छिंदवाड़ा, जहाँ एसबर्न का बनवाया तालाब अशरफ का हो गया है

गोंडों के देवगढ़ राज्य और आज के छिंदवाड़ा इलाके में कुएँ, झिरियाँ और कहीं-कहीं बावड़ियाँ ही पानी के स्रोत हैं लेकिन जिले के सदर मुकाम में कई पुराने तालाब आज भी मौजूद हैं। सन् 1818 ईस्वी में परकोटे वाले आज के छिंदवाड़ा शहर का वह हिस्सा बनना शुरू हुआ था जिसे चिटणीसगंज कहते हैं। मराठी में चिटणीस का अर्थ होता है। सचिव या लेखाकार। 1818 से 1830 के बीच भोंसलों के सचिव रहे ये चिटणीस। इनके पास भोंसलों का खजाना था और इसकी सुरक्षा के लिए परकोटे का निर्माण करवाया गया था। बाद में अंग्रेजों ने परकोटे में कमानिया गेट भी बनवाया था। जिले का एक व्यापारिक कस्बा पांढुर्णा छीतू पिंडारी की पहल पर पिंडारियों ने बसाया था। 1904 ईस्वी में ‘बंगाल-नागपुर रेलवे’ कम्पनी ने नागपुर से छिंदवाड़ा होते हुए जबलपुर जाने वाली छोटी लाइन की गाड़ी चलाई थी। उस समय इस रेल का ढीली-ढाली चाल और अव्यवस्था के कारण मजाक में ‘बी नेवर रेगुलर’ यानि समय पर कभी नहीं कहा जाता था।

सन् 1954 में छिंदवाड़ा जिला बना था और उसके पहले कलेक्टर शेक्सपियर बनाए गए थे। जिले में बीके बोल्टम, केप्टन गार्डन और बोल्टेस आदि के बाद 1864 से 1867 के बीच मेजर एसबर्न डीसी बना। उसे दुबारा 1869 में फिर छिंदवाड़ा का कलेक्टर बनाया गया। मेजर एसबर्न ने छिंदवाड़ा में पानी की आपूर्ति करने के लिहाज से बीच शहर में 1864 के आसपास एक तालाब बनवाया था जो आज भी ‘अशरफ’ या ‘एसबर्न’ तालाब के नाम से जाना जाता है। इसी दौर में अंग्रेजों का खजाना और सम्पन्न जैन सेठ-साहूकरों की सुरक्षा के लिए गोलगंज मोहल्ले और उसके आसपास के इलाके को घेरकर परकोटे तथा कमानिया गेट का पुनर्निर्माण भी करवाया गया था।

इन तालाबों के अलावा शहर में जल आपूर्ति का प्रमुख साधन कुएँ ही थे। छिंदवाड़ा पहाड़ी, पठारी और मैदानी तीन तरह के क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्रों में जुन्नारदेव, हर्रई, तामिया आदि इलाके हैं, पठारी क्षेत्रों में चौरई. छिंदवाड़ा, अमरवाड़ा, परासिया तथा मैदानी क्षेत्रों में नागपुर, सौंसर और महाराष्ट्र से लगे हुए इलाके शामिल हैं। इस भौगोलिक बनावट के कारण वर्षा के स्तर में भी फर्क पड़ता है। और नतीजे में कुएँ, झिरियाँ आदि के जलस्तर बदलते रहते हैं।

छिंदवाड़ा में आज भी सौ, डेढ़ सौ साल पुराने चार कुएँ मौजुद हैं जो सबको पानी देते हैं। इनमें बैरिस्टर प्यारेलाल के बगीचे का कुआँ, कलेक्टोरेट के सामने की मुंडी कचहरी का कुआँ जिसकी समतल छत कटनी पत्थर की है, एक झरने को बाँधकर कुण्ड की तरह बनाया गया कुण्डी कुआँ और 1955 में खोदा गया नगर पालिका का कुआँ। 1998 में जिले में 4800 कुंए और 8 तालाब थे और 1955 तक 7-8 हजार कुएँ बन गए थे। इन कुओं के अलावा कुलबेहरा नदी पर बाँध बनाकर भी छिंदवाड़ा को पानी दिया जाता है। यह कुलबेहरा नदी पेंच नदी में मिलती है, पेंच कन्हान में और कन्हान नदी वैनगंगा में मिल जाती है। कहते हैं कि कुलबेहरा नदी के तल में ज्वालामुखी है। ‘डोह’ का मतलब होता है मुख जैसे- प्रतापडोह आदि। ‘रीड एवं रट्लेज’ की भू-गर्भ शास्त्र की किताब के अनुसार कुलबेहरा नदी में 48 से 50 तक ज्वालामुखी हैं। शायद इसके कारण ही यह नदी बारामासी बनी रहती है।

पहले इन क्षेत्रों में झिरियाँ और कुएँ पानी के प्रमुख स्रोत थे। पहाड़ी इलाकों में हर जगह झिरियाँ आझ भी मिलती हैं जिनका उपयोग पेयजल और सिंचाई तक के लिए किया जाता है। बड़कुई गाँव में ही पाँच झिरियाँ हैं जिनमें से एक ‘चोरगुण्डी’ बहुत प्रसिद्ध है। इसमें पहाड़ों से पानी झिरकर आता है। और अब लोगों ने अपनी पेयजल तथा थोड़ी बहुत सिंचाई की जरूरत के लिए पास ही एक तालाब बनाकर पाइप भी लगा लिया है। गर्मी में पानी सूख जाने पर भी इस ‘चोरगुण्डी’ झिरिया से पानी मिल जाता है। और जानवर झिरिया से बने तालाब में पानी पीते हैं। 12000 जनसंख्या वाली जिले की सबसे बड़ी पंचायत मानी जाने वाले बड़कुई गाँव में पहले कुएँ भी थे लेकिन पहले बनी खदानों के कारण 25-30 साल से इनमें पानी कम होता रहा है और अंत में 75 प्रतिशत कुएँ सूख गए। बड़कुई गाँव के एक बड़े मोहल्ले भोपाल बस्ती और मुर्गी टोला में चर्रई बाँध से पाइप लगाकर भी पानी दिया जाता है। लेकिन लोग झिरियों का पानी ही ठीक मानते हैं और वापरते हैं। इसी तरह की एक झिरियाँ चाँदामेटा की चाँदशाह वली की पहाड़ी पर भी है जहाँ एक मंदिर और मजार बने हैं। चांदशाह इलाके के एक प्रसिद्ध फकीर थे। पहाड़ी की तराई की इस झिरियाँ पर एक कुण्ड भी बना है।

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