बुंदेलखंड में मनरेगा


बुंदेलखंड और विकास या यों कहें कि बुंदेलखंड में विकास, दोनों ही बातें अलग-अलग ध्रुवों पर नजर आती हैं। पिछली यूपीए सरकार में शुरू किए गए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम (अब मनरेगा) ने देश के हर हिस्से में उन वंचितों की रोजी-रोटी का इंतजाम कर दिया, जो पीढ़ी दर पीढ़ी जमींदारों द्वारा तय मजदूरी पर काम करने और शोषित होने को विवश थे। मनरेगा ने देश के अलग-अलग इलाकों में नई-नई बुलंदियों को छुआ। और इसकी सफलता को देखते हुए ही पिछले लोकसभा चुनाव में संप्रग सरकार ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया था। लेकिन यहां भी बुंदेलखंडियों की तकदीर मात खा गई।

इस अधिनियम को बुंदेलखंड में मुकम्मल तौर पर लागू करने की दिशा में केंद्र और राज्य सरकारों ने उस इच्छाशक्ति का परिचय नहीं दिया, जिसकी इसे जरूरत थी। नतीजा सामने है। सरकारी आंकड़े चीख-चीख कर बता रहे हैं कि देश भर के मजदूरों की तकदीर और उनके घरों की तसवीर बदलने वाले इस अधिनियम का लाभ यहां के मजदूरों को नहीं मिला।

उत्तर प्रदेश की सरहद के बुंदेलखंड क्षेत्र में 8,49,289 जॉब कार्ड धारकों में से महज तेईस फीसदी परिवार ही ऐसे सौभाग्यशाली रहे, जिन्हें सौ दिनों का रोजगार मिला। यह हाल तब है, जब केंद्र सरकार में बुंदेलखंड का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रदीप जैन आदित्य उसी मंत्रालय में राज्य मंत्री हैं, जो मनरेगा को संचालित करता है। इस योजना को सफल बनाने में राज्य सरकार ने भी ध्यान नहीं दिया। बसपा अपने गढ़ बुंदेलखंड के गरीबों को जिल्लत भरी जिंदगी से निजात दिलाने को अपनी सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल इस अधिनियम का लाभ दिलाने में कर सकती थी, लेकिन ऐसा यहां की दशा देखकर कतई नहीं लगता है।

इस मामले में सबसे बदतर स्थिति चित्रकूट जिले की है, जहां 16 फीसदी से भी कम परिवार सौ दिन काम कर सके हैं। इसी तरह, झांसी जिले में महज 25.13 फीसदी कार्ड धारक ही नसीब वाले साबित हुए, जिन्हें सौ दिनों का रोजगार मिला। कुछ यही हाल ललितपुर का रहा, जहां सिर्फ 29.59 फीसदी कार्ड धारकों की किस्मत चमकी, जालौन में 25 फीसदी, बांदा में 20.53 प्रतिशत, चित्रकूट में 15.67 फीसदी, हमीरपुर में 21.08 फीसदी और महोबा में 20.53 फीसदी परिवारों को मनरेगा का लाभ मिल पाया।

हां, यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि योजना को संचालित करने वाले विभाग आंकड़ों की बाजीगरी में यह बताने से नहीं झिझक रहे कि जॉब कार्ड धारकों में से अधिसंख्य ने काम ही नहीं मांगा। लेकिन, क्या अधिकारियों या विभाग के पास इस सवाल का जवाब है कि योजना के क्रियान्वयन से पूर्व इसके संबंध में गांव-गांव जाकर शिविरों का आयोजन करना था, लोगों को इसके लाभ की जानकारी देनी थी, वह काम कब हुआ? गांवों में रोजगार का सृजन कैसे हो, इसके लिए जनप्रतिनिधियों को जागरूक क्यों नहीं किया गया? जाहिर है, अफसरों ने शिविरों का आयोजन जरूर किया, मगर कागजों पर। परिणाम, किसी से छिपा नहीं है।

केंद्र सरकार दावा करती है कि पैसे की कोई कमी नहीं है, उधर राज्य सरकार के नुमाइंदे अफसर कहते हैं कि हम काम देने को तैयार हैं, फिर क्यों अब भी बुंदेलखंड में विकास की धारा नहीं फूट रही है? क्यों हर वर्ष फसल कटाई के मौसम में यहां के गरीब मजदूर पंजाब, हरियाणा जैसे प्रांतों की ओर रुख करते हैं? क्यों मुंबई और गुजरात में यहां के कामगार अपना पसीना बहाने को मजबूर हैं। है किसी के पास इसका मुकम्मल जवाब?

(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)
 
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