मध्यप्रदेश का अमरकंटक किसी समय दक्षिण कोसल में शामिल था। अमरकंटक पर्वत से भारत की सबसे सुन्दर और कुँवारी नदी नर्मदा का उद्गम हुआ है। यह नदी अमरकंटक से एक पतली सी धारा के रूप में प्रवाहित हुई है। इस नदी की दूध धारा और कपिल धारा मिलकर इसे एक तीर्थ का रूप देती हैं। नर्मदा नदी अपने वक्ष-स्थल में सफेद संगमरमर संजोये हुए हैं। जो इसे अनुपम सौन्दर्य प्रदान करने के साथ-साथ अनेक कलाकार मूर्तिकारों के जीवन-यापन का साधन भी हैं। नर्मदा नदी इस तरह से मूर्तिकला को पुष्पित व पल्लवित करते हुए प्रवाहित है। सोन नदी का उद्गम स्थल भी अमरकंटक पर्वत ही है और यह नदी महानदी की एक प्रमुख सहायक नदी है।
छत्तीसगढ़ में कुछ ऐसी नदियाँ हैं जो उत्तर भारत में बहने वाली नदियों में उनसे समागम बना लेती हैं। इनमें कन्हार, रिहन्द, गोपद, बनास आदि प्रमुख हैं। ये नदियाँ गंगा नदी में मिलने से पूर्व अपना जल सोन नदी में गिराती हैं। सोन नदी गंगा नदी की भी एक सहायक नदी है। कन्हार नदी बगीचा तहसील के बखौना पर्वत शिखर से निकलती है। रिहन्द नदी का उद्गम सरगुजा जिले की मतरिंगा पहाड़ी से हुआ हैं। यहाँ की रेण नदी के संदर्भ परशुराम की माता रेणुका से जुड़े हुए हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा क्षेत्र की नदियों का भी अपना महात्व है। कहा जाता हैं कि यहां की सीता नदी का नामकरण सीता जी के नाम पर ही हुआ है। राम चौदह वर्ष के वन-गमन के समय सरगुजा भी आये थे और वे अपनी धर्मपत्नी सीता जी व अनुज लक्ष्मण के साथ कुछ समय तक यहाँ रुके भी थे। कहा जाता है कि सीता जी यहाँ की नदी से फल-फूल, कन्दमूल आदि अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ प्राप्त करती थीं। वे इन वनस्पतियों का उपयोग अपने पति राम एवं देवर लक्ष्मण के भोजन के लिए करती थीं। सीता जी की दृष्टि में नदी केवल एक जल धारा ही नहीं, बल्कि उनकी सखी सहेली की तरह थी और सीता जी ने इसके साथ अपने भावनात्म्क संबंध स्थापित किये थे। सीता जी ने नदी के उपहार के एवज में उसे अपनी श्रद्धा दी थी। सीता ने नदी से कहा कि तुम मेरे पति एवं देवर के लिए हमें वनस्पतियाँ उपलब्ध कराती हो और मैं तुम्हें बड़े प्यार से अपना नाम सीता दे रही हूँ। इस तरह से यहाँ एक नदी सीता नदी के रूप में भी अस्तित्व में है। इस तरह से छत्तीसगढ़ के हर क्षेत्र में नदियों का जाल सा ही बिछा हुआ है।
महानदी का जल-मार्ग एक बंदरगाह के रूप में भी उपयोगी था। दक्षिण कोसल में पूर्व में उड़ीसा का संबलपुर छत्तीसगढ़ के ही अन्तर्गत था और यहाँ पास में ही हीराकूट नामक एक छोटा सा द्वीप था और वहाँ हीरा मिलता था। रोम में यहाँ के हीरों की अच्छी खपत थी। इसका उल्लेख गिब्बन नामक अंग्रेज ने किया है। रोम के लेखक पलोने ने अपनी ‘नेचुरल हिस्ट्री’ में उल्लेख किया है कि ब्रिटिशकालीन रिकार्ड के अनुसार सन् 1766 में लार्ड क्लाइव ने एक अंग्रेज को सम्बलपुर, हीरे के व्यापार की संभावनाओं का पता लगाने के लिए भेजा था। महानदी के तटवर्ती क्षेत्रों में रोमन साम्राज्य के सिक्के मिले हैं, जिनसे यह पता चलता है कि मौर्यकाल में रोम से व्यापारिक संबंध था। पुरातत्ववेत्ता डॉ. हेमू यदु के अनुसार बौद्ध जातक साहित्य में मेण्डक, अनाथपिण्डक एवं आनन्द ये तीनों मध्य क्षेत्र के व्यापारी थे। उनका व्यापार कोसल से काशी तक होता था। इसके अलावा इनका बाहर के देशों के साथ आयात-निर्यात होता था। महानदी में व्यापारी अनाथपिण्डक की मालवाहक एवं यात्रियों के आवागमन के लिए नौकायें चला करती थीं। सरगुजा से हाथीदांत, बस्तर से इमारती लकड़ी व कोसा वस्त्र, देवभोग एवं सम्बलपुर से हीरों एवं अन्य स्थानों से मोती-जवाहरात, मिट्टी के बर्तन व खिलौने सुगन्धित तेल आदि का व्यापार की समृद्धि एवं विकास में अपना अभूतपूर्व योगदान दे रहा था।
छत्तीसगढ़ में कुछ ऐसी नदियाँ हैं जो उत्तर भारत में बहने वाली नदियों में उनसे समागम बना लेती हैं। इनमें कन्हार, रिहन्द, गोपद, बनास आदि प्रमुख हैं। ये नदियाँ गंगा नदी में मिलने से पूर्व अपना जल सोन नदी में गिराती हैं। सोन नदी गंगा नदी की भी एक सहायक नदी है। कन्हार नदी बगीचा तहसील के बखौना पर्वत शिखर से निकलती है। रिहन्द नदी का उद्गम सरगुजा जिले की मतरिंगा पहाड़ी से हुआ हैं। यहाँ की रेण नदी के संदर्भ परशुराम की माता रेणुका से जुड़े हुए हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा क्षेत्र की नदियों का भी अपना महात्व है। कहा जाता हैं कि यहां की सीता नदी का नामकरण सीता जी के नाम पर ही हुआ है। राम चौदह वर्ष के वन-गमन के समय सरगुजा भी आये थे और वे अपनी धर्मपत्नी सीता जी व अनुज लक्ष्मण के साथ कुछ समय तक यहाँ रुके भी थे। कहा जाता है कि सीता जी यहाँ की नदी से फल-फूल, कन्दमूल आदि अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ प्राप्त करती थीं। वे इन वनस्पतियों का उपयोग अपने पति राम एवं देवर लक्ष्मण के भोजन के लिए करती थीं। सीता जी की दृष्टि में नदी केवल एक जल धारा ही नहीं, बल्कि उनकी सखी सहेली की तरह थी और सीता जी ने इसके साथ अपने भावनात्म्क संबंध स्थापित किये थे। सीता जी ने नदी के उपहार के एवज में उसे अपनी श्रद्धा दी थी। सीता ने नदी से कहा कि तुम मेरे पति एवं देवर के लिए हमें वनस्पतियाँ उपलब्ध कराती हो और मैं तुम्हें बड़े प्यार से अपना नाम सीता दे रही हूँ। इस तरह से यहाँ एक नदी सीता नदी के रूप में भी अस्तित्व में है। इस तरह से छत्तीसगढ़ के हर क्षेत्र में नदियों का जाल सा ही बिछा हुआ है।
महानदी का जल-मार्ग एक बंदरगाह के रूप में भी उपयोगी था। दक्षिण कोसल में पूर्व में उड़ीसा का संबलपुर छत्तीसगढ़ के ही अन्तर्गत था और यहाँ पास में ही हीराकूट नामक एक छोटा सा द्वीप था और वहाँ हीरा मिलता था। रोम में यहाँ के हीरों की अच्छी खपत थी। इसका उल्लेख गिब्बन नामक अंग्रेज ने किया है। रोम के लेखक पलोने ने अपनी ‘नेचुरल हिस्ट्री’ में उल्लेख किया है कि ब्रिटिशकालीन रिकार्ड के अनुसार सन् 1766 में लार्ड क्लाइव ने एक अंग्रेज को सम्बलपुर, हीरे के व्यापार की संभावनाओं का पता लगाने के लिए भेजा था। महानदी के तटवर्ती क्षेत्रों में रोमन साम्राज्य के सिक्के मिले हैं, जिनसे यह पता चलता है कि मौर्यकाल में रोम से व्यापारिक संबंध था। पुरातत्ववेत्ता डॉ. हेमू यदु के अनुसार बौद्ध जातक साहित्य में मेण्डक, अनाथपिण्डक एवं आनन्द ये तीनों मध्य क्षेत्र के व्यापारी थे। उनका व्यापार कोसल से काशी तक होता था। इसके अलावा इनका बाहर के देशों के साथ आयात-निर्यात होता था। महानदी में व्यापारी अनाथपिण्डक की मालवाहक एवं यात्रियों के आवागमन के लिए नौकायें चला करती थीं। सरगुजा से हाथीदांत, बस्तर से इमारती लकड़ी व कोसा वस्त्र, देवभोग एवं सम्बलपुर से हीरों एवं अन्य स्थानों से मोती-जवाहरात, मिट्टी के बर्तन व खिलौने सुगन्धित तेल आदि का व्यापार की समृद्धि एवं विकास में अपना अभूतपूर्व योगदान दे रहा था।
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