बावड़ियाँ: प्राचीन भारत के भूले-बिसरे एवं विश्वसनीय जल स्रोत (भाग 1)

चांद बावड़ी, साभार - Pixabay
चांद बावड़ी, साभार - Pixabay

भारत में इन सीढ़ीनुमा कुओं को आमतौर पर बावड़ी या बावली के रूप में जाना जाता है, जैसा कि नाम से पता चलता है कि इसमें एक ऐसा कुआ होता है जिसमें उतरते हुए पैड़ी या सीढ़ी होती है। भारत में, विशेषकर पश्चिमी भारत में बावली बहुतायत में पाई जाती हैं और सिंधु घाटी सभ्यता काल से ही इसका पता लगाया जा सकता है। इन बावड़ियों का निर्माण केवल एक संरचना रूप में ही नहीं किया गया था। अपितु उनका मुख्य उद्देश्य व्यावहारिक रूप में जल संरक्षण का था। लगभग सभी बावड़ियों का निर्माण पृथ्वी में गहराई तक खोद कर किया गया है ताकि यह सम्पूर्ण वर्ष जल के निरंतर स्रोत के रूप में काम करते रहें। तत्पश्चात, पैड़ी या सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था, जो जल के संग्रह को और अधिक सुलभ एवं सरल करने का काम करती थी। इन सीढ़ियों का उपयोग पूजा एवं मनोरंजन आदि के लिये भी किया जाता था।

भारत वर्ष का इतिहास अत्यंत स्वर्णिम रहा है प्राचीन भारत में जल प्रबंधन में बावड़ियों का विशेष योगदान है। भारत के पश्चिमी राज्यों और कुछ उत्तरी क्षेत्रों में जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण जल की उपलब्धता में हमेशा कमी देखी गई है। इसीलिए गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में कई बावड़ियां (सीढ़ीदार कुएं) एवं उनके अवशेष पाये जाते हैं। निर्माण के संदर्भ में देखा जाये तो प्रारंभिक बावड़ियों का निर्माण अत्यंत सरल और साधारण था। हालांकि, समय के साथ-साथ, इसकी वास्तुकला और नक्काशी, और सौन्दर्य पर भी अधिक ध्यान दिया जाने लगा था। जल स्रोत के साथ-साथ ही ये बावड़ियां प्रार्थना के स्थान भी बन गए, जिन्हें कभी-कभी एक मंदिर के पास भी बनाए जाने लगा। बावड़ियों के लिए उपयोग किया जाने वाला स्थानीय शब्द प्रत्येक क्षेत्र के साथ बदलता रहता है। हिंदी में, इसे बाउली या बायली कहा जाता है। गुजराती में, बावड़ी को वाव कहा जाता है।

भारत में इन सीढ़ीनुमा कुओं को आमतौर पर बावड़ी या बावली के रूप में जाना जाता है, जैसा कि नाम से पता चलता है कि इसमें एक ऐसा कुआ होता है जिसमें उतरते हुए पैड़ी या सीढ़ी होती है। भारत में, विशेषकर पश्चिमी भारत में बावली बहुतायत में पाई जाती हैं और सिंधु घाटी सभ्यता काल से ही इसका पता लगाया जा सकता है। इन बावड़ियों का निर्माण केवल एक संरचना रूप में ही नहीं किया गया था। अपितु उनका मुख्य उद्देश्य व्यावहारिक रूप में जल संरक्षण का था। लगभग सभी बावड़ियों का निर्माण पृथ्वी में गहराई तक खोद कर किया गया है ताकि यह सम्पूर्ण वर्ष जल के निरंतर स्रोत के रूप में काम करते रहें। तत्पश्चात, पैड़ी या सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था, जो जल के संग्रह को और अधिक सुलभ एवं सरल करने का काम करती थी। इन सीढ़ियों का उपयोग पूजा एवं मनोरंजन आदि के लिये भी किया जाता था।

आज भी, भारत में लगभग 2000 जीवित बावड़ियां हैं। इनमें से अनेक ऐसी हैं जिनमें आज भी जल उपलब्ध है, किन्तु वे अब उपयोग में नहीं हैं, लेकिन विभिन्न युगों के इतिहास एवं वास्तुकला के बहुमूल्य उदाहरण बन गई हैं। इस लेख में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उपस्थित इन्हीं बावड़ियों का विवरण दिया गया है। सैकड़ों और हजारों वर्ष पहले निर्मित, ये बावड़ियां अनुकरणीय भारतीय अभियांत्रिकीय कौशल (Indian Engineering Skill) और दक्ष चिनाई-कारीगिरी को दर्शाती हैं। एक समय ये बावड़ियों जल के विश्वसनीय जल स्रोतों के रूप में सेवा प्रदान करती थी। लोकप्रिय धारणा के अनुसार अतीतकाल में, बावड़ियाँ, अक्सर एक सामुदायिक स्थल के रूप में उपयोग होती थी, जहां लोग शहर की गर्मी से बचाव के लिए इक‌ट्ठा होते थे। अगर ऐतिहासिक रिकॉर्ड की मानें तो दिल्ली शहर में एक समय 100 से अधिक बावड़ियों का घर हुआ करता था, जिसमें से अब मात्र एक मुट्ठी भर ही बची हैं।

राजों की बावली

दिल्ली स्थित पुरात्तव पार्क, महरौली के अंदर स्थित, आयताकार की राजों की बावली का निर्माण सिकंदर लोदी के शासनकाल के दौरान किया गया था। बावली में चार मंजिलें हैं और ऐसा कहा जाता है कि इस अलंकृत बावली का नाम इसके राजमिस्त्री से लिया गया है, जिसे स्थानीय रूप से राजे या राज मिस्त्री कहा जाता था, जो वहां रहता था। 19वीं सदी के दार्शनिक सैय्यद अहमद खान के अनुसार, इस बावली का संचालन दौलत खान ने किया था। बाहरी दीवार पर महीन और सुंदर सजावट इस बावली को दूसरों से अलग करती है। दक्षिण की ओर बावली के पीछे देखने योग्य प्लास्टर के काम हैं, किन्तु उत्तर से ही पहुंच मार्ग है, इसलिए बहुत से लोग इसके बारे में नहीं जानते हैं। छोटे दीयों को रखने के लिये दीवारों में बने हुये स्थान बताते हैं कि इस बावली का उपयोग सामाजिक समारोहों के लिए भी किया जाता था और वहां पर रात्रिकालीन समारोह भी आयोजित होते थे।

गंधक की बावली

गंधक की बावली हमारे देश की राजधानी दिल्ली की सबसे पुरानी बावड़ियों में से एक है। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है, इस बावली के जल में गंधक (Sulphur) की मात्रा पाई जाती है। यह पांच मंजिला संरचना है जिसका निर्माण सुल्तान शम्स-उद-दीन इल्तुतमिश द्वारा प्रसिद्ध सूफी संत ख्वाजा कुतुब-उद-दीन बख्तियार काकी के लिए कराया गया था। कहा जाता है कि खुदाई करते समय, जब मजदूर एक एक्वीफर में पहुंचे तो उन्हें पता चला कि उन्होंने एक चट्टान को तोड़ा है जो गंधक (सल्फेट) से समृद्ध थी। जब सही मात्रा में गंधक को पानी के साथ मिलाया जाता है, तो यह त्वचा के रोगों की रोकथाम और इलाज करने के लिए लाभदायक होता है, लेकिन पीने के लिए अनुपयुक्त जल प्रदान करता है। इस बावली में 100 से अधिक सीढ़ियां हैं। किन्तु आस-पास के बच्चों को कुएं के ऊपरी स्तर से पानी में कूदना अधिक रोमांचक लगता है। चूंकि यह बावली बहुत अधिक पुरानी है, इसलिए शहर के अन्य बाबड़ियों की तरह इसके लिए अलंकरण या सौंदर्याकरण प्रावधानों पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया।

चांद बावली

राजस्थान के एक छोटे से गांव आभानेरी में स्थित, चांद बावली उत्तरी-पश्चिम भारत की सबसे लोकप्रिय बावली है। यह जयपुर से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांदीकुई नामक शहर के पास स्थित है। इसकी खूबसूरत वास्तुकला के लिए कई देशी और विदेशी पर्यटक इस बावली का भ्रमण करते हैं। इस बावली का निर्माण 9वीं शताब्दी में निकुंभ वंश के राजा चंदा के शासनकाल में किया गया था। चांद बावली में 3500 सीढ़ियाँ हैं जो कुएं में 20 मीटर तक गहरी जाती हैं, जिससे यह हमारे भारत देश की सबसे गहरी बावली बन जाती है। इन सीढ़ियों को पूरी तरह से एक अनुपात में रखा गया है, ताकि वे आधार के साथ सीढ़ी-त्रिकोण बनाते हैं। इस बावरी की दीवारें इतनी खड़ी बनी हुई हैं कि जब कोई ऊपर से नीचे की ओर देखता है तो सीढ़ी-त्रिकोण बारी-बारी से छिप जाते हैं और जैसे-जैसे आप नीचे जाते हैं ये जा रहे लोगों को दिखने लगते हैं। बावरी की चौथी दीवार में एक बहु-मंजिला गलियारा है जिसमें दो खंभे हैं और गणेश और महिषासुरमर्दिनी देवी की सुंदर मूर्तियां हैं। गलियारे के अंदर एक छोटा कमरा है जिसे अंधेरी-उजाला के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है। कि चांद बावली, सुख और प्रसन्नता की देवी को समर्पित है और इसे पानी के स्रोत के रूप में सेवा करने के लिए बनाया गया था। चांद बावरी के ठीक बाहर हर्षद माता का आंशिक रूप से पुनर्निर्मित मंदिर स्थित है। यह माना जाता है कि यह बावली मूल रूप से मंदिर-कुंड के रूप में मंदिर से जुड़ा हुआ था, जहां भक्त मंडप में प्रवेश करने से पहले अपने हाथ और पैर धोते थे। हर्षत माता को प्रसन्नता की देवी माना जाता है, जिन्होंने आसपास के गांव में खुशी की चमक (आभा) फैलाई। यह इस कारण से है कि गांव का नाम आभानगरी (चमकता हुआ शहर) रखा गया था, जो कालांतर में अपभ्रंश होकर अब आभानेरी में बदल गया है। शाही परिवार के सदस्यों ने इसे सामाजिक समारोहों के लिए भी इस्तेमाल किया क्योंकि इस बावली के तल पर, हवा का तापमान, आस-पास के परिवेश की तुलना में 5-6 डिग्री ठंडा रहता है। चांद बावली की 13 मंजिलें पूर्णतः समरूपता में हैं और दूर से उत्कृष्ट दिखती हैं। यह बावली भारतीय वास्तुकला, वास्तु विन्यास और जल संरक्षण एवं नियोजन का जीवंत उदाहरण है।

रानी की वाव

रानी की वाव (रानी की बावली) जो पाटन गुजरात में स्थित है, को यूनेस्को द्वारा वर्ष 2014 में एक विश्व धरोहर स्थल (World Heritage Site) घोषित किया गया है। इसका निर्माण चालुक्य वंश की रानी उदयमती द्वारा 1050 के आस-पास अपने पति राजा भीमा सिंह की स्मृति में सरस्वती नदी के निकट कराया गया था। किन्तु सरस्वती नदी के एक बाढ़ में यह बावली पूरी तरह से मिट्टी में दब गयी थी। 1940 के दशक में, बड़ीदा राज्य के तहत किए गए उत्खनन ने इस बावली को दुनिया के सामने प्रकट किया। तब, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा 1986 में इसकी खुदाई की गई और जीर्णोधार किया गया। संरचना की दीवारों में भगवान विष्णु और उनके विभिन्न अवतारों के साथ-साथ ही विषकन्याओं और अप्सराओं की नक्काशी की गई है। यह बावली लगभग 30 मीटर गहरी और 10 मीटर व्यास वाली सात मंजीला संरचना है। प्रत्येक स्तर पर अनेक मूर्तियों की नक्काशी की गई है। वास्तुकला और कलात्मक हस्तकला इस बावली को दूसरों से अलग करती है। रानी की बावली को गुजरात में सबसे उत्तम एवं सबसे बड़ा बावली वास्तुकला का उदाहरण माना जाता है। यह बावली वास्तुकला की मारू-गुर्जर शैली को दर्शाती है, जो इसकी जटिल तकनीक और विस्तार तथा अनुपात की सुंदरता को दर्शाता है। यहां की वास्तुकला और मूर्तियां, माउंट आबू के विमलवशाही मंदिर और मोढेरा के सूर्य मंदिर के समान है। इस के चित्र को जुलाई 2018 में RBI (भारतीय रिजर्व बैंक) द्वारा 100 के नोट पर चित्रित किया गया है।

लाल किला की बावली

यह बावली दिल्ली के लाल किले के अंदर स्थित है। कहा जाता है कि लाल किले के निर्माण (जिसकी नींव 1639 में रखी) से लगभग 300 साल पहले, इस बावली का निर्माण किया जा चुका था। इतने महत्वपूर्ण स्थान पर एक प्रमुख संरचना होने के बावजूद, इस बावली का ब्रिटिश और मुगल दोनों के आधिकारिक दस्तावेजों में बहुत कम उल्लेख मिलता है। इस बावली में उतरने और चढ़ने के लिए दो दिशाओं पश्चिम और उत्तर से सीढ़ियों की व्यवस्था है। जल के कुंड को 90 अंश के कोण पर जोड़कर, अंग्रेजी अक्षर 'एल' का आकार बनाया गया है। इसका निर्माण फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में हुआ था जबकि हर इमारत अद्वितीय थी क्योंकि प्रत्येक का डिजाइन पहले कभी नहीं देखा गया था या इस्तेमाल नहीं किया गया था। इस बावली के जल से आज भी लाल किले के लॉन में सिंचाई होती है।

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बावड़ियाँ: प्राचीन भारत के भूले-बिसरे एवं विश्वसनीय जल स्रोत (भाग 2)

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Post By: Kesar Singh
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