एल. ई. डी. प्रौद्योगिकी


विश्व स्तर पर वैज्ञानिकों द्वारा अनेक अनुसंधान किए जा रहे हैं जो एल.ई.डी. की दीप्ति, प्रभावोत्पादकता, रंगों पर नियंत्रण तथा प्रति ल्यूमेन खर्चे को कम करने से संबंधित हैं। पिछले वर्ष कुछ अच्छे परिणाम भी आए हैं जो इस प्रभावी प्रौद्योगिकी के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसी के मद्देनजर भारत सरकार ने भी सन 2011-12 के बजट में एल.ई.डी. लाइट के आयात में सीमा शुल्क में भारी कमी की थी। जिससे एल.ई.डी. के मूल्यों में भी कमी आई है।

एलईडी प्रौद्योगिकी अर्थात लाइट एमिटिंग डायोड प्रौद्योगिकी ठोस अवस्था (सॉलिड स्टेट) प्रौद्योगिकी पर आधारित है। जिसमें अर्द्धचालक (सेमीकंडक्टर) पदार्थों का उपयोग किया जाता है। अर्द्धचालक पदार्थ, जैसे सिलिकॉन (Si), जर्मेनियम (Ge), गैलियम (Ga) आदि, चालक और अचालक पदार्थों के बीच के पदार्थ हैं जिनमें विद्युत धारा प्रवाहित करने पर इनके परमाणुओं की बाहरी कक्षा में उपस्थित इलेक्ट्रॉन उत्तेजित हो जाते हैं और ये पदार्थ चालक की भाँति व्यवहार करना प्रारंभ कर देते हैं। ये उत्तेजित इलेक्ट्रॉन ऊर्जा पर कर कम ऊर्जा स्तर की कक्षा से अधिक ऊर्जा स्तर की कक्षा में प्रवेश कर जाते हैं। कुछ समय बाद जब ये अधिक ऊर्जा की कक्षाओं से कम ऊर्जा की कक्षाओं में लौटते हैं, तो लौटते समय पैकेटों के रूप में प्रकाश ऊर्जा का उत्सर्जन होता है, जिन्हें फोटान कहते हैं।

डायोडों का निर्माण भी अर्द्धचालक पदार्थों से किया जाता है। डायोड में दो टर्मिनल होते हैं। अर्द्धचालकों के क्रिस्टल में अशुद्धियों को मिला कर इन पदार्थों में इलेक्ट्रॉन N (ऋणात्मक आवेशों) की संख्या या होल P (धनात्मक आवेशों) की संख्या बढ़ा दी जाती है। इन P टाइप और N टाइप पदार्थों को जब आपस में मिलाया जाता है, तब इनके मिलने के स्थान पर एक संधि बनती है जिसे P-N संधि कहते हैं। इन पदार्थों को मिलाने पर इलेक्ट्रॉन का प्रवाह N टाइप से P टाइप की ओर होने लगता है। इस प्रकार धारा एक ही दिशा में बहती है, विपरीत दिशा में नहीं इसलिये, इसका प्रयोग दिष्टकारी (रेक्‍टीफायर) के रूप में किया जाता है।

एल.ई.डी. भी एक ठोस अवस्था युक्ति (सॉलिड स्टेट डिवाइस) है जो विद्युत ऊर्जा को प्रकाश ऊर्जा में बदल देती है। सामान्यतः इससे निकलने वाला प्रकाश एक ही रंग का होता है। एल.ई.डी. के केंद्रीय भाग में एक चिप होती है जिसका आकार लगभग 25 वर्ग मिलीमीटर होता है। इसी चिप पर डायोड आरोपित (माउंट) होता है, जो ऊपर से टोपीनुमा परावर्तक कॉच से ढका रहता है। चिप से एक जोड़ी तार निकले रहते हैं। जब इन तारों से होकर विद्युत धारा गुजरती है तब डायोड द्वारा स्पेक्ट्रम के किसी एक भाग जैसे, अवरक्त (इन्फ्रारेड), दृश्य, पराबैंगनी (अल्ट्रावाइलेट) में प्रकाश उत्सर्जित होता है। उत्पन्न प्रकाश एवं इसका रंग कैप के आकार, चिप एवं कैप के बीच की दूरी और डायोड में प्रयुक्त पदार्थ के संघटन पर निर्भर करता है। इसी प्रौद्योगिकी के विकास के फलस्वरूप आज कार्बनिक एलईडी, क्वांटम एलईडी आदि का निर्माण कार्य जारी है, जिसमें नए-नए पदार्थों का उपयोग किया जा रहा है। एल.ई.डी. के आकार में भी कमी आ रही है। तो आइए एल.ई.डी. प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अर्जित उपलब्धियों, इसके उपयोग एवं भविष्य की संभावनाओं पर चर्चा करें।

एल.ई.डी. प्रौद्योगिकी का इतिहास


बाजार में उपलब्ध एल.ई.डी. युक्त टॉर्च को जलाने पर काफी सुंदर श्वेत प्रकाश निकलता है। कभी आपने सोचा है कि यह कैसे काम करती है? और यह प्रौद्योगिकी कहाँ से आई? कुछ लोग मानते हैं कि यह प्रौद्योगिकी काफी नई है। परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है यह प्रौद्योगिकी काफी पुरानी है अंतर सिर्फ इतना है कि इसकी शुरूआत बहुत हल्के पीले प्रकाश से हुई थी जो आज बढ़ कर काफी चमकीले प्रकाश में बदल गई है।

ब्रिटिश वैज्ञानिक हेनरी जे. राउंड ने सन 1907 में, मारकोनी लैब में कार्य करते हुए देखा कि जब सिलिकॉन कार्बाइड (SiC) अर्द्धचालक (सेमीकंडक्टर) पर विद्युत प्रवाहित की जाती है तो प्रकाश उत्पन्न होता है। उत्पन्न प्रकाश की मात्रा बहुत कम थी शायद इस कारण इस पर आगे अनुसंधान को नहीं बढ़ाया गया। अगले 12-13 वर्षों तक एल.ई.डी. पर कोई कार्य नहीं हुआ। सन 1920 में रूस के एक वैज्ञानिक ने देखा कि रेडियो रिसीवर में प्रयुक्त डायोड में से विद्युत गुजरने पर प्रकाश निकला। उसने इस तथ्य को सन 1927 में रूसी जर्नल में भी प्रकाशित किया। बाद में उनका यह प्रपत्र जर्मन और ब्रिटिश जर्नल में भी प्रकाशित हुआ। रूस के उस वैज्ञानिक का नाम था ऑलेग ब्लेदिमिसेविच लॉसिव उसने इस उपलब्धि के बारे में आइंस्टाइन को भी पत्र लिखा, परंतु उसे कभी कोई उत्तर नहीं मिला। सन 1950 में ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने गैलिनियम आर्सेनाइड (GaAs) का प्रयोग करके विद्युत-प्रदीप्त उत्पन्न की, जिसे अवरक्त (इन्फ्रारेड) क्षेत्र में एल.ई.डी के विकास की पहली कोशिश कहा जा सकता है। इस प्रौद्योगिकी के सहारे सन 1962 में निक हालोयांक जूनियर ने स्पेक्ट्रम के दृश्य भाग में लाल प्रकाश उत्सर्जित करने वाले एल.ई.डी का निर्माण किया। उन्होंने लाल रंग का प्रकाश उत्सर्जित किया उसके बाद सन 1972 में प्रथम पीला एल.ई.डी. गैलियम फास्फाइड (GaP) का उपयोग करके बना।

सन 1980 तक पहुँचते-पहुँचते अतिदीप्त (ब्राइट) एल.ई.डी को गैलियम एलुमिनियम आर्सेनाइड (GaAlAs) का उपयोग करके बनाया गया। इस प्रकार का एल.ई.डी. दीप्त लाल, पीला और हरा रंग उत्पन्न कर सकता था। सन 1990 तक इंडियम गैलियम अल्युमिनियम फॉस्फाइड अर्द्धचालक के प्रयोग से अतिदीप्त एल.ई.डी. का निर्माण हो सका जो नारंगी, पीला और हरा रंग उत्पन्न कर सकता था। कुछ वर्षों बाद ही गैलियम नाइट्राइड (GaN) और इंडियम गैलियम नाइट्राइड (InGaN) द्वारा नीला और हरा प्रकाश देने वाला एल.ई.डी. अस्तित्व में आ गया। इन नीली अतिदीप्त एल.ई.डी. क चिप का प्रयोग श्वेत प्रकाश पैदा करने में हुआ। जब चिप की कोटिंग प्रतिदीप्तिशील (फ्लोरिसेंट) पदार्थ फॉस्फर से की गई वो उसने नीले प्रकाश को अवशोषित करके श्वेत प्रकाश उत्सर्जित किया। इस प्रक्रिया का प्रयोग अन्य रंगों के उत्सर्जन में भी किया गया। जिससे आज अति तीव्रता और दीप्त प्रकाश वाले एल.ई.डी. का निर्माण संभव हो सका है और इनके नए-नए प्रयोग सामने आ रहे हैं। घटनात्मक तरीके से उत्पन्न प्रकाश इस प्रकार से क्रांति लाएगा तब इसकी कल्पना वैज्ञानिकों ने भी नहीं की थी।

तापदीप्त और प्रतिदीप्त लैंप की तुलना में एल.ई.डी. लैंप


तापदीप्त बल्ब यानि इन्कैंडेसेंट बल्ब या उससे पहले के आविष्कारों में प्रकाश की मात्रा कम और निकलने वाले ताप की मात्रा ज्यादा थी। इसके उपरांत ट्यूबलाइट ने अपनी जगह बनाई, जो तापदीप्त बल्बों की तुलना में महँगी अवश्य थी परंतु इसकी आयु बल्बों की तुलना में अधिक थी। इसके अतिरिक्त पीले प्रकाश को सफेद प्रकाश में बदलने के लिये भी ट्यूबलाइट को जाना जाता है। तापदीप्त बल्बों में एक तंतु होता है जो गर्म होने पर ताप के साथ-साथ प्रकाश भी उत्सर्जित करता है। इसके बाद कम्पैक्ट फ्लोरिसेंट लैंप यानी सी.एफ.एल. ने प्रकाश व्यवस्था के क्षेत्र में क्रांति ला दी। तापदीप्त बल्ब की तुलना में सी.एफ.एल. प्रकाश की मात्रा ज्यादा और ताप के रूप में ऊर्जा क्षय कम होती हैं। इसकी आयु भी तापदीप्त बल्ब की तुलना में 8 गुना अधिक होती है। सी.एफ.एल. में मरकरी यानि पारे का भी प्रयोग होता है, इसलिये इसके खराब होने के पश्चात निपटान की समस्या बनी रहती है, क्योंकि मरकरी घातक और विषैला होता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के बढ़ते कदम से हमें एल.ई.डी. लैंप भी मिला जो तापदीप्त और प्रतिदीप्त लैंप की तुलना में बहुत ही कम ऊर्जा का उत्सर्जन ताप के रूप में करता है। इसकी आयु बहुत अधिक है और इसमें मरकरी जैसे किसी भी विषैले पदार्थ का इस्तेमाल नहीं होता है। इसके साथ से एल.ई.डी. लैंप से किसी भी रंग का प्रकाश लिया जा सकता है जो देखने में प्रतिदीप्त लैंप के समान मोहक एवं हल्का नीला होता है। जबकि तापदीप्त लैंप से निकलने वाला प्रकाश पीला और गर्म होता है। तीनों प्रकार के लैंपों का तुलनात्मक विवरण निम्न है :

इस प्रकार हम देखते हैं कि 7 वाट का एल.ई.डी. लैंप 40 वाट के तापदीप्त लैंप के बराबर प्रकाश देता है और जहाँ तापदीप्त लैंप की आयु 5000 घंटे है वहीं एल.ई.डी. लैंप लगभग 11 वर्षों तक निरंतर काम देता है।

 

विशेषता

तापदीप्‍त लैंप

सी.एफ.एल.

एल.ई.डी.

वाट

40

13

7

ल्‍यूमेन

550

550

400

प्रभावोत्‍पादकता (Im/w)

14

61

57

आयु (घंटों में)

5,000

8,000-10,000

1,00,000

 
एल.ई.डी. लैंपों में भी एक कमी है और वह है इनका उच्च तापक्रम के वातावरण में व्यवहार। एल.ई.डी. लैंप में कई एल.ई.डी. एक इलेक्ट्रॉनिक सर्किट से जुड़े रहते हैं। जब इस तरह के लैंप का उपयोग अति उच्च तापक्रम में किया जाता है तो सर्किट का तापक्रम बढ़ जाता है तो इस प्रकार संधि (जंक्शन) से अधिक मात्रा में धारा का प्रवाह हो जाता है जिससे सर्किट जल जाता है। मूल्य की तुलना की जाए तो एल.ई.डी. लैंप महँगे हैं, परंतु कई पदार्थ ऐसे सामने आ रहे हैं, जिससे इनके मूल्य के भी कम होने की संभावना है। इन गुणों के कारण ही एल.ई.डी प्रौद्योगिकी को ग्रीन टेक्नोलॉजी की श्रेणी में रखा जा रहा है।

एल.ई.डी. टेलीविजन


आपने देखा होगा कि आम टेलीविजन के डिस्प्ले में कैथोड रे ट्यूब (सी.आर.टी.) का प्रयोग होता है। इस ट्यूब में आगे फास्फोरस का लेप लगा होता है इसके कारण विभिन्न प्रकार की तस्वीरें स्क्रीन पर बनती हैं। कैथोड रे ट्यूब के बड़े आकार के कारण टेलीविजन का आकार भी बड़ा हो जाता है। इसके बाद एल.सी.डी. प्रौद्योगिकी बाजार में आई। एल.सी.डी. मॉनीटर पतले और वजन में हल्के होते हैं। एल.सी.डी. टेलीविजन में ठंडी सी.आर.टी. का प्रयोग होता है जो स्क्रीन पर उपस्थित पिक्सलों पर श्वेत प्रकाश डालती है। एल.ई.डी. टेलीविजन एक और कदम आगे है जिसमें सी.आर.टी. का प्रयोग नहीं होता है और स्क्रीन पर मौजूद पिक्सल को एल.ई.डी. द्वारा प्रकाश दिया जाता है। इस प्रकार एल.ई.डी. टेलीविजन वास्तव में एल.सी.डी. टेलीविजन है जिसे एल.ई.डी. द्वारा प्रकाशित किया जाता है। इसलिये इन्हें एल.ई.डी. बेकलिट टेलीविजन कहते हैं। एल.ई.डी. टेलीविजन का स्क्रीन बहुत पतला और हल्का होता है। आर.जी.बी. एल.ई.डी. बेकलिट टेलीविजन में स्क्रीन का पूरा भाग समान रूप से चमकता है जिससे चित्र देखने में अधिक गतिशील एवं रंग-बिरंगे दिखाई देते हैं।

कार्बनिक एल.ई.डी


कार्बनिक एल.ई.डी. यानि आर्गेनिक लाइट एमिटिंग डायोड भविष्य की प्रौद्योगिकी होने जा रही है। इस प्रकार की एल.ई.डी. से कार्बनिक पदार्थों द्वारा वोल्टेज प्रदान करने पर प्रकाश का उत्सर्जन प्रारम्भ हो जाता है। उपयोग में लाए कार्बनिक पदार्थों की आण्विक संरचना भिन्न-भिन्न होती है इस कारण कार्बनिक एल.ई.डी. द्वारा विभिन्न रंगों के प्रकाश का उत्सर्जन सम्भव होता है। आम एल.ई.डी. की तुलना में कार्बनिक एल.ई.डी. की प्रकाश उत्सर्जन क्षमता 78 प्रतिशत तक अधिक होती है। इसमें ऊर्जा की भी कम आवश्यकता होती है और इससे बने डिस्प्ले अधिक चमकीले होते हैं और देखने का कोण भी अधिक होता है। इसके बढ़ते चलन को देखते हुए टेलीविजन, मोबाइल, कम्प्यूटर आदि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में इसका प्रचलन बढ़ा है।

भविष्य में कार्बनिक एल.ई.डी. (OLEDs) बाजार में आएँगे। इन पर कार्य प्रारंभ हो चुका है। कार्बनिक पदार्थों से बने अर्द्धचालक इतने लचीले होंगे कि उन्हें कैसे भी मोड़ा जा सकेगा। इस प्रकार इन पदार्थों से बने स्क्रीनों अथवा डिस्प्ले को पोस्टर की तरह लपेट कर इधर-उधर लाया-ले जाया सकेगा। एल.ई.डी. के उपयोग और भविष्य में संभावनाएं एल.ई.डी. ने पहले अपनी जगह सामान्य ‘लाइटिंग मार्केट’ में बनाई और इससे साज-सज्जा के लिये सुंदर-सुंदर लाइटिंग लगाने का प्रचलन भी बढ़ा। इस प्रौद्योगिकी में निरंतर विकास ने अन्य क्षेत्रों में इसके प्रयोग की संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया। कई क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहाँ इनके प्रयोगों का प्रचलन बढ़ा है और आम लोगों ने इस प्रौद्योगिकी से उत्पन्न लाभों को सराहा है। वर्तमान में निम्न क्षेत्रों में इसके प्रयोग को देखा जा सकता है :

1. इंडीकेटर (सूचक) के रूप में जैसे- टी.वी. स्टीरियो माइक्रोवेव अवन, गीजर आदि इलेक्ट्राॅनिक और विद्युत उपकरणों में।
2. घड़ी, कैलकुलेटर, डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में प्रयुक्त डिस्प्ले में।
3. घरेलू उपयोग के लिये लैंप के रूप में, इसके अतिरिक्त स्ट्रीट लाइट में।
4. कार्यालय, मॉल आदि में ‘स्मार्ट लाइट’ के रूप में।
5. सूक्ष्म रेंज प्रकाशिक (ऑप्टिकल) सिगनलों के प्रेषण (ट्रांसमिशन) में, जैसे कि टेलीविजन के रिमोट में, आदि।
6. एल.सी.डी. स्क्रीनों में बैक-लाइटिंग के रूप में।
7. स्वचालित लाइटों में।
8. मोबाइल में प्रयुक्त डिस्प्ले में।
9. साइनबोर्ड में।
10. हवाई पट्टी पर लाइटिंग के रूप में।

इसके अतिरिक्त कई ऐसे क्षेत्र सामने आ रहे हैं जहाँ भविष्य में एल.ई.डी. प्रौद्योगिकी के प्रयोग की काफी संभावनाएं हैं। उदाहरण के तौर पर आपने अनुभव किया होगा कि, सड़कों पर वर्तमान में जिन लैंपों का प्रयोग किया जा रहा है वे एक समान मात्रा में प्रकाश देते हैं चाहे सड़क पर अंधेरा अधिक हो या कम। एल.ई.डी. के प्रयोग से प्रकाश की मात्रा को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी, जिससे सड़कों को आवश्यकता के अनुसार प्रकाशित किया जा सकेगा। इस क्षेत्र में सौर ऊर्जा-आधारित एल.ई.डी. पर भी अनुसंधान कार्य चल रहा है। सौर ऊर्जा आधारित एल.ई.डी. विशेषकर ऐसे क्षेत्रों के लिये उपयोगी होंगे जो अभी तक विद्युत आपूर्ति से वंचित हैं।

चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत से ऐसे उपकरण आ रहे हैं जिनमें एल.ई.डी. का प्रयोग बढ़ा है। इस प्रकार इन उपकरणों का आकार घट गया है, वहीं दूसरी ओर ये स्वतः नियंत्रित भी हो सके हैं। प्रिटिंग के क्षेत्र में एल.ई.डी. युक्त ऐसे उपकरण सामने आए हैं जो पराबैंगनी (अल्ट्रावाइलेट) प्रकाश उत्सर्जित करते हैं, जिससे आधुनिक प्रिंटिंग के लिये बड़े आधारभूत ढाँचे की आवश्यकता नहीं होती है। कृषि में भी इसके उपयोग देखे जाने लगे हैं, क्योंकि एल.ई.डी. अल्ट्रावाइलेट रेंज में प्रकाश उत्सर्जित करते हैं, जो पौधों में प्रकाश संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) क्रिया को बढ़ा देते हैं। जिससे यदि स्ट्रीट लाइट के नीचे पौधों को लगाया जाए तो पौधों की अच्छी वृद्धि होगी। बहुत से उपकरणों जैसे बार कोड मशीन, ऑप्टिकल फाइबर आदि में प्रकाश स्रोत के रूप में लेसर का प्रयोग होता है। वह दिन दूर नहीं जब इनमें लेसर की जगह एल.ई.डी. का प्रयोग किया जाने लगेगा। विभिन्न नए कैमरों में भी एल.ई.डी. का प्रयोग प्रारंभ हो गया है। एल.ई.डी आकार में छोटे तथा मजबूत होते हैं और इनको कम शक्ति (पॉवर) की आवश्यकता होती है, जिससे इनका प्रयोग फ्लैश लाइट के कैमरे में होता है। टेलीविजन, लैपटॉप स्क्रीनों में भी इनका प्रयोग बैक लाइट के रूप में हो रहा है जिससे पिक्चर की गुणवत्ता 45 प्रतिशत तक बढ़ी है।

एल.ई.डी. मूल्यांकन में प्रयुक्त कारक


एल.ई.डी. के मूल्यांकन में मुख्यतः निम्नलिखित कारक महत्त्वपूर्ण होते हैं :

प्रदर्शन- एल.ई.डी. का प्रदर्शन इस तथ्य पर निर्भर करता है कि प्रति डायोड कितना प्रकाश उत्सर्जित कर रहा है। प्रकाश की मात्रा उपयोग में लाए गए पदार्थ एवं ताप पर निर्भर करती है। जिस प्रकार आई.सी. के लिये पूरे नियम प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार एल.ई.डी. के लिये हेट्ज नियम दिया गया है। जिसके अनुसार ‘‘प्रत्येक डायोड से निकलने वाले प्रकाश की मात्रा प्रत्येक दस वर्ष में 20 गुना बढ़ेगी जबकि इस प्रकाश युक्ति का मूल्य 10 गुना कम हो जाएगा।” सामान्यतः उच्च प्रदर्शन क्षमता वाली एल.ई.डी. अधिक मात्रा में प्रकाश देती है।

प्रकाश उत्पादन- एल.ई.डी. द्वारा उत्पन्न प्रकाश सामान्यतः प्रतिदीप्त फ्लक्स या दिए गए समय में दृश्य तरंगदैर्घ्‍य (330-780 नैनोमीटर) उत्सर्जित प्रकाश की मात्रा कहलाती है। फ्लक्स को ल्यूमेन में मापते हैं।

कार्यक्षमता एवं प्रभावोत्पादकता- एल.ई.डी. की कार्यक्षमता एवं प्रभावोत्पादकता का अर्थ है विद्युत की (वाट में) निश्चित मात्रा द्वारा उत्पन्न हुए प्रकाश की मात्रा (ल्यूमेन) में।

कलर रेनडरिंग इंडेक्स- एल.ई.डी. से निकलने वाले प्रकाश के रंग की गुणवता मापने के लिये कलर रेनडरिंग इंडेक्स (सीआरआई) का प्रयोग किया जाता है। यह इंडेक्स, एल.ई.डी. उत्पाद का मूल्यांकन तो कर सकता है परंतु उत्पाद के चयन में ठीक नहीं बैठता है।

ल्यूमेन अनुरक्षण- ल्यूमेन अनुरक्षण का अर्थ है कि जब एल.ई.डी. बिल्कुल नया हो तो कितना प्रकाश निकलता है और प्रयोग के कुछ समय बाद उसके प्रकाश में कितनी कमी आती है। इसका तुलनात्मक अध्ययन ल्यूमेन अनुरक्षण (ल्यूमेन मैनटिनेंस) के अंतर्गत होता है।

एल.ई.डी. प्रौद्योगिकी क्षेत्र में किए जा रहे अनुसंधान


1. वेफर के सुधार में सिलिकॉन आधारित वेफर में सुधार से एल.ई.डी. का मूल्य कम किया जा सकता है। इस प्रकार इसकी गुणवत्ता बढ़ेगी, निर्माण में विश्वसनीयता आएगी और तापीय प्रबंधन को कुशल किया जा सकेगा।

2. नए अर्द्धचालक (सेमीकंडक्टर) पदार्थों को खोजना, विशेषकर, स्फुरदीप्त पदार्थ और उनका नियंत्रण जिससे एल.ई.डी. का मूल्य कम हो सके और गुणवत्ता बढ़े।

3. एल.ई.डी. लाइटिंग प्रणाली में लेंस की जगह परावर्तक पदार्थों की खोज, जो प्रकाशिक (ऑप्टिकल) गुणों को नियंत्रित कर सके।

4. प्लास्टिक ऑप्टिकल पदार्थों की खोज, जो काँच की अपेक्षा सस्ते एवं मजबूत होते हैं।

5. सामान्यतः एल.ई.डी. वृत्ताकार और परवलयाकार में ही प्रकाश उत्सर्जित करते हैं। अतः जहाँ पर दिया क्षेत्र वृत्ताकार नहीं है, वहाँ अतिरिक्त प्रकाश का अपव्यय होता है। अतः नई तरह से ऑप्टिकल डिजाइन और निर्माण में अनुसंधान जारी है जिससे प्रकाश का अपव्यय कम हो।

6. सिरेमिक का उपयोग विशेषकर सर्फेस माउंट एल.ई.डी की पैकेजिंग में।

7. बहुविमीय बोर्ड का निर्माण, जिसमें एक ही बोर्ड से कई रंगों का प्रकाश निकल सके।

8. घरों में आने वाली विद्युत की वोल्टता के उतार-चढ़ाव के दौरान एल.ई.डी. बल्बों का कुशलतम व्यवहार

9. नए मानक, नियम, परीक्षण के नियम जिससे एल.ई.डी में प्रयुक्त पदार्थों, रंग, गुणों, प्रभावोत्पादकता की जाँच की जा सके।

10. उच्च शक्ति वाले एल.ई.डी. के निर्माण में और ल्यूमेन फ्लक्स को बढ़ाते समय कुशल ताप प्रबंधन के क्षेत्र में प्रयोग।

विश्व स्तर पर वैज्ञानिकों द्वारा अनेक अनुसंधान किए जा रहे हैं जो एल.ई.डी. की दीप्ति, प्रभावोत्पादकता, रंगों पर नियंत्रण तथा प्रति ल्यूमेन खर्चे को कम करने से संबंधित हैं। पिछले वर्ष कुछ अच्छे परिणाम भी आए हैं जो इस प्रभावी प्रौद्योगिकी के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसी के मद्देनजर भारत सरकार ने भी सन 2011-12 के बजट में एल.ई.डी. लाइट के आयात में सीमा शुल्क में भारी कमी की थी। जिससे एल.ई.डी. के मूल्यों में भी कमी आई है। ब्यूरो ऑफ एनर्जी इफिशिएंसी ने भी एल.ई. डी. का प्रयोग बढ़ाने हेतु रोडमेप तैयार किया है।

सम्पर्क


कपिल त्रिपाठी
विज्ञान प्रसार, ए-50, इंस्‍टीट्यूशनल एरिया, सेक्‍टर-62, नोएडा, (यूपी)


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