'खेत का पानी खेत में' और 'गाँव का पानी गाँव में' रोकने के नारे तो बीते पच्चीस सालों से सुनाई देते रहे हैं, लेकिन इस बार बारिश के बाद एक गाँव ने अपना पानी गाँव में ही रोककर जलस्तर बढ़ा लिया है। इससे गाँव के लोगों को निस्तारी कामों के लिये पानी की आपूर्ति भी हो रही है और ट्यूबवेल, हैण्डपम्प और कुएँ-कुण्डियों में भी कम बारिश के बावजूद अब तक पानी भरा है। यह काम किसी सरकारी योजना के अन्तर्गत नहीं हुआ है और न ही किसी संस्था ने किया है। यह काम खुद गाँव में रहने वाले लोगों ने अपने गाँव में जलस्तर बढ़ाने के प्रयासों के चलते किया है।
मध्य प्रदेश में देवास जिले के बागली विकासखण्ड का छोटा-सा गाँव बेहरी इन दिनों पानी के मामले में आत्मनिर्भर बना हुआ है, जबकि उसके आसपास के अन्य गाँव अभी से बाल्टी-बाल्टी पानी को मोहताज हैं। इस 'पानीदार' गाँव ने अपने पानी का खजाना नदी में छुपा लिया है।
ग्रामीणों के मुताबिक रोका हुआ पानी मार्च महीने तक भरा रहकर गाँव का जलस्तर बनाए रखेगा। दरअसल गाँव के पास से बहकर जाने वाली एक छोटी नदी में ग्रामीणों ने अपने दम पर कच्चा बाँध बनाकर बरसाती पानी रोका है। उनके इस काम को इलाके के दूसरे गाँव के लोग भी अब देखने-परखने आ रहे हैं।
मालवा का यह इलाका और खासतौर पर देवास जिला पानी के संकट के लिये देश भर में पहचाना जाता है। बागली और उसके आसपास के करीब सौ गाँवों में बीते पाँच सालों से लगातार कम और अनियमित बारिश की वजह से पानी की त्राहि-त्राहि मची हुई है। यहाँ का जलस्तर धरती में काफी नीचे तक चला गया है।
हालात इतने बुरे हैं कि कई किसान पानी के संकट से परेशान होकर अपनी खेती की जमीन को बेचने तक का विचार बना चुके हैं। हर साल जमीनी पानी का स्तर नीचे जाते रहने से धड़ाधड़ ट्यूबवेल अनुपयोगी होते जा रहे हैं। पानी के लिहाज से बागली इलाका इन दिनों सबसे डार्क जोन में माना जाता है। इसी बागली कस्बे से चंद किलोमीटर की दूरी पर यह गाँव इलाके की जल संकट की भयावहता से बेखबर है।
बेहरी के स्थानीय लोगों ने श्रमदान से एक छोटी नदी में पानी रोककर मार्च तक के लिये पानी के संकट से निजात पाने के साथ जलस्तर भी बढ़ा लिया है। ग्रामीणों की मेहनत रंग लाई और अब मार्च तक नदी का पानी और उसके बाद यहाँ के कुएँ-कुण्डी अप्रैल के आखिरी हफ्ते तक पानी दे सकेंगे।
अपने पसीने के दम पर इकट्ठा किये पानी के खजाने की ग्रामीण अब खुद निगरानी करते हैं और नदी को लबालब भरी हुई देखकर उत्साहित हैं। उनका मानना है कि यह पानी मार्च तक चल सकता है। उन्होंने इसके पानी को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी पंचायत को सौंपी है। पंचायत में बैठकर ही ग्रामीणों नें निर्णय लिया कि इस पानी को खेती में इस्तेमाल करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये।
कोई भी किसान नदी में जमा इस पानी का उपयोग अपने खेतों में सिंचाई के लिये नहीं कर सकेगा। इस पानी का उपयोग सिर्फ जलस्तर बढ़ाने तथा मवेशियों को पानी पिलाने जैसे कामों के लिये ही हो सकेगा। यदि कोई किसान इसके पानी को मोटर से खींच कर सिंचाई करेगा तो उसे अर्थदंड से दंडित किया जाएगा।
बेहरी गाँव के पास से ही गुनेरा-गुनेरी नाम की छोटी-सी पहाड़ी नदी बहती है। पहले कभी इसमें पानी पूरे साल भरा रहता था, लेकिन अब बारिश के बाद से ही पानी घटते हुए दिसम्बर-जनवरी तक तो यह गंदले नाले में बदल जाया करता था।
इस नदी के असमय सूख जाने से ग्रामीणों को साल-दर-साल जनवरी महीने से पानी के संकट से दो चार होना पड़ता था। खेती के लिये तो दूर पीने के पानी की भी किल्लत होने लगती थी। धरती के पानी का जलस्तर गहरे चले जाने से ट्यूबवेल सहित कुएँ-कुण्डियाँ सूख जाते और इस तरह पानी के लिये गर्मियों के चार-पाँच महीने में लोगों को भयावह जल संकट से रूबरू होना पड़ता था।
मालवा का यह इलाका कभी पग-पग रोटी, डग-डग नीर के लिये पहचाना जाता रहा है, लेकिन अब यहाँ के हालात पानी के मामले में काफी बदतर हो चुके हैं। जमीनी पानी का जलस्तर 200-300 फीट से गहरा होते हुए 600-800 फीट तथा कहीं-कहीं एक हजार फीट तक जा पहुँचा है।
बेहरी के आसपास करीब 75 वर्ग किमी इलाके में करीब तीन हजार से ज्यादा ट्यूबवेल खनन बीते तीन सालों में हुए हैं, इनमें अधिकांश सूख भी चुके हैं। बीते पाँच सालों में यहाँ कभी पर्याप्त बारिश नहीं हुई है। इस बार औसत 40 इंच बारिश से आधी करीब 22 इंच ही हो सकी है। इसलिये पानी के संकट की दस्तक अभी से सुनाई देने लगी है। कई तालाब और बाँध भी पूरे नहीं भर सके हैं। बारिश की कमी के साथ बड़ा कारण बोरिंग की होड़ में भूजल भण्डार में कमी होने का है।
बीते साल तक बेहरी में खेती तो दूर मवेशियों को पिलाने और अन्य कामों के लिये पानी की व्यवस्था करना बड़ा कठिन हो जाता था। पानी के अभाव में बारिश के बाद किसान भी खेती नहीं कर पाते थे। औरतें अपने घरों में पानी की जरूरत के लिये आसपास खेतों में बने कुओं आदि पर निर्भर थी। कई बार तो डेढ़ से दो किमी तक सिर पर पानी से भरे मटके रखकर पैदल लाना पड़ता था।
गर्मियों के इन महीनों में छोटे बच्चों से लेकर महिलाएँ तक सुबह से शाम तक पानी की जुगाड़ में लगी रहती। एक मटका पानी लाने में दो से तीन घंटे का वक्त लग जाता था। कई बार तो बच्चों को इस वजह से स्कूल की भी छुट्टी कर देनी पड़ती थी। खेतों के कुओं पर भी पानी भरना आसान नहीं होता। कोई भरने नहीं देता तो कहीं बिजली नहीं होती।
ऐसी स्थिति में ग्रामीणों ने चौपाल पर बैठकर सोचा कि इसका निदान क्या हो सकता है। लोगों ने अपने-अपने तरह से विचार रखे लेकिन कोई कारगर तरीका नहीं निकल पा रहा था। कुछ युवाओं ने सुझाया कि किसी तरह यदि हम नदी के बरसाती नदी के पानी को रोक सकें तो यह पानी हमारे गाँव के जलस्तर सहित मवेशियों के पानी पिलाने तथा अन्य निस्तारी कामों के लिये भी उपयोगी होगा। यह आइडिया सबको बड़ा पसन्द आया।
हर साल पहाड़ियों और जंगलों से इस नदी में बारिश का खूब सारा पानी आता है और तेजी से बहते हुए गाँव से बाहर निकल जाया करता है। कभी गाँव के लोगों ने इसे रोकने की कवायद तो दूर इस बारे में सोचा तक नहीं था। लोगों ने सोचा कि बाँध बनाकर रोक लेने से यहाँ पानी भरा रहेगा। पानी धीरे-धीरे जमीन में रंजने लगेगा। जमीन की नीली नसों में पानी भरेगा तो भूजल भण्डार में भी इजाफा होगा। यह आसपास के ट्यूबवेल और कुएँ-कुण्डियों को भी रिचार्ज करता रहेगा।
चौपाल में हुई बात पर गाँव की पंचायत ने नदी पर स्टापडैम बनाने का विधिवत प्रस्ताव बनाया और जिले के तत्कालीन बड़े अधिकारियों के सामने अपनी बात रखी। स्थानीय पंचायत से लेकर जिला पंचायत तक कई बार आने-जाने से ग्रामीण यह अच्छी तरह समझ चुके थे कि इस तरह बात नहीं बनने वाली। कुछ अधिकारियों ने उनकी बात गम्भीरता से सुनी भी थी लेकिन बजट की अनुपलब्धता इसका बड़ा कारण था। दो-तीन साल तक यही सब चलता रहा पर कोई बात नहीं बनी।
इसी दौरान मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिये आदर्श आचार संहिता लग जाने से किसी भी नए सरकारी काम के लिये बजट मिलना सम्भव ही नहीं था और यदि ग्रामीण इसका इन्तजार करते तो दो महीने हाथ-पर-हाथ धरे गुज़र जाते।
आखिरकार ग्रामीणों ने खुद अपना रास्ता खोजा और बिना देर किये वे इसमें जुट गए। उन्होंने खुद श्रमदान करते हुए नदी पर कच्चा बाँध बनाने का निर्णय लिया और जुट गए। एक-दो दिन की मेहनत में ही कच्चा बाँध बनकर तैयार हो गया और पानी रुकना शुरू हो गया। देखते-ही-देखते नदी में छह फीट से ज्यादा पानी भर गया। अमूमन पतली धार की तरह बहने वाली नदी इन दिनों पानी से लबालब है।
हर साल इलाके के किसान नदी में सीधे मोटर लगाकर इससे पानी खींच लेते थे, इस कारण नवम्बर-दिसम्बर से ही नदी सूखने लगती थी। गाँव लगभग 'बेपानी' हो जाया करता था। लेकिन इस बार नदी में इतना पानी देखना ग्रामीणों के लिये भी सुखद है। डेढ़ महीने में ही इसका फायदा भी दिखना शुरू हो गया है। ट्यूबवेल जो लगभग बन्द हो चले थे या कम पानी दे रहे थे, उनमें पानी पहले के मुकाबले बढ़ गया है। हैण्डपम्प भी लगातार पानी दे रहे हैं।
सरपंच हीरालाल गोस्वामी बताते हैं- 'पंचायत ने नदी पर स्टापडैम के लिये प्रस्ताव बनाकर भेजा था। लेकिन सफल नहीं हो सके तो ग्रामीणों के साथ श्रमदान से हमने कच्चा बाँध बनाकर आपने गाँव के लिये पानी रोक लिया है। अब ग्रामीणों को भी नदी और तालाबों का महत्त्व समझ आने लगा है। अगले साल गाँव में पानी के लिये कुछ और काम करने की इच्छा है। गाँव और खेतों के पास पानी रोकने की संरचनाएँ बनाएँगे। पेड़ लगाएँगे। एक तालाब भी जन भागीदारी से बनाने पर विचार चल रहा है। पानी और पर्यावरण बचाकर ही हम अपने गाँवों को बचा सकते हैं। इधर इलाके में पानी का संकट सबसे बड़ा है। हमने खेती के लिये जमीन का सारा पानी उलीच डाला। अब कहाँ से लाएँ...? इसीलिये अब बारिश के पानी को रोककर उसके सही इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है।'
पंचायत सचिव मनोज कुमार का कहना है कि बीते सालों में हमारे पूर्वज इस बात का ध्यान रखते थे कि बारिश का पानी धरती में रंजता रहे ताकि धरती में पानी का भण्डार बढ़ता रहे लेकिन आजकल किसी का इस बात पर ध्यान नहीं जाता। धरती में यथोचित पानी जा ही नहीं रहा तो रंजते हुए जमीन की कोख तक कैसे जाएगा। हजारों सालों में हमारे पूर्वजों ने जो पानी बचाया था, उसे हम उन्नत खेती के नाम पर गँवा चुके। बरसाती पानी को गाँव और खेतों में रोकने के लिये हमारे पास कोई संसाधन नहीं हैं। बारिश में जंगलों और पहाड़ियों से पानी नदी नालों से व्यर्थ बह जाता है, उसे रोकने की महती जरूरत है। खेती से मुनाफा कमाने की होड़ में लोगों ने क्षेत्र में पानी के संकट को आमंत्रित कर लिया है। हालांकि अब बेहरी के लोगों ने तो अपनी गलती सुधार ली है।'
बागली विकासखण्ड में बेहरी सहित छतरपुरा, नयापुरा, नानूखेड़ा, चारिया, चापड़ा, हाटपीपल्या, आमला ताज, टप्पा, झिकड़ाखेड़ा, भमोरी, आगुरली, मोखा पीपल्या, देवगढ़, करोंदिया, नेवरी, अरलावदा, गुनेरा, लखवाड़ा, पांजरिया, बावड़ीखेड़ा और अवल्दा-अवल्दी आदि 50 गाँवों में सबसे ज्यादा बोरिंग करवाए गए हैं। कई गाँवों में तो ढाई सौ से चार सौ तक ट्यूबवेल हैं।
बीते सालों में इस क्षेत्र में प्याज, लहसुन तथा आलू की बम्पर पैदावार होने से किसानों ने पानी उलीचने के लिये जी जान लगा दी। इन फसलों में पानी की खपत बहुत ज्यादा होती है। कई किसान इस वजह से कर्ज के दलदल में बुरी तरह फँस चुके हैं।
बेहरी की महिला बसंती बाई कहती हैं- 'अभी बीस पच्चीस साल में पानी की किल्लत बढ़ी है। इससे पहले हमने इलाके में कभी पानी की दिक्कत न देखी न महसूसी। मालवा की तो जमीन ही गहन गम्भीर है लेकिन ट्यूबवेल की होड़ में जमीन का पानी पाताल में चला गया। पानी के संकट का सबसे ज्यादा खामियाजा औरतों को ही उठाना पड़ता है। गाँवों में तो घर-परिवार की जरूरत के लिये औरतें ही पानी भरने की जिम्मेदारी निभाती हैं। ऐसे में उन्हें दूर-दूर जाकर पानी लाना पड़ता है। नदी का व्यर्थ पानी बह जाता था, अब रोक लिया है तो तीन-चार महीने पानी की किल्लत से निजात मिलेगी।'
बेहरी गाँव की पंचायत और ग्रामीणों की तरह ही कई और गाँवों को पानी और पर्यावरण की समझ बढ़ानी होगी और स्थानीय स्तर पर वहाँ की जरूरतों के हिसाब से ऐसे काम करने होंगे कि उनका भी गाँव 'पानीदार' बन सके, इस तरह ग्रामीण भूजल भण्डार के मनमाने दोहन का प्रायश्चित भी कर सकेंगे।
कोई भी सरकार कभी भी हर गाँव के लिये पानी मुहैया नहीं करा सकती। स्थानीय ग्रामीण ही अपने पसीने से अपने हिस्से का बरसाती पानी रोककर इसका सही-सही इस्तेमाल कर सकते हैं। यह सिर्फ पर्यावरण के लिये ही ज़रुरी नहीं है बल्कि हमारे जीवन के लिये भी बहुत जरूरी है। पानी के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
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