आज भारत आर्थिक साम्राज्यवाद की जिस मंडी की गिरफ्त में है, वहां आदर्शों का मोलभाव सट्टेबाजों की बोलियों की तरह होता है। ऐसे में पहले आर्थिक साम्राज्यवाद की बाहर निकलकर, आदर्श राष्ट्रवाद को जमीन पर उतारा जाए। इसके बगैर, आदर्श ग्राम की बात करना दिखावटी बोल ही हैं। ये सब विचार सही हो सकते हैं। किंतु इन विचारों को आगे बढाने से योजना और इसके लाभार्थियों को कुछ भला नहीं होगा।पंडित दीनदयाल उपाध्याय, महात्मा गांधी और जेपी; तीन वैचारिक शक्तियां, तीन तारीखें और तीन श्रीगणेश: क्रमशः 25 सितम्बर को ‘मेक इन इंडिया’, दो अक्तूबर को ‘स्वच्छ भारत’ और 11 अक्तूबर को ‘सांसद आदर्श ग्राम’। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं; इसके भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे अच्छी राजनीति की शुरुआत कहा। कहने वाले इसे प्रतीक पुरुषों का राजनैतिक इस्तेमाल भी कह सकते हैं। खैर, विपक्षी इसे दिखावटी बोल कह रहे हैं। आप इसे देश के समक्ष चुनौती बनकर खड़े महंगाई, भ्रष्टाचार, काला धन वापसी, पर्यावरण, सम्प्रदायवाद, आतंकवाद, सीमा और बुनियादी ढांचे के विकास के जैसे बड़े बुनियादी मुद्दों से ध्यान भटकाने की राजनैतिक कोशिश भी कह सकते हैं। आप इसे निवेश की भूख में सर्वहित भूल जाने के आरोप से बचने की साजिश कहने के लिए भी स्वतंत्र हैं। आप कह सकते हैं कि आज भारत आर्थिक साम्राज्यवाद की जिस मंडी की गिरफ्त में है, वहां आदर्शों का मोलभाव सट्टेबाजों की बोलियों की तरह होता है। ऐसे में पहले आर्थिक साम्राज्यवाद की बाहर निकलकर, आदर्श राष्ट्रवाद को जमीन पर उतारा जाए। इसके बगैर, आदर्श ग्राम की बात करना दिखावटी बोल ही हैं। ये सब विचार सही हो सकते हैं। किंतु इन विचारों को आगे बढाने से योजना और इसके लाभार्थियों को कुछ भला नहीं होगा। अतः यदि हम चाहते हैं कि यह योजना कुछ सकारात्मक परिणाम दे सके, तो सिक्के के दूसरे पहलू पर चर्चा कर लेना ज्यादा मुफीद रहेगा।
सिक्के के दूसरे पहलू पर गौर करें, तो हम इसे आज भी प्रासंगिक विचारों को व्यवहार में उतारने की एक सकारात्मक कवायद के तौर पर भी देख सकते हैं। आज हमारे राजनेता व राजनैतिक कार्यकर्ता अपने दलों के प्रेरकों से न तो पूर्ण परिचित होते हैं और न ही उनके संदेशों के अनुकरण में कोई रुचि रखते हैं। यही कारण हैं कि पार्टियां भिन्न होने के बावजूद हम राजनैतिक कार्यकर्ताओं व नेताओं के चरित्र में बहुत भिन्नता नहीं पाते। यह योजना, भिन्न करने और दिखने का एक मौका प्रदान करती है। यह योजना, अच्छे विचारों को कर्म में उतारने में विश्वास रखने वाले सांसदों के लिए आगे आने का एक अवसर देती है। सिर्फ जनप्रतिनिधि नहीं, जनता को भी चाहिए कि वह इस योजना का इस्तेमाल, जनप्रतिनिधि और जनता के साझे उपक्रम का नायाब नमूना पेश करने की पायलट परियोजना के तौर पर करे।
आप निराशा जता सकते हैं कि जो संसद, खुद आज तक आदर्श सांसदों का गांव नहीं बन पाई, उसके सांसदों से सांसद आदर्श ग्राम योजना में प्रस्तावित मूल्यों की स्थापना की पहल की उम्मीद ही बेमानी है। हम कह सकते हैं कि जो सांसद, स्वयं सामाजिक न्याय, स्वानुशासन, पारदर्शिता और जवाबदेही के मानकों पर कभी खरे नहीं उतरे, उनसे कैसे उम्मीद करें कि वे योजना के गांवों में ये मूल्य स्थापित कर सकेंगे? बस! यही निराशा, इस योजना को लेकर आशा का संचार करती है।
यह योजना सिर्फ पैसे की सफाई साबित न हो, इसलिए इस योजना को सिर्फ ढांचागत विकास तक सीमित नहीं रखा गया है। दांतों की सफाई, हाथों की सफाई, मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता, सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता, व्यायाम, योग, खेल जैसी छोटी-छोटी गतिविधियों को इसमें शामिल किया गया है। ये गतिविधियां स्वावलंबन लाएंगी या आयोडीन नमक, टीका, टूथपेस्ट और पोषण के नाम बढ़े बाजार का गांव में दखल और बढ़ाएंगी; यह एक अलग और समग्र बहस का विषय है। फिर भी हम ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ में शामिल लैंगिक समानता, महिला सुरक्षा, सामाजिक न्याय, उत्थान, शांति, सौहार्द, साफ-सफाई और पर्यावरण की बेहतरी की अपेक्षित मानकों की जरूरत को नकार नहीं सकते। सार्वजनिक जीवन में सहयोग, आत्मनिर्भरता, स्वानुशासन, पारदर्शिता तथा जवाबदेही जैसे मूल्यों को सुनिश्चित करना जैसी शर्तें इस योजना की सफलता के मानक है। इन मूल्यों की पूर्ति के प्रतिशत पर ही योजना की सफलता का प्रतिशत तय होगा।
इन मूल्यों और इन्हे लागू करने की जिम्मेदारी सांसदों पर डालने का विचार ही इस योजना को अंबेडकर ग्राम, लोहिया ग्राम और मनमोहन सिंह द्वारा 23 जुलाई, 2010 को शुरू की गई प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना जैसी पूर्व योजनाओं से भिन्न बनाता है। सांसद आदर्श ग्राम योजना जातीय, धर्म तथा अमीरी-गरीबी के आधार पर विभेद नहीं करती। यह इसका गुण भी हो सकता है, अवगुण भी। यह सांसदों की ईमानदारी पर निर्भर करेगा। इस दृष्टि से सांसद आदर्श ग्राम योजना, सांसदों के आदर्श की परीक्षा की पहल भी है। सांसदों का इस इम्तहान की खूबी यह है, जिसमें जनता का भी फायदा होने वाला है। प्रश्न-पत्र बांटे जा चुके हैं। सांसद इस परीक्षा में फेल न हों, इसलिए उत्तर भी बता दिए गए हैं। गांधी, विनोबा और जेपी की लिखी इबारत उन्हें दे दी गई है। उन्हे सिर्फ इस इबारत को दोबारा लिखना है। कॉपी कैसी हो, यह उन्हे खुद चुनना है। बस! घर और ससुराल से कॉपी लाने की मनाही है।
गौर करें तो भारत के गांव की मूल अवधारणा, भिन्न जाति-धर्म-वर्ण-वर्ग के होते हुए भी ये सब न होकर समुदाय हो जाने में टिकी थी। समुदाय की भारतीय परिकल्पना दो सांस्कृतिक बुनियादों पर टिकी है : ‘सहजीवन’ और ‘सहअस्तित्व’। यह बुनियाद जीवन विकास संबंधी डार्विन के उस वैज्ञानिक सिद्धांत को पुष्टी करती है, जो परिस्थिति के प्रतिकूल रहने पर मिट जाने और अनुकूल तथा सक्रिय रहने पर विकसित होने की बात कहता है। यह समुदाय हो जाना ही विविधता में एकता है। समुदाय होकर ही भारत का गांव समाज सदियों तक ऐसी परिस्थितियों में भी टिका रहा, लॉर्ड मेटकाफ की नजरों में जिन परिस्थितियों में दूसरी हर वस्तु... व्यवस्था का अस्तित्व मिट जाता है। संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार : ये किसी भी समुदाय के संचालन के पांच सूत्र हैं। इन पांच सूत्रों को सुचारु बनाकर ही आज हम गांवों की खो गई मूल शक्ति लौटा सकते हैं।
गांव की मूल शक्ति क्या है? शुद्धता, स्वावलंबन, साझा, सामाजिक जीवंतता और कम से कम बाहरी दखल। आज गांवों की मूल चुनौतियां क्या हैं? चुनाव जीतने के एकमेव लक्ष्य वाली वर्तमान राजनीति, बाजार और कानून का बढ़ता दखल। समाधान है, बाजार की जगह, अपना पानी, अपनी मेड़, अपना खेत, अपनी रोटी, अपनी बोली, अपना भेष; कानून के दखल की जगह सही मायने में अपनी ग्रामसभा, अपनी पंचायत और चुनाव की जगह सर्वसम्मति। इस बिंदु पर आदर्श ग्राम का गांधी विचार, प्रत्येक गांव को एक पूर्ण गणराज्य के रूप में देखता था। नेहरु का लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण चाहते थे। राजीव गांधी ने संविधान के 73वें संशोधन के जरिए सत्ता सीधे गांव के हाथ में सौंपने का सपना देखा। विनोबा के गांव को गोकुल बनाना चाहते थे। उनके आदर्श गांव में गीता और कुरान के मिलने, चरखे का सूरज निकलने, समता के पौधे पनपने, एक बनने - नेक बनने, भूमिहीन को भूमि और गरीबी से मुक्ति के सपने थे। विनोबा चाहते थे कि घर-परिवार की तरह, गांव भी एक परिवार जैसा हो। जयप्रकाश ने सहभागी लोकतंत्र की परिकल्पना की थी। लोहिया ने केन्द्र, राज्य, स्थानीय निकाय और ग्राम सभा को चार खंभे मानकर चौखंभा विकास की अवधारणा सामने रखा।
सांसद आदर्श गांव की इस परिकल्पना में कुछ जोड़ने-घटाने से पहले देखना चाहिए कि आज हमारे को खेल के मैदान से ज्यादा जरूरत, चारागाह की है। जहां जरूरत दो ग्रामीण पर एक मवेशी की है, वहां आज सात व्यक्ति पर एक मवेशी का अनुपात है। मवेशियों की पर्याप्त संख्या, अकाल में आत्महत्या रोक सकती है। चारा होगा तो खेतों को खाद मिलेगी। उत्पादन की गुणवत्ता बढेगी और गांव की सेहत की भी। अतः आदर्श गांव की परिकल्पना में अच्छे मवेशी, अच्छा पानी, अच्छी खेती और अच्छे बीज को भी शामिल करना चाहिए।
भारत की प्राथमिक विद्यालयों के एक चौथाई अध्यापक अनुपस्थित रहते हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बिना डॉक्टर, नर्सों और आशा बहन जी के भरोसे चलते हैं। आदर्श ग्राम वह माना जाए, जहां अध्यापक/डॉक्टर/ग्राम सेवक पूरा समय आएं भी और अपना काम निभाएं भी। जिस गांव के सभी बच्चे पढें। कोई बेरोजगार न हो। सभी को कुछ न कुछ हुनर आता हो। गांव में कोई मुकदमा न हो। गांव में कोई नशा न करता हो। गांव में कोई साहूकार का कर्जदार न हो। ग्राम सभा व पंचायत अपने अधिकार और कर्तव्य की पूरी पालन करते हों। केन्द्र व राज्य की योजनाओं को पूरा लाभ प्रत्येक लाभार्थी को मिलता हो। जिस गांव का निवासी अपने काम के लिए न खुद घूस देता हो और न ही प्रधान, पंच, कोटेदार और ग्राम सेवक को घूस खाने देता हो।
गौर करें कि अभी 65 प्रतिशत ग्रामीण आबादी का देश होने के बावजूद खेती का सकल घरेलु उत्पाद में योगदान मात्र 19 प्रतिशत है। निर्माण उद्योग का योगदान 55 प्रतिशत है। मोदी जी इसे और बढ़ाने की बात कह रहे हैं। यदि यह योगदान सिर्फ विदेशी निवेश और शहरी उद्योगों के जरिए बढाने की कोशिश की गई, तो गांवों का गांव बने रहना ही मुश्किल होगा, आदर्श और गैर-आदर्श ग्राम की बात तो दूर की है। सरकार लघु-मध्यम उद्योग नीति लाने वाली है। उसने ‘दीनदयाल श्रमेव जयते’ कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। अच्छा हो कि सरकार, ग्रामोद्योगों के लाइसेंस, उत्पादन को आसान बनाने तथा उत्पादों की सरकारी खरीद व निर्यात में हिस्सेदारी बढाने वाली किसी नीति की घोषणा करे।
याद रखने की बात है कि 1972 के चुनाव से एक साल पहले ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देकर इंदिरा गांधी ने भी लोगों की उम्मीदों पर आसमान पर चढाया था। लोगों ने भी बम्पर वोट देकर उन्हें आसमान पर चढाया। किंतु 1972 से 1977 के बीच सत्ता और व्यवस्था में भरपूर गिरावट हुई। सारी व्यवस्था एक मुट्टी में केन्द्रित हो गई थी। मोदी जी की कार्यशैली को देखें तो, खतरा आज भी यही है। तब जेपी का बिगुल बजा था और गरीबी हटाने का नारा देने वाली प्रधानमंत्री को खुद हटना पड़ा था। अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी भी जनाकांक्षाओं को आसमान पर चढाकर व्यवहार में न उतार पाने की अक्षमता की ही बलि चढी। यह चुनौती वर्तमान प्रधानमंत्री के लिए भी रहेगी। जांच, वाराणसी लोकसभा के तीन गांवों की भी होगी। जनता पांच साल में नहीं, बीच के हर चुनाव में सेलेक्ट और रिजेक्ट करेगी।
(मो. 09868793799)
सांसदों के लिए भिन्न करने का मौका
सिक्के के दूसरे पहलू पर गौर करें, तो हम इसे आज भी प्रासंगिक विचारों को व्यवहार में उतारने की एक सकारात्मक कवायद के तौर पर भी देख सकते हैं। आज हमारे राजनेता व राजनैतिक कार्यकर्ता अपने दलों के प्रेरकों से न तो पूर्ण परिचित होते हैं और न ही उनके संदेशों के अनुकरण में कोई रुचि रखते हैं। यही कारण हैं कि पार्टियां भिन्न होने के बावजूद हम राजनैतिक कार्यकर्ताओं व नेताओं के चरित्र में बहुत भिन्नता नहीं पाते। यह योजना, भिन्न करने और दिखने का एक मौका प्रदान करती है। यह योजना, अच्छे विचारों को कर्म में उतारने में विश्वास रखने वाले सांसदों के लिए आगे आने का एक अवसर देती है। सिर्फ जनप्रतिनिधि नहीं, जनता को भी चाहिए कि वह इस योजना का इस्तेमाल, जनप्रतिनिधि और जनता के साझे उपक्रम का नायाब नमूना पेश करने की पायलट परियोजना के तौर पर करे।
आप निराशा जता सकते हैं कि जो संसद, खुद आज तक आदर्श सांसदों का गांव नहीं बन पाई, उसके सांसदों से सांसद आदर्श ग्राम योजना में प्रस्तावित मूल्यों की स्थापना की पहल की उम्मीद ही बेमानी है। हम कह सकते हैं कि जो सांसद, स्वयं सामाजिक न्याय, स्वानुशासन, पारदर्शिता और जवाबदेही के मानकों पर कभी खरे नहीं उतरे, उनसे कैसे उम्मीद करें कि वे योजना के गांवों में ये मूल्य स्थापित कर सकेंगे? बस! यही निराशा, इस योजना को लेकर आशा का संचार करती है।
भिन्नता के सूत्र
यह योजना सिर्फ पैसे की सफाई साबित न हो, इसलिए इस योजना को सिर्फ ढांचागत विकास तक सीमित नहीं रखा गया है। दांतों की सफाई, हाथों की सफाई, मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता, सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता, व्यायाम, योग, खेल जैसी छोटी-छोटी गतिविधियों को इसमें शामिल किया गया है। ये गतिविधियां स्वावलंबन लाएंगी या आयोडीन नमक, टीका, टूथपेस्ट और पोषण के नाम बढ़े बाजार का गांव में दखल और बढ़ाएंगी; यह एक अलग और समग्र बहस का विषय है। फिर भी हम ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ में शामिल लैंगिक समानता, महिला सुरक्षा, सामाजिक न्याय, उत्थान, शांति, सौहार्द, साफ-सफाई और पर्यावरण की बेहतरी की अपेक्षित मानकों की जरूरत को नकार नहीं सकते। सार्वजनिक जीवन में सहयोग, आत्मनिर्भरता, स्वानुशासन, पारदर्शिता तथा जवाबदेही जैसे मूल्यों को सुनिश्चित करना जैसी शर्तें इस योजना की सफलता के मानक है। इन मूल्यों की पूर्ति के प्रतिशत पर ही योजना की सफलता का प्रतिशत तय होगा।
शामिल मूल्य और सांसदों की जवाबदेही
इन मूल्यों और इन्हे लागू करने की जिम्मेदारी सांसदों पर डालने का विचार ही इस योजना को अंबेडकर ग्राम, लोहिया ग्राम और मनमोहन सिंह द्वारा 23 जुलाई, 2010 को शुरू की गई प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना जैसी पूर्व योजनाओं से भिन्न बनाता है। सांसद आदर्श ग्राम योजना जातीय, धर्म तथा अमीरी-गरीबी के आधार पर विभेद नहीं करती। यह इसका गुण भी हो सकता है, अवगुण भी। यह सांसदों की ईमानदारी पर निर्भर करेगा। इस दृष्टि से सांसद आदर्श ग्राम योजना, सांसदों के आदर्श की परीक्षा की पहल भी है। सांसदों का इस इम्तहान की खूबी यह है, जिसमें जनता का भी फायदा होने वाला है। प्रश्न-पत्र बांटे जा चुके हैं। सांसद इस परीक्षा में फेल न हों, इसलिए उत्तर भी बता दिए गए हैं। गांधी, विनोबा और जेपी की लिखी इबारत उन्हें दे दी गई है। उन्हे सिर्फ इस इबारत को दोबारा लिखना है। कॉपी कैसी हो, यह उन्हे खुद चुनना है। बस! घर और ससुराल से कॉपी लाने की मनाही है।
गांव समाज की भारतीय अवधारणा
गौर करें तो भारत के गांव की मूल अवधारणा, भिन्न जाति-धर्म-वर्ण-वर्ग के होते हुए भी ये सब न होकर समुदाय हो जाने में टिकी थी। समुदाय की भारतीय परिकल्पना दो सांस्कृतिक बुनियादों पर टिकी है : ‘सहजीवन’ और ‘सहअस्तित्व’। यह बुनियाद जीवन विकास संबंधी डार्विन के उस वैज्ञानिक सिद्धांत को पुष्टी करती है, जो परिस्थिति के प्रतिकूल रहने पर मिट जाने और अनुकूल तथा सक्रिय रहने पर विकसित होने की बात कहता है। यह समुदाय हो जाना ही विविधता में एकता है। समुदाय होकर ही भारत का गांव समाज सदियों तक ऐसी परिस्थितियों में भी टिका रहा, लॉर्ड मेटकाफ की नजरों में जिन परिस्थितियों में दूसरी हर वस्तु... व्यवस्था का अस्तित्व मिट जाता है। संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार : ये किसी भी समुदाय के संचालन के पांच सूत्र हैं। इन पांच सूत्रों को सुचारु बनाकर ही आज हम गांवों की खो गई मूल शक्ति लौटा सकते हैं।
गांवों की मूल शक्ति लौटे, तभी आदर्श
गांव की मूल शक्ति क्या है? शुद्धता, स्वावलंबन, साझा, सामाजिक जीवंतता और कम से कम बाहरी दखल। आज गांवों की मूल चुनौतियां क्या हैं? चुनाव जीतने के एकमेव लक्ष्य वाली वर्तमान राजनीति, बाजार और कानून का बढ़ता दखल। समाधान है, बाजार की जगह, अपना पानी, अपनी मेड़, अपना खेत, अपनी रोटी, अपनी बोली, अपना भेष; कानून के दखल की जगह सही मायने में अपनी ग्रामसभा, अपनी पंचायत और चुनाव की जगह सर्वसम्मति। इस बिंदु पर आदर्श ग्राम का गांधी विचार, प्रत्येक गांव को एक पूर्ण गणराज्य के रूप में देखता था। नेहरु का लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण चाहते थे। राजीव गांधी ने संविधान के 73वें संशोधन के जरिए सत्ता सीधे गांव के हाथ में सौंपने का सपना देखा। विनोबा के गांव को गोकुल बनाना चाहते थे। उनके आदर्श गांव में गीता और कुरान के मिलने, चरखे का सूरज निकलने, समता के पौधे पनपने, एक बनने - नेक बनने, भूमिहीन को भूमि और गरीबी से मुक्ति के सपने थे। विनोबा चाहते थे कि घर-परिवार की तरह, गांव भी एक परिवार जैसा हो। जयप्रकाश ने सहभागी लोकतंत्र की परिकल्पना की थी। लोहिया ने केन्द्र, राज्य, स्थानीय निकाय और ग्राम सभा को चार खंभे मानकर चौखंभा विकास की अवधारणा सामने रखा।
दैनिक जरूरतों की पूर्ति जरूरी
सांसद आदर्श गांव की इस परिकल्पना में कुछ जोड़ने-घटाने से पहले देखना चाहिए कि आज हमारे को खेल के मैदान से ज्यादा जरूरत, चारागाह की है। जहां जरूरत दो ग्रामीण पर एक मवेशी की है, वहां आज सात व्यक्ति पर एक मवेशी का अनुपात है। मवेशियों की पर्याप्त संख्या, अकाल में आत्महत्या रोक सकती है। चारा होगा तो खेतों को खाद मिलेगी। उत्पादन की गुणवत्ता बढेगी और गांव की सेहत की भी। अतः आदर्श गांव की परिकल्पना में अच्छे मवेशी, अच्छा पानी, अच्छी खेती और अच्छे बीज को भी शामिल करना चाहिए।
भारत की प्राथमिक विद्यालयों के एक चौथाई अध्यापक अनुपस्थित रहते हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बिना डॉक्टर, नर्सों और आशा बहन जी के भरोसे चलते हैं। आदर्श ग्राम वह माना जाए, जहां अध्यापक/डॉक्टर/ग्राम सेवक पूरा समय आएं भी और अपना काम निभाएं भी। जिस गांव के सभी बच्चे पढें। कोई बेरोजगार न हो। सभी को कुछ न कुछ हुनर आता हो। गांव में कोई मुकदमा न हो। गांव में कोई नशा न करता हो। गांव में कोई साहूकार का कर्जदार न हो। ग्राम सभा व पंचायत अपने अधिकार और कर्तव्य की पूरी पालन करते हों। केन्द्र व राज्य की योजनाओं को पूरा लाभ प्रत्येक लाभार्थी को मिलता हो। जिस गांव का निवासी अपने काम के लिए न खुद घूस देता हो और न ही प्रधान, पंच, कोटेदार और ग्राम सेवक को घूस खाने देता हो।
ग्रामोद्योग, तभी समग्र संजोग
गांधी ने तत्कालीन सात लाख गांवों की अर्थ-रचना को सामने रखते हुए स्पष्ट चेतावनी दी थी- “यदि ग्रामोद्योगों का लोप हो गया, तो भारत के सात लाख गांवों का सर्वनाश हो गया समझिए।” वह तो ढांचागत निर्माण हेतु गांव के पांच किलोमीटर के भीतर उपलब्ध सामग्री का ही उपयोग करने की मंजूरी देते थे। विश्लेषण करें तो गांवों में पहुंची दूसरी बुराइयों की बड़ी वजह खेती कटाई-बिजाई का समय छोड़ काम का न होना है। ‘खाली समय शैतान का घर’ - यह कहावत पुरानी है। मनरेगा एक वर्ग विशेष के लिए काम दे सका है। ग्रामोद्योग ही इस कमी की पूर्ति कर सकते हैं। अतः हर गांव के ग्रामोद्योग की रक्षा और विकास को आदर्श ग्राम का मानक बनना ही चाहिए। गांवों को कंपनी के फावड़ा, प्लास्टिक के कप-पत्तलों और अंग्रेजी दवाइयों की जगह, गांव के लुहार का फावड़ा, कुम्हार का कुल्हड़, पत्तल और देशज चिकित्सा की ज्ञान पद्धति लौटानी ही होगी।गौर करें कि अभी 65 प्रतिशत ग्रामीण आबादी का देश होने के बावजूद खेती का सकल घरेलु उत्पाद में योगदान मात्र 19 प्रतिशत है। निर्माण उद्योग का योगदान 55 प्रतिशत है। मोदी जी इसे और बढ़ाने की बात कह रहे हैं। यदि यह योगदान सिर्फ विदेशी निवेश और शहरी उद्योगों के जरिए बढाने की कोशिश की गई, तो गांवों का गांव बने रहना ही मुश्किल होगा, आदर्श और गैर-आदर्श ग्राम की बात तो दूर की है। सरकार लघु-मध्यम उद्योग नीति लाने वाली है। उसने ‘दीनदयाल श्रमेव जयते’ कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। अच्छा हो कि सरकार, ग्रामोद्योगों के लाइसेंस, उत्पादन को आसान बनाने तथा उत्पादों की सरकारी खरीद व निर्यात में हिस्सेदारी बढाने वाली किसी नीति की घोषणा करे।
परीक्षार्थी मोदी भी, जांचेंगी जनता
याद रखने की बात है कि 1972 के चुनाव से एक साल पहले ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देकर इंदिरा गांधी ने भी लोगों की उम्मीदों पर आसमान पर चढाया था। लोगों ने भी बम्पर वोट देकर उन्हें आसमान पर चढाया। किंतु 1972 से 1977 के बीच सत्ता और व्यवस्था में भरपूर गिरावट हुई। सारी व्यवस्था एक मुट्टी में केन्द्रित हो गई थी। मोदी जी की कार्यशैली को देखें तो, खतरा आज भी यही है। तब जेपी का बिगुल बजा था और गरीबी हटाने का नारा देने वाली प्रधानमंत्री को खुद हटना पड़ा था। अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी भी जनाकांक्षाओं को आसमान पर चढाकर व्यवहार में न उतार पाने की अक्षमता की ही बलि चढी। यह चुनौती वर्तमान प्रधानमंत्री के लिए भी रहेगी। जांच, वाराणसी लोकसभा के तीन गांवों की भी होगी। जनता पांच साल में नहीं, बीच के हर चुनाव में सेलेक्ट और रिजेक्ट करेगी।
(मो. 09868793799)
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