मोरे कंता घरई रह जांय रे
अरे मेघराज! आप इस समय पानी बरसा दें तो अच्छा होगा क्योंकि पानी बरसेगा तो मेरे पति घर में ही रहेंगे, नहीं तो वे जाने की तैयारी में हैं।
सूरज मुख पनियां ने जेहों रे, पनियां ने जेहों रे
मोरी बेदी के रंग उड़ जाँय रे........
मैं ऐसी भीषण गर्मी में पानी भरने नहीं जाऊँगी। क्योंकि अगर मैं तेज धूप में पानी भरने गई तो मेरी बिंदी की चमक तेज गर्मी से फीकी पड़ जायेगी।
राम ने वन खो जॉय, भरत घर को न लौटें
भर-भर लोचन नीर, उमग नैनों में ल्यावें।
चित्रकूट में श्रीराम को लौटाने भरत जाते हैं वे सोचते हैं कि श्रीराम घर लौट चलें भले ही वनवास की अवधि भरत पूरी करें लेकिन न तो राम वन से घर लौटने को तैयार हैं और न ही भरत अयोध्या वापिस लौटना चाहते हैं। इस भ्रातृप्रेम की अधिकता में दोनो भाईयों की आँखों से लगातार अश्रुजल प्रवाहित हो रहा है।
बिन पानी झिर लागी पुरुष पोंड़े जहाँ
नहीं घटा नहीं मेघ नहीं सावन दरसायों
बरसे बारामास बूंद धरनी नहीं आयो
पानी के बिना बरसात हो रही है? वहाँ पर महापुरुष विराजमान हैं। न तो बादल है, न घटायें आच्छादित हैं, न श्रावण हैं, पानी बारहों महीने बरसता है, लेकिन उसकी एक बूँद भी धरती पर नहीं गिरती?
द्वारे खड़ी राधिका रानी
भरत चलत को पानी।
सिर पै घड़ा, घड़ा पै गागर
चाल चलत मस्तानी
वृषभान सुता राधा अपने द्वार पर खड़ी हैं, वे पानी भरने जाना चाहती हैं। राधा जी ने अपने सिर पर गागर रखी और पानी भरने को चल दीं।
जातीं नीर भरन जमुना के
दैकें काजन बांके
जोन खोरहो पैलां कढ़ गई, खिच गये हते सनाके।
एक युवती यमुना जी का जल भरने जाती है, उसने जाने से पूर्व अपनी आँखों में काजर आँजा और पानी भरने को गई। जिस गली से वह गुजरती है वहाँ सब उसे ही देखते हैं और सन्नाटा छा जाता है।
Path Alias
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