फसल जल प्रबंधन

फसल जल प्रबंधन
फसल जल प्रबंधन

मानव जाति के आर्थिक विकास में प्राकृतिक परिस्थितियों एवं भौगोलिक विशेषताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। प्रकृति ने मानव के भरण-पोषण हेतु अनेक प्राकृतिक स्रोत भी उपलब्ध करायें हैं, जिसका सदुपयोग कर मानव समाज अधिकाधिक लाभान्वित होने का प्रयत्न करता है। उपलब्ध प्राकृतिक स्रोतों में जल का प्रमुख स्थान है जिनके अभाव में केवल मानव ही नहीं वरन् सामान्यता सम्पूर्ण जीव समाज का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाता है। सिंचाई का प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होता है। पानी के अभाव के कारण गरीबी बढ़ती है जिससे अशिक्षा, अज्ञानता, कुपोषण, बेरोजगारी, अस्वच्छता व बीमारियाँ आदि समस्यायें मनुष्य को चारों तरफ से घेर लेती हैं। असिंचित क्षेत्रों की अपेक्षा सिंचित क्षेत्रो में केवल फसलों की उत्पादन क्षमता ही अधिक नहीं होती है बल्कि मानव की क्षमता अधिक होती है।

सिंचाई के वैज्ञानिक तरीके-


1. टपक / ड्रिप सिंचाई विधि:

ड्रिप सिंचाई व्यवस्था सिंचाई एक उन्नत तकनीकी है जिससे पानी की बचत होती है इस विधि में पानी बूंद-बूंद करके पौधों / पेंड़ों की जड़ में सीधे पहुंचता है, जिससे पौधे की जड़ें पानी को धीरे-धीरे सोखती रहती हैं। इस तकनीकी से बाढ़ सिंचाई की तुलना में 70 प्रतिशत तक कृषक पानी की बचत कर सकता है एवं - उर्वरक उपयोग दक्षता में कमी कर सकता है, जिससे किसान की लागत बहुत कम हो जाती है। ड्रिप सिंचाई आज की जरूरत है क्योंकि प्रकृति की ओर से मानव जाति को उपहार के रूप में मिला जल जिन क्षेत्रों में भूमि का समतल करना महंगा और कठिन हो उन क्षेत्रों में फसलों को सफलतापूर्वक उगाने के लिए यह सिंचाई तकनीक सबसे अच्छी विधि है।

2.स्प्रिंकलर सिंचाईः

स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति बरसात की बौछार का एहसास देने वाली सिंचाई पद्धति है इस पद्धति में पानी को दाब के साथ पाइप के जाल नेटवर्क द्वारा विकसित कर स्प्रिंकलर के नोजल तक पहुंचाया जाता है जहां से यह एक समान वर्षा की बौछार के रूप में जमीन पर फैलता है। इस विधि से सिंचाई करने पर मृदा में नमी का उपयुक्त स्तर बना रहता है जिसके कारण फसल की वृद्धि, उपज और गुणवत्ता अच्छी रहती है तथा सिंचाई के पानी में घुलनशील उर्वरक, कीटनाशी तथा जीवनाशी या खरपतवारनाशी दवाओं का भी प्रयोग आसानी से किया जा सकता है। पानी की कमी, सीमित पानी की उपलब्धता वाले क्षेत्रों में दोगुने से तीन गुना क्षेत्रफल की सिंचाई की जा सकती है।

3. रेनगन सिंचाईः

रेनगन को एक स्टैण्ड के सहारे लगभग 45 से 180 डिग्री के कोण पर खेत की सिंचाई वाले हिस्से पर खड़ा कर लिया जाता है इसके बाद रेनगन में पानी का दबाव बढ़ता है और इसके ऊपरी भाग में फव्वारा लगा होता है जिससे लगभग 100 फीट की परिधि में चारो ओर वर्षा की बूंदों की तरह पानी निकलता है इस पद्धति से सिंचाई भी भूजल की बचत होती है।

कृषि फसलों के लिए जल की सीमित उपलब्धता के निम्नलिखित कारण हैं।

  • अनियमित मानसून
  • जल की कमी के दौरान पीने के पानी को प्राथमिकता
  •  उद्योगों के लिए प्राथमिकताएं
  • ऊर्जा निर्माण के लिए जल
  •  जल उठाने की ऊँची दर
  • अधो पृष्ठीय (Sub dorsal) जल स्तर नीचा होना ।
  • वर्तमान सिंचाई पद्धतियां तमाम व्यवधानों से प्रभावित होती है जिससे जल का दुरूपयोग एवं हानियां होती हैं।

पारम्परिक सिंचाई विधियों के अन्तर्गत कठिनाइयाँ :

1. भूमि समतलीकरण :

यदि भूमि समतल नहीं है तो किसान इसमें सिंचाई जल का बेहतर उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि भूमि समतलीकरण न होने से खेत में सिंचाई / जल की मात्रा का ठीक से आकलन नहीं हो पाता है तथा कहीं-कहीं जल भराव हो जाता है। बेहतर सिंचाई क्षमता के लिए भूमि समतलीकरण सबसे प्राथमिक आवश्यक है।

प्रभावी या प्रमुख क्षेत्र :

यहां पर नहरीय क्षेत्र में सिंचाई पर प्रभावी या प्रमुख क्षेत्र से तात्पर्य है कि नहरीय कृषि क्षेत्र से है, जो खेत नहरों के शुरूआत में निचले स्तर पर स्थित होते हैं वहां पानी की उपलब्धता आसानी से होती है तथा जो खेत नहरों के अन्त में अथवा ऊँचाई पर होते हैं वहाँ पानी आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता है। अतः ऐसी स्थिति में लिफ्ट सिंचाई की सिफारिश की जाती है परन्तु यह काफी महंगी एवं अनिश्चित होती है।

2. जल का अपव्यय


कच्ची नाली (जलमार्ग) के निर्माण के कारण रिसाव एवं श्रवण के कारण बहुत बड़ी मात्रा में जल का अपव्यय होता है। अतः फसल के पूरे जीवन चक्र की वृद्धि के आवश्यक जल से जल मांग कई गुना बढ़ जाती है। कभी-कभी उपयुक्त जल निकास के अभाव में रिसाव के कारण भी जल की बड़ी मात्रा का अपव्यय होता है।

3. अधिक श्रम उपयोग

पारम्परिक सिंचाई प्रणालियों के अन्तर्गत खेतों में समान जल वितरण करना बहुत कठिन होता है क्योंकि इसके लिये खेत का प्रकार / आकार व उसका एक समान न होना उत्तरादायी होता है। ऐसे खेतों में कृषि प्रायः छोटी-छोटी क्यारियों को बनाकर सिचाई करते हैं, जिससे जल के साथ-साथ क्यारी बनाने में श्रमिक भी अधिक लगते हैं। 

रिसाव से जल के अपव्यय को रोकने के लिए छोटी-छोटी नालियों का निर्माण करना होता है इसके निर्माण तथा लगातार देख-रेख के लिए श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है। जल वितरण एवं सिंचाई के लिए भी श्रमिकों की आवश्यकता होती है अतः लागत बढ़ती है।

पारम्परिक सिंचाई विधियों से हानियाँ :

सिंचाई के लिए सतही जल उपयोग 43 प्रतिशत तथा भूमिगत जल उपयोग 70 प्रतिशत होता है। वर्तमान सिंचाई पद्वतियों में जल की एक बहुत बड़ी मात्रा का बेहतर उपयोग नहीं हो पाता है।

  • पारम्परिक सिंचाई के अन्तर्गत कृषक रख-रखाव पूरे खेत में पानी और वह एक समय में बाढ़कृत बृहद सिंचाई करके खेत को छोड़ दिया जाता है। ऐसे में फसल को नमी की उपलब्ध संतृप्त अवस्था में तथा असंतृप्त अवस्था में घटती बढ़ती है अतः उत्पादन में कमी आती है।
  • जो खेत निचले स्तर पर स्थित होते हैं वहां प्रायः जल भराव की स्थिति उत्पन्न होती है क्योंकि भूमि असमतल होती है। अतः जल भराव की स्थिति में भी उत्पादन में कमी आती है।
  • शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा जल स्तर में वृद्धि एवं लवणों के कारण खेती के लिए अनुपयुक्त हो गया है। अधिक सिंचाई एवं खराब जल प्रबन्धन जल भराव एवं लवण के इकट्ठा होने का मुख्य कारण है। मृदा क्षारीयता में निरन्तर वृद्धि से भी भूमि खेती के लिए अनुपयुक्त हो जाती है।
  •  रासायनिक खादों के अधिक उपयोग से जल की बड़ी मात्रा का रिसाव होता है।
  •  वर्तमान सिंचाई पद्धतियों से मृदा के भौतिक गुणों मुख्यतः मृदा संरचना पर सतही मृदा बहाव के कारण प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  •  पारम्परिक सिंचाई में प्रायः अवांछनीय खरपतवारों का विकास भी पाया जाता है।

पारम्परिक सिंचाई में अनुपयुक्त सिंचाई विधियों के कारण फसलें संतोषजनक विकास नहीं कर पाती हैं। मृदा में नमी का स्तर अधिक सूखा तथा अधिक जल भराव के कारण घटता बढ़ता रहता है।

सिंचाई की विधियों का चुनाव करते समय ध्यान देने योग्य बातें:-

• सिंचाई जल से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त हो सके ।
• सिंचाई जल का वितरण एक समान सम्पूर्ण क्षेत्र में हो सके ।
• भूमि की ऊपरी सतह पर हानिकारक लवण सिंचाई द्वारा निचली सतह में चले जाने, जिससे पौधों पर हानिकारक प्रभाव को कम किया जा सके ।
• सिंचाई की चुनी गयी विधि में से भू-परिष्करण सम्बन्धित क्रियाओं में कोई व्यवधान न हो तथा खरपतवारों का नियंत्रण भी आसानी से हो सके ।
• सिंचाई के लिए विन्यास तैयार करते समय कम से कम भूमि नष्ट हों ।
• सिंचाई में प्रयुक्त पानी का कम से कम नुकसान हो और आसानी से जड़ क्षेत्र में पहुंच जाये ।
• अत्यधिक मूल्यवान उपकरणों की आवश्यकता न हो।
• चुनी गई विधि से अन्य कृषि क्रियाओं में कोई विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

पौधों की जल मांग को प्रभावित करने वाले कारक 

पौधों की जल मांग, भूमि की दशा जलवायु व पौधे की प्रकृति द्वारा प्रभावित होती है। जल मांग को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक निम्नलिखित है।

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उपर्युक्त सभी कारक वाष्पीकरण अथवा सोकने को कम या अधिक करके जलमांग को घटाते बढ़ाते रहते हैं। इसके अलावा सिंचाई की संख्या आदि को प्रभावित करके जलमांग पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। इन सभी कारकों का जल मांग पर प्रभाव निम्न प्रकार से होता है :-

जलवायु :

किसी क्षेत्र का ताप, भूमि से वाष्पीकरण व आद्रता पौधों में पानी की मात्रा कम या अधिक करता है। इसी प्रकार वातावरण की आर्द्रता अधिक होने पर उत्स्वेदन व वाष्पीकरण की मात्रा को कम करती है। वायु की गति अधिक होनें पर वाष्पीकरण व उत्स्वेदन बढ़ जाता है फलस्वरूप जलमांग बढ़ती है।

भूमि :

मृदा में अधिक नमी होने पर अधिक उत्स्वेदन व अधिक वाष्पीकरण होता है। तापक्रम भी वाष्पीकरण बढ़ाता है। कार्बनिक पदार्थ अधिक होने पर कम पानी का ह्रास होता है। भूमि में खाद्य तत्व अधिक होने पर पानी की कम मात्रा उत्स्वेदन द्वारा नष्ट होती है क्योंकि घोल जो पौधों द्वारा दूषित होता है, अधिक खाद्य तत्व पौधों में पहुँचा देता है हल्की मिट्टी जैसे रेतीली पानी की कम मात्रा अपने अन्दर रोक पाती है व अधिकतर निक्षालन व वाष्पीकरण से पानी नष्ट हो जाता है। जिन भूमियों का रंग काला होता है वे वातावरण से अधिक ताप सोखती हैं फलस्वरूप वाष्पीकरण अधिक होता है।

जल उपयोग क्षमता एवं अन्य लाभों को बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सिंचाई की विधि अपनानी चाहिए। सिंचाई विधि की उपयोगिता निम्न कारकों से प्रभावित होती है।

1. भूमि के गुण :

भूमि के गुणों में धरातल का प्रमुख स्थान है। ढालू भूमियों में ढाल के अंश को ध्यान में रखकर कन्टूर केंड विधि या बौछारी सिंचाई उपयुक्त होती है। समतल भूमियों में बाढ़कृत विधि उपयोगी होती है। भूमि में जल रिसाव का ध्यान रखकर भी विधि का चयन करना चाहिए अगर भूमि लवणीय है तो ऐसी विधि अपनानी चाहिए जिसमें लवण नीचे की सतहों में पहुँच जाये। रेतीली भूमियों में बौछारी सिंचाई करना लाभकारी होता है।

2. पौधों की बढ़वार की प्रवृत्ति व जल की आवश्यकता:

पौधों की जड़े कितनी गहराई तक पहुँचती हैं पौधों को किस समय कितना जल देना चाहिए व कुल जल की क्या आवश्यकता है सिंचाई की विधि के चयन में ध्यान रखना चाहिए।

3. सिंचाई के स्रोत का आकार:-

कृषक को अपनी कृषि भूमि की जोत के आधार पर ही सिंचाई विधि का चयन करना चाहिए। सिंचाई का स्रोत छोटा होने पर बौछारी विधि लाभदायक है तथा स्रोत का आकार बड़ा होने पर बाढ़कृत सिंचाई अच्छी है।

4. सिंचाई जल के गुण :-

सिंचाई जल अगर सामान्य है तो उपरोक्त बातें ध्यान में रखी जानी चाहिए परन्तु अगर सिंचाई जल लवणीय है तो ऐसी विधि अपनानी चाहिए जिससे हल्की सिंचाई हो ।

5. मौसम की दशा:

सिंचाई विधि अपनाने में मौसम की दशा भी विशेष महत्व रखती है जैसे वर्षा, ऋतु में वर्षा से प्राप्त जल उपलब्ध होने पर हम बाढ़ सिंचाई को अपना सकते हैं एवं गर्मी के मौसम में सिंचाई की आवश्यकता होने पर जल की उपलब्धता के आधार पर एवं सिंचाई की वैज्ञानिक विधियों को अपनायें तथा जाड़े के मौसम में फसल को पाला / कोहरा से बचाने के लिए फौव्वारा विधि अधिक उपयोगी है एवं जल की उपलब्धता पर कूड विधि लाभदायक है।

सिंचाई का समय :

अपनी विकास अवधि के दौरान पौधे वृद्धि के विभिन्न चरणों एवं स्थितियों से गुजरते हैं। पौधों में वृद्धि की गति कुछ परिस्थितियों के दौरान धीमी तथा कुछ स्थितियों में तेजी से होती है। इसी के अनुसार पौधों की जल मांग भिन्न-भिन्न होती है। सिंचित शुष्क फसलों की वृद्धि अवधि को सामान्यतया तीन भागों में बांटा गया है।

  1. प्ररोही / उगने वाली स्थिति
  2.  प्रजननीय / प्रजनक स्थिति
  3.  पकने की अवस्था
प्ररोही / उगने वाली स्थिति :

बुवाई के 2-3 सप्ताह बाद की स्थिति को प्रारम्भिक अवस्था / जिसमें फसल प्रस्थापित होती है उसे प्रारम्भिक प्ररोही अवस्था कहा जाता है। इसके बाद फसल वृद्धि अवस्था आती है जो विभिन्न फसलों में 2-6 सप्ताह तक रहती है।

प्रजननीय / प्रजनक स्थिति 

यह अवस्था कलियां बनने की शुरूआत से 75 प्रतिशत तक फूल आने की अवधि तक होती है। यह अवस्था ज्यादातर सिंचित शुष्क फसलों में 2-3 सप्ताह तक होती है और दो मौसमी फसलों तथा बहुवर्षीय फसलों में 4-6 सप्ताह इससे ज्यादा भी होती है।

पकने की अवस्था :

दाना बनने की अवस्था जिसको पकने की अवस्था से जाना जाता है। इस समय अन्तिम उत्पाद का निर्माण होता है। फुलवारी अवस्था एवं दाना बनने की अवस्थाओं को एक साथ फसल का मध्य काल कहते हैं। पकने की अवस्था के अन्तिम चरण में फसल पीली पड़ने लगती है तथा फिर सूखकर परिपक्वता हासिल करती है। यह अवधि परिपक्व अवस्था व अन्तकाल कहलाती है तथा यह ज्यादातर फसलों में 2-4 सप्ताह भी होती है। यह पूरी प्रजनक अवधि अत्यधिक संवेदनशील होती है क्योंकि इस वृद्धि गति काफी तेज होती है। अतः इस समयावधि में फसलों को मृदा जल तनाव से बचाना उपयुक्त होता है। सक्रिय प्ररोही अवस्था तथा दाना बनने के समय फसले मध्यम संवेदनशील तथा शुरूआती प्रस्थापन अवधि एवं परिपक्व अवस्था अवधि में फसलें जल के प्रति सबसे कम संवेदनशील होती हैं। कुछ फसलें जैसे कपास, मूँगफली एवं दालें हालांकि अपने शुरूआती प्ररोही अवस्था में त्वरित वृद्धि के लिए ज्यादा जल मांगती है। ज्यादातर फसलों में शुरूआती प्रस्थापन एवं फूलने की अवस्था में ज्यादा जल के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती है।

पौधों की बाहरी दशा देखकर विभिन्न फसलों के पौधों में सिंचाई की आवश्यकता विभिन्न लक्षणों जैसे पत्तियों का मुरझाना, पत्तियों का रंग बदलना आदि अर्थात कम या अधिक गहरा हरा रंग आदि को देखकर लगाया जा सकता है।

1. मिट्टी के गुण :

मिट्टी के भौतिक गुणों को देखकर भी सिंचाई के समय को जाना जा सकता है। चिकनी मिट्टी में नमी की कमी आने पर दरारे पड़ना प्रारम्भ हो जाती है।

2. मिट्टी नमी की माप:-

 सिंचाई के समय का सही पता लगाने के लिए विभिन्न विधियों जैसे रेपिड मोयसचर मीटर, टेनशियोमीटर आदि का प्रयोग किया जाता है। अधिकतर फसलों की सिंचाई मृदा में 50 प्रतिशत जल उपलब्ध रहने पर कर देनी चाहिए। फील्ड कैपेसिटी पर पौधों को 100 प्रतिशत मृदा जल उपलब्ध रहता है और मुरझान बिन्दु पर उपलब्ध जल की शून्य प्रतिशत होती है। अतः इन दोनों अवस्थाओं के बीच में ही सिंचाई करना लाभकारी होता है।

3. पौधों के जीवन की क्रान्तिक अवस्थाओं पर

सभी फसलों के पौधों के जीवन काल में कुछ ऐसी क्रान्तिक अवस्थायें होती है जिनमें पौधा भूमि से पानी अधिक में ग्रहण करता है यदि इन अवस्थाओं में पानी की कमी हो जाती है तो उपज में भारी कमी आ सकती है। इन अवस्थाओं को सिंचाई की दृष्टि से क्रान्तिक अवस्थायें कहते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से सिंचाई करने का समय ज्ञात करने के लिए यह सबसे सरल आधार है क्योंकि इसमें किसी प्रकार के उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती है जिन पर जल की कमी होने पर बढ़वार में वृद्धि अन्य अवस्थाओं की अपेक्षाकृत अधिक कमी आती है।

विभिन्न पौधों के जीवन की क्रान्तिक अवस्थाएं :

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विभिन्न फसलों को आवश्यकतानुसार पानी की मात्रा (मिमी०) :

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अधिक सिंचाई से हानियाँ:

  •  मृदा का कड़ा होना ।
  • फसल के जमाव में कमी होना।
  • पोषक तत्वों की कमी ।
  • फसलों में जड़ की वृद्धि रूक जाना।
  • फसलों में अपघटन द्वारा इकट्ठा हुए वेस्ट पदार्थ बढ़ जाने से प्रायः पौधों की मृत्यु हो जाती है।
  •  मृदा के अन्दर सूक्ष्म जीवों की संख्या घट जाती है।

जल उपयोग की क्षमता (WUE) : 

फसल उत्पादन में प्रति यूनिट पानी का प्रयोग वाष्पोत्सर्जन में जल धारण की क्षमता कहलाता है।

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किसानों को जागरूक करना होगा, कि वे रासायनिक खादों का प्रयोग कर रहे, इससे उनकी मृदा ऊसर की ओर बढ़ रही है इसकी जगह कृषकों को अधिक से अधिक जैविक खाद, गोबर की खाद एवं वर्मी / नाडेप खाद का प्रयोग करें जिसका परिणाम यह होगा कि जो सिंचाई के लिए किसान जल का उपयोग करते हैं, वह भविष्य में सिंचाई के लिए कम से कम जल की आवश्यकता होगी, जिससे भूगर्भ जल दोहन में कमी आयेगी ।
इसके साथ ही किसानों को फसल के लिए उन बीजों का चयन करना चाहिए जिसमें सिंचाई कम लगे और उत्पादन अधिक हो तथा कृषकों को कृषि विविधीकरण को भी अपनाकर भूगर्भ जल का उपयोग कम करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

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Post By: Shivendra
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