ध्वनि प्रदूषण


वैज्ञानिक अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि 90 डेसीबल से अधिक की ध्वनि, प्रदूषित ध्वनि है। कालान्तर में तेजी के साथ बढ़ते हुए कल-कारखानों के विकास, यातायात के बढ़ते अनियमित साधन एवं मनुष्य की बढ़ती आपा-धापी ने तीव्र ध्वनि को जन्म दिया है, जिससे मानसिक क्रियाओं में विघ्न उत्पन्न होने लगा है। यह तीव्र ध्वनि सीधे मनुष्य के शरीर को कुप्रभावित करती है। यदि निश्चित अवधि में इस समस्या का समाधान नहीं किया गया तो इससे होने वाले भावी दुष्प्रभावों का दायित्व वर्तमान पीढ़ी का होगा।

आदिकाल से आज तक प्रकृति के रहस्य का पता लगाकर मनुष्य के अनेक निर्माण कार्य किये हैं और अपनी सुख-सुविधा के साधनों को जुटाने में अद्वितीय प्रगति की है। लेकिन साथ ही मनुष्य ने अपनी बुद्धि एवं क्रियाशक्ति बल के द्वारा विभिन्न तकनीकों का विकास कर पर्यावरण को असन्तुलित भी कर दिया है। वास्तव में यह समस्या वर्तमान की भयावह समस्या है। पर्यावरणीय प्रदूषण के विभिन्न पहलुओं में ध्वनि प्रदूषण के द्वारा मनुष्य का शरीर प्रत्यक्ष रूप से कुप्रभावित होता है।

ध्वनि प्रदूषण का अर्थ


प्रत्येक मनुष्य अपने चारों तरफ फैले प्रदूषकों के प्रति एक निश्चित सीमा तक सहनशील होता है। मानव के कानों में भी ध्वनि को साधारणतया ग्रहण करने की एक सीमा होती है। इस सीमा से अधिक की ध्वनि जब होने लगती है तो वह, कानों को अच्छी नहीं लगती, उसका बुरा असर मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ता है। इसे ध्वनि प्रदूषण या शोर कहा जाता है। वास्तव में शोर वह ध्वनि है जिसके द्वारा मनुष्य के अन्दर अशान्ति व बेचैनी उत्पन्न होने लगती है। इसी को ध्वनि प्रदूषण कहते हैं।

ध्वनि प्रदूषण के स्रोत


ध्वनि प्रदूषण मुख्यतः दो स्रोतों से होता है प्राकृतिक स्रोत और मानव जनित स्रोत प्राकृतिक स्रोतों के रूप में ध्वनि प्रदूषण बादलों की गर्जना, बिजली की कड़क, तीव्र हवाएँ, ऊँचे स्थान से गिरते हुए जल, ज्वालामुखी, भुकम्प तथा अन्य क्रियाओं से होता है। जबकि मानव-जनित स्रोत एक विषाक्त पारिस्थितिकीय है, जिसका बुरा असर स्वयं मानव के ऊपर पड़ रहा है। मानव-जनित स्रोतों के रूप में कल-कारखानों द्वारा होने वाले शोर, यातायात के साधनों से होने वाले शोर, मनोरंजन के साधनों एवं सामाजिक क्रियाकलापों द्वारा उत्पन्न होने वाले शोर को सम्मिलित किया जा सकता है।

ध्वनि स्तर का मापन


ध्वनि की साधारण मापन इकाई को डेसीबल कहते हैं। यह मापक शून्य से प्रारम्भ किया जाता है जो कि सबसे धीमी ध्वनि का परिचायक है। जबकि साधारण वार्तालाप की ध्वनिशक्ति 60 डेसीबल आंकी गयी है। मानव अपने दैनिक जीवन में विभिन्न प्रकार की ध्वनि सुनता है। विभिन्न स्रोतों से होने वाली ध्वनि की शक्ति डेसीबल में निम्न तालिका द्वारा प्रदर्शित की गई है-

विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न ध्वनि जनन क्षमता का स्वरूप

स्रोत

ध्वनि शक्ति (डेसीबल)

सुनने की शुरूआत

0

सामान्य फुसफुसाहट

20

गाँव का घर

30

शहर का घर

40

शांत कार्यालय

50

हल्का ट्रैफिक

60

व्यस्त कार्यालय

80

भारी इंजिनियरिंग वर्कशॉप

100

इंजन वाला विमान

120

जेट विमान

140

रैमजेट इंजन

180

 

ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव


वास्तव में ध्वनि प्रदूषण के द्वारा मनुष्य की बातचीत एवं नींद में व्यवधान होता है जिस से चिड़चिड़ापन एक स्वाभाविक प्रक्रिया बन जाती है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत हानिकारक है। तीव्र ध्वनि लगातार कुछ समय तक सुनते रहने से मानव की श्रवण शक्ति समाप्त हो सकती है। पश्चिमी देशों में ही नहीं वरन विकासशील राष्ट्रों में भी शोर के कारण मनुष्य के बहरेपन में वृद्धि होती जा रही है। उच्च स्तरीय तीव्र ध्वनि ने मानव ही नहीं वरन पशुओं में भी झुंझलाहट, चिड़चिड़ापन एवं थकान को स्वाभाविक प्रक्रिया का रूप प्रदान कर दिया है। उक्त प्रक्रिया से मानव के शरीर में रक्त हारमोन्स सम्बन्धी परिवर्तन, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग मांस पेशियों में खिचाव, मानसिक तनाव एवं अल्सर जैसे पेट के रोगियों की संख्या विश्व के उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के बीच बढ़ती जा रही है जो क्षेत्र आज बुरी तरह शोरग्रस्त हो रहा है। अमरीका के सर्जन डा. सैमुअल रोजेन के अनुसार एकाएक उत्पन्न तीव्र ध्वनि के द्वारा हृदय की गति बढ़ जाती है खून की नली सिकुड़ती है आँख में पानी आता है, पेट आमाशय तथा आंत में दर्द होने लगता है। डा. रोजेन के अनुसार इस प्रक्रिया से मनुष्य धीर-धीरे ध्वनि को भूल जाता है किन्तु उसका शरीर ध्वनि को कभी नहीं भुला पाता है। वैज्ञानिक अध्ययनों के द्वारा स्पष्ट हो चुका है कि वातावरण में शोर की तीव्रता प्रत्येक 10 वर्ष में दुगुनी होती जा रही है। यदि शोर की तीव्रता विगत 30 वर्षों की तरह भविष्य में भी बढ़ती रही तो न मात्र मनुष्य वरन समस्त जैविक समुदाय के लिये घातक एवं बुरे परिणाम होंगे।

भारत में ध्वनि प्रदूषण


विश्व के विकसित राष्ट्रों की भांति भारत में भी अधिकतर महानगरों में तेजी के साथ बढ़ रही जनसंख्या के कारण परिवहन मार्गों पर वाहनों का दबाव बढ़ता जा रहा है। भारतीय महानगरों में कारखानों का केन्द्रीकरण बढ़ता जा रहा है जिससे ध्वनि प्रदूषण में 4 प्रतिशत की वृद्धि प्रति वर्ष की दर से होती जा रही है। 10 लाख व उससे अधिक जनसंख्या वाले नगरों में ध्वनि प्रदूषण का स्तर बहुत ऊँचा हो गया है और ध्वनि शक्ति 70-90 डेसीबल के मध्य मिलती है। हवाई अड्डों तथा उसके नजदीक के स्थानों में विमानों के उतरने या उड़ान के समय उनके नजदीक रहने वाले मनुष्यों में उच्च रक्तचाप की बीमारी का हो जाना पाया गया है।

कलकत्ता के साहा इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स तथा कलकत्ता मेडिकल कालेज द्वारा किये गये एक संयन्त्रण सर्वेक्षण के अनुसार कलकत्ता के 1000 लोगों में 8 व्यक्ति बहरेपन के शिकार हैं। इसी प्रकार पी.जी. स्कूल ऑफ मेडिकल साइन्स के डा. कामेश्वरन द्वारा किये गये सर्वेक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि मद्रास, कोयम्बटूर, त्रिवेन्द्रम नगरों के 25 प्रतिशत औद्योगिक श्रमिक शोरजन्य बहरेपन के शिकार हो गये हैं। राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला के द्वारा मोटर आदि वाहनों के चलने के कारण ध्वनि तीव्रता मापन का अध्ययन करने के उपरान्त यह तथ्य प्रकाश में आया कि बम्बई एवं दिल्ली की दिन में ध्वनि तीव्रता 90 डेसीबल व मध्य रात्रि में 60 डेसिबल पाई गयी है तथा प्रमुख व्यस्त क्षेत्रों में यह क्षमता 120 डेसिबल तक आंकी गयी। उन क्षेत्रों के निवासियों में उच्च रक्तचाप व बहरेपन से सम्बंधित बीमारियों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। कानपुर व लखनऊ महानगरों में भी ध्वनि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। यहाँ पर ध्वनि तीव्रता का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से किया गया जहाँ के साधारण रूप से शोरग्रस्त स्थान पर भी 80 डेसीबल ध्वनि तीव्रता पायी गयी। चौक एवं प्रमुख व्यस्त क्षेत्रों में यह तीव्रता 100 डेसीबल तक आंकी गयी जिसके कारण वहाँ के लोगों के आँख की पुतली बार-बार गीली हो जाती है। ध्वनि प्रदूषण अर्थात अधिक शोर का असर गर्भवती महिलाओं पर भी बुरे रूप में बढ़ता जा रहा है। पैदा होने वाले वे बच्चे जो शोरग्रस्त इलाके में रहने वाली माँ के गर्भ में पल रहे हैं, उनमें जन्मजात मानसिक विकृतता देखी जा रही है।

ध्वनि प्रदूषण का नियंत्रण


ध्वनि प्रदूषण का नियंत्रण इस भौतिकतावादी युग में योजना बनाने की तरह आसान कार्य नहीं है। इसके लिये हमें अपनी भौतकवादी जीवन शैली का त्याग करना पड़ेगा। इसके लिये हमें व्यक्तिगत स्तर से लेकर सामुदायिक स्तर एवं सरकारी तौर पर प्रयास करना होगा।

तीव्र ध्वनि उत्पन्न करने वाले माध्यमों पर अंकुश लगाना होगा तथा वे यन्त्र जो अधिकतम शोर उत्पन्न कर रहे हैं, उनमें शोर कम करने वाले संयन्त्रों को भी लगाना होगा। प्रत्येक ऐसे वाहन जो निर्धारित सीमा से अधिक आवाज करते हैं उन्हें या तो बन्द किया जाय या उन्हें सुधार करके प्रयोग में लाया जाय। मशीनों का विकेन्द्रीकरण कारखानों व जनसंख्या बसाव का विकेन्द्रीकरण करने से भी ध्वनि प्रदूषण में कमी लायी जा सकती है। हरे पेड़-पौधों की चौड़ी पट्टी लगानी होगी। जिससे तीव्रगति से निकलने वाली ध्वनि का शोषण होता रहता है।

उपरोक्त कार्यक्रम को प्रभावी बनाने के लिये स्थानीय जनता की जागरूकता एवं सरकार का रचनात्मक सहयोग होना अति आवश्यक है जिससे सार्थक प्रयास के द्वारा उस समस्या से बचा जा सके।

प्रवक्ता भूगोल, एम.एम.पी.जी. काॅलेज, कालाकांकर, प्रतापगढ़ (उ.प्र.)

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