जलपुरुष श्री राजेन्द्र सिंह से साक्षात्कार पर आधारित लेख
अरुण मुझे समझता है और मैं अरुण को समझता हूं। यही वजह है कि उसके और मेरे बीच कई बार..कई बातों को लेकर धुर असहमति के बावजूद मैं जब भी दिल्ली में होता हूं, सबसे पहले उसे याद करता हूं। मुझे अच्छा लगता है कि मेरी राय में सुधार के लिए वह अक्सर बंद किवाड़ों को खोलने का मार्ग अपनाता है। उस दिन भी वह याद दिलाने की कोशिश करता रहा कि डॉक्टरी पढ़ने के बावजूद मैंने गांव में रहकर काम करना पसंद किया।
गांव में भी मैने डॉक्टरी की बजाय, फावड़ा उठाकर जोहड़ खोदने का काम अपनाया। यह सब मैने सहज् भाव से किया। ऐसा करते हुए मुझे कोई डर नहीं लगा। आजकल कोई पढ़-लिखकर वापस गांव में मिट्टी खोदने के काम में लगे, तो अक्सर लोग उसे ‘रिजेक्टिड यूथ’ मानकर सहानुभूति, उपहास या बेकद्री जताएंगे।
दरअसल, अरुण गांवों को लेकर चिंतित था। उसके मन में कई सवाल थे: आजकल पढ़ने-लिखने के बाद नौजवान गांव में क्यों नहीं रहना चाहते? अब कैरियर और पैकेज पर इतना जोर क्यों है?
आज के नौजवान अपने को इतना असुरक्षित क्यों महसूस करते हैं कि बिना आर्थिक सुरक्षा काम करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते? किसी काम को करने की एवज् में क्या हासिल होगा? इसका उत्तर मिले बगैर आज कोई काम क्यों नहीं करना चाहता? “कर्मण्ये वा अधिकारस्ते...’’ का गीता संदेश और कबीरकी फक्कड़ी क्या सिर्फ किताबों में पढ़ने की बात रह गई है? आजकल ऐसा वातावरण क्यूं है? अरुण के इन प्रश्नों का जवाब देने की कोशिश में मेरे जेहन में मेरे स्कूल के दिन जिंदा हो गए। तब भी मेरा मन खेत, खेलिहान और मवेशियों के बीच ज्यादा लगता था। यही हमारे खेल थे। तब पढ़ाई भी एक खेल जैसी ही थी। हम पढ़ते थे, लेकिन उसका बोझ नहीं मानते थे। हालांकि वह जाति-भेद का जमाना था; लेकिन विभिन्न जातियों के बीच भी एक अनकहा-सा रिश्ता था। पूरा गांव हमारा घर था। पैसा कम था, लेकिनअपनापन बेशुमार!
जब मैने पढ़ाई पूरी की, मैं गांव में रहना चाहता था। पिताजी ने कहा- “जिंदगी बनाना चाहता है तो गांव छोड़कर चला जा नहीं तो न इधर का रहेगा, न उधर का।’’ मैं बहुत रोया। मैने सोचा कि पिताजी मुझे गांव में क्यों नहीं रहने देना चाहते? जवानी में गलतियां हो जाया करती हैं। किंतु मैंने तो ऐसी कोई गलती भी नहीं की थी, पिताजी यह बेरुखी दिखाएं। मैने मां से कहा। मां से समझाया कि पिताजी ने कुछ सोचकर ही कहा होगा।
मैं समझता हूं कि मेरे इस रुख की वजह शायद यह थी कि उस वक्त एक वातावरण था, जो हमें राष्ट्रहित में चिंतन के लिए प्रेरित करता था। हमें हर वक्त कैरियर की चिंता नहीं होती थी; स्कूल की उम्र तक तो कतई नहीं। हमारे भीतर उत्साह होता था; पढ़ाई से भिन्न कुछ करने का। जब कोई सामाजिक या राजनैतिक जलसा होता था, तो हमें कोई कहता नहीं था कि आओ; हमें स्वयं बहुत उतावली रहती थी।
कारण शायद यह था कि तब अध्यापकों के चिंतन में राष्ट्रहित की संवेदना दिखती थी। वे शारीरिक संरचना के जटिल विज्ञान को पढ़ाते-पढ़ाते भारत की सामाजिक संरचना में बढ़ आई जटिलता पर चिंतित होने लगते थे। उनकी चिंता कभी-कभी मुझे इतनी उद्वेलित कर देती थी कि मन करता था कि अभी साईकिल उठाऊ और निकल पड़ूं। वे हमारे कान खटाई करते थे; बेंत से भी सुध लेते थे। लेकिन वे हमारी निजी चिंताओं को अपनी निजींचिता समझते थे। उनके प्यार के साथ-साथ उनकी एक-एक बात हमें आकर्षित करती थी। अक्सर विद्यार्थी किसी-न-किसी अध्यापक में अपना ‘रोलमॉडल’ देखते थे। उनके व्यवहार से हम सीखते थे। गुरु-शिष्य के बीच की हमारी वह दुनिया बहुत अच्छी थी।
एक समय आया कि जब मैंने भारत सरकार की सेवा छोड़कर गांव की सेवा का मन बनाया। उस वक्त तरुण भारत संघ, जयपुर के अध्यापकों और विद्यार्थियों का एक साझा संगठन था। मैने तरुण भारत संघ को गांव ले जाने की जिद्द की, तो मुझे न तो किसी आर्थिक सुरक्षा का आश्वासन था और न कोई अन्य। आत्मा से कह रहा हूं कि मेरे मन में यह भाव कभी आया ही नहीं, न तब और न अब। हां, उस वक्त पत्नी ने एक बार जरूर कहा कि यदि पालने नहीं थे, तो बच्चे पैदा क्यों किए। किंतु मुझे अपने से ज्यादा पत्नी पर भरोसा था। इससे भी ज्यादा मुझे इस बात का भरोसा था कि काम करने वाला कभी भूखा नहीं मरता। आज नई पौध अपनी भूख के इंतजाम की पूर्ति की चिंता पहले करती है, काम की बाद में। ऐसा क्यों है? इस बात पर मैंने बहुत गहरे से विचार किया है।
मैं अनुभव करता हूं कि यह आज के नौजवानों की गलती नहीं है; गलती वातावारण निर्माण करने वालों की है। हमने ऐसे वातावरण का निर्माण कर दिया है कि हर काम-काज, रिश्ते-नाते और विचार के केन्द्र में पैसा आ गया है। पैसा के बिना कुछ नहीं हो सकता। पैसा होगा, तो सब कुछ होगा; शोहरत, इज्जत, रिश्ते-नाते; यह भाव गहरा गया है। इस भाव का प्रभाव सामाजिक काम करने वालों पर दिखना भी स्वाभाविक है। सामाजिक काम में गिरावट आई है। देखने वालों का नजरिया बदला है। पहले यह काम स्वेच्छा से होता था, अब एनजीओ हो गया। कहा जा रहा है कि जिन के मन में सरकारी हो जाने की लालसा थी, वे नहीं हो पाए तो गैरसरकारी संगठन हो गए।
1990 के बाद इस ‘एनजीओ’ नामकरण ने ज्यादा ख्याति पाई। उदारीकरण के नाम पर हुए हमारे वैचारिक बाजारीकरण ने हमारे सामाजिक काम का भी बाजारीकरण किया। दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वैच्छिक कार्य की रफ्तार धीमी पड़ी है। फिर भी मैं अरुण के प्रश्नों से निराश नहीं हूं। उत्थान और पतन तो दुनिया में हमेशा हुआ है। मुझे इस अंधेरे से ही रोशनी आती दिखाई दे रही है। अभी भी ऐसे लोग हैं कि जो सूरज से रोशनी नहीं लेते। वे अपने जीवन को गौरवान्वित करने की रोशनी ढूंढने घोर अंधेरे के बीच जाते हैं और एक दिन खुद दूसरों के लिए रौशनी बन जाते हैं। खासकर मध्यम-उच्च मध्यम वर्गीय नौजवानों के भीतर ऐसी रोशनी बनने की बेचैनी में देख रहा हूं। देखना, एक दिन यह अंधेरा फिर छटेगा; रोशनी देने का काम फिर रोशन होगा।
प्रस्तुति: अरुण तिवारी
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