एक नजर जीविका के मुख्य स्रोत खेती पर

‘‘...हमारे गाँव में जिसकी 5 एकड़, 10 एकड़ या 25 एकड़ जमीन है वह ज्यादातर बांध के अंदर है जहाँ नदी अपनी मर्जी के मुताबिक घूमती है। उस जमीन से हमें कुछ मिलता नहीं है। वहाँ एक एकड़ और बीस एकड़ वाले की हैसियत बराबर है। सरकार हमें उस जमीन का न्याय संगत मुआवजा दे-दे और फिर उस जमीन का अपनी मर्जी से उपयोग करे। हम भी कोई अपना रास्ता खोज लेंगे। मालगुजारी बिल्कुल माफ होनी चाहिये। दिक्कत यह है कि जब यह सब देखने वाला कोई बाहर से आता है तो उसको हमारी तकलीफों से कोई वास्ता ही नहीं होता है। ’’

तटबंध निर्माण का सर्वाधिक नुकसान खेती की जमीन को हुआ है चाहे वह तटबंधों के अंदर की जमीन हो या तटबंधों के बाहर। तटबंधों के अंदर की जमीन नदी के धारा-परिवर्तन, कटाव और बालू के जमाव के कारण न सिर्फ बर्बाद हुई वरन् रबी की फसल के लिए उसकी जो कुछ भी उपलब्धता होती हो वह संदिग्ध हुई है। अक्सर बालू की चपेट में आ जाने के कारण यहाँ पारम्परिक फसलों की उपज प्रायः समाप्त है। मीनापुर बलहा गाँव (प्रखंड पिपराही, जिला शिवहर) के रामाशिष का कहना है, ‘...भांग और धतूरा भी पैदा नहीं होता इस अंदर वाली जमीन पर। पहले दिल्ली-पंजाब लोग जानते नहीं थे, अब दिल्ली-पंजाब हमारी जरूरत हैं। बाहर से लोग पैसा न भेजें तो हमारे घरों में चूल्हा न जले।’ जबकि इसी गाँव के महेश सहनी की व्यथा है, ‘...हमारा गाँव पूरा-पूरा तटबंध के अंदर पड़ गया था। बाहर हमारी कोई जमीन नहीं थी, इसलिए पुनर्वास में आना पड़ गया। पुनर्वास मिला मगर कुछ लोग छूट गए जैसे धर्मनाथ सहनी जो अभी भी बांध पर ही रहते हैं। अंदर मेरी पाँच बीघा जमीन थी वह सब की सब नदी में चली गयी। अब जमीन के नाम पर मेरे पास कुछ भी नहीं है। अब मेरी जमीन पर से नदी कब हटेगी यह कौन जानता है? पहले अपनी जमीन पर मालिक की तरह रहते थे अब दूसरे की जमीन पर मजदूरी करते हैं क्योंकि परिवार को तो पालना ही पड़ेगा।’

बालू पड़ी हुई जमीन जिस पर कभी धान की जबर्दस्त फसल होने के बाद रबी में गेहूँ, दलहन और तेलहन की फसल हो जाया करती थी, तटबंध बनने के बाद के कुछ वर्षों के लिए केवल रबी की फसल के लायक बच गयी। धीरे-धीरे जब बालू की परत मोटी होने लगी तब रबी भी समाप्त हो गयी। इसके बावजूद किसान कभी अपनी जमीन खाली नहीं छोड़ता है और वह जमीन में बीज डालता ही रहता है कि शायद कभी कुछ पैदा हो जाए। तटबंधों के बीच यह सौदा अक्सर घाटे का होता है। इधर दो-तीन वर्षों से पूर्वी उत्तर प्रदेश के उन किसानों की नजर इस इलाके पर पड़ी है जो बालू में तरबूज, खरबूजा, फूट, खीरा और ककड़ी जैसी फसलें उगाने में महारत रखते हैं। यह लोग रैयत की जमीन 800 से 1000 रुपये बीघा के सालाना ठेके पर ले लेते हैं और अपनी उपज को स्थानीय या बाहरी बाज़ार में बेच देते हैं। इस व्यवस्था की वजह से कुछ किसानों को अब थोड़ी बहुत आमदनी होने लगी है। बराही जगदीश और खैरा पहाड़ी के किसानों को, जिन्होंने धान, उसके बाद गेहूँ और अब फूट-ककड़ी उपजाने की यात्रा तय की है इससे कुछ राहत मिली है।

बराही गाँव के सिया देव नारायण सिंह बताते हैं, ‘‘...बागमती का पूर्वी तटबंध हमारे गाँव की जमीन पर ही है। बराही का पूरा रकबा ही 350 बीघे के आस-पास होगा। इसी में पुनर्वास भी है। 15-16 बीघा रकबा नदी ने काट दिया है। माधोपुर, इनरवा, खैरा पहाड़ी में बहुत तबाही है। जमीन पर बालू पड़ा हुआ है। बाहर मेरी 5-6 एकड़ जमीन थी और सरकार उसका भी अधिग्रहण करना चाहती थी। हमने मुकद्दमा किया। बड़ा दबाव पड़ा कि पैसा ले लीजिये और जमीन छोड़ दीजिये। हमारा कहना था कि पैसा तो चार दिन में खतम हो जायेगा मगर जमीन रहेगी तो बाल-बच्चा मेहनत करके हमेशा जियेगा, खायेगा। हमने अपनी जमीन नहीं दी। खैरा पहाड़ी तो पूरा का पूरा तटबंध के अंदर पड़ने वाला था मगर इसी गाँव के महादेव झा के प्रयास से तटबंध का अलाइनमेन्ट बदला और गाँव तटबंध के बाहर आया। महादेव झा रिजर्व बैंक में बहुत बड़े अफसर थे और इसी गाँव के थे। दूसरे को अपनी जमीन पर फूट-ककड़ी उगाते देखना अब हमारी नियति है।’’

उधर तटबंधों के अंदर अदौरी की जमीन पर फूट और ककड़ी भी नहीं होती। अदौरी वह गाँव है जहाँ 1963 में डॉ. के. एल. राव अपने बागमती भ्रमण के क्रम में केन्द्रीय सिंचाई मंत्री बनने के बाद आये थे और गाँव वालों के अनुसार बागमती नदी पर तटबंधों का निर्माण न किये जाने की बात की थी। तटबंध बनने से इस गाँव का जो हश्र हुआ उसे बताते हैं इसी गाँव के अजीत कुमार सिंह जिनका कहना है, ‘‘...हमारे गाँव में जिसकी 5 एकड़, 10 एकड़ या 25 एकड़ जमीन है वह ज्यादातर बांध के अंदर है जहाँ नदी अपनी मर्जी के मुताबिक घूमती है। उस जमीन से हमें कुछ मिलता नहीं है। वहाँ एक एकड़ और बीस एकड़ वाले की हैसियत बराबर है। सरकार हमें उस जमीन का न्याय संगत मुआवजा दे-दे और फिर उस जमीन का अपनी मर्जी से उपयोग करे। हम भी कोई अपना रास्ता खोज लेंगे। मालगुजारी बिल्कुल माफ होनी चाहिये। दिक्कत यह है कि जब यह सब देखने वाला कोई बाहर से आता है तो उसको हमारी तकलीफों से कोई वास्ता ही नहीं होता है। वह अपनी समझ के हिसाब से अपनी राय बनाता है और बाकी लोगों को बताता है। वह लोग इसे पॉलिटिकल स्टन्ट भी बना सकते हैं। इससे हमारा भला तो नहीं होने वाला। 1985 में हम लोग छात्रा थे और रामदुलारी सिन्हा को मेमोरण्डम दिया था कि हम लोगों की समुचित व्यवस्था की जाए। नदी तो हमारी तरफ थी ही नहीं, यहाँ तो यह बाद में आयी। थोड़ी बहुत कुर्बानी हम जन-हित में अपने भाई-बन्धुओं के लिए देने को हमेशा तैयार रहते हैं। मगर यह काम हमें उजाड़ कर तो नहीं होना चाहिये।’’ यह बड़े अफसोस की बात है कि जिस जमीन पर ‘भांग और धतूरा’ भी नहीं उगता उसके लिए किसानों को मालगुजारी देनी पड़ती है। इस प्रश्न को एक बार रघुवंश प्रसाद सिंह ने बिहार विधान सभा में उठाया था जिसके जवाब में सरकार ने कहा था, ‘‘...अनुमंडल पदाधिकारी-सीतामढ़ी की जांच के आधार पर यह पाया गया है कि बागमती नदी के तटबंधों के बीच की जमीन उपजाऊ है। प्रतिवर्ष बाढ़ में नदी उपजाऊ मिट्टी भर देती है। बाढ़ से खरीफ की फसल की क्षति होती है तो इसकी पूर्ति रबी की फसल में हो जाती है। अतः लगान एवं सेस माफ करने का प्रश्न नहीं उठता।’’ जनता द्वारा चुनी हुई संस्थाएं वह आखिरी दरवाजा होती है जिस पर आम आदमी दस्तक दे सकता है। जब उसका यह हाल है तो फिर कोई उम्मीद कहाँ बचती है?

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Post By: tridmin
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