गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा में छोटी, लेकिन बारहमासी नदियों को ‘गाड’ कहा जाता है। ‘गाड’ शब्द ‘गाद’ का स्थानीय रूप है। ‘गाद’ नदी में आने वाले मलबे को कहते हैं। अंग्रेजी में अत्यधिक कीचड़ के कारण मड और बारीक तलछट के कारण ‘सिल्ट’ कहते हैं। पर्वतीय क्षेत्र में बड़ी नदियों को छोड़कर तमाम छोटी नदियों को ‘गाड’ के नाम से जाना जाता है। यही गाड वर्षा ऋतु में पहाड़ों से आने वाले मलबे अथवा गाद को बड़ी नदी तक ले जाती हैं। कुछ बारहमासी ऐसी छोटी नदियां हैं, जो अधिक पानी की मात्र के कारण सदानीरा बनी रहती हैं।
छोटी नदियां ही पर्वतीय क्षेत्र की जनसंख्या को पीने का और खेती का पानी मुहैया कराती हैं। इन नामधारी छोटी नदियों में कई ‘गदेरे’ आकर मिलते हैं। कुछ गदेरे बारहमासी होते हैं, कुछ केवल बरसाती। बारहमासी ‘गदेरे’ प्राकृतिक रूप से अन्य ऋतुओं में केवल वर्षा जल के साथ जीवित रहकर प्रवाहित होते हैं। वर्षा ऋतु में ये भी पहाड़ों से आने वाली ‘गाद’ के साथ रौद्र रूप धारण कर लेते हैं। ‘गदेरे’ मूलत: वर्षा जल के निकास मार्ग हैं।
‘गदेरे’ भी कुछ बड़े, कुछ छोटे होते हैं। गदेरों की गणना करना संभव नहीं है, लेकिन ‘गदेरों’ से मिलकर जो छोटी नदियां बनती हैं, उनका नाम और जल की मात्र (प्रवाह शक्ति) सहित कोई गणना अभी तक उत्तराखंड में नहीं हुई है। जनगणना की तरह ‘नदी गणना’ भी एक अनिवार्य काम होना चाहिए। कितनी ही छोटी नदियां मरती जा रही हैं। उनका पानी काफी कम होता जा रहा है। वे केवल बरसाती गदेरों (नालों) में बदलती जा रही हैं।
भारत के पर्यावरणविद और पर्यावरणवादी केवल बड़ी नदियों में भी कुछ पौराणिक और धार्मिक पवित्रता से जुड़ी नदियों के बारे में चिंतित रहते हैं। यह चिंता बड़ी नदियों की जनक छोटी नदियों से कभी नहीं जुड़ती। जबकि हमारा ध्यान सबसे पहले बड़ी नदियों को भरने वाली छोटी नदियों पर होना चाहिए। उन पनिहारिन नदियों से ही बड़ी नदियों का कलरव करता हुआ कलेवर बनता है।
बड़ी नदियों पर बने हुए बांधों में अत्यधिक गाद आने से पावर हाउसों की बिजली उत्पादन क्षमता में बहुत गिरावट आई है। लेकिन हमारा ध्यान ‘गाद’ लाने वाली छोटी नदियों पर कतई नहीं है। अगर योजनाएं इस तरह बनी होतीं कि पहले छोटी नदियों पर जलसंग्रह करने वाले बांध बनाए जाते, उन पर भी छोटे-छोटे बिजली उत्पादन केन्द्र बनाए जाते तो बिजली उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ निरंतरता भी बनी रहती। साथ ही पहाड़ों से आने वाले भूक्षरण के गाद की भी रोकथाम हो जाती। वह गाद बड़ी नदियों तक न आ पाती और बड़ी नदियों का प्रवाह तथा उत्पादन बिना किसी व्यवधान के निरंतर चलता रहता।
अगर बड़े बांधों और पावर हाउसों को लंबी उम्र का बनाना है, उनकी प्रवहण और उत्पादन क्षमता में यदि गिरावट नहीं आने देनी है तो छोटी नदियों को उनके नाम, काम और जल उत्सजर्न क्षमता के साथ जांचा-परखा जाना भविष्य संवारने के लिए जरूरी है। जब वन्य जीवों में शेरों और बाघों तक की गणना करवाई जा रही है तो प्रत्येक दस वर्ष में नदियों की भी गणना क्यों नहीं करवाई जाती। न केवल मनुष्यों की बल्कि जानवरों और पशु-पक्षियों की प्यास भी वे ही छोटी नदियां बड़े पैमाने पर प्रचीनकाल से बुझाती आ रही हैं। छोटी नदियों की जल संग्रहण और उत्सजर्न की क्षमता का आकलन भविष्य में पानी की फसल को ठीक से संग्रहीत करने के काम आएगा।
इन छोटी नदियों के नामों में उनकी कुछ विशिष्टताएं छिपी हैं। जिस नदी का नाम ‘नौगड्डा’ है, वह नौ छोटी नदियों से बनी है और जिसका नाम ‘दुगड्डा’ है, वह दो छोटी नदियों के संगम से बनी है। जिसका नाम ‘जोंकानी’ है, वह बारहमासी छोटी नदी हैं और उसमें जोंकें बहुत होती हैं। पर्वतीय क्षेत्र में कई छोटी नदियों का नाम प्राय: सभी क्षेत्रों में ‘मुलगाड’ है। यह मूल नदी के अर्थ में इस्तेमाल होता है। छोटी मूल नदियों में पानी मौसम के हिसाब से घटता-बढ़ता रहता है, लेकिन वे मूल नदियां कभी सूखती नहीं हैं। अगर मूल नदी कहीं सूख गई है या सूखना शुरू हो गई है तो यह खतरे की घंटी है। छोटी-छोटी नदियां मिलकर अपनी ही कुछ बड़ी नदियों को अपने संगम से और बड़ा बनाती हैं।
इसलिए सबसे पहले छोटी नदियों के संरक्षण, उपचार और जलग्रहण क्षेत्र को बढ़ाया जाना आवश्यक है। बर्फ से उत्पन्न होने वाली नदियों को ये छोटी नदियां ही जंगलों में फैले प्राकृतिक औषधीय पादपों और औषधीय शिलाओं (शिलाजीत) के जीवनदायी गुणों से आपूरित करती हैं। छोटी नदियों पर छोटे जलसंग्रही बांध बनाकर खेती की दशा में सुधार लाया जा सकता है।
लेखक प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हैं
छोटी नदियां ही पर्वतीय क्षेत्र की जनसंख्या को पीने का और खेती का पानी मुहैया कराती हैं। इन नामधारी छोटी नदियों में कई ‘गदेरे’ आकर मिलते हैं। कुछ गदेरे बारहमासी होते हैं, कुछ केवल बरसाती। बारहमासी ‘गदेरे’ प्राकृतिक रूप से अन्य ऋतुओं में केवल वर्षा जल के साथ जीवित रहकर प्रवाहित होते हैं। वर्षा ऋतु में ये भी पहाड़ों से आने वाली ‘गाद’ के साथ रौद्र रूप धारण कर लेते हैं। ‘गदेरे’ मूलत: वर्षा जल के निकास मार्ग हैं।
‘गदेरे’ भी कुछ बड़े, कुछ छोटे होते हैं। गदेरों की गणना करना संभव नहीं है, लेकिन ‘गदेरों’ से मिलकर जो छोटी नदियां बनती हैं, उनका नाम और जल की मात्र (प्रवाह शक्ति) सहित कोई गणना अभी तक उत्तराखंड में नहीं हुई है। जनगणना की तरह ‘नदी गणना’ भी एक अनिवार्य काम होना चाहिए। कितनी ही छोटी नदियां मरती जा रही हैं। उनका पानी काफी कम होता जा रहा है। वे केवल बरसाती गदेरों (नालों) में बदलती जा रही हैं।
भारत के पर्यावरणविद और पर्यावरणवादी केवल बड़ी नदियों में भी कुछ पौराणिक और धार्मिक पवित्रता से जुड़ी नदियों के बारे में चिंतित रहते हैं। यह चिंता बड़ी नदियों की जनक छोटी नदियों से कभी नहीं जुड़ती। जबकि हमारा ध्यान सबसे पहले बड़ी नदियों को भरने वाली छोटी नदियों पर होना चाहिए। उन पनिहारिन नदियों से ही बड़ी नदियों का कलरव करता हुआ कलेवर बनता है।
बड़ी नदियों पर बने हुए बांधों में अत्यधिक गाद आने से पावर हाउसों की बिजली उत्पादन क्षमता में बहुत गिरावट आई है। लेकिन हमारा ध्यान ‘गाद’ लाने वाली छोटी नदियों पर कतई नहीं है। अगर योजनाएं इस तरह बनी होतीं कि पहले छोटी नदियों पर जलसंग्रह करने वाले बांध बनाए जाते, उन पर भी छोटे-छोटे बिजली उत्पादन केन्द्र बनाए जाते तो बिजली उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ निरंतरता भी बनी रहती। साथ ही पहाड़ों से आने वाले भूक्षरण के गाद की भी रोकथाम हो जाती। वह गाद बड़ी नदियों तक न आ पाती और बड़ी नदियों का प्रवाह तथा उत्पादन बिना किसी व्यवधान के निरंतर चलता रहता।
अगर बड़े बांधों और पावर हाउसों को लंबी उम्र का बनाना है, उनकी प्रवहण और उत्पादन क्षमता में यदि गिरावट नहीं आने देनी है तो छोटी नदियों को उनके नाम, काम और जल उत्सजर्न क्षमता के साथ जांचा-परखा जाना भविष्य संवारने के लिए जरूरी है। जब वन्य जीवों में शेरों और बाघों तक की गणना करवाई जा रही है तो प्रत्येक दस वर्ष में नदियों की भी गणना क्यों नहीं करवाई जाती। न केवल मनुष्यों की बल्कि जानवरों और पशु-पक्षियों की प्यास भी वे ही छोटी नदियां बड़े पैमाने पर प्रचीनकाल से बुझाती आ रही हैं। छोटी नदियों की जल संग्रहण और उत्सजर्न की क्षमता का आकलन भविष्य में पानी की फसल को ठीक से संग्रहीत करने के काम आएगा।
इन छोटी नदियों के नामों में उनकी कुछ विशिष्टताएं छिपी हैं। जिस नदी का नाम ‘नौगड्डा’ है, वह नौ छोटी नदियों से बनी है और जिसका नाम ‘दुगड्डा’ है, वह दो छोटी नदियों के संगम से बनी है। जिसका नाम ‘जोंकानी’ है, वह बारहमासी छोटी नदी हैं और उसमें जोंकें बहुत होती हैं। पर्वतीय क्षेत्र में कई छोटी नदियों का नाम प्राय: सभी क्षेत्रों में ‘मुलगाड’ है। यह मूल नदी के अर्थ में इस्तेमाल होता है। छोटी मूल नदियों में पानी मौसम के हिसाब से घटता-बढ़ता रहता है, लेकिन वे मूल नदियां कभी सूखती नहीं हैं। अगर मूल नदी कहीं सूख गई है या सूखना शुरू हो गई है तो यह खतरे की घंटी है। छोटी-छोटी नदियां मिलकर अपनी ही कुछ बड़ी नदियों को अपने संगम से और बड़ा बनाती हैं।
इसलिए सबसे पहले छोटी नदियों के संरक्षण, उपचार और जलग्रहण क्षेत्र को बढ़ाया जाना आवश्यक है। बर्फ से उत्पन्न होने वाली नदियों को ये छोटी नदियां ही जंगलों में फैले प्राकृतिक औषधीय पादपों और औषधीय शिलाओं (शिलाजीत) के जीवनदायी गुणों से आपूरित करती हैं। छोटी नदियों पर छोटे जलसंग्रही बांध बनाकर खेती की दशा में सुधार लाया जा सकता है।
लेखक प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हैं
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