सुनहली धूप ने गंगाजी की लहरों को रंग दिया था। एक नि:श्वास के साथ कोई अनोखा जलचर पानी से उभर आया। यही था ‘सोंस’, गंगाजी का वाहन। तभी छोटा-सा सोंस शिशु पानी से ऊपर उठा। मैं विस्मित होकर देखता रह गया, और भाव-विभोर, गहरी सोच में पड़ गया। कैसे यह माँ अपने बच्चे को इस मैले पानी में मार्गदर्शन कराती होगी? मैली नदियों में रहनेवाला सोंस (डॉल्फिन) जीवोत्पत्ति के निश्चय-अनुसार अपनी आँखें गवां बैठा, और ध्वनिलहरों के सहारे जीने लगा। सोंस नदी के अंधेरों में पूरी तरह आवाजों के सहारे जीता है, जैसे स्पर्श पर निर्भर कोई दृष्टिहीन आत्मा। उस छोटे शिशु में मुझे जीवनदायिनी गंगाजी का प्रत्यय हुआ। नदी की अविरत धारा की कविता से यह एक बेहद सुन्दर पंक्ति थी।
बिहार राज्य के भागलपुर-खगड़िया जिलों में गंगाजी के 60 कि.मी. लम्बे विस्तार को सोंस संवर्धन हेतु विक्रमशिला गें जेटिक डोल्फिन अभयारण्य 1991 में घोषित किया गिया। प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय ‘विक्रमशिला’ का नाम इस प्रक्षेत्र को दिया गया। सोंस के साथ यहाँ कई पक्षी और ऊदबिलाव पाए जाते है। साथ में नदी के सफाई कर्मचारी- कछुए। कभी-कभार कोई घरिअल (ग्राह) भी यहाँ भटककर पहुंचा है। मैं यही खड़ा, गंगाजी कि वैविध्यपूर्ण दृश्यों का अनुभव कर रहा था। परन्तु आज विक्रमशिला भी प्रदूषण और अत्यधिक मत्स्यजीवन-हानि से ग्रस्त है और ‘संरक्षित’ क्षेत्र होने के बावजूद खतरे में हैं।
भागलपुर-सुल्तानगंज-कहलगांव से हजारों टन कचरा, और थर्मल पावर प्लांट का पानी हर साल नदी में फेंका जाता है। मलयुक्त पानी के शुद्धिकरण हेतु जो प्लांट है, वह कई बार अक्षम हो जाता है। ऐसे तो नदी पर निर्भर जीवन पल-पल जैसे जहर के घूंट का प्रबंधन प्रशासन कर रहा हैं। मछुआरे इसी पानी की मछली खाते और बेचते है।
लेकिन मैं यहाँ क्या कर रहा था? बंगलोर में स्थित हउर इंडिया और नेशनल सेंटर फार बायोलॉजिकल सायंसेस का मैं विद्यार्थी था। मेरे एमएससी के शोध-प्रबंध का विषय था- मनुष्य-पीड़ित नदियों में सोंस का निवास और जीवन। मैं देख रहा था कि क्या मछुआरों की दैनिक गतिविधियों का प्रभाव सोंस को उसका भक्ष्य (मत्स्य) मिलने पर पड़ता है?
दक्षिण भारत से आया था, और ‘बिहार’ की प्रतिमा ने मन में एक अजीब-सा संदेह निर्माण किया था, फिर भी ठान लिया की मैं यही अभ्यास करूंगा। मेरे गुरुजन डॉ. जगदीश कृष्णास्वामी और डॉ. अजित कुमार ने मेरे निश्चय का समर्थन कर बहुमूल्य मार्गदर्शन किया। इसी दौरान मुलाकात हुई भागलपुर के डॉ. सुनील चौधरी से। दस साल पहले श्री सुनीलजी ने वैयक्तिक, एवं विद्यालयीन स्तर पर सोंस बचाने का प्रयास आरम्भ किया। उनके साथ श्री सुशांत और श्री सुभाशीष डे ने डॉल्फिन की सालानातौर पर गणना, एवं पक्षियों की प्रजातियों का अभिलेखन किया है।
आज सुनील सर संवर्धन कार्य को रूप देने में जुटे हैं। विश्वविद्यालय के छात्रों से वे नदी और चापाकल के पानी का रासायनिक परीक्षण करवाते हैं। सुभाशीष मछलियों को पहचानने में माहिर है, तो सुशांत पक्षियों और उद के अभ्यास में आगे। व्हेल एंड डॉल्फिन कंजर्वेशन सोसाइटी, वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी और अमेरिकन सिटेशियन सोसाइटी का सहभाग भी प्राप्त हुआ है। इन कोशिशों से आज निष्पन्न यह हुआ है की सोंस की हत्या अब अभयारण्य के अन्दर नहीं होती है। सोंस संवर्धनकार्य के प्रति स्थानिक मछुवारों में जागरूकता लेन का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इसका अप्रतिम उदाहरण है इस क्षेत्र के सबसे अनुभवी मत् स्यजीवी श्री कारेलाल मंडल, जो आज सोंस संरक्षण के प्रवक्ता भी बन गए है।
विक्रमशिला आज एक महत्वपूर्ण संरक्षण-स्थल तो है, हालाँकि अभी काफी परेशानियों का निदान बाकी है। आज भी कछुओं और मगरमच्छों का अवैध शिकार हो रहा है। अभयारण्य का जिम्मा होने के पश्चात् भी प्रशासकों का संरक्षणकार्य के प्रति पूर्णत: निराशाजनक रुख है। ऐसे में इन सारे संवर्धनकर्मियों के उत्साह की वाकई सराहना करनी होगी। इनकी मदद से ही मेरा यहाँ का शोधकार्य सफल रहा।
सवेरे-सवेरे मैं मेरे सहायकों के साथ नाव में निकल पड़ता। हमारी नाव के सारथी श्री परमोद मंडल और एक अनुभवी मत्स्यजीवी रहे श्री लड्डू सहनी अनुभवी मछुआरे सोंस गिनने में मेरी मदद करते। डॉल्फिन देखने के साथ-साथ हम विशिष्ट जगहों पर गहरायी, प्रवाह की चौड़ाई, बहाव-गति, ऐसी कुछ विशेषताओं का मापन करते। इससे हम डॉल्फिन के निवास-स्थानों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी हासिल कर पाए। समय मिलने पर अन्य मछुवारों से मिलकर बातचीत करते और मछली पकड़ने-योग्य जाल और जगहों के बारे में पूछते।
सभी मछुवारों की बातों से दु:खद वार्ताएं सामने आई : मत्स्यधन नष्ट होता जा रहा है। आजकल 12 घंटे के प्रयत्न के बाद केवल कुछ छोटी-छोटी मछलियाँ मिलती है, बड़ी मछलियों का जैसे नामोनिशान मिट गया हो। मछुवारों ने दो महत्वपूर्ण बातों को जिम्मेदार ठहराया : 1) फरक्का बराज, और 2) नदी में स्थानिक तौर पर गुंडों द्वारा चल रहा कपड़ा-जाल और कचाल-जाल। यह जाल बहुत कम फानवाले होने से सबसे छोटी मछलियाँ और मत्स्य-अर्भकों को भी मार देते हैं। अगर नदी में मछलियाँ ही न हो तो कैसे भला मछुवारा बचे, और कैसे बचे सोंस? और सच ही, इस विपर्यास के परिणाम स्पष्ट रूप से अब दिख रहे है। सोंस और मछुवारों के बीच मछली प्राप्त करने की जगहों और खुद मछलियों के लिए अदृश्य संघर्ष छिड़ा है। कई सोंस जाल में फंसकर मर भी रहे है। मेरे संशोधन का निष्कर्ष यही रहा कि सोंस बचाने के लिए मत्स्यजीवन की वृद्धि कराना इस आपातकाल में आवश्यक है।
ग्रीष्म ऋतु में पानी कम होने से नदी के बहाव की मात्रा हर साल घटना, किनारों पर तेजी से बन रहे पथरीले पड़ावों जैसी दुविधाओं से गंगा की परिसंस्था बिखरने से वन्यजीवन और मनुष्यजीवन की हानि हो सकती है। अत्यल्प मछली होने से कई मछुआरें मजदूरी करने मुंबई-दिल्ली तक निकल जाते है। कितने दु:ख की बात है की तीन बड़ी नदियों से युक्त बिहार की सुजल-सुफल जमीन को आज मछलियों का आयात आंध्र प्रदेश से करना पड़ रहा है! ऐसे में मछुवारों को अतिरिक्त काम देना जरूरी है।
नदी के संसाधनों पर निर्भरता घटाकर मछुआरों के स्वयं-सिद्ध होने में को-ऑपरेटिव मत्स्यपालन योजनाओं की मदद हो सकती है। नेशनल रूरल एम्प्लायमेंट गारंटी स्कीम (नरेगा) से मछुवारों को संवर्धनकार्य में सहभाग लेने से आमदनी मिल सकती है। प्रशासन के दबाव से अगर गैरकानूनी जाल पर रोक लग जाती है तो मछलियां बचेगी। गंगाजी भारतवर्ष की ‘राष्ट्रीय नदी’ घोषित हुई है और इसे बचाने में प्रशासन की सहायता करना आम नागरिकों का कर्तव्य है। सारी मुश्किलों के साथ भी, आज अभयारण्य में लगभग 200 सोंस पाए जाते है।
जैसे नदी आगे बहती है, मिट्टी पानी में घुलती है, तो कभी पानी मिट्टी के टीले बनाता है। हम सभी गंगाजी पर निर्भर जीवन के प्रतीक है, और जन्म से मृत्यु तक इसी मिट्टी के बने है। फिर भी बड़ी शर्मनाक बात है कि हमें न उसकी महत्ता का उचित आदर है, न उसके जीवन से प्यार। घाट पर सत्संग तो हम सबने सुना है। अब ये घड़ी आयी है कि हम गंगाजी का मधुर कीर्तन उसके वन्यजीवन में प्रत्यक्ष रूप से देखें। इन थमती साँसों की रक्षा ही हमारी ओर से गंगाजी की सबसे बड़ी सेवा होगी।
लेखक पर्यावरण मामले के जानकार हैं।
बिहार राज्य के भागलपुर-खगड़िया जिलों में गंगाजी के 60 कि.मी. लम्बे विस्तार को सोंस संवर्धन हेतु विक्रमशिला गें जेटिक डोल्फिन अभयारण्य 1991 में घोषित किया गिया। प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय ‘विक्रमशिला’ का नाम इस प्रक्षेत्र को दिया गया। सोंस के साथ यहाँ कई पक्षी और ऊदबिलाव पाए जाते है। साथ में नदी के सफाई कर्मचारी- कछुए। कभी-कभार कोई घरिअल (ग्राह) भी यहाँ भटककर पहुंचा है। मैं यही खड़ा, गंगाजी कि वैविध्यपूर्ण दृश्यों का अनुभव कर रहा था। परन्तु आज विक्रमशिला भी प्रदूषण और अत्यधिक मत्स्यजीवन-हानि से ग्रस्त है और ‘संरक्षित’ क्षेत्र होने के बावजूद खतरे में हैं।
भागलपुर-सुल्तानगंज-कहलगांव से हजारों टन कचरा, और थर्मल पावर प्लांट का पानी हर साल नदी में फेंका जाता है। मलयुक्त पानी के शुद्धिकरण हेतु जो प्लांट है, वह कई बार अक्षम हो जाता है। ऐसे तो नदी पर निर्भर जीवन पल-पल जैसे जहर के घूंट का प्रबंधन प्रशासन कर रहा हैं। मछुआरे इसी पानी की मछली खाते और बेचते है।
लेकिन मैं यहाँ क्या कर रहा था? बंगलोर में स्थित हउर इंडिया और नेशनल सेंटर फार बायोलॉजिकल सायंसेस का मैं विद्यार्थी था। मेरे एमएससी के शोध-प्रबंध का विषय था- मनुष्य-पीड़ित नदियों में सोंस का निवास और जीवन। मैं देख रहा था कि क्या मछुआरों की दैनिक गतिविधियों का प्रभाव सोंस को उसका भक्ष्य (मत्स्य) मिलने पर पड़ता है?
दक्षिण भारत से आया था, और ‘बिहार’ की प्रतिमा ने मन में एक अजीब-सा संदेह निर्माण किया था, फिर भी ठान लिया की मैं यही अभ्यास करूंगा। मेरे गुरुजन डॉ. जगदीश कृष्णास्वामी और डॉ. अजित कुमार ने मेरे निश्चय का समर्थन कर बहुमूल्य मार्गदर्शन किया। इसी दौरान मुलाकात हुई भागलपुर के डॉ. सुनील चौधरी से। दस साल पहले श्री सुनीलजी ने वैयक्तिक, एवं विद्यालयीन स्तर पर सोंस बचाने का प्रयास आरम्भ किया। उनके साथ श्री सुशांत और श्री सुभाशीष डे ने डॉल्फिन की सालानातौर पर गणना, एवं पक्षियों की प्रजातियों का अभिलेखन किया है।
आज सुनील सर संवर्धन कार्य को रूप देने में जुटे हैं। विश्वविद्यालय के छात्रों से वे नदी और चापाकल के पानी का रासायनिक परीक्षण करवाते हैं। सुभाशीष मछलियों को पहचानने में माहिर है, तो सुशांत पक्षियों और उद के अभ्यास में आगे। व्हेल एंड डॉल्फिन कंजर्वेशन सोसाइटी, वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी और अमेरिकन सिटेशियन सोसाइटी का सहभाग भी प्राप्त हुआ है। इन कोशिशों से आज निष्पन्न यह हुआ है की सोंस की हत्या अब अभयारण्य के अन्दर नहीं होती है। सोंस संवर्धनकार्य के प्रति स्थानिक मछुवारों में जागरूकता लेन का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इसका अप्रतिम उदाहरण है इस क्षेत्र के सबसे अनुभवी मत् स्यजीवी श्री कारेलाल मंडल, जो आज सोंस संरक्षण के प्रवक्ता भी बन गए है।
विक्रमशिला आज एक महत्वपूर्ण संरक्षण-स्थल तो है, हालाँकि अभी काफी परेशानियों का निदान बाकी है। आज भी कछुओं और मगरमच्छों का अवैध शिकार हो रहा है। अभयारण्य का जिम्मा होने के पश्चात् भी प्रशासकों का संरक्षणकार्य के प्रति पूर्णत: निराशाजनक रुख है। ऐसे में इन सारे संवर्धनकर्मियों के उत्साह की वाकई सराहना करनी होगी। इनकी मदद से ही मेरा यहाँ का शोधकार्य सफल रहा।
सवेरे-सवेरे मैं मेरे सहायकों के साथ नाव में निकल पड़ता। हमारी नाव के सारथी श्री परमोद मंडल और एक अनुभवी मत्स्यजीवी रहे श्री लड्डू सहनी अनुभवी मछुआरे सोंस गिनने में मेरी मदद करते। डॉल्फिन देखने के साथ-साथ हम विशिष्ट जगहों पर गहरायी, प्रवाह की चौड़ाई, बहाव-गति, ऐसी कुछ विशेषताओं का मापन करते। इससे हम डॉल्फिन के निवास-स्थानों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी हासिल कर पाए। समय मिलने पर अन्य मछुवारों से मिलकर बातचीत करते और मछली पकड़ने-योग्य जाल और जगहों के बारे में पूछते।
सभी मछुवारों की बातों से दु:खद वार्ताएं सामने आई : मत्स्यधन नष्ट होता जा रहा है। आजकल 12 घंटे के प्रयत्न के बाद केवल कुछ छोटी-छोटी मछलियाँ मिलती है, बड़ी मछलियों का जैसे नामोनिशान मिट गया हो। मछुवारों ने दो महत्वपूर्ण बातों को जिम्मेदार ठहराया : 1) फरक्का बराज, और 2) नदी में स्थानिक तौर पर गुंडों द्वारा चल रहा कपड़ा-जाल और कचाल-जाल। यह जाल बहुत कम फानवाले होने से सबसे छोटी मछलियाँ और मत्स्य-अर्भकों को भी मार देते हैं। अगर नदी में मछलियाँ ही न हो तो कैसे भला मछुवारा बचे, और कैसे बचे सोंस? और सच ही, इस विपर्यास के परिणाम स्पष्ट रूप से अब दिख रहे है। सोंस और मछुवारों के बीच मछली प्राप्त करने की जगहों और खुद मछलियों के लिए अदृश्य संघर्ष छिड़ा है। कई सोंस जाल में फंसकर मर भी रहे है। मेरे संशोधन का निष्कर्ष यही रहा कि सोंस बचाने के लिए मत्स्यजीवन की वृद्धि कराना इस आपातकाल में आवश्यक है।
ग्रीष्म ऋतु में पानी कम होने से नदी के बहाव की मात्रा हर साल घटना, किनारों पर तेजी से बन रहे पथरीले पड़ावों जैसी दुविधाओं से गंगा की परिसंस्था बिखरने से वन्यजीवन और मनुष्यजीवन की हानि हो सकती है। अत्यल्प मछली होने से कई मछुआरें मजदूरी करने मुंबई-दिल्ली तक निकल जाते है। कितने दु:ख की बात है की तीन बड़ी नदियों से युक्त बिहार की सुजल-सुफल जमीन को आज मछलियों का आयात आंध्र प्रदेश से करना पड़ रहा है! ऐसे में मछुवारों को अतिरिक्त काम देना जरूरी है।
नदी के संसाधनों पर निर्भरता घटाकर मछुआरों के स्वयं-सिद्ध होने में को-ऑपरेटिव मत्स्यपालन योजनाओं की मदद हो सकती है। नेशनल रूरल एम्प्लायमेंट गारंटी स्कीम (नरेगा) से मछुवारों को संवर्धनकार्य में सहभाग लेने से आमदनी मिल सकती है। प्रशासन के दबाव से अगर गैरकानूनी जाल पर रोक लग जाती है तो मछलियां बचेगी। गंगाजी भारतवर्ष की ‘राष्ट्रीय नदी’ घोषित हुई है और इसे बचाने में प्रशासन की सहायता करना आम नागरिकों का कर्तव्य है। सारी मुश्किलों के साथ भी, आज अभयारण्य में लगभग 200 सोंस पाए जाते है।
जैसे नदी आगे बहती है, मिट्टी पानी में घुलती है, तो कभी पानी मिट्टी के टीले बनाता है। हम सभी गंगाजी पर निर्भर जीवन के प्रतीक है, और जन्म से मृत्यु तक इसी मिट्टी के बने है। फिर भी बड़ी शर्मनाक बात है कि हमें न उसकी महत्ता का उचित आदर है, न उसके जीवन से प्यार। घाट पर सत्संग तो हम सबने सुना है। अब ये घड़ी आयी है कि हम गंगाजी का मधुर कीर्तन उसके वन्यजीवन में प्रत्यक्ष रूप से देखें। इन थमती साँसों की रक्षा ही हमारी ओर से गंगाजी की सबसे बड़ी सेवा होगी।
लेखक पर्यावरण मामले के जानकार हैं।
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