भारत के कृषि पर निर्भर होने के कारण सिंचाई इसकी रीढ़ की हड्डी है। कृषि के उपयोग में आने वाली सामग्रियों (इनपुट) में बीज, उर्वरक, पादप संरक्षण, मशीनरी और ऋण के अतिरिक्त सिंचाई की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। सिंचाई सूखी भूमि को वर्षा जल के पूरक के तौर पर जल की आपूर्ति की एक विधि है, इसका मुख्य लक्ष्य कृषि है। देश में सिंचाई कुओं, जलाशयों, आप्लावन और बारहमासी नहरों तथा बहु-उद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं के द्वारा की जाती है।
भारत के अलग-अलग राज्यों में सिंचाई की विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जाता है।
सफल फसलोत्पादन हेतु उन्नत बीज, खाद व उर्वरक, जल, भूमि की तैयारी तथा कीट एवं बीमारियों से फसलों की रक्षा करना आवश्यक है, जिनका समुचित प्रबंधन करके हम कृषि उत्पादन को बढ़ाकर दो गुना या तीन गुना कर सकते हैं। उपरोक्त फसलोत्पादन के कारकों में जल एक प्रमुख कारक है, क्योंकि पौधों के सम्पूर्ण जीवन काल में इसकी महती आवश्यकता होती है। अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि पौधों की लगभग सभी क्रियाएं जल द्वारा ही सम्पन्न होती हैं परन्तु जल की कमी से फसल उगाना लगभग असभंव हो जाता है। सिंचाई कृषि को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक है। सिंचाई के द्वारा जहाँ पर कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है वहीं पर दो फसली एवं बहुफसलीय क्षेत्रों में भी वृद्धि सिंचाई के फलस्वरूप तीव्र गति से हुई है।
भारत में सिंचाई के स्रोतों की स्थिति
भारतीय कृषि डाटा पुस्तिका वर्ष 2018 के अनुसार सम्पूर्ण भारत में कुल सिंचित क्षेत्र 6.83 करोड़ हेक्टेयर है, इसमें से सबसे अधिक 46.2 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई नलकूप से होती है। जिसके बाद नहरों और कुओं का स्थान है। सरकार 1950-51 से ही नहरों का सिंचित क्षेत्र बढ़ाने के काम को अधिक महत्व दे रही है। वर्ष 1960 में नहरों का सिंचित क्षेत्र 83 लाख हेक्टेयर था जो अब 1.6 करोड़ हेक्टेयर हो चुका है। इसके अतिरिक्त कुल सिंचित क्षेत्र में नहरों का हिस्सा 1951 में 40 प्रतिशत से घटकर 2014-15 में 23 प्रतिशत रह गया है। दूसरी ओर कुल सिंचित क्षेत्र में कुओं और नलकूप का हिस्सा 29 प्रतिशत से बढ़ कर 69.2 प्रतिशत तक पहुँच चुका है।
सिंचाई की अवश्यकता
भारत की औसत वार्षिक वर्षा 1194 मि.मी. है। यदि पूरे पृथ्वी के क्षेत्रफल को देखा जाए तो भारत में 328 मिलियन हेक्टेयर में 292 मिलियन हेक्टेयर वर्षा होती है, इसमें से 75 प्रतिशत जल की प्राप्ति दक्षिण-पश्चिमी मानसून (जून-सितम्बर तक) से होती है। शेष जल की प्राप्ति शेष 8 महीनों में होती है, इसलिए उन्नत फसलोत्पादन हेतु सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है, इसके अतिरिक्त निम्न कार्यों के लिए भी सिंचाई की आवश्यकता होती है:-
1. बुवाई से पहले खेत तैयार करने के लिए।
2. पौधों को सूखे से बचाव के लिए।
3. मृदा व वायुमण्डल में उचित नमी बनाये रखने के लिए।
4. टिलेज यंत्रों का सफलता से प्रयोग करने के लिए।
5. लाभदायक जीवाणुओं को क्रियाशील करने के लिए ।
6. पौधों की वृद्धि एवं पाले से बचाव के लिए।
स्रोत - आधुनिक सस्यविज्ञान द्वारा रणवीर सिंह एवं सी.बी. सिंह, 2015
सिंचाई जल के प्रयोग की विधियां -
आजकल सिंचाई की अनेक विधियां प्रचलित हैं। इनका चुनाव भूमि की किस्म व ढाल, फसल की किस्म तथा जलस्रोत व प्रवाह की मात्रा के आधार पर किया जाता है। सिंचाई की विधियों का मुख्य वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः
1. सिंचाई की प्राचीन विधियाँ
2. सिंचाई की आधुनिक विधियाँ
सिंचाई की प्राचीन विधियाँ .
पृष्ठीय सिंचाई
अवभूमि सिंचाई
छिड़काव विधि से सिंचाई
बूँद-बूँद सिंचाई
सिंचाई की प्राचीन विधियों का विवरण.
1 . धरातलीय/ख़ुली/सतह सिंचाई
देश में सबसे अधिक क्षेत्रफल में (95% प्रतिशत भाग में) इस विधि द्वारा सिंचाई की जाती है तथा भारत वर्ष में सिंचाई की यह विधि सबसे अधिक प्रचलित है। सिंचाई के जल को भूमि के ऊपरी धरालत पर लगाने की विधि को धरातलीय सिंचाई कहते हैं। इस विधि में सिंचाई के पानी को ऊंचाई पर नाली द्वारा खोल दिया जाता है। और जल जल गुरुत्वाकर्षण बल तथा अपने तरल स्थैतिक दाब द्वारा सम्पूर्ण खेत में फैल जाता है, इसकी निम्नलिखित विधियां प्रचलित हैं,
(अ) भराव/तोड़/अप्लावन/प्रवाह/ बाढ़कृत सिंचाई विधि -
सिंचाई की यह विधि बहुत ही प्राचीन तथा अधिकांश नहरी क्षेत्रों में अपनाई जाती है, जहाँ सिंचाई का जल सस्ता होता है। इस विधि से सिंचाई की नाली खेत के एक किनारे पर आकर खुलती है जिससे सारा खेत जल से भर जाता है। यह केवल समतल खेतों में ही अपनाई जाती है। धान, जूट एवं बरसीम की फसलों के लिए यह विधि उत्तम मानी जाती है परन्तु अन्य फसलों के लिए इस विधि से सिंचाई करने पर लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होती है। इस विधि में सिंचाई करते समय सारे खेत में जल छोड़कर बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी जाती है। इस विधि में मृदा स्तर पर जल स्वतंत्र रूप से बहता है। इस विधि में जल का सर्वाधिक नुकसान होता है। हमारे देश में सिंचाई की यह विधि अधिक प्रचलित है इसका प्रयोग गेहूँ, जौ, मक्का, सरसों, कपास, चना, एवं सब्जियों जैसे पालक, मेथी, टमाटर में किया जाता है। अधिकतर खेतों में सिंचाई करने के लिए यह विधि अपनायी जाती है। सिंचाई करने से पूर्व खेतों में मेड़ बनाकर छोटी-छोटी क्यारियां बना ली जाती हैं। क्यारियों का आकार जलस्रोत, खेत की समतलता, फसल जो उगाई गई है तथा मृदा कणों पर आधारित होता है। तत्पश्चात प्रत्येक क्यारी को एक-एक करके भरते जाते हैं। समतल खेतों में भी इस विधि से सिंचाई करके जल की अधिक मात्रा की बचत की जा सकती है।
(ब) वलय/रिंग विधि
इस विधि में दो पंक्तियों के मध्य एक सिंचाई की नाली बना लेते हैं। इस नाली से छोटी-छोटी नलिकायें बनाकर पेड़ के थालों से जोड़ देते हैं। तने के चारों ओर मिट्टी की मेंड बना दी जाती है जिससे जल तने को न छूने पाये। पेड़ फैलने के अनुसार रिंग की संख्या बढ़ती जाती है। यह विधि अधिकतर बाग-बगीचों में सिंचाई करने में प्रयोग की जाती है। पेड़ों के चारों ओर गोल या वर्गाकार थाले बना दिये जाते हैं तथा पेड़ों की पंक्तियों के बीच में एक नाली बनाकर थालों से जोड़ दी जाती है। धालों के अन्दर पौधे के तने के चारों और मिट्टी चढ़ा दी जाती है। जिससे पौधे का तना जल के सीधे सम्पर्क में न आने पाये। इस विधि से कम समय में अधिक क्षेत्र कम जल द्वारा सींचा जा सकता है । छोटे पेड़ों की सिंचाई में यह विधि उत्तम है।
(स) कूंड विधि/नाली विधि (फरोइरिगेशन मैथड)
इस विधि से सिंचाई उन फसलों में की जाती है, जो पंक्तियों में मेंड़ों या नालियों में बोई जाती हैं और जिसमें बुवाई के समय अथवा बाद में मेंड़ बनानी पड़ती है जैसे आलू, शकरकन्द, गन्ना, मूँगफली, मक्का, तम्बाकू, ज्वार, सब्जियों आदि में प्रयोग की जाती है।
आलू की फसल में कूंड और मेंड़ प्रत्येक की मोटाई 22.5 सें.मी. तथा गहराई 20-25 सें.मी. रखते हैं। इस विधि में दो पंक्तियों के बीच में कूंडों एवं मेंड़ों के माध्यम से सिंचाई की जाती है जिससे रिसाव द्वारा जल मेंड़ों पर पहुँचता है। फसल मेंड़ों पर बोई जाती है। कूंड में कब, कितना तथा कितने समय तक जल दिया जाए यह पौधों की जलमांग, इनफिल्ट्रेशन दर तथा मृदा की किस्म पर निर्भर करता है। यह विधि विशेषकर उन फसलों में प्रयोग की जाती है जिनमें अधिक जल से जड़ गलन रोग हो जाता है तथा जल की जल्दी-जल्दी आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में जल निकास की आवश्यकता होती है वहाँ पर भी कूंड बनाने से वर्षा का अतिरिक्त जल बहकर निकल जाता है। इस विधि से सिंचाई करने से कम सिंचाई जल से अधिक क्षेत्र पर सिंचाई की जा सकती है। इस विधि द्वारा जल की क्षति बहुत कम होने से जल उपयोग क्षमता अन्य विधियों की तुलना में बहुत अधिक होती है। यह 0.2-0.5 प्रतिशत ढलान एवं 1-2 लीटर प्रति सेकेण्ड धारा प्रवाह के लिए सर्वोत्तम विधि है। इस विधि में कूंड मुख्यतः पांच प्रकार के होते हैं जैसे: समतल कूंड, ढालू कूंड, एकान्तर कूंड, समोच्च कूंड, वलीय कूंड।
2. अधरातलीय/अधोपृष्ठीय सिंचाई
पौधों को भूमि के नीचे की सतह की ओर से सिंचाई का जल प्रदान करने की क्रिया को अधरातलीय अथवा अधोपृष्ठीय सिंचाई कहते हैं। इस विधि में सिंचाई जल पौधों के जड़ क्षेत्र में उपलब्ध कराया जाता है। सिंचाई की इस विधि का प्रयोग भारत वर्ष में कम सिंचित क्षेत्रफल में किया जाता है। यह विधि उन्ही क्षेत्रों में सफल हो सकती है जहाँ फसलें स्थाई रूप से लगाई जाती हैं। इस विधि में सिंचाई भूमि में खुली नालियों अथवा पाइप लाइन बिछा कर की जाती है यह नालियाँ अथवा पाइप लाइन मृदा की 30-100 सें.मी. की गहराई पर 15-30 सें.मी. की दूरी पर बिछाई जाती हैं। अर्थात सख्त तह तक नालियाँ खोदकर इनमें कंकड़-पत्थर भर दिये जाते हैं। कंकड़ों के स्थानों पर नालियों में छिद्र युक्त लोहे या सीमेन्ट के पाइप भी प्रयोग किये जा सकते हैं। मुख्य नाली का स्तर सहायक नालियों की तुलना में ऊँचा रखा जाता है। सहायक नालियों में 150 प्रतिशत तक ढाल दिया जाता है। सहायक नाली से जल जड़ क्षेत्र में पहुँचता है तथा जड़ों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। अधोसतह सिंचाई उन क्षेत्रों में की जाती है जिन क्षेत्रों में जल स्तर बहुत ऊँचा हो गया हो और जल की एक निश्चित मात्रा ही प्रयोग करनी हो। भारत में इस विधि का प्रयोग बहुत सीमित क्षेत्रों में ही किया जा रहा है।
इस सिंचाई विधि की निम्न विधियाँ हैं:-
(अ) भूमिगत नालियों द्वारा -
इस विधि में खेत के धरातल के नीचे नालियाँ बनाकर उन्हें घास-फूस, ईट-पत्थर आदि से ढककर ऊपर से मिट्टी की तह डाल दी जाती है। इन नालियों में सिंचाई के स्रोत से जल भेजा जाता है जो कि धीरे-धीरे घास-फूस में से ऊपर को निकलकर मिट्टी में फैलता है। लोहे, सीमेंन्ट या प्लास्टिक के छिद्र युक्त पाइप काम में लिये जाते हैं।
(ब) छिद्रयुक्त नलों द्वारा सिंचाई
इस विधि में छिद्रयुक्त पाइपों/ नलों को भूमि में लगभग 1.0 मीटर के अन्तर पर तथा 25 से 50 सें.मी. की गहराई पर दबा दिया जाता है। इन नलों के सिरे एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं तथा अन्त में वे मुख्य जल स्रोत से जोड़ दिये जाते हैं। जल स्रोत से सिंचाई जल को अधिक दबाव के साथ इन नलों में भेजा जाता है। इसलिए जल बारीक छिद्रों में रिस-रिसकर भूमि में फैलता रहता है और मृदा कणों के बीच रिक्त स्थानों में जमा होता रहता है तथा यहाँ से यह केशीय गति के द्वारा पौधों की जड़ों के समीप पहुँच जाता है। लवणीय भूमियों में इस विधि का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
(स) मटका/घड़ा द्वारा सिंचाई या पॉटकल्वर या पिचर सिंचाई -
इस विधि में छिद्र युक्त मटके जल से भरकर भूमि में दबा दिये जाते हैं, घड़े में से जल धीरे-धीरे रिसता रहता है, जिससे भूमि नम बनी रहती है। यह जल पौधों की आवश्यक वृद्धि के लिए उत्तम नमी बनाए रखता है। घड़े में जल की कमी को एक निश्चित अन्तराल पर जल डालकर पूरा कर दिया जाता है। इस विधि को फलदार और वानिकी पौधों हेतु आसानी से स्थापित किया जा सकता है। यह प्रणाली ड्रिप सिंचाई प्रणाली का एक उत्तम विकल्प है तथा प्रणाली शुष्क और जल की अत्यधिक कमी वाले के लिए बहुत ही लाभदायक है।
3. टपक/बूँद-बूँद/ड्रिप सिंचाई विधि -
कृत्रिम रूप से पौधों की जड़ों में धीरे-धीरे सिंचाई जल को बूँद-बूँद करके पहुँचाना ड्रिप सिंचाई कहलाता है। अथवा समुचित मात्रा में नियमित रूप से पौधों की जड़ों में सीधे पानी देने की विधि को ड्रिप अथवा सूक्ष्म सिंचाई निकाय (ड्रिप/माइक्रों इरिगेशन सिस्टम) कहते हैं।
टपक सिंचाई वह विधि है, जिसमें प्लास्टिक पाइपों पर स्थापित जल ड्रिपर के द्वारा पौधों की जड़ों में तथा समान रूप से सिंचाई कर कम जल के प्रयोग से अधिकतम पैदावार प्राप्त की जा सकती है। इस विधि द्वारा पौधों के जड़ क्षेत्र में तरल घुलनशील रासायनिक तथा उर्वरक पोषक तत्वों का प्रयोग भी आसानी से किया जा सकता है। बूँद-बूँद करके जल का प्रयोग भारतीय संस्कृति में अनादि काल से शिवलिंग का सिंचन करने के लिए किया जाता है। परन्तु सिंचाई के लिए बूँद-बूँद जल का प्रयोग हमारे देश में पहले नहीं किया गया। ड्रिप इरिगेशन का विकास सिम्बाब्रास नाम के इज्राइली वैज्ञानिक द्वारा 1960 में प्रारम्भ किया गया था। मेघालय के मुक्तापुर जिले में बांस की बनी हुई नालियों के प्रयोग से सुपारी के वृक्षों को बूँद-बूँद करके जल देने की विधियों का पता चला है इसे हमेशा से जयन्तिया जन जाति द्वारा प्रयोग किया जाता रहा है। आधुनिक ड्रिप इरिगेशन का प्रचलन भारत में 1970 से प्रारम्भ हुआ, जो वर्तमान में 03 लाख हेक्टेयर तक फैल चुका है और विश्व स्तर पर उभर कर आगे आ रहा है। आज इस विधि का प्रयोग इन सभी क्षेत्रों में किया जाने लगा है जहाँ जल की कमी है तथा जल लवणीय है। इस विधि में पौधों की जड़ों के सहारे पाइप बिछाये जाते हैं और इनमें नोजल/टोटियाँ लगी होती हैं। इन टोटियों द्वारा 2-10 लीटर प्रति घण्टा की दर से जल बूँद-बूँद करके भूमि पर टपकता रहता है। धीमी गति से पड़ने के कारण पूरा जल भूमि द्वारा सोख लिया जाता है। यह उन क्षेत्रों में भी उपयोगी साबित हो रहा है जहाँ जल की कमी और मृदा लवणीय है। ड्रिप सिंचाई का मुख्य उद्देश्य फसल को एक समान मात्रा में जल उपलब्ध कराना, जल उपयोग क्षमता में वृद्धि करना, पौधे की जड़ों के पास लगातार नमी रखकर उपज बढ़ाना है। ड्रिप सिंचाई में जल का सामान्य दबाव 1-1.5 कि.ग्रां.. प्रति वर्ग सें.मी. होता है, इस विधि में जल ईमीटर के द्वारा प्राप्त होता है, ड्रिपर एवं ईमीटर के द्वारा जल के प्रवाह की दर 2-4 लीटर प्रति घण्टा होती है। ड्रिप नालियों व लैटरल्स में रुकावट की समस्या को दूर करने के लिए ।-2 माह के अन्तराल पर तनु हाईड्रोक्लोरिक अम्ल को नालियों में प्रवाहित करना चाहिए, क्योंकि सिंचाई जल में लवणों की अधिकता से ड्रिप नालियों व लेटरल्स के ड्रिपर बन्द हो जाते हैं। यह विधि उन क्षेत्रों के लिए वरदान सिद्ध हो रही है, जहाँ जल का अभाव व मृदा में लवणों की समस्या है। यह विधि उद्यानों, बगीचों व फल वृक्षों के लिए सर्वोत्तम है। ड्रिप सिंचाई पद्धति में 1-4 लीटर/'ड्रिपर/घन्टे बहाव (डिस्चार्ज) रेट होता है इसमें जल की आपूर्ति निरन्तर या अन्तराल पर की जा सकती है। सतही सिंचाई की तुलना में ड्रिप सिंचाई से 30-40 प्रतिशत तक जल की बचत होती है। इससे प्रति हेक्टेयर उपज भी 20 से 25 प्रतिशत अधिक प्राप्त होती है। गन्ने की सिंचाई में इस प्रकार की ड्रिप सिंचाई का प्रयोग
किया जाता है | इसमें 50 प्रतिशत कम जल की आवश्यकता होती है। आजकल इसका प्रयोग हवाई द्वीप समूह में गन्ने की सिंचाई हेतु भी होता है । इसकी अनेक विधियाँ है, जैसे; टपक सिंचाई विधि।
3.1. उप-सतही बूँद-बूँद सिंचाई
उपसतह ड्रिप सिंचाई परंपरागत सतह ड्रिप सिंचाई प्रणाली का संशोधित रूप है। इसमें वाष्पीकरण द्वारा होने वाली जल हानि को बचाने के लिए ड्रिप के पार्श्व पाइप तथा ड्रिपर दोनों ही भूमि के भीतर दबा दिये जाते हैं। इस विधि में फसलों में की जाने वाली सस्य क्रियाओं में कोई परेशानी नहीं होती है। पार्श्व पाईप को उथली मृदा के लिए 0.5 सें.मी., मध्यम गहरी भूमि के लिए 10 से 25 सें.मी. तथा गहरी भूमि के लिए 25 सें.मी. से अधिक गहराई पर स्थापित कर सकते हैं । इस विधि में पेड़ या पौधे के आस-पास जल बूँद-बूँद करके नालियों से बाहर आता है और दो पौधों या पेड़ों के बीच की पूरी भूमि की सिंचाई नहीं की जाती है जिसके फलस्वरूप सिंचाई दक्षता अधिक होती है और सीमित प्राप्य जल से अधिक क्षेत्र की सिंचाई हो सकती है। इस विधि में बूंद-बूंद करके 1 से 4 लीटर प्रति घंटा जल प्रवाह दर से सिंचाई की जाती है। यह एक अत्यधिक कुशल सिंचाई प्रणाली है, जो जल को सीधे फसल के जड़ क्षेत्र में पहुँचाकर सिंचाई जल की मात्रा में काफी बचत करती है। इसमें केवल पौधों के आस-पास का क्षेत्र ही गीला होता है और जल सभी दिशाओं में एक समान फैलता है।
3.2. सूक्ष्म सिंचाई अथवा ड्रिप सिंचाई पद्धति -
इस पद्धति में सहायक पार्श्व तथा ड्रिपर भूतल पर स्थित होते हैं परन्तु इनसे सिंचाई जल बाहरी फुहार अथवा फुवार के रूप में मृदा पर पड़ता है इस विधि का प्रयोग कम दूरी पर बोई गई फसलों में किया जाता है ।
3.3. स्पन्द ड्रिप सिंचाई पद्धति -
इस पद्धति में जल लगातार स्पन्द के रुप में दिया जाता है अर्थात ऐसी व्यवस्था होती है जो यंत्र में सामंजन करके 5-10 या 15 मिनट के अन्तराल पर जल दिया जाता है।
टपक सिंचाई के लिए उपयुक्त फसलें
क) सब्जियां: टमाटर, मिर्च, शिमला मिर्च, पत्तागोभी, फूलगोभी,
भिंडी, बैगन, करेला, खीरा, मटर, प्याज आदि।
ख) फल वाली फसलें: अंगूर, केला, अनार, नींबू, अमरूद, आंवला,
लीची आदि।
ग) फूलों वाली फसलें: गुलाब, कार्नेशन, जरबैरा, गुलदावदी,
डहैलिया गेंदा आदि ।
घ) तिलहन फसलें: सूरजमुखी, ऑयल पाम, मूँगफली आदि।
ड्रिप सिंचाई तंत्र की लागत और सरकारी सहायता
ड्रिप सिंचाई को किसानों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा सूक्ष्म सिंचाई योजना के द्वारा ठोस प्रयास किए जा रहे हैं। किसान अगर फल, फूल, सब्जियाँ और दवाइयों में प्रयोग होने वाली फसलों को उगाते हैं, तो वह इन फसलों की सिंचाई के लिए ड्रिप तंत्र लगाने के लिए सरकार से अनुदान ले सकते हैं। यह एक केन्द्र पोषित योजना है, जिसमें सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली की कुल लागत में से 50 प्रतिशत केन्द्र सरकार तथा शेष 50 प्रतिशत भाग लाभार्थियों द्वारा वहन किया जाएगा। केन्द्र सरकार अधिक से अधिक 5 हेक्टेयर खेत में ड्रिप प्रणाली लगाने के लिए अनुदान देती है। सरकारी अनुदान लेने के लिए किसान के पास सिंचाई के जल, मोटर और ऊर्जा स्रोत के साधन उपलब्ध होने चाहिए। इस योजना के द्वारा सभी वर्ग के किसान को सम्मिलित किया जाएगा। यद्यपि यह सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है कि कम से कम 25 प्रतिशत लाभार्थी छोटे व सीमांत हों।
ड्रिप सिंचाई प्रणाली की कीमत फसलों के ऊपर निर्भर करती है। ड्रिप सिंचाई लागत अलग-अलग राज्यों में भी अलग-अलग है। भारत के पूरे राज्यों को केन्द्र सरकार ने अनुदान देने के लिए तीन श्रेणियों अ, ब और स में बाँटा है। जिन राज्यों में अप्रैल 1, 2004 तक 10,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल ड्रिप सिंचाई के अंतर्गत लाया गया है, उन राज्यों को “अ' श्रेणी में रखा गया है, जिनमें आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु राज्य सम्मिलित हैं। हिमालय पट्टी में आने वाले सभी राज्य जो श्रेणी अ में नहीं आते, वे श्रेणी ब में आएंगे। समस्त पूर्वोत्तर राज्य, सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड तथा पश्चिमी दार्जिलिंग जिले को स श्रेणी में रखा गया।
ड्रिप सिंचाई विधि में फर्टिगेशन
ड्रिप सिंचाई प्रणाली के द्वारा जल के साथ जल में घुलनशील या द्रव
उर्वरकों को पौधों तक पहुँचाना फर्टिगेशन कहलाता है। फर्टिगेशन के द्वारा पोषक तत्वों को जल उत्सर्जक के ठीक नीचे वाले भाग में प्रयोग किया जाता है जहाँ पर जड़ों की क्रियाविधि केन्द्रित रहती है । फर्टिगेशन उर्वरकों के वाष्पीकरण एवं लीचिंग द्वारा होने वाले नुकसान को कम करता है तथा मृदा में समान रूप से उर्वरकों का वितरण करने में सहायता करता है।
फर्टिगेशन की आवृत्ति
उर्वरकों को ड्रिप सिंचाई प्रणाली में विभिन्न आवृत्तियों में (प्रति दो दिन में एक बार या सप्ताह में एक बार) दिया जा सकता है। यह आवृत्ति प्रणाली की रूपरेखा, सिंचाई तत्वों की आवश्यकता और किसान के चुनाव पर निर्भर करती है।
फर्टिगेशन के लिए उपयुक्त उर्वरक
नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम के बहुत से स्रोत हैं जिन्हें कि सूक्ष्म सिंचाई के साथ प्रयोग किया जा सकता है।
4. स्प्रिंकलर/बौछारी/फव्वारा/ओवर हेड -
छिड़काव सिंचाई पद्धति एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा सिंचाई जल का हवा में छिड़काव किया जाता है और यह जल भूमि की सतह पर कृत्रिम वर्षा के रूप में गिरता है। इस विधि में पौधों की दो पंक्तियों के बीच में लोहे या रबर के पाइप भूमि के ऊपर बिछा दिये जाते हैं। सहायक पाइप एक-दूसरे से समान्तर रखते हुये आवश्यकतानुसार दूरी पर नोजल लगा दिये जाते हैं। नोजल घूमने वाले या स्थिर हो सकते हैं। इन नलों का संबंध मुख्य नल से व मुख्य नल का सम्बंध जल स्रोत से कर दिया जाता है। इन नलों में जल अधिक दबाव से प्रवाहित किया जाता है। जिससे जल तेज बहाव के साथ निकलता है और स्प्रिंकलर में लगी नोजल पानी को फुहार के रूप में बाहर फेंकती रहती है। स्प्रिंकलर हमेशा घूमता रहता है जिससे उसे खेत में इधर-उधर ले जाया जा सकता है।
स्प्रिकंलर एवं शाखा लाइनों की आपसी दूरी लगभग 12 मीटर रखी जाती है। इस विधि को हमारे देश में 1980 के दशक के बाद बड़े पैमाने पर अपनाया जा रहा है। इस विधि में सतही जल बहाव बिल्कुल नहीं होता है जिन क्षेत्रों में फसल पाले अथवा अधिक तापमान से प्रभावित होती है वहाँ पर इस विधि द्वारा सिंचाई करके फसल को बचाया जा सकता है तथा अधिक पैसे देने वाली फसलों जैसे; चाय, कॉफी बागानों आदि के लिए सिंचाई की यह विधि अधिक उपयुक्त है परन्तु धान एवं जूट के लिए उपयुक्त नहीं है। यह विधि काली मृदाओं को छोड़कर सभी मृदाओं के लिए उपयुक्त है। फव्वारा या छिड़काव सिंचाई में जल का दबाव 2-2.5 किग्रा. प्रति वर्ग सें.मी. होता है तथा इस प्रणाली में जल का डिस्चार्ज 1000 लीटर प्रति घन्टे प्रति नोजल होता है। 5 नोजल वाले सेट से एक घण्टे में लगभग 4000-5000 लीटर जल छिड़का जा सकता है। इस विधि से एक एकड़ क्षेत्रफल की सिंचाई लगभग 3-4 घण्टे में की जा सकती है।
देश में लगभग 30 लाख हेक्टेयर भूमि में इसका प्रयोग हो रहा है। स्प्रिंकलर सिंचाई बलुई मृदा, ऊँची-नीची भूमि तथा जहाँ पर जल कम उपलब्ध है वहाँ पर प्रयोग की जा सकती है। इस विधि के द्वारा गेहूँ, कपास, मूँगफली, तम्बाकू तथा अन्य फसलों में सिंचाई की जा सकती है।
सिंचाई की आधुनिक विधियाँ
1. माइक्रो जेट इरिगेशन
इस विधि में एक स्वचालित जेट द्वारा लगभग एक दाब पर जल छोड़ा जाता है। जिससे जेट द्वारा 1-2 मीटर दूरी तक सिंचाई की जा सकती है। जल रिसाव की दर 5-160 ली. प्रति घण्टा होती है। यह विधि कम जल उपलब्धता वाले क्षेत्रों हेतु उपयुक्त है।
2. माइक्रो स्प्रिकंलर इरिगेशन -
इसमें जल का रिसाव 28.22 लीटर प्रति घण्टा की दर से 0.8-4 बार
दाब पर होता है और छिड़काव की दूरी 1-4 मीटर तक होती है यह वन वृक्षों के लिए उपयुक्त होता है।
3. सर्ज सिंचाई विधि -
यह विधि गुरुत्व जल पर आधारित है तथा यह चालू व बन्द प्रणाली (ON & OFF) पर आधारित है। इसमें जल का आन्तरिक
प्रयोग, एक लम्बी कूंड में जिसकी लम्बाई 25 मीटर से 200 मीटर तक होती है उसमें निरन्तर समय अन्तराल (5 से 10 मिनट) से खुला और बन्द मोड की एक श्रृंखला में किया जाता है।इस विधि में जल के खुले समय में जल कूंड में एक निश्चित लम्बाई में बढ़ता है और इसके बाद जल के प्रयोग के बन्द समय में मृदा को आंशिक रूप से संतृप्त करता है एवं जब जल पुनः खुले समय में दिया जाता है तो कूंड में जल कम अन्तः स्रवण (इनफिल्ट्रेशन) दर होने से कूंड के अन्तिम छोर तक शीघ्र पहुँच जाता है । इस विधि के बन्द और खुली प्रक्रिया से पानी के कटऑफ से गहरा विस्ऋरण (परकोलेशन) एवं
अपवाह (रनऑफ) हानियाँ कम होती हैं।
4. बब्लर इरिगेशन -
खुले ऊर्ध्वाधर पाइप की ऊँचाई इस तरह से निर्धारित की जाती है कि जल अपेक्षित दर से बुलबुले के रूप में गिरे। इसका प्रयोग आम, अंगूर, संतरा व नारियल आदि बागवानी फसलों की सिंचाई हेतु किया जाता है। इस विधि में पतली खाँचेनुमा ऐसी पाइपों का प्रयोग किया जाता है जिनमें कम दबाव पर भी सिंचाई जल आसानी से शीर्ष से बाहर आये । पार्श्व पाइप टपक विधि की तरह भूमि में दबा दी जाती हैं तथा इनमें उचित दूरी पर 1-3 सें.मी. व्यास के राइजर भूमि से बाहर जल निस्सरण करते हैं।
5. केबलगेशन सिंचाई विधि -
यह सतही सिंचाई की एक स्वचालित विधि है। इसमें पाइप में सिंचाई हेतु सिरे की ओर निश्चित दूरी पर छिद्र होते हैं। सिंचाई की लम्बी पाइप को खेत के एक निश्चित झुकाव पर रखा जाता है। पाइप के अन्दर आगे-पीछे खिसकने वाला एक प्लग लगा होता है जो केबल की रोल से जुड़ा होता है। प्लग के खिसकाने की दर फसल की जलमांग के अनुसार रखी जाती है। पाइप के अन्दर जल का प्रवाह होता है जो जल निकासी छिद्रों के माध्यम से सिंचाई हेतु बाहर आता है। प्लग के निकट वाले छिद्रों से जल दबाव के कारण अधिक तथा दूर स्थित छिद्रों से कम जल निकलता है। इस विधि में सतह सिंचाई की अन्य विधियों की अपेक्षा कम श्रम तथा जल की आवश्यकता होती है।
6. न्यून ऊर्जा प्रिसिजन एप्लीकेशन प्रणाली (लीपा) -
यह स्प्रिंकलर सिंचाई का एक परिवर्तित रूप है जिसमें जल अति न्यून दबाव से नाली में छोड़ा जाता है और कम दबाव के कारण जल छोटी नलिकाओं में जाता है तथा बूँद-बूँद या कम मात्रा में टपकता है। इसके नियंत्रण के लिए इमिटर्स लगे होते हैं। इसमें स्प्रिंकलर प्रणाली की भांति दबाव के साथ छिड़काव नहीं किया जाता है।
7. कोरूगेशन -
छोटे तथा छिछले कूंड को कोरूगेशन कहा जाता है। यह विधि गेहूँ एवं मूँगफली इत्यादि कीं सिंचाई में अपनाई जाती है। इसमें प्रत्येक कूंड में सिंचाई की जाती है। जल फसल की उत्पादन क्षमता को कई गुना बढ़ा देता है। समय पर और सही मात्रा में की गई सिंचाई उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही खेती की प्रासंगिकता को बनाती है। भूमि पर वर्ष भर खेती, जिसमें खरीफ, रबी और जायद फसलें तीनों शामिल हैं, लेना किसान के लिए बिना जल के संभव नहीं है।
कृषि में सिंचाई विधियों के उन्नयन हेतु सरकारी प्रयास
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना
सूखे की समस्या से स्थाई समाधान पाने के लिए और हर खेत तक जल पहुँचाने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की
शुरूआत 1 जुलाई, 2015 को की गई। लक्ष्य; उचित प्रौद्योगिकियों एवं पद्धतियों के माध्यम से जल का दक्ष उपयोग एवं क्षेत्रीय स्तर पर सिंचाई में निवेश में एकरूपता लाना। इस योजना का मुख्य नारा है-“हर खेत को पानी”। इसके तहत कृषि योग्य क्षेत्र का विस्तार किया जाना है। खेतों में ही जल के प्रयोग करने की दक्षता को बढ़ाना है ताकि जल के अपव्यय को कम किया जा सके। “हर बूंद अधिक फसल” के उद्देश्य से ही सिंचाई और जल बचाने की तकनीक को अपनाना है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य देश के हर खेत तक किसी न किसी माध्यम से सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराना है ताकि हर बूँद से अधिक फसल ली जा सके। इस योजना के क्रियान्वयन में तीन मंत्रालय सम्मिलित हैं। सभी जनपदों के लिए जिला सिंचाई योजना तैयार करने को लिए अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। देश के सभी जिलों को जिला सिंचाई योजना तैयार करने के लिए राज्यों को राशि दी गई है। यही नहीं मनरेगा के तहत वर्ष 2016-2017 में वर्षा पोषित क्षेत्रों में 5 लाख तालाबों और कुंओं की व्यवस्था भी की गयी थी।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का लक्ष्य सिंचित क्षेत्र का क्षेत्रफल बढ़ाकर हर खेत को पानी पहुंचाना और जल के प्रयोग की कुशलता में वृद्धि करते हुए प्रति बूँद अधिक फसल प्राप्त करना है। इस लक्ष्य को स्रोत निर्माण, वितरण, प्रबंधन, कार्यान्वयन और विस्तार गतिविधियों पर समग्रता के साथ ध्यान केन्द्रित कर प्राप्त किया जाना है। यह योजना जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग, जल शक्ति मंत्रालय के त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम, भूमि संसाधन विभाग के समेकित जलागम प्रबंधन कार्यक्रम तथा कृषि और सहकारिता विभाग के खेत जल प्रबंधन कार्यक्रम जैसे कार्यक्रमों को मिलाकर तैयार की गई है। इस योजना को कृषि, जल संसाधन और ग्रामीण विकास मंत्रालय लागू करेंगे। कृषि मंत्रालय ड्रिप, स्प्रिंकलर, पाइवोट और रेनगन जैसे जल प्रवाह और जल के अधिक कुशल प्रयोग के उपकरणों को बढ़ावा देगा। जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग को जल के वितरण की प्रणालियों के विकास समेत सुनिश्चित सिंचाई स्रोतों, विपथन नहरों, फील्ड चैनलों तथा जल विपथन (लिफ्ट) सिंचाई से संबंधित विभिन्न कदम उठाने हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय को मुख्यतः वर्षा जल संरक्षण तथा खेतों में पोखर, वॉटर हार्वेस्टिंग संरचनाओं, छोटे रोक बांधों और परिरेख बांधों के निर्माण से संबंधित काम करना है। इस योजना में केन्द्र 75 प्रतिशत अनुदान देगा और 25 प्रतिशत खर्च राज्यों के जिम्मे होगा। पूर्वोत्तर क्षेत्र और पर्वतीय राज्यों में केन्द्र का अनुदान 90 प्रतिशत तक होगा।
भारतीय किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने हेतु प्रधानमंत्री की सात सूत्री कार्ययोजना का पहला सूत्र प्रति बूँद अधिक फसल के उद्देश्य को लेकर बड़े पैमाने पर निवेश के साथ सिंचाई पर ध्यान देना है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का फोकस चार बिंदुओं पर है-
*« संवर्द्धित सिंचाई लाभ कार्यक्रम ।
*« हर खेत को पानी।
*« प्रति बूंद अधिक फसल |
*«जल संभरण विकास |
अगर इस योजना के द्वारा सिंचाई सुविधाओं को हर किसान तक पहुँचा दिया जाएगा तो बड़े पैमाने पर एक फसली भूमि में दो फसलें लेना संभव है और उसके चलते किसानों की आय और कृषि उत्पादन में बड़ा लाभ संभव है । देश में राष्ट्रीय जल मिशन के अंतर्गत भी इसके 5 प्रमुख उद्देश्य निर्धारित किए गए हैं:
1.जलवायु परिवर्तन के जलीय स्रोतों पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन। जलीय आंकड़ों का डेटाबेस तैयार करना।
2. जल संरक्षण के लिए व्यक्ति, राज्य को प्रोत्साहित करना |
3. जल का अत्यधिक दोहन करने वाले क्षेत्रों की पहचान करना ।
4. जल के उपयोग की क्षमता को वर्तमान के 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 60 प्रतिशत करना ।
5. बेसिन लेवल पर एकीकृत जलीय स्रोत प्रबंधन को प्रोत्साहन देना।
आधुनिक भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता में लगातार ह्रास हो रहा है क्योंकि हमारे देश की जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ रही है तथापि सभी व्यक्तियों को समय पर सही मात्रा में जल उपलब्ध न होने के कारण कुछ व्यक्तियों को अधिक जल उपलब्ध है यही वास्तविकता है। इसमें भी जिन स्थानों पर भू-जल की उपलब्धता अधिक है वहाँ के किसान खेती के लिए अधिक जल का दोहन करते हैं क्योंकि खेती में जल की मांग अधिक होती है। इस अधिक जल की मांग को उन्नत सिंचाई विधियों के द्वारा कम किया जा सकता है। दक्षतापूर्ण विधियों से सिंचाई करना किसान का ही काम है क्योंकि जल को उत्थापित करने में लगने वाली ऊर्जा को विद्युत अथवा डीजल के द्वारा प्रदान किया जाता है जिसमें खर्चा आता है। यदि कम जल का प्रयोग होगा तो खर्च में कमी आयेगी और किसान की लागत कम होने से लाभ में वृद्धि होगी। इसलिए किसानों को नवीन सिंचाई की विधियों को अपनाने का प्रयास करना होगा, जिससे सभी को लाभ होगा और संसाधनों को अधिकतम दोहन होने से बचाया जा सकेगा जिससे प्रतिपादित विकास के अभीष्टों की पूर्ति हो सकेगी।
लेखक - संर्पक - रणबीर सिंह, जल प्रौद्योगिकी केन्द्र
भा.क्.अनु. सं., पूसा, नई दिल्ली-2, मो, 7011138098
इमेल: singhranbir413@gmail.com
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