भैंसों के लिए भी एक कुआँ है-झल्लार में

बैतूल-परतवाड़ा मार्ग पर बसे झल्लार गाँव में आसपास के लोग लड़की देने में संकोच करते हैं क्योंकि वहाँ पानी का टोटा है। ऊँची-नीची जमीनों पर बसे इस गाँव में रोजाना दूर-दूर से पानी लाना टेढ़ीखीर है। विशाल मंदिरों वाले इस गाँव में 1920 के पहले मनकरणा तालाब बना था जिसे 1948 में मालगुजार ने जमीन देकर ओर चौड़ा करवाया था। सफेद और लाल कमल वाले इस तीन एकड़ के तालाब का उपयोग निस्तार और जानवरों के पीने के लिए किया जाता है। गाँव में एक मच्छी कुआँ है। करीब 45 फुट गहरे इस कुएँ से लोग 24 घण्टे पानी भरते हैं और एक बार खत्म हो जाने पर दुबारा झिर से पानी आने का इंतजार करते हैं। निचले दलदली क्षेत्र के डोभनिया कुएँ को भैंसों के लोरते रहने का कारण यह नाम दिया गया है. यहाँ की बोली में डोभन का मतलब भैंस होता है। इसी तरह इमली के पास का इमली झिरा कुआँ पहले पाँच-छह फुट का झिरा था बाद में करीब 28 फुट खोदकर कुँआ बनाया गया।

झल्लार के पास के केरपानी गाँव की गढ़ी झिरी और हनुमान मंदिर प्रसिद्ध हैं। यह झिरी वर्षों पहले प्राकृतिक रूप से फटी थी और इसे लकड़ी के साँचे और पत्थरों से पाटा गया था। बाद में इस पर एक बावड़ी बनाई गई थी। इससे निकले पानी को रोकने के लिए पिछले सालों में एक बाँध भी बनाया गया है। बच्चे और दूसरे लोग इस बावड़ी में न गिरें इसलिए इसे बाद में धँसकाया गया। यह गढ़ी झिरी आसपास के लोगों को अकाल में भी पानी उपलब्ध करवाती रही है।

कामेदाढाना गाँव में दो किसान हैं जिन्होंने पानी को ऊँचाई पर ले जाने के लिए पाट की व्यवस्था बनाई है। इसे लकड़ी के पटिया आदि लगाकर बनाई गई ‘पाटा बंदी’ यानि अस्थाई बंधान कहा जाता है। इस व्यवस्था में साइफन पद्धति से पाइप लगाकर पानी ऊपर ले जाया जाता है। गाँव की एक महिला किसान भी कुछ सालों से इस पद्धति का उपयोग कर रही है। नदी-नालों के किनारे झिरियाँ खोदकर पानी लेना यहाँ भी प्रचलित रहा है। कई बार ‘चामडोलकीट’ के कारण उल्टी-दस्त की बीमारी भी होती रहती है हालाँकि इस ब्लीचिंग पाउडर डालकर खत्म किया जा सकता है।

झल्लार में पानी की ताजा व्यवस्था के तहत पाँच किलोमीटर दूर से गुजरने वाली पात्रा नदी पर खोदा गया नलकूप है जिससे जलप्रदाय किया जाता है। इसके अलावा पंचायत के आठ कुएँ और 12 हैंडपम्प भी हैं। लेकिन ये सब मार्च-अप्रैल तक सूख जाते हैं। नलकूपों और हैण्डपम्पों ने यहाँ भी तेजी से पानी खींच लिया है। इस पूरे क्षेत्र में असिंचित खेती ही होती है और लोग कृषि मजदूरी के लिए खरीफ की फसल के बाद हरदा, टिमरनी और होशंगाबाद की तरफ पलायन कर जाते हैं। ‘गंगन पूजा’ यानि पानी को गंगा मानकर पूजने वाले इस समाज में पानी का संकट हमेशा बरकरार है।

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Post By: tridmin
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