बिहार के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री वहां की परिस्थितियों से पूर्णतः परिचित हैं। फिर भी लोगों को नहीं सुना जा रहा है तो यह निष्कर्ष निकालने के लिए लोग स्वतंत्र हैं कि सरकार इस सवाल पर जनविरोधी रवैया अपनाए हुए है। नीतियों के स्तर पर यह रुख ही है, जो अफसरों को चला रहा है और लोगों को दयनीय बना रहा है।
मरवन के लोगों ने लड़ाई जीत ली है। उन्हें निरंतर बिना थके और हिम्मत हारे दो साल लड़ना पड़ा, वह भी एक छोटी सी बात पर। असल में छोटी सी बात राज्य सरकार के लिए है और उस औद्योगिक घराने के लिए है, जिसने वहां एक एस्बेस्टस का कारखाना लगाना शुरू कर दिया था। कोई गोलमाल है, इसकी आशंका गांव वालों को पहले दिन से थी। क्योंकि वहां काम कर रहे कर्मचारी बकायदे गांव वालों पर जासूसी करते थे। संदेह इसी से पैदा हुआ। उसके बाद वे लोग आए, जो एस्बेस्टस से होने वाले नुकसान की जानकारी दे गए।गांव वालों को पहले दिन ही अगर यह मालूम हो जाता कि जो कारखाना लगने जा रहा है, वह लोगों के लिए मौत का सामान बनाएगा तो संभव था कि वे उसे जान पर खेल कर रोकते। फिर उन लोगों को लंबे समय तक संघर्ष नहीं करना पड़ता। यह जमाना जानने और जनाने का है। फिर भी लोगों को एक तरफ नीतीश सरकार ने अंधेरे में रखा तो दूसरी तरफ उस कारखाने के मालिक के कारिंदों ने सच को छिपाया। इतना ही होता तो कोई बात नहीं थी, लेकिन मुजफ्फरपुर जो अपने आप बहुत जागता हुआ जिला है और वहां के लोग आसानी से किसी के गुमराह करने की चाल में नहीं आते, ऐसी जागरूक जनता को भी कारखाने और सरकार की ओर से झूठा आश्वासन दिया जाता रहा कि कारखाने को शुरू करने दीजिए और देखिए कि खुशहाली कैसे फैलती जाएगी।
अब वह कारखाना नहीं बनेगा, यह तय हो गया है। साफ है कि लोग जीते। उनके तर्क को मानना पड़ा। जिस तर्क पर मरवन का कारखाना बंद हुआ है, वही बिहार के दूसरे हिस्से में क्यों नहीं अपनाया जा रहा है! यह सवाल टाक्सिक वाच एलांयस के संयोजक गोपाल कृष्ण ने विभिन्न माध्यमों से उठाया है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग उनमें से एक है। इसका असर भी हुआ है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने विभिन्न मंत्रालयों से पूछा है कि एस्बेस्टस के उपयोग पर आपकी नीति क्या है। इस पर संबंधित मंत्रालयों और राज्य सरकारों का जवाब जानने लायक होगा। लेकिन टाक्सिक वाच एलांयस ने जो आंकड़े आयोग को उपलब्ध कराये हैं, वे किसी को भी चिंता में डूबाने के लिए काफी हैं। एलांयस का दावा है कि हर साल पचास हजार लोग एस्बेस्टस संबंधित कैंसर की वजह से मरते हैं। इससे कहीं कई गुना ज्यादा लोग असाध्य रोगों के शिकार होते हैं।
इस आधार पर ही मानवाधिकार आयोग ने नोटिस भेजा है और केंद्र-राज्य सरकार से सूचना मांगी है। यह ऐसी प्रक्रिया है, जो चलती रहेगी। सरकार कोशिश करेगी कि सूचनाएं बाहर न आएं। नीतीश सरकार हालांकि बहुत सारे मामलों में एक जवाबदेह, जिम्मेदार और संवेदनशील सरकार मानी जाती है, वह कुछ हद तक है भी, लेकिन उसका भी चरित्र मूलतः औपनिवेशिक है, इसलिए वह औद्योगिक घरानों की पक्षधर होकर फैसले करती है। एस्टबेटस के मामले में उसका रवैया इसी तरह का है। नीतीश कुमार की सरकार के कई मंत्री इन कारखानों में अपनी पूंजी लगा रहे हैं। वह उनके बाप-दादों की पूंजी नहीं है। उनका वह कमाया हुआ काला धन है, रिश्वत का धन है और कारखाने के मालिकों की कृपा जो उन पर लक्ष्मी के रूप में बरसी है।
कारखाने के मालिक तर्क दे रहे हैं और उसे ही सरकारी तंत्र सच मान रहा है कि जो कारखाने बिहार में लग रहे हैं, वे सफेद एस्बेस्टस बनाएंगे। जो खतरनाक नहीं होता। इस पर विवाद है। पर्यावरणवादी और इस विषय के जानकार दूसरी बात बताते हैं कि सफेद एस्बेस्टस, एक रेसेदार सामग्री, छतों और दीवारों के निर्माण के लिए बनाई जाती है। उसके लिए जहां से कच्चा माल निकाला जाता है, वह प्रतिबंधित है। सरकार ने फिर भी कंपनियों को खनन की अनुमति दे रखी है और कमी पड़ने पर कच्ची सामग्री को विदेश से मंगाने की छूट दे देती है। उद्योगपतियों को सरकार की दुविधापूर्ण नीति से फायदा मिलता है। आयोग ने रासायनिक उर्वरक, परिवार कल्याण, उद्योग, वाणिज्य और श्रम मंत्रालयों से एक पखवाड़े में जवाब मांगा है।
कायदे से होना यह चाहिए कि जब तक इस बारे में पक्का न हो जाए कि एस्बेस्टस कितना मनुष्य के स्वाथ्य के लिए हानिकारक है, तब तक कारखानों का काम नीतीश सरकार रोक दे, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। मुजफ्फरपुर के मरवन ब्लॉक में कारखाना बनना रुक गया है, लेकिन वह कभी भी चल सकता है। नहीं तो थोड़ी दूर पर वैशाली जिले के चक सुल्तान क्षेत्र के रामपुर राजधारी गांव में दो चरणों में कारखाना पूरा करने का प्रयास जोर-शोर से शुरू नहीं होता। इसी तरह भोजपुर के गिधा गांव में एक लाख मैट्रिक टन का कारखाना शुरू हो चुका है। वहां लोगों के विरोध को राज्य सरकार ने महत्व नहीं दिया। पूंजी और सत्ता के गठजोड़ से जनता की आवाज दबा दी गई। यही विहिया में भी हुआ। ये जगहें अनजान नहीं हैं। इनकी आवाज अपरिचित भी नहीं है। बिहार के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री वहां की परिस्थितियों से पूर्णतः परिचित हैं। फिर भी लोगों को नहीं सुना जा रहा है तो यह निष्कर्ष निकालने के लिए लोग स्वतंत्र हैं कि सरकार इस सवाल पर जनविरोधी रवैया अपनाए हुए है। नीतियों के स्तर पर यह रुख ही है, जो अफसरों को चला रहा है और लोगों को दयनीय बना रहा है।
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