बूँदों में गाँधी दर्शन ‘बूंदों की मनुहार’

भारत का लम्बा इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और संवर्द्धन की जिम्मेदारी समाज खुद ही वहन करते आया है। रियासतों का काल हो या लोकतांत्रिक सरकारों का दौर, ग्रामीण समाज अपने परिवेश के लिए सत्ता संस्थानों पर आश्रित नहीं रहते आया है। लेकिन पिछले कुछ वर्षो से समाज में यह धारणा घर करती गई कि जो कुछ भी करना है, सरकार ही करेगी। गाँव के काम को हम अपना काम क्यों समझे? नतीजा यह हुआ कि अनेक स्थानों पर हमारा समाज एक तरह से पंगु बनता गया और उसे अपने परिवेश और प्राकृतिक संसाधनों की जरtरतों के लिए सरकारों के आगे घिघियाने, रोने, चिल्लाने और ज्ञापनों का पुलिन्दा थमाने जैसी विवशताओं के मकड़जाल में फँसना पड़ा।

महात्मा गाँधी के गाँवों को स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर बनाने के उनके दर्शन का क्रियात्मक पक्ष जलसंचय पर के.के. बिडला फाउन्डेशन, नई दिल्ली की राष्ट्रीय फेलोशिप से सम्मानित श्री क्रांति चतुर्वेदी की पुस्तक ‘बूंदों की मनुहार’ का केन्द्र बिंदु है। इस पुस्तक में महात्मा गाँधी के विचारों के अनुसार मध्यप्रदेश के उस समाज का उल्लेख है जो गांधीजी के मुताबिक जिंदा कहलाने का हकदार है। इस समाज ने यह बताया है कि पानी जैसी बुनियादी जरूरत केवल सरकार के भरोसे नहीं, समाज के जागृत होने पर ही संरक्षित की जा सकती है और समाज पानी की बूँदों के लिए गांधी दर्शन को इन ‘प्रतिकूल हवाओं’ के दौर में आत्मसात कर सकता है, तो अपनी अन्य जरूरतों के लिए भी वह इस मार्ग पर चलकर स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर गाँवों की तादाद बढ़ा सकता है। मध्यप्रदेश के इस समाज की पूरे देश में चर्चा है। महात्मा गांधी कहा करते थे - भारत की आत्मा गाँवों में बसती है दरअसल यह वही ‘आत्मा’ है जो पूरे देश का यहाँ की संस्कृति का और राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करती है। कालान्तर में विसंगतियों के चलते यह आत्मा भारत के अनेक क्षेत्रों में ‘खंडित’ होती चली गई। लेकिन पानी बचाने के संदर्भ में मध्यप्रदेश के अनेक गाँवों की यात्राओं के दौरान यह महत्वपूर्ण तथ्य हाथ लगा कि गाँधी दर्शन की जड़ें अभी भी गाँवों में जमी हैं। खंडित आत्मा पूरी तरह से लुप्त नहीं हुई है। समाज के भीतर इसी दर्शन से ओतप्रोत एक अर्न्तधारा बह रही है। थोड़ी कोशिश की जाए तो ग्रामीण समाज गाँधी दर्शन के क्रियात्मक पहल का नायक बन सकता है। लेखक इसे पुस्तक की भूमिका में ही स्पष्ट करते हैं मध्यप्रदेश में पिछले दो वर्षो से अधिकांश क्षेत्रों में सूखा पड़ा है। यहाँ के उस ग्रामीण समाज को बार-बार नमन, जिसने इन स्थितियों के आगे चीखने-चिल्लाने, रोने या घिघियाने के बजाए हथियार उठाना बेहतर समझा, ग्राम स्वराज, स्वावलम्बन और किसी हद तक जिंदापन से सराबोर गुणों वाला समाज हमें कभी पहाड़ों, कभी खेतों कभी नदी के किनारे तो कभी तालाबों और कुओं के आसपास मिला हमें लगा इस समय यदि महात्मा गाँधी मौजूद रहते तो निश्चित ही पानी के लिए जागृत हुए लोगों को फिर भले ही वह मुट्ठीभर ही क्यों न हों, देखकर यह विश्वासपूर्वक कह देते कि भारत के इस समाज में अभी भी यह जज्बा मौजूद है, जो उनकी आवाज तो कभी चार पंक्तियों को चिट्ठी पर आन्दोलित हो जाया करता था। महात्मा गाँधी स्वतंत्रता और लोकतंत्र को केवल चंद लोगों या संसद व विधानसभाओं से दूर भारत के इस समाज के बीच देखने के पक्षधर थे, जहाँ इस देश के अंतिम व्यक्ति का जीवन बसर होता है। गाँधी दर्शन के इस पक्ष का पुस्तक में उल्लेख कुछ यूँ है – हमने अनेक गाँवों को स्थानीय स्तर पर मजबूत होते देखा। बूंदों ने समाज को कुछ यूँ एक कराया कि – गाँवों में डंडाराज करने वाले यह देख सहम गए। सामाजिक धरातल पर एक बड़ा फर्क यह भी देखने में आया कि स्थानीय स्तर पर लोग इस बात को सहज स्वीकारने लगे कि गाँव के संसाधन हमारे अपने हैं। हमें इनकी देखभाल करनी है। गाँव में अपने राज का मतलब केवल सत्ता की प्राप्ति नहीं है, बल्कि कुछ पुनीत कर्तव्य भी होते हैं – जिनके लिए हमें आगे आना होगा।

महात्मा गाँधी हर कार्य में समाज की सहभागिता के पक्षधर रहे हैं। मध्यप्रदेश के ग्रामीण समाज ने पिछले साल पानी रोको अभियान में हर दिन लगभग 77 नए तालाब बनाकर देश में अपनी तरह का एक नया कीर्तिमान रचा। इस अभियान की खास उपलब्धि यह रही कि जल संरचनाओं के निर्माण व संरक्षण में 99-35 करोड़ राशि के बराबर जनसहयोग प्राप्त हुआ। जो कि इस अभियान के तहत किए गए कुल व्यय का 24 फीसदी है। सर्वविदित है कि पानी रोकों अभियान पूरी तरह से गाँधी दर्शन पर आधारित एक प्रयास रहा है।

महात्मा गाँधी के अवसान के बाद भारत के समाज की एक बड़ी विसंगति यह रही कि यहाँ राजनीति के नेता तो बहुसंख्यक हो गए, लेकिन समाज के नेताओं का अभाव खलने लगा, लेकिन गाँधी दर्शन से ओतप्रोत कुछ शख्सियतें अभी भी उनके नक्शे कदम पर चल रही हैं। भारत के समाज में अनूठी शैली के साथ सेवारत स्वाध्याय समाज के प्रेणता श्री पांडुरंग शास्त्री आठवलेजी को महाराष्ट्र व गुजरात में भारत का दूसरा गाँधी के नाम से जाना जाता है। उन्हें दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार टेम्पलटन अवार्ड से नवाजा गया है। श्री आठवले ने गाँधी दर्शन को जमीन पर उतारकर एक ऐसी मिसाल पेश की है, जिसमें स्वावलम्बी समाज का प्रेरणास्पद चेहरा सामने आता है। नशाबंदी से लगाकर पानी को बिना किसी सरकारी सहायता से रोके जाने के उदाहरणों के साथ पुस्तक में बुरहानपुर के आसपास 22 गाँवों के बंजारा परिवारों की जिंदगी में उतरी गाँधी शैली का रोचक वर्णन है। जिसमें गाँवों के बच्चे तक यह कहते हैं –हम बिना श्रम पैसे नहीं लेते है। पुस्तक में ऐसे शख्स और उनके कार्यों का जिक्र है जिन्होंने महात्मा गाँधी के आव्हान पर आजादी की लड़ाई में शिरकत की थी। गाँधी दर्शन को आत्मसात कर धार जिले के बदनावर के फुलजी बा (श्री चाँदमल जैन) ने सूखे से युद्ध शुरू किया, पानी के संदर्भ में समाज के लिए त्याग की भावना पर अमल किया। एक स्थान पर वे कहते है- यह सब महात्मा गाँधी की ट्रस्टीशिप की भावना की दिशा में बढ़े कदम ही तो हैं।

पुस्तक में अनेक पात्रों का उल्लेख है, जो महात्मा गाँधी के दर्शन से प्रेरित हुए और वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद बेहतर कैरियर को छोड़ पानी के लिए गाँवों में ही काम करने लगे। श्री तपन भट्टाचार्य कालेज की प्रोफेसरी छोड़ मैदान में आ गए। श्री सुनील चतुर्वेदी एमएससी व भू-जलविद, श्री एचकेजैन पीएचडी, श्री निलेश देसाई एमएस डब्लू, श्री सुनील बघेल इलेक्ट्रानिक इंजीनियर, कु. सोनल शर्मा एमफिल, श्री कृष्णकांत महाजन एमएससी, श्री भूपेन्द्रसिंह गौतम एमएससी व अन्य युवा साथियों ने सुविधा वाली जिंदगी को सलाम कर सेवा का मार्ग चुना। निजी बातचीत में इन युवाओं का कहना था कि इस मार्ग पर जो संतोष मिलता है, वह हमें महात्मा गाँधी के अंतिम व्यक्ति की चिंता के सिद्धान्त की मंजिल की ओर ले आता है।

गाँधी दर्शन में राजनीति और समाज के प्रतियोगदान के संबंधों में प्रगाड़ता का जिक्र है। इसी तर्ज पर मध्यप्रदेश के भानपुरा में स्थानीय विधायक और मध्यप्रदेश सरकार के कैबिनट मंत्री श्री सुभाष सोजतिया की पहल पर 10 हजार लोगों ने एक साथ मिलकर गंदे नाले में तब्दील व नदी को पुनः जिंदा कर दिया। पूरे क्षेत्र में 240 तालाब तैयार कर दिए। यहाँ राजनीति की शक्ति को समाज की शक्ति में बदला गया जो मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि देश में भी एक मिसाल बनी। भानपुरा प्रयोग पर अब समाज विज्ञानी शोध कर रहे हैं। यह मिसाल भी गाँधी दर्शन की परिचायक बन गई।

महात्मा गाँधी कहा करते थे कि अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं, समाज बदलाव में वे नारी शक्ति की भूमिका अहम मानते थे। पुस्तक में झाबुआ के नेगड़िया गाँव की कहानी भी इसी तर्ज पर है। यहाँ नारी शक्ति ने पानी आंदोलन की कमान संभाली। कभी कुख्यात अपराधियों से भरे इस गाँव में समाज ने तालाब बना डाले। और 15 फरार अपराधियों ने इस प्रयास के बाद आत्मसमर्पण कर दिया। गाँव पूरी तरह से बदल गया। इसी तरह कभी जंगल काटने वाले चैनसिंह ने जब पश्चाताप किया तो तीन पहाड़िया पुनः हजारों वृक्षों से आच्छादित हो गईं।

बालोदा लक्खा का जिंदा समाज हो या अपने गाँव की खुशहाली के भीतर आमजन द्वारा अनेक गाँवों में जमीनें दान करने के साहसिक निर्णय, पानी के खातिर लोकतंत्र की खेत और खलिहानों के पास असली स्थापना यह सब बताता है कि गाँधी दर्शन की अर्न्तधारा समाज में जिंदा है। कोई पहल करे तो उनके सपनों में गाँव आज भी आबाद हो सकते हैं। पुस्तक ‘बूंदों की मनुहार’ का केन्द्र बिंदु भी यही है।

सुश्री ऊषा दुबे सामाजिक मुद्दों पर लेखन। महिला मुद्दों व जलसंचय पर शोध कार्य, समीक्षक और आलोचक। समाज सेवा कार्यों से सम्बद्ध।

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