विश्व जल दिवस पर विशेष
प्रकृति और इंसान के बनाए ढाँचों में सन्तुलन कैसे हो?
प्रकृति है, तो पानी है। पानी है, तो प्रकृति का हर जीव है; पारिस्थितिकी है। समृद्ध जल सम्पदा के बगैर, पारिस्थितिकीय समृद्धि सम्भव नहीं। पारिस्थितिकीय समृद्धि के बगैर, जल समृद्धि की कल्पना करना ही बेवकूफी है। विश्व जल दिवस के प्रणेताओं की चिन्ता है कि जलचक्र, अपना अनुशासन और तारतम्य खो रहा है। प्रकृति और इंसान की बनाए ढाँचों के बीच में सन्तुलन कैसे बने? प्रकृति को बदलने का आदेश हम दे नहीं सकते। हम अपने रहन-सहन और आदतों को प्रकृति के अनुरूप कैसे बदलें? चिन्ता इसकी है।
स्लम बढ़े या गाँव रहें?
पानी बसाता है। सारी सभ्यताएँ पानी के किनारे ही बसीं। किन्तु दुनिया भर में हर सप्ताह करीब 10 लाख लोग अपनी जड़ों से उखड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहेे हैं। 7400 लाख लोगों को वह पानी मुहैया नहीं, जिसे किसी भी मुल्क के मानक पानी योग्य मानते हैं। पानी की मात्रा तो एक सवाल है ही; गुणवत्ता इससे बड़ा सवाल बन कर उभर रहा है; इतना बड़ा कि यदि हम पाँच साल तक 107 बिलियन अमेरिकी डाॅलर खर्च करें, तो शायद इस सवाल का समाधान न ढूँढ पाएँ।
दुनिया में शहरीकरण की रफ्तार इतनी तेज है कि आज दुनिया में हर दो में एक परिवार शहरी है। 2050 तक ढाई बिलियन लोग शहर में रहने लगेंगे। शहरों में आबादी भी बढ़ रही है और स्लम भी। पानी के पाइप बढ़ रहे हैं; कचरा भी और बीमार भी। जोर इलाज पर है। बीमारी हो ही नहीं, इस पर कोई जोर नहीं।
क्या असभ्य हो रहे हैं हम?
हाँ! यह कैसी सभ्यता की सदी है कि हम अपनी जड़ों से उखड़ भी रहे हैं और खुद ही जड़ों को उखाड़ भी रहे हैं। गाँव की खुली आबाद आबोहवा के बाजुओं से भागकर गन्दगी और उमस भरी स्लम में बसने की सभ्यता को कोई सभ्य कैसे कह सकता है? क्या हम असभ्य हो रहे हैं? शुक्र है कि भारत, अभी भी गाँवों का देश है। किन्तु आगे ऐसा रहेगा नहीं। आगे चलकर सबसे ज्यादा तेज शहरी होते देश-भारत, चीन और नाइजीरिया ही होंगे। चिन्ता इसकी भी है।
बढ़ती जेेब ने बढ़ाया कचरा
सब जानते हैं कि स्वच्छ पानी घट रहा है। स्रोत सिमट रहे हैं। आबादी बढ़ने के कारण जरूरत बढ़ रही है। किन्तु प्रति व्यक्ति खपत घट नहीं रही। उपभोग बढ़ रहा है। 2000 की तुलना में 2050 तक पानी की वैश्विक माँग के 400 फीसदी तक बढ़ जाने की उम्मीद है। एक स्विमिंग पूल जितना पानी, एक कार के निर्माण में खर्च हो रहा है। एक छोटी रसोई की जरूरत का पानी, दो छोटी कार धोने में बर्बाद करने से हम चूक नहीं रहे।
कागज का एक चार्ट बनाने में साढ़े दस लीटर, प्लास्टिक शीट बनाने में 91 लीटर पानी लगता है। कितनी लम्बी सूची पेश करुँ; क्या भोजन, क्या लोहा.. हर चीज बनाने में पानी ही तो लगता है। किन्तु हम हैं कि चीजों का उपयोग से ज्यादा दुरुपयोग करने से बाज नहीं आ रहे। जेब में वहन करने की शक्ति को हमने जरूरत से ज्यादा खर्च और बर्बाद करने की आजादी समझ लिया है।
हम खाएँ इच्छा भर, किन्तु थाली में छोड़ें नहीं कण भर। जितनी जरूरत हो, उतना उपयोग जरूर करें, किन्तु उपभोग से दूर रहें। उपयोग और उपभोग के अन्तर को समझें। दुनिया में कोई भी वस्तु बचेगी, तो सच मानिए कि पानी बचेगा। हमारे जीवन में वस्तु उपयोग से जलोपयोग का अनुशासन कैसे आए? यह चिन्ता है।
दो अलग न किए जा सकने वाले मित्रों की चिन्ता ज़रूरी
पानी और ऊर्जा अलग न किए जा सकने वाले दो मित्र है। पानी है, तो ऊर्जा है; ऊर्जा है, तो पानी है। ऊर्जा बचेगी, तो पानी बचेगा; पानी बचेगा, तो ऊर्जा बचेगी। पानी बनने के लिए ऊर्जा, ऊर्जा बनने के लिए पानी। दुनिया में ऊर्जा का कोई स्रोत ऐसा नहीं, जिसके निर्माण में पानी का कोई योगदान न हो। यह बात जगजाहिर है; बावजूद इसके हम न पानी के उपयोग में अनुशासन और दक्षता ला पा रहे हैं और नहीं ऊर्जा के।
डाली, नारी और नीर
इक सोये नन्हें बीच को जागने से लेकर पनपकर दो हरी डालियों में बदलने में करीब 15 हजार लीटर पानी लगता है। विश्व जल दिवस की चिन्ता उन करोड़ों बाजुओं की भी चिन्ता है, जो आज भी अपनी दिनचर्या का 15 प्रतिशत समय पानी ढोकर लाने में खर्च करने को मजबूर हैं।
ये चिन्ताएँ सिर्फ किसी एक संगठन, संचार माध्यम, देश या व्यक्ति की नहीं; ये चिन्ताएँ भारत की भी हैं और पाकिस्तान की भी। ये मेरी और आपकी चिन्ता कैसे बने? यह चिन्ता है। इन चिन्ताओं का निवारण कैसे हो? विश्व जल दिवस, इस पर चिन्तन करने का भी दिवस है। आइए, करें।
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