दिल्ली की प्यास बुझी नहीं है। पहले यमुना, फिर गंगा, फिर भगीरथी का पानी पी लेने के बाद भी दिल्ली प्यासी है। अब दिल्ली को हिमाचल से भी पानी मिलने वाला है।
अगर यह पानी दिल्ली आ सका तो वहां के अनेक परिवारों का बसेरा और जीविका छिन जाएगी। इस बांध में डूबने वाले परिवारों को केवल मुआवजा भर देने की योजना है। जमीन आदि देकर कहीं और बसाने का प्रावधान ही नहीं। लोगों ने परियोजना और भूमि अधिग्रहण के तौर तरीकों पर विरोध प्रकट करना शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं संबंधित राज्यों के बीच भी दिल्ली को पानी देने के मामले में काफी बहस चली है। हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में यमुना की सहायक नदी ‘गिरी’ पर प्रस्तावित रेणुका बांध के निर्माण से 700 परिवार प्रभावित होंगे। यह परियोजना दिल्ली को बरास्ता हरियाणा पानी पहुंचाने के लिए है।
कई लोगों का कहना है कि यदि दिल्ली पानी की आपूर्ति में हो रही वर्तमान ढीलमपोल जैसे- असमान वितरण, पानी का व्यर्थ बहना और पानी की चोरी पर रोक लगा दे तो इस बांध की कोई जरूरत ही नहीं है। यहां के किसान जागीर सिंह तोमर का कहना है कि सिंचित भूमि के लिए मात्र 2.50 लाख प्रति बीघा का मुआवजा दिया जा रहा है। वे अपने पांच बीघा के खेत से प्रतिवर्ष 3 लाख रूपए तक कमा लेते हैं।
रेणुका बांध संघर्ष समिति के सचिव श्री चांद का कहना है कि पहले हम अधिक मुआवजे की बात कर रहे थे। पर अब हम बांध ही नहीं चाहते। क्योंकि अगर हम अपनी जमीन देने को तैयार भी हो जाते हैं तो मिलने वाला मुआवजा बाजार मूल्य की तुलना में जरा-सा ही है। इस परियोजना से पशुपालक भी प्रभावित होंगे। हिमाचल प्रदेश विद्युत निगम के निदेशक सी. एम. वालिया गांव वालों की आशंकाओं को निराधार मानतें हैं। वे तो कहते हैं कि “रेणुका गांव के निवासियों को दिए जाने वाला पुर्नवास पैकेज पूरे देश में सबसे अच्छा है। ऐसी परियोजनाओं में विरोध तो हमेशा बना ही रहता है। वे इसमें कोई मदद नहीं कर सकते।’’
भूमि अधिग्रहण की वास्तविकता क्या है? रेणुका बांध की डूब में आने वाले 37 गांव में से 20 गांव कि बच्चे तक अब यह जान गए हैं कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 की धारा 17(4) के अंतर्गत सरकारी अफसरों को यह अधिकार है कि वे भूस्वामियों द्वारा भूमि अधिग्रहण को लेकर उठाई गई आपत्तियों को दरकिनार कर सकते हैं। निगम के मुख्य प्रबंधक का रवैया तो कुछ ज्यादा ही साफ है। उनका कहना है कि यह एक सरकारी परियोजना है। अगर सरकार अधिग्रहण का निश्चय करती है तो उस पर उठी आपत्तियां महज औपचारिकताएं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने 2004 में भारत सरकार विरुद्ध कृष्ण लाल अरनेजा वाले मामले में त्वरित धारा (अरजेंसी क्लाज) को असंवैधानिक बताते हुए कहा था कि बाढ़ या भूकंप जैसी असाधारण परिस्थितियों के अलावा तुरत-फुरत भूमि अधिग्रहण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। प्रभावित व्यक्ति को आपत्ति का अधिकार होना चाहिए। हिमाचल प्रदेश के “पर्यावरण शोध और कार्य समूह” की मानसी अशर का कहना है कि परियोजना को वन और पर्यावरण विभाग से, केंद्रीय जल आयोग, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण से अनुमति ही नहीं मिली है तो ये तुरत-फुरत अधिग्रहण का कानून कैसे लगा सकते हैं?
रेणुका बांध का विचार सन् 1960 के दशक में आया था। फिर सन् 1994 में हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के बीच बांध निर्माण व जल वितरण को लेकर आम सहमति बनी। परंतु इस वर्ष कानून मंत्रालय ने कहा कि यह समझौता वैध नहीं है क्योंकि राजस्थान ने अब तक इस पर हस्ताक्षर ही नहीं किए हैं। एक समाजसेवी संगठन “यमुना जिये अभियान” के मनोज मिश्र का कहना है कि “हरियाणा भी इस समझौते से खुश नहीं है। उसका कहना है कि पानी की मात्रा कम होने की दशा में अन्य राज्यों के हिस्से में कमी होगी, लेकिन दिल्ली के नहीं। इसलिए हरियाणा अब रेणुका बांध से छोड़े जाने वाले पानी व बिजली दोनों में अपना हिस्सा चाह रहा है।” दिल्ली में पेयजल की आपूर्ति करने वाले दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि 1994 के अनुबंध से यह साफ है कि रेणुका बांध का पानी दिल्ली को ही मिलेगा। उधर हिमाचल विद्युत निगम का कहना है कि इस मामले में केंद्र सरकार ही निर्णय लेगी। हिमाचल प्रदेश की जिम्मेदारी तो बांध के निर्माण और पानी की आपूर्ति तक सीमित है बस। नीचे का इसका वितरण किस तरह होगा, यह हमारी चिंता का विषय नहीं है।
दिल्ली को प्रतिदिन कोई 3 अरब 60 करोड़ लीटर पानी की जरूरत है। लेकिन आपूर्ति हो पाती है बस 2 अरब 90 करोड़ लीटर ही। आलोचकों का कहना है कि पानी की आपूर्ति में भी खूब भेदभाव बरता जा रहा है। उदाहरण के लिए लुटियन वाली दिल्ली को प्रतिदिन कोई 30 करोड़ लीटर पानी मिलता है लेकिन महरौली जैसे स्थानों में यह 4 करोड़ से भी कम है। दिल्ली सरकार रेणुका बांध से 1 अरब 24 करोड़ लीटर अतिरिक्त पानी चाहती है। दिल्ली जल बोर्ड पर सवाल उठाते हुए भारत के महालेखाकार ने 2008 में टिप्पणी की थी कि दिल्ली में 40 प्रतिशत पानी व्यर्थ बह जाता है। यह बर्बादी कोई 38 करोड़ लीटर प्रतिदिन है। दिल्ली स्थित विज्ञान और पर्यावरण केंद्र के एक अध्ययन के अनुसार पानी की यह बर्बादी रेणुका बांध से होने वाली जल आपूर्ति का चौथा भाग है।
दिल्ली को प्रतिदिन कोई 3 अरब 60 करोड़ लीटर पानी की जरूरत है। लेकिन आपूर्ति हो पाती है बस 2 अरब 90 करोड़ लीटर ही। आलोचकों का कहना है कि पानी की आपूर्ति में भी खूब भेदभाव बरता जा रहा है। उदाहरण के लिए लुटियन वाली दिल्ली को प्रतिदिन कोई 30 करोड़ लीटर पानी मिलता है लेकिन महरौली जैसे स्थानों में यह 4 करोड़ से भी कम है।इस अध्ययन का मानना है कि रेणुका बांध की जरूरत ही नहीं है। परंतु दिल्ली जल बोर्ड इन निष्कर्षों से सहमत नहीं है। उसका कहना है कि समस्या बर्बादी से ज्यादा चोरी की है। अवैध कॉलोनियों में बड़ी मात्रा में पानी खींच लिया जाता है।
हिमाचल प्रदेश के गिरिबाट बांध में नियुक्त एक इंजीनियर का कहना है कि आज गिरिबाट परियोजना प्रस्तावित रेणुका बांध से नीचे 60 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए निर्मित की गई है। गिरिबाट परियोजना मानसून को छोड़कर साल के बाकी 9 महीनों में मात्र 8 से 9 मेगावाट बिजली का निर्माण कर पाती है। ऐसी स्थिति में रेणुका बांध 40 मेगावाट बिजली किसी प्रकार उत्पादित कर पाएगा?
यों भी यदि दिल्ली को साल में 9 महीने हर दिन कम से कम एक अरब 24 करोड़ लीटर पानी देना है तो टरबाईन चलाने के लिए पानी कहां से उपलब्ध होगा? अब तो मानसून में भी जलाशय को भरने के बजाए दिल्ली को पानी देना ही पहला काम माना जाएगा।
उधर हिमाचल विद्युत बोर्ड तो कुछ और ही ढंग से सोच रहा है। उसे तो लगता है कि इस नए बांध से गिरिबाट बांध की कार्यक्षमता में भी वृद्धि होगी क्योंकि उसे रेणुका जलाशय से लगातार पानी मिलेगा। उसके अनुसार इस योजना से अन्य कई लाभ भी हैं जैसे कि “तब हमारे पास 24 किलोमीटर लंबा जलाशय होगा। इसे हमेशा ही पर्यटन और पानी में खेले जाने वाले खेलों की प्रतियोगिताओं के लिए उपयोग में लाया जा सकता है और हम इससे काफी अच्छी कमाई भी कर सकते हैं।”
जहां पानी की चोरी होती हो, जहां पानी की बर्बादी हो, जो अपनी जमीन पर बरसने वाले पानी को बह जाने देती है- ऐसी दिल्ली के लिए हिमाचल के सात सौ परिवारों की बलि चढ़ा दी जाएगी क्या?
आखिर दिल्ली को और कितना पानी चाहिए। कैसे और कब बुझेगी दिल्ली की प्यास?
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