दरवाजों पर काले पानी की दस्तक

जल-निकासी वाली योजना की अपनी समस्याएं हैं, उस रास्ते से जाने वाला पानी प्रदूषित ही होगा और वह इस पूरे रास्ते के भूमिगत पानी को प्रदूषित करता हुआ ही आगे बढ़ेगा। इस जहरीले पानी से जमीन भी अछूती नहीं रहेगी। इन सारी परेशानियों से बचने का एक ही रास्ता है कि रीगा की शुगर मिल पर शिकंजा कसा जाए लेकिन क्योंकि वह सरकार समेत सभी संस्थाओं से बड़ी है इसलिए उसके गले में घंटी बांधना मुश्किल है। रीगा शुगर मिल की हिमायत करने वाले लोगों की भी कमी नहीं है। उनमें से बहुत से लोगों का यह मानना है कि बिहार में वैसे भी उद्योगों का अकाल है और जो भी उद्योग यहाँ कार्यरत हैं उनको अगर किसी किस्म की परेशानी होती है तो यह राज्य और यहाँ की जनता के हित में नहीं होगा।

सीतामढ़ी से ढेंग जाने के रास्ते में सीतामढ़ी से कोई 10 किलोमीटर उत्तर में रीगा नामक स्थान पर कलकत्ता के किसी व्यवसायी द्वारा स्थापित रीगा शुगर कम्पनी लिमिटेड नाम की एक चीनी मिल पड़ती है। इस चीनी कारखाने का निर्माण 1933 में हुआ था। इस कारखाने से निकला हुआ गंदा पानी मनुस्मारा नदी में तभी से वैसे ही छोड़ दिया जाया करता था जैसा कि आजकल भी होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले यह काम साल में 4-5 बार होता था, अब इस पर कोई नियंत्रण ही नहीं है। उन दिनों जब साल में पहली बार पानी छोड़ा जाता था तो एक ही झटके में नदी की सारी मछलियाँ मर जाती थीं जिन्हें किनारे के लोग छान लिया करते थे। इस तरह जब बागमती नदी पर तटबन्ध नहीं बने थे तब भी कारखाने के इस अपशिष्ट से काफी नुकसान पहुँचता था। चीनी मिल के प्रति स्थानीय जनता का आक्रोश अपने चरम पर जिस तरह आज है उसी तरह आज से पचपन साल पहले भी था। तब स्थानीय विधायक दामोदर झा ने बिहार विधान सभा में इस विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा था, ‘‘...रीगा चीनी मिल का गन्दा पानी बागमती में जाने दिया जाता है जिसका नतीजा यह है कि 5 मील तक चारों ओर का पानी इतना खराब हो गया है कि आदमी को कौन कहे मवेशी भी वहाँ के पानी को नहीं पी सकते हैं और वहाँ मच्छर का इतना प्रकोप है कि सैकड़ों आदमियों को हर साल मलेरिया पकड़ लेता है और वे बीमार पड़ जाते हैं। यदि सरकार इस गंदे पानी को बागमती में न गिरने दे तो लोग इन चीजों से छुटकारा पा सकते हैं।’’ 1955-56 के बजट प्रस्ताव पर चल रही बहस में उन्होंने एक बार फिर दुहराया, ‘‘...पर साल इसी के चलते 1,000 मन मछली एक दिन में मर गई।

इस नदी के किनारे पर के जो गांव हैं उनमें बीमारी फैलती है। एक इंच मोटी गंदगी इस नदी के पानी पर जम जाती है और इसके चलते इस नदी के पानी में कीड़े पड़ जाते हैं... पिछले साल 15 गांवों के लोगों ने एस.डी.ओ. के यहाँ दरख्वास्त दी थी कि रीगा चीनी मिल के गंदे पानी छोड़े जोने के कारण नदी के पानी में कीड़े पड़ जाते हैं। इस वजह से ही इस मिल को हुक्म दिया जाए कि वह गंदे पानी को नदी में नहीं छोड़े। एस.डी.ओ. ने जांच कर के हुक्म दिया कि इस साल तो नहीं लेकिन अगले साल गंदा पानी नहीं छोड़े। लेकिन एस.डी.ओ. के हुक्म के बावजूद इस मिल ने इस साल भी नदी में गंदे पानी को छोड़ दिया है और उसको कोई देखने वाला नहीं है। ...सरकार चुप्पी साधे बैठी हुई है।’’ बागमती पर तटबन्ध बन जाने के बाद मनुस्मारा ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और उसका पानी नीचे बेलसंड और रुन्नी सैदपुर के इलाकों में फैलना शुरू हुआ। चीनी कारखाने के अपशिष्ट का मनुस्मारा में मिल जाने के कारण इस पानी का रंग पहले काला हुआ और फिर उसमें धीरे-धीरे दुर्गन्ध भी समाने लगी। जहाँ-जहाँ यह पानी फैला वह जगह स्थानीय लोगों के बीच काला पानी नाम से प्रसिद्ध हुई। कारखाने के अपशिष्ट की पहली चोट पीने के पानी के स्रोतों पर पड़ी। फिर खेती रसातल को गयी, लोगों के स्वास्थ्य पर इस गन्दे पानी का बुरा असर पड़ा, पानी का स्तर बढ़ने और उसकी निकासी न होने से यातायात बाधित हुआ और फिर स्थानीय रोजगार समाप्त हो गया। इतना सब हो जाने के बाद मजाक में कहे जाने वाले काले पानी पर व्यावहारिक रूप से काला पानी होने की मुहर लग गयी। इस बीच न जाने कितनी सरकारें आईं और गईं जिनमें किसी न किसी समय वाम पंथियों से लेकर दक्षिण पंथियों तक की सभी रंगों की पार्टियाँ शामिल हैं मगर इस मसले पर उनकी चुप्पी नहीं टूटी।

चीनी मिल के इस अनाचार पर सरकार का ध्यान खींचने के लिए सीतामढ़ी के एक सामाजिक कार्यकर्ता और अध्यापक डॉ. आनन्द किशोर ने 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (रा.मा.आ.) के पास समस्या के निदान के लिए गुहार लगायी। रा.मा.आ. ने वस्तुस्थिति जानने के लिए सीतामढ़ी के जिला पदाधिकारी को सम्पर्क किया। जिला पदाधिकारी ने अपने पत्र सं. 3468 सी/दिनांक 31 अक्टूबर 2002 के माध्यम से रा.मा.आ. को जिन तथ्यों से अवगत करवाया वह चौंकाने वाले थे। इस पत्र का कुछ अंश हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-

‘‘(1) ...रीगा डिस्टीलियरी, रीगा (सीतामढ़ी) के द्वारा अल्कोहल (स्प्रीट) का निर्माण किया जाता है। इसे बनाने के लिए रीगा चीनी मिल से उत्सर्जित अपशिष्ट मोलासेज (छोआ) तथा पानी का उपयोग होता है। डिस्टीलियरी में अल्कोहल (स्प्रीट) बनाने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद अवशिष्ट के रूप से अत्यधिक बचा हुआ रासायनिक पानी उत्सर्जित होता है, जिसमें विभिन्न प्रकार के उपयोगी एवं घातक रासायनिक तत्व घुले रहते हैं, जिसकी अल्प मात्रा पौधों के लिए उपयोगी भी है, परन्तु जीवों के लिए घातक है।

(2) इस तरह के प्रदूषित एवं जीवों के लिए घातक जल को कारखाने के बगल में अवस्थित बागमती नदी की पुरानी धार में डाला जाता है, जिसके कारण नदी का जल प्रदूषित हो गया है। पानी का रंग काला हो गया है एवं मनुष्य तथा पशु दोनों के लिए नदी का जल उपयोग करने के लायक नहीं है। ग्रामीणों ने बताया कि प्रत्येक सप्ताह प्रदूषित जल नदी में छोड़े जाने से अगल-बगल के गाँवों का वातावरण दुर्गन्धमय बन रहा है। भूलवश भी यदि मानव या पशु के द्वारा नदी का पानी उपयोग में लाया जाता है तो विभिन्न प्रकार के चर्मरोग एवं पेट की बीमारी हो जाती है। नदी की मछली को खाने से डायरिया हो जाता है। डिस्टीलियरी से जब पानी छोड़ा जाता है तब नदी में काफी मछलियाँ मरी हुई मिलती हैं। पूरे इलाके में मच्छर एवं मक्खियों का प्रकोप काफी बढ़ गया है। अगल-बगल के वातावरण से ऐसा लगता है कि कभी भी किसी भयंकर बीमारी/महामारी का प्रकोप हो सकता है। विभिन्न ग्रामों के कृषकों ने बताया कि उत्सर्जित बहाव से युक्त जल का जमाव खेतों में होने से पौधा गलने लगता है एवं कुछ दिनों तक जल-जमाव रह जाने पर फसल (धान की फसल भी) बर्बाद हो जाती है। लोगों ने यह भी बताया कि मिल में जो वाटर ट्रीटमेन्ट प्लान्ट है वह पर्याप्त क्षमता का नहीं है और जो है, उसे भी चलाया नहीं जाता है।

(3) प्रखण्ड कृषि पदाधिकारी, रीगा द्वारा बताया गया कि इस पानी के प्रभाव से खेतों में मिट्टी की प्राकृतिक संरचना का लगातार ”ह्रास हो रहा है। मिट्टी की संरचना, मिट्टी की जलधारण क्षमता एवं मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में सहायक जीवियों की संख्या भी प्रभावित हो रही है।

(4) इस संबंध में रीगा मिल के श्री ओ. पी. सिंह, वाइस प्रेसीडेन्ट, केमिकल से पूछताछ करने पर उन्होंने तो इस बात से ही इंकार किया कि रीगा डिस्टीलियरी द्वारा नदी में कोई वहिश्राव छोड़ा जाता है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि उनके यहाँ दो वाटर ट्रीटमेन्ट प्लान्ट लगे हुए हैं, जिसमें उत्सर्जित वहिश्राव का परिशोधन कर मिल परिसर में बनाये गए तालाब (लेक) में गिराया जाता है। किन्तु इस क्षेत्र के आम नागरिकों द्वारा जो बताया गया एवं पाया गया, उससे मिल प्रबन्धन का कथन सत्य प्रतीत नहीं होता है।

(5) रुन्नी सैदपुर प्रखण्ड क्षेत्र के भ्रमण के दौरान भी कई ग्रामों में ग्रामीणों द्वारा रीगा डिस्टीलियरी द्वारा प्रदूषित जल नदी में छोड़े जाने से नदी का पानी काला होने, इसके पीने से मनुष्य एवं पशुओं में बीमारी होने, खेतों में जल-जमाव होने से फसल (धान की फसल भी) गल कर बर्बाद होने, मछलियों के मरने की शिकायत की गई।

(6) वर्ष 1999 में जब मैं अनुमण्डल पदाधिकारी, बेलसण्ड के रूप में पदस्थापित था, तब बेलसण्ड एवं परसौनी प्रखण्ड के लोगों से भी इस तरह की शिकायत लगातार मिलती रहती थी एवं चूंकि वहाँ बरसात में जल-जमाव हो जाता है, इसलिए यहाँ के लोगों को इसकी पीड़ा अधिक झेलनी पड़ती है। मैंने भी पाया कि नदी का पानी काला हो गया है।’’

कलक्टर ने रा.मा.आ. को यह भी बताया कि उसने अपने कार्यालय के पत्र संख्या 2933/सी. दिनांक 17/9/2002 द्वारा सदस्य सचिव, बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद, पटना को इस समस्या के निदान हेतु निम्नांकित निदेश रीगा मिल प्रबंधन को देने हेतु सुझाव सहित आग्रह किया है-

(1) ‘‘वाटर ट्रीटमेन्ट प्लान्ट को आवश्यकता के अनुसार चलायें एवं यदि वाटर ट्रीटमेन्ट प्लान्ट पर्याप्त क्षमता का नहीं हो तो उचित क्षमता का प्लान्ट लगावें।

(2) रीगा डिस्टीलियरी से निकलने वाले रसायनयुक्त पानी से होने वाले प्रभाव की जांच तकनीकी पदाधिकारियों का दल गठित कर कराई जाए और तद्नुसार प्रदूषण बोर्ड द्वारा निर्गत अनुज्ञप्ति की पुनः समीक्षा कर रीगा मिल में लगे वाटर ट्रीटमेन्ट प्लान्ट की क्षमता बढ़ाने का निर्देश दिया जाए।’’

कलक्टर ने इस समस्या के निदान के लिए महाप्रबंधक, रीगा शुगर कम्पनी लि., रीगा को पत्र संख्या 2932/सी. दिनांक 17/9/2002 द्वारा निम्नांकित निर्देश भी दिया-

(1) ‘‘वाटर ट्रीटमेन्ट प्लान्ट को आवश्यकतानुसार चलायें एवं यदि वाटर ट्रीटमेन्ट प्लान्ट पर्याप्त क्षमता का नहीं हो तो उचित क्षमता का प्लान्ट सुनिश्चित करें।

(2) रीगा डिस्टीलियरी द्वारा अल्कोहल (स्प्रीट) के निर्माण के पश्चात निकलने वाले रसायनयुक्त पानी की सफाई हेतु वाटर ट्रीटमेन्ट प्लान्ट की अधिक से अधिक क्षमता बढ़ाई जाए तथा इस प्रकार की व्यवस्था की जाए कि इस पानी से मिट्टी की उर्वरा शक्ति कायम रहने के साथ ही साथ किसी प्रकार के जान-माल का नुकसान न होने पाये।’’

जिला पदाधिकारी ने रा.मा.आ. को यह आश्वासन भी दिया कि उपर्युक्त सभी बिन्दुओं पर बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद, पटना से आवश्यक निर्देश प्राप्त होने पर वह फिर की गयी कार्यवाही के बारे में रा.मा.आ. को अवगत करवायेंगे।

चीनी मिल के नीचे बेल्सण्ड और रुन्नी सैदपुर प्रखण्ड में मनुस्मारा का परिदृश्यचीनी मिल के नीचे बेल्सण्ड और रुन्नी सैदपुर प्रखण्ड में मनुस्मारा का परिदृश्यजिलाधिकारी ने इस पत्र की प्रतिलिपि बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद के पास उचित कार्यवाही तथा अपेक्षित सुधारों के लिए महाप्रबन्धक, रीगा शुगर कम्पनी लिमिटेड, रीगा को भी भेजी। रा.मा.आ. ने इस पूरे मसले पर 27 अक्टूबर 2003 का दिन सुनवाई के लिए तय किया मगर तब बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद को जिलाधिकारी या चीनी मिल के अधिकारियों से न तो कोई संदेश मिला और न ही चीनी मिल ने इस दिशा में कोई सार्थक कदम उठाये। 25 फरवरी 2004 को सीतामढ़ी के जिलाधिकारी ने एक बार फिर बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद को इसी आशय का पत्र लिखा। इस बार भी कोई कार्यवाही नहीं हुई।

रीगा शुगर मिल लिमिटेड द्वारा फैलाये गए प्रदूषण से स्थानीय जनता पहले से ही परेशान थी मगर इस परेशानी को पहले से भी ज्यादा गंभीर बना दिया 2000 में मधकौल के पास बागमती के बायें तटबन्ध में पड़ी एक दरार ने। इस गैप से निकले पानी और उसके साथ आयी गाद ने मनुस्मारा के मुहाने को चन्दौली, कन्सार और बेलसंड के बीच पूरी तरह बन्द कर दिया जिसकी वजह से नदी की धारा मुड़ गयी और मनुस्मारा बेलसंड के आस-पास के आवासीय और कृषि क्षेत्रों से होते हुए पूरब की ओर राष्ट्रीय उच्च पथ सं. 77 की ओर चली गयी। अब मनुस्मारा नदी का पानी डुमरिया घाट, हनुमान नगर, चन्दौली, सरैया, गोठवारा, दयानगर, हिरदोपट्टी, बाराडीह, रामनगर, धापर, गणेशपुर, भादा, कुईं, अथरी, रैन विष्णु, गरगट्टा, रामपुर, माधोपुर और रुन्नीसैदपुर होते हुए राष्ट्रीय उच्च पथ 77 को बसतपुर पुल से होते हुए सैदपुर फार्म के पास धरहरवा-पर्री मार्ग के पुल को पार करता हुआ लखनदेई में जा मिला मगर इस रास्ते से उसके पानी की निकासी जैसे-तैसे ही हो पाती थी। 2003 तक मनुस्मारा के प्रवाह के काफी हिस्से को लखनदेई तक पहुँचाने में क्रमशः मरने धार और सोनपुरवा नाला अहम भूमिका निभाते थे। 2004 में चन्दौली के पास बागमती का बायां तटबन्ध टूटा तो बाढ़ के पानी और गाद ने मरने धार को भी पाट दिया। इस तरह से मरने धार और सोनपुरवा नाले का भी संबंध समाप्त हो गया। चन्दौली में बागमती का टूटा तटबन्ध बांध दिये जाने के बाद अब मनुस्मारा का पानी चन्दौली, रामनगर, पचनौर, अथरी, रैन विष्णु, रुन्नीसैदपुर उत्तरी तथा मध्य और बेलसंड प्रखंड के अधिसूचित क्षेत्र के बड़े भाग पर फैला हुआ है जहाँ खेती पूरी तरह चौपट है और अधिकांश रिहाइशी इलाका चारों ओर से काले रंग के प्रदूषित पानी से घिरा हुआ है जहाँ निकासी का रास्ता बहुत संकरा और छिछला है। 2004 की बाढ़ में यह पानी धरहरवा के पास के सड़क पुल को बहा ले गया और सरकार ने इस पुल को दुबारा बनवाने की जगह इस गैप को ही भर दिया। अब मनुस्मारा का आगे बढ़ने का रहा-सहा रास्ता भी बन्द हो गया मगर नदी है तो वह कहीं न कहीं तो जायेगी। अब उसने दक्षिण की ओर मुड़ कर पर्री, गंगुली, घघरी, घनश्यामपुर, कल्याणपुर, मधुबन बेसी, हरपुर बेसी, रमनगरा, बिशुनपुर, राजखंड, माधोपुर, खेतलपुर आदि गाँवों की ओर रुख किया और इन गाँवों को तबाह करते हुए औराई प्रखंड में फिर लखनदेई में जा मिली।

जल-जमाव अब पहले से भी ज्यादा गंभीर स्थिति में पहुँच गया। प्रदूषण तो अपनी जगह बना ही हुआ था। समस्या का कोई निदान न होते देख बाढ़ पीड़ितों के एक संगठन बागमती बाढ़ पीड़ित संघर्ष समिति (रुन्नीसैदपुर-सीतामढ़ी) ने प्रशासनिक आयुक्त को ग्यारह सूत्री एक मांग पत्र दिया जिसमें अन्य बहुत सी मांगों के साथ यह भी कहा गया, ‘‘...रीगा शराब फैक्ट्री (डिस्टिलियरी) से प्रदूषित जल के मनुस्मारा नदी में प्रवाह को अविलम्ब रोका जाए और शुद्धिकरण संयत्र से प्रदूषित जल को साफ कराने के बाद ही उसे मनुस्मारा नदी में प्रवाहित करने की इजाजत दी जाए अन्यथा बागमती नदी के अधूरे तटबन्धों को ही ध्वस्त करा दिया जाय।’’

इसके बाद का घटनाक्रम बताते हैं बाराडीह गाँव, प्रखंड रुन्नी सैदपुर, जि. सीतामढ़ी के अध्यापक राम तपन सिंह (देखें बॉक्स-रीगा की चीनी मिल बड़ी है या आपकी सरकार बड़ी है?)। कृषि के अलावा जीविका का कोई स्थानीय साधन नहीं है लेकिन खेती की जमीन गन्दे बदबूदार पानी में फंसी है। जाहिर है यहाँ के छोटे और सीमान्त किसान तथा मजदूर रोजी रोटी की तलाश में बाहर का रुख करते हैं। इतने लोगों के हाथ से निवाला छीनने का काम जल-संसाधन विभाग और रीगा शुगर कम्पनी लिमिटेड ने मिल कर किया है। जैसे-जैसे पानी की निकासी का रास्ता बन्द होता गया वैसे-वैसे पलायन का रास्ता खुलता गया क्योंकि अब वही जिस्म और जान को एक साथ बनाये रखने का तरीका बचा है।

राम सेवक सिंहराम सेवक सिंहइतना सब हो जाने के बाद 2000 में सरकार की समझ में आया कि मनुस्मारा के पानी को कहीं भी चले जाने के लिए रास्ता चाहिये वरना उससे होने वाली तबाही बदस्तूर जारी रहेगी। वर्ष 2000 में राज्य के जल-संसाधन विभाग ने जल-जमाव हटाने के लिए एक विस्तृत योजना बनानी शुरू की जिसके बारे में हम आगे बात करेंगे। यह योजना अभी तक क्रियान्वित नहीं हो पायी है (जून 2010)। यही वजह है कि सरकार ने मनुस्मारा की जल-निकासी योजना का प्रारूप तय करने का निश्चय किया मगर रीगा की चीनी मिल को फिर भी हाथ नहीं लगाया। सरकार की समझ में यह बात अभी तक नहीं आयी है कि यह पानी सिर्फ पानी नहीं है, यह जहरीला पानी है और इसे जहरीला बनाने में केवल रीगा शुगर कम्पनी लिमिटेड का हाथ है। अब योजना अगर पूरी हो गयी तो पानी तो शायद निकल जायेगा मगर उसके साथ-साथ रीगा शुगर कम्पनी द्वारा छोड़ा गया मीठा जहर भी उसके पीछे-पीछे जायेगा।

बहरहाल, काले पानी से जल-निकासी की जो योजना बनी है (2006) उसमें कई जल-निकासी नालों की मदद से इलाके में जमा पानी को लखनदेई में गिराने का प्रस्ताव है। इस योजना को बनाने के क्रम में जल-संसाधन विभाग को पता लगा कि जिस 470 हेक्टेयर कृषि भूमि के स्थाई रूप से जल-जमाव से ग्रस्त हो जाने की उसे आशंका थी वह जमीन उससे कहीं ज्यादा थी और अब अनुमान किया गया कि खरीफ के मौसम में 6840 हेक्टेयर, रबी के मौसम में 1500 हेक्टेयर और गर्मी के मौसम में 570 हेक्टेयर कृषि भूमि (कुल 8910 हेक्टेयर) गन्दे पानी में फंस गयी है। इस जमीन पर उगने वाली फसल की 2001 में कीमत 12.17 करोड़ रुपये आंकी गयी थी। अब अगर फसल के इतने नुकसान को ही मानक और स्थिर मान लिया जाए तो भी पिछले दस वर्षों में बागमती परियोजना और रीगा शुगर कम्पनी की कृपा से केवल खेती को 122 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। एक छोटे से इलाके से इतनी सम्पत्ति का नुकसान अगर हो जाए तो वहाँ की अर्थ व्यवस्था को तहस-नहस होने में कितना समय लगेगा? इसके अलावा घरों और सम्पर्क मार्गों की क्षति, मनुष्यों और जानवरों की क्षति, पीने के पानी की दिक्कत, स्वास्थ्य पर कुप्रभाव, शिक्षा का अभाव, बेरोजगारी, महाजनों के कर्ज के अन्दर आकंठ डूबे रहना इस काले पानी वाले इलाके के लोगों की नियति है। इनमें से कुछ चीजों की पैसे में कीमत लगायी जा सकती है, कुछ चीजों को सिर्फ महसूस किया जा सकता है और कुछ चीजें सीधे-सीधे शब्दों में अनमोल हैं, उनका मूल्य लगाने की कोशिश ही मानव जाति का अपमान होगा। इस सारी परिस्थिति को स्वयं देखें बिना समझ पाना बड़ा मुश्किल है।

2006 की जल-निकासी योजना के चार मुख्य अंग हैं-
1. मनुस्मारा-डुमरियाघाट-रामनगर-भादा-रुन्नीसैदपुर-धरहरवा- लखनदेई लिंक
2. धरहरवा-हनुमान नगर-मधुबन बेसी लिंक
3. मधौल-भनसपट्टी-हनुमान नगर लिंक
4. मधौल-कटौंझा-मधुबन बेसी लिंक

इन लिंक नालों की मदद से क्षेत्र के जल-जमाव ग्रस्त क्षेत्र के पानी की निकासी लखनदेई में दो स्थानों पर करने की योजना है। दो करोड़ तेईस लाख रुपये की अनुमानित राशि वाली इस योजना का टेण्डर नवम्बर 2008 में किया गया। यह पूरा काम नालों के निर्माण का है जिन्हें खोदने के लिए सरकार को रैयत की जमीन चाहिये और उसके लिए सरकार को जमीन का मुआवजा देना पड़ेगा। इस तरह के कामों में जमीन के अधिग्रहण की प्रक्रिया बहुत उबाऊ और कदम-कदम पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली होती है। काम को आगे बढ़ाने के लिए परियोजना के कार्यपालक अभियंता-जल निस्सरण डिवीजन-बागमती परियोजना ने सभी सम्बद्ध पंचायतों के मुखिया को एक अपील जारी करके अनुरोध किया (पत्रांक 463, दिनांक 30 जुलाई 2009) कि वह अपनी-अपनी पंचायतों से अनापत्ति पत्र सरकार को भेज दें ताकि काम तेजी से किया जा सके। जमीन के मुआवजे का भुगतान भी सरकार साथ-साथ करती रहेगी। इस काम में तो सरकार को अपेक्षित सफलता नहीं ही मिली मगर जिन-जिन स्थानों से यह नाले निकाले जाने वाले थे वहाँ के किसानों द्वारा योजना का विरोध शुरू हो गया। इन ग्रामीणों का कहना है, ‘‘...रीगा चीनी मिल का प्रदूषित जल मनुस्मारा नदी में गिराया जाता है जिससे पानी प्रदूषित हो जाता है जिसके कारण आबादी प्रभावित होती है। ग्रामीणों की मांग है कि पहले रीगा मिल द्वारा प्रदूषित पानी को मिल में लगाये गए ट्रीटमेन्ट प्लांट से साफ करने के बाद ही मनुस्मारा नदी में गिराया जाए उसके बाद ही खुदाई कार्य करने दिया जायेगा।’’ कार्यपालक अभियंता आगे लिखते हैं, ‘‘...रीगा चीनी मिल के प्रदूषित पानी को रोकना इस प्रमण्डल के कार्यक्षेत्र से बाहर होने के कारण सम्भव नहीं है, इसके लिए प्रशासनिक सहयोग आवश्यक है। इस सम्बन्ध में अधोहस्ताक्षरी द्वारा कई बार मौखिक और लिखित रूप से तत्कालीन जिला पदाधिकारी से अनुरोध किया गया था लेकिन आज तक कोई प्रशासनिक सहयोग नहीं मिल पाया है जिसके कारण खुदाई का काम रुका हुआ है।’’

मजे की बात है कि बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद के सदस्य सचिव ने अध्यक्ष, रीगा शुगर कम्पनी लिमिटेड को एक कारण बताओ नोटिस दिनांक 15 सितम्बर 2009 को लिख कर पूछा, ‘‘...आपकी इकाई से प्रदूषित बहिश्राव को बिना उपचार के सीधे मनुस्मारा नदी में गिराया जाता है जिसका कुप्रभाव बगल के गाँवों पर पड़ रहा है जिसके कारण धनकौल, गिसारा के बीच पड़ने वाले ग्रामीणों द्वारा अवरोध किया गया तथा कार्य बाधित है।... अतः कृपया स्पष्ट करें कि क्यों नहीं आपकी इकाई के विरुद्ध जल-अधिनियम 1974 के अन्तर्गत उचित कार्यवाही की जाए? 15 दिनों के अन्दर परिषद मुख्यालय को उपलब्ध करावें अन्यथा इकाई के विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही की जायेगी।’’ बागमती बाढ़ पीड़ित संघर्ष समिति के संयोजक, अथरी गाँव के रामसेवक सिंह के अनुसार चीनी मिल की तरफ से यह स्पष्टीकरण आज तक (जून 2010) नहीं मिला मगर इस पत्र के लिखे जाने के तीन सप्ताह बाद 8 अक्टूबर 2009 को बागमती परियोजना के अधीक्षण अभियंता को सीतामढ़ी के जिलाधिकारी को पत्र लिख कर कहना पड़ा था कि वे चीनी मिल के खिलाफ कार्यवाही करें।

प्रेम शंकर सिंहप्रेम शंकर सिंहइतना कहने के बाद हम फिर राम तपन सिंह के उस प्रश्न पर लौट चलते हैं जिसमें उन्होंने राज्य के मंत्री महोदय से पूछा था कि रीगा की चीनी मिल बड़ी है या आपकी सरकार बड़ी है। इस सवाल को इसी रूप में लेखक ने सीतामढ़ी से कई बार विधायक, सांसद और मंत्री रहे नेता रघुनाथ झा से पूछा। उन्होंने लेखक को जो बताया वह यहाँ उद्धृत है। देखें बॉक्स-मिल मालिक सारी चीजें मैनेज कर लेता है तो वही बड़ा है न सरकार से।

काला पानी की जल-निकासी के वर्षों से अनवरत प्रयास करने वाले अथरी गाँव के राम सेवक सिंह इस पूरी योजना की अद्यतन स्थिति बताते हुए कहते हैं, ‘‘...काला पानी की जल-निकासी का प्रस्ताव बिहार सरकार ने केन्द्र के पास भेजा था जिसे उसने यह कह कर लौटा दिया कि इस योजना की लागत दस करोड़ रुपये से कम है इसलिए केन्द्र इसके लिए पैसा नहीं देगा। तब बिहार सरकार का कहना है कि हम इसे नरेगा के तहत पूरा करवा लेंगे। राज्य सरकार ने जल संसाधन विभाग को यह प्रस्ताव भेजा और मुझे एक पत्र दिया कि मैं जाकर सीतामढ़ी के कलक्टर से मिल लूँ और यह काम हो जायेगा। मैंने पूछा कि इस योजना में तो कच्चा और पक्का दोनों तरह का काम है और प्रखंड का बजट सीमित होगा। तब यह काम कैसे हो पायेगा? तब मुझे बताया गया कि यह कलक्टर की क्षमता में है कि वह जिला स्तर पर इस काम को करवा सकेगा। इस योजना को लेकर मैं बागमती परियोजना के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर से मिला। उनका कहना था कि नरेगा के अन्तर्गत पक्के और कच्चे कामों का अनुपात 40:60 का होता है लेकिन इस काम में 30 और 70 का अनुपात होगा क्योंकि ज्यादा काम मिट्टी का है। दूसरी बात यह है कि हमारा मिट्टी का काम मानव श्रम से नहीं बल्कि मशीन से होगा क्योंकि यहाँ मिट्टी खोदने पर तुरन्त पानी निकल आयेगा। मैं जब उनसे फिर मिला तब उन्होंने बताया कि इस विषय पर पटना में एक मीटिंग हुई थी और कलक्टर को इस आशय का एक पत्र निर्गत हुआ है। यदि कोई और बाधा नहीं पड़ती है और लोग आपत्ति नहीं करते हैं तो अब यह काम हो जाना चाहिये पर अब तो जो कुछ भी होगा बरसात (2010 की बरसात) के मौसम के बाद ही होगा।’’

काला पानी क्षेत्र के किसानों की वर्षों से जो दुर्गति हो रही है उसके लिए यह जरूरी है उनके उद्धार के लिए इस योजना का जल्द से जल्द क्रियान्वयन हो जाए। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिये। बिहार सरकार के भूतपूर्व मंत्री गणेश प्रसाद यादव वह दूसरा पक्ष बताते हैं, ‘‘...काला पानी के ड्रेनेज के बारे में इधर नीचे के लोगों को पता नहीं है कि अगर उसकी निकासी कर दी जाती है तो वह सारा का सारा जहरीला पानी इधर से ही होकर गुजरेगा और यहाँ के पर्यावरण को उतना ही नुकसान पहुँचायेगा जितना वहाँ पहुँचा रहा है। अगर यह बात यहाँ के लोगों को पता लग भी जाए तो वे क्या कर लेंगे? मुर्दों की बस्ती में आप किस-किस को आवाज दीजियेगा? इनका सब कुछ लूट लीजिये, बस एक क्विन्टल अनाज दे दीजिये तब यह लोग सारे कष्ट भूल जायेंगे। अब न तो कोई सामाजिक संरचना बाकी बची है और न कोई राजनैतिक संगठन ही मौजूद है जो इन सब बातों के खिलाफ आवाज उठा सके। दलालों को छोड़ कर अब ब्लॉक में कोई जाता ही नहीं है। अफसर वहाँ रहता नहीं है, जब अफसर नहीं रहेगा तो कर्मचारी कहाँ से रहेगा?’’

काला पानी के राम नगरा गाँव के समाजकर्मी प्रेम शंकर सिंह का कहना है, ‘‘...नदी की सारी सिल्ट इन दो तटबन्धों के बीच फंस गयी है और नदी का तल ऊपर उठता जा रहा है। तल ऊपर उठने से नदी की प्रवाह क्षमता घटती है जिसके फलस्वरूप यह संरचना कभी टिकाऊ नहीं रह सकती। नदी कभी दायें तटबन्ध को, कभी बायें तटबन्ध को और किसी-किसी साल दोनों तटबन्धों को एक साथ तोड़ती है। तटबन्धों के अन्दर की तीन किलोमीटर चौड़ी पट्टी बालू बुर्ज हो गयी और जब-जब तथा जहाँ-जहाँ तटबन्ध टूट कर नदी का पानी पहुँचा वहाँ जल-जमाव भी बढ़ा और काफी जमीन बालू में भी फंस गयी है। किसी जमाने में बागमती का यह क्षेत्र अन्न-धन से परिपूर्ण था लेकिन आज यहाँ के किसान दाने-दाने को मुहताज हो गए हैं। हम लोग तो जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर वोट देते हैं। हमारा धर्म, हमारी जाति और हमारा क्षेत्र अगर चुनाव में विजयी हो जाता है तो फिर हमें और क्या चाहिये? यह योजना तो लूट-खसोट की योजना है जिसमें हमारे इंजीनियर, ठेकेदार और नेता बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं और हम खड़े तमाशा देख रहे हैं। दुःख वहाँ होता है कि जिन योजनाओं पर बिहार सरकार और केन्द्र सरकार दोनों की सहमति है उन्हें भी पूरा करवाने में दसों साल लग जाते हैं। सरकार योजना स्वीकार करती है मगर उसकी छान-बीन की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सारी योजना उसी में उलझ जाती है। मगर यह सरकार व्यापारियों की सरकार है हम लोगों का केवल शोषण हो रहा है और हम लोग व्यापार के मोहरे बने हुए हैं। इस तटबन्ध को हटा दीजिये, हमारी खुशहाली वापस लौट आयेगी।’’

हमारी पूरी व्यवस्था, हमारे विधायक, हमारे मंत्री, हमारी प्रयोगशालाएं, हमारा जल-संसाधन विभाग, हमारा जिला अधिकारी, हमारा राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कितना मजबूर है एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान के सामने? राज्य का जल-संसाधन विभाग चौदह करोड़ रुपयों की लागत से चन्दौली में बागमती के बायें तटबन्ध में एक स्लुइस गेट का निर्माण लगभग पूरा कर चुका है। अगर उसे इस स्लुइस गेट की कार्य क्षमता पर भरोसा होता तो वह जल-निकासी की वैकल्पिक योजना नहीं बनाता। इंजीनियरिंग पहेलियाँ बुझाने का पेशा नहीं है, उसके आदर्श अलग हैं। जल-निकासी वाली योजना की अपनी समस्याएं हैं, उस रास्ते से जाने वाला पानी प्रदूषित ही होगा और वह इस पूरे रास्ते के भूमिगत पानी को प्रदूषित करता हुआ ही आगे बढ़ेगा। इस जहरीले पानी से जमीन भी अछूती नहीं रहेगी। इन सारी परेशानियों से बचने का एक ही रास्ता है कि रीगा की शुगर मिल पर शिकंजा कसा जाए लेकिन क्योंकि वह सरकार समेत सभी संस्थाओं से बड़ी है इसलिए उसके गले में घंटी बांधना मुश्किल है।

रीगा शुगर मिल की हिमायत करने वाले लोगों की भी कमी नहीं है। उनमें से बहुत से लोगों का यह मानना है कि बिहार में वैसे भी उद्योगों का अकाल है और जो भी उद्योग यहाँ कार्यरत हैं उनको अगर किसी किस्म की परेशानी होती है तो यह राज्य और यहाँ की जनता के हित में नहीं होगा। इस शुगर मिल के साथ उन किसानों के भी हित जुड़े हुए हैं जिनके खेत का गन्ना इस मिल में पेराई के लिए आता है। यह दोनों ही कारक सरकार के लिए चिन्ता का विषय होने चाहिये और बहुत मुमकिन है कि मिल के प्रति नर्म रुख रखने का यह कारण भी हो। यदि इसमें थोड़ी सी भी सच्चाई हो और सरकार सचमुच इतनी मजबूर है तो क्यों नहीं वह अपना एक समुचित क्षमता का शोधक यंत्र चीनी कारखाने में बैठा देती है जिसका संचालन उसकी अपनी देख-रेख में हो। उस हालत में चीनी मिल के जिस कचरे से लाखों लोगों का अहित हो रहा है या जिसके गन्दे पानी की निकासी से नये-नये क्षेत्रों में भविष्य में नुकसान होगा उससे लोगों का कम से कम बचाव तो होगा और पारस्परिक संघर्ष भी रुकेंगे। सरकार इस काम का पूरा खर्च अपनी निर्धारित शर्तों पर चीनी मिल से वसूल सकती है।

अन्यथा ऐसी हालत में हम सबको मिल कर यही दुआ करनी चाहिये कि चन्दौली वाला स्लुइस कुछ हद तक काम करे और कुछ हद तक जल-निकासी की बाकी योजना भी कामयाब हो जाए ताकि उस इलाके के किसानों की जीवन धारा फिर उनके ढर्रे पर लौट आये। चीनी मिल अपनी हरकतों से बाज आये उसके लिए जो राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहिये वह 1955 से अब तक की सरकारों में देखने में नहीं आयी है। दूसरा तरीका जन-संगठन का है। हमारे दिनों दिन बिखरते समाज में जन-आकांक्षाएं इन शोषक शक्तियों को कब उनकी औकात बता पायेंगी, यह भविष्य ही बता पायेगा।

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Post By: tridmin
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