यदि यह क्षेत्र बाढ़ मुक्त हो जाता है तथा यदि सिंचाई के साधन उपलब्ध हो सकें तो पचास लाख मन का अतिरिक्त अन्न का उत्पादन इस क्षेत्र में हो सकेगा जिसकी कीमत (तत्कालीन मूल्यों पर) पाँच करोड़ रुपये होगी।
इसके बाद योजना या सार्वजनिक पहल के स्तर पर स्वतंत्रता प्राप्ति तक खामोशी थी पर 1948 की बाढ़ के बाद पुनः बाढ़ से त्राण दिलाने के लिए आवाजें उठने लगीं। इतना अवश्य कहा जाता रहा है कि समस्या बाढ़ के लम्बे समय तक बने रहने की है, बाढ़ स्वयं में कोई समस्या नहीं है। 8 जनवरी 1954 को महन्त श्री श्याम नारायण दास, श्री मुनीश्वर सिन्हा तथा श्री श्रीकुमार चौधरी ने अधवारा पीडि़त समिति की ओर से एक ज्ञापन मुख्य मंत्री को देना चाहा था जो कि उनकी अनुपस्थिति में सिंचाई विभाग के तत्कालीन मुख्य अभियंता श्री एच. के. श्रीनिवास को दिया गया। इस ज्ञापन में कहा गया था कि अधवारा समूह की छोटी बड़ी 23 नदियों के प्रवाह के कारण 1,200 वर्ग मील का क्षेत्र, जिसके लगभग 5 लाख एकड़ क्षेत्र पर खेती होती है और जिसमें लगभग 9 लाख (1951 की जनसंख्या) लोग बसते हैं, तबाह रहता है। इसमें सोनबरसा, बेला, सुरसण्ड, पुपरी, बेनीपट्टी, मधवापुर, हरलाखी, जाले और दरभंगा सदर के थाने आते हैं। नदियों की यह धाराएं कोसी की तरह उद्दण्ड नहीं हैं और वास्तव में क्षेत्र की समृद्धि का कारण है।स्मार पत्र में यह कहा गया कि अंग्रेजों ने इस क्षेत्र की उपेक्षा की और 1833 तथा 1934 के भूकम्पों से यहाँ की स्थलाकृति में परिवर्तन होने के कारण यह नदियाँ वरदान की जगह अभिशाप बन रही हैं। यदि यह क्षेत्र बाढ़ मुक्त हो जाता है तथा यदि सिंचाई के साधन उपलब्ध हो सकें तो पचास लाख मन का अतिरिक्त अन्न का उत्पादन इस क्षेत्र में हो सकेगा जिसकी कीमत (तत्कालीन मूल्यों पर) पाँच करोड़ रुपये होगी। ऐसा भी इस ज्ञापन में कहा गया था कि अपने पिछले बिहार प्रवास में पं. जवाहर लाल नेहरू ने साढ़े तीन करोड़ रुपये की एक केन्द्रीय सहायता राशि मंजूर की थी जिसमें से चालीस लाख रुपये अधवारा योजना के लिए भी स्वीकृत हुए थे। परंतु विशेषज्ञों की राय में अधवारा समूह को नियंत्रित करने से बाढ़ की समस्या का और भी उग्र रूप धारण कर लेने की आशंका थी और उन्होंने इस बात की सिफारिश की थी कि इसके लिए आवंटित राशि को दूसरी योजना में लगा दिया जाय।
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