गौरवशाली ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के लिए विख्यात बुंदेलखंड प्राकृतिक संसाधनों से भी प्रचुर रहा है परंतु मानवीय हस्तक्षेपों के कारण सामान्य समस्याएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों से मिल कर बना है, जिसमें उत्तर प्रदेश के सात जनपद समाहित हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र हमेशा से जल की कमी, जंगल, विविध जानवर, खनिज एवं कुछ अन्य प्राकृतिक संसाधनों के स्थल के रूप में विख्यात रहा है। साथ ही यह क्षेत्र अपने गौरवशाली ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की वजह से भी हमेशा जाना जाता रहा है। भौगोलिक रूप से नदियों के कटान, बंजर, पठार के इलाके और अनुपजाऊ पथरीली भूमि यहां की कृषि को काफी दुष्कर बनाती है। सिंचाई के लिए पानी का अभाव और भीषण गर्मी होने के कारण पूरा क्षेत्र कृषि में अत्यंत पिछड़ा हुआ है। मुख्य रूप से दो नदियों केन बेतवा इस क्षेत्र से होकर गुजरती हैं, जो आगे चलकर यमुना में मिल जाती हैं। भूमि क्षरण इस क्षेत्र की गंभीर समस्या है, जिसकी वजह से लाखों हेक्टेयर भूमि कृषि के उपयुक्त नहीं है। भूमि क्षरण का प्रमुख कारण तेज हवा, वर्षा और ढलुआ ज़मीन का होना है। इस क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं। किसानों का एक बड़ा हिस्सा सीमांत कृषकों का है। लगभग 25 प्रतिशत कृषक ऐसे हैं, जिनके पास 1 से 2 हेक्टेयर के बीच भूमि है। ज़मीन से ही किसान की पहचान है और उसी से उसकी जीविका तथा उसका अस्तित्व है, परंतु यह ज़मीन निरंतर छोटी होती जा रही है अथवा इसका क्षरण होता जा रहा है या फिर वह परती के रूप में अनुत्पादित होती जा रही है। इस क्षेत्र में भूमि सुधार के कई कार्यक्रम चलाए गए, परंतु कोई भी कारगर सिद्ध नहीं हुआ। ज़मीन के पट्टों को लेकर भी यहां के किसान काफी प्रभावित रहे हैं। जो ज़मीन किसानों को दी जानी चाहिए उन पर दबंगों का आधिपत्य है। भू-वितरण की स्थिति भी इस क्षेत्र में चिंता का विषय है।
विपरीत भौगोलिक व जलवायु परिस्थिति
कम साक्षरता दर (महिलाओं का 36%)
असमान लिंगानुपात (1000 : 866)
80% से अधिक जनसंख्या की आजीविका का एक मात्र स्रोत कृषि
वर्षा आधारित कृषि
सूखा ग्रस्त क्षेत्र
पलायन
आधारभूत जन सेवाओं (शिक्षा, स्वास्थ्य, आपूर्ति, परिवहन इत्यादि) की उपलब्धता पर्याप्त न होना
अधिकाधिक जनसंख्या अनुसूचित जाति/ अन्य पिछड़ा वर्ग
संसाधनों का असमान वितरण
इतिहास के पन्नों में जाएं तो पता चलता है कि 19वीं व 20वीं सदी के दौरान कुल 12 सूखा वर्ष देखने को मिले हैं अर्थात् हम कह सकते हैं कि 16-17 वर्ष में एक बार सूखा पड़ा है। सूखा वर्ष की आवृत्ति पहली बार वर्ष 1968 से 1992 के बीच बढ़ी, जब इन वर्षों में तीन बार सूखा पड़ा और वर्तमान में देखें तो विगत 6 वर्षों में (2004-05 के बाद) लगभग लगातार सूखे की स्थिति बनी हुई है। जलवायु परिवर्तन ने विगत 15 वर्षों में जो मौसम में असामान्य बदलाव किए हैं, उसने इस क्षेत्र के लोगों की नाजुकता (Vulnerability) और जोखिम (Risk) को काफी बढ़ाया है। यहां विगत वर्षों में मानसून का देर से आना, जल्दी वापस हो जाना दोनों बीच लंबा सूखा अंतराल, जल संग्रह क्षेत्रों में पानी का न हो पाना, कुआँ का सूख जाना इत्यादि ने यहां कि कृषि को पूरी तरफ नष्ट कर दिया। यहां तक कि कुछ वर्षों में तो किसान फसल की बुवाई तक नहीं कर पाए। विगत 3 दशकों में तो यहां की स्थिति काफी दयनीय हो गई है। प्राकृतिक आपदाओं ने इस पुरे क्षेत्र की तस्वीर ही बदल दी है, जिसकी वजह से यहां की सामाजिक व आर्थिक स्थिति काफी हद तक बिगड़ चुकी है। इस क्षेत्र के अधिकांश जनपद सूखा से प्रभावित हैं, जिसका सीधा असर यहां की कृषि पर पड़ा है। एक बार पुनः इस वर्ष बुंदेलखंड भयंकर रूप से सूखा की मार झेल रहा है। वैसे तो यह क्षेत्र सूखा और सूखा जैसी स्थिति का सामना विगत कई वर्षों से करता आ रहा है परंतु इस वर्ष यह अपनी भयावह स्थिति में है।
सामान्यतः बुंदेलखंड में औसत वर्षा 800-1000 मि.मी. होती रही है, परंतु विगत पांच वर्षों का औसत देखा जाए तो इसमें 40-50 प्रतिशत की कमी आई है अर्थात औसत 450-550 मि.मी. वर्षा ही प्राप्त हुई है, जो कोढ़ में खाज उत्पन्न होने जैसी स्थिति है।
किसी भी क्षेत्र में सतही जल, भूगर्भ जल अथवा अन्य जल का एक मात्र स्रोत वर्षा ही होता है। बुंदेलखंड की औसत मानसूनी वर्षा (1 जून से 30 सितम्बर) 839.97 मिमी. ही है। जिसमें लगभग 90 प्रतिशत वर्षा जुलाई से सितम्बर के बीच 30 से 35 दिनों में ही हो जाती है।
मानसून का देर से आना, कम समय में ज्यादा वर्षा का होना और दो वर्षों के बीच में बारिश का लंबा अंतराल इस क्षेत्र में सूखा की स्थितियाँ उत्पन्न करने में सहायक है।
2005 में बुंदेलखंड में सामान्य वर्षा से 25 प्रतिशत कम वर्षा हुई जो 2007 में 56 प्रतिशत तक कम हो गई और इस वर्ष बुंदेलखंड को भीषण सूखे की मार झेलनी पड़ी।
धीरे-धीरे कृषि का उत्पादन घटता गया, रोज़गार की सम्भावना क्षीण होती गई और पलायन की प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आजीविका के साधन सीमित हो जाने के कारण लोग अत्यंत गरीब एवं वंचित होते जा रहे हैं और कमोबेश शोषण के शिकार हो रहे हैं। आर्थिक तंगी के चलते एवं सामाजिक शोषण व उपेक्षा से त्रस्त इस क्षेत्र के किसान आत्महत्या करने तक को मजबूर है। इस क्षेत्र में खाद्य सुरक्षा सही मायनों में 6 से 8 महीने भी बमुश्किल हो पा रही है। सिंचाई के लिए पानी का अभाव और भीषण गर्मी होने के कारण पूरा क्षेत्र कृषि के मामले में काफी पिछड़ा हुआ है।
उपरोक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि इस क्षेत्र की कृषि मुख्य रूप से नहरों की सिंचाई पर निर्भर है परंतु विगत कई वर्षों से इन नहरों से निकले रजवाहों में पानी की एक बूंद भी नहीं आई।
बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों से मिल कर बना है, जिसमें उत्तर प्रदेश के सात जनपद समाहित हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र हमेशा से जल की कमी, जंगल, विविध जानवर, खनिज एवं कुछ अन्य प्राकृतिक संसाधनों के स्थल के रूप में विख्यात रहा है। साथ ही यह क्षेत्र अपने गौरवशाली ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की वजह से भी हमेशा जाना जाता रहा है। भौगोलिक रूप से नदियों के कटान, बंजर, पठार के इलाके और अनुपजाऊ पथरीली भूमि यहां की कृषि को काफी दुष्कर बनाती है। सिंचाई के लिए पानी का अभाव और भीषण गर्मी होने के कारण पूरा क्षेत्र कृषि में अत्यंत पिछड़ा हुआ है। मुख्य रूप से दो नदियों केन बेतवा इस क्षेत्र से होकर गुजरती हैं, जो आगे चलकर यमुना में मिल जाती हैं। भूमि क्षरण इस क्षेत्र की गंभीर समस्या है, जिसकी वजह से लाखों हेक्टेयर भूमि कृषि के उपयुक्त नहीं है। भूमि क्षरण का प्रमुख कारण तेज हवा, वर्षा और ढलुआ ज़मीन का होना है। इस क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं। किसानों का एक बड़ा हिस्सा सीमांत कृषकों का है। लगभग 25 प्रतिशत कृषक ऐसे हैं, जिनके पास 1 से 2 हेक्टेयर के बीच भूमि है। ज़मीन से ही किसान की पहचान है और उसी से उसकी जीविका तथा उसका अस्तित्व है, परंतु यह ज़मीन निरंतर छोटी होती जा रही है अथवा इसका क्षरण होता जा रहा है या फिर वह परती के रूप में अनुत्पादित होती जा रही है। इस क्षेत्र में भूमि सुधार के कई कार्यक्रम चलाए गए, परंतु कोई भी कारगर सिद्ध नहीं हुआ। ज़मीन के पट्टों को लेकर भी यहां के किसान काफी प्रभावित रहे हैं। जो ज़मीन किसानों को दी जानी चाहिए उन पर दबंगों का आधिपत्य है। भू-वितरण की स्थिति भी इस क्षेत्र में चिंता का विषय है।
सामाजिक-आर्थिक तथ्य
विपरीत भौगोलिक व जलवायु परिस्थिति
कम साक्षरता दर (महिलाओं का 36%)
असमान लिंगानुपात (1000 : 866)
80% से अधिक जनसंख्या की आजीविका का एक मात्र स्रोत कृषि
वर्षा आधारित कृषि
सूखा ग्रस्त क्षेत्र
पलायन
आधारभूत जन सेवाओं (शिक्षा, स्वास्थ्य, आपूर्ति, परिवहन इत्यादि) की उपलब्धता पर्याप्त न होना
अधिकाधिक जनसंख्या अनुसूचित जाति/ अन्य पिछड़ा वर्ग
संसाधनों का असमान वितरण
बुंदेलखंड और सूखा
इतिहास के पन्नों में जाएं तो पता चलता है कि 19वीं व 20वीं सदी के दौरान कुल 12 सूखा वर्ष देखने को मिले हैं अर्थात् हम कह सकते हैं कि 16-17 वर्ष में एक बार सूखा पड़ा है। सूखा वर्ष की आवृत्ति पहली बार वर्ष 1968 से 1992 के बीच बढ़ी, जब इन वर्षों में तीन बार सूखा पड़ा और वर्तमान में देखें तो विगत 6 वर्षों में (2004-05 के बाद) लगभग लगातार सूखे की स्थिति बनी हुई है। जलवायु परिवर्तन ने विगत 15 वर्षों में जो मौसम में असामान्य बदलाव किए हैं, उसने इस क्षेत्र के लोगों की नाजुकता (Vulnerability) और जोखिम (Risk) को काफी बढ़ाया है। यहां विगत वर्षों में मानसून का देर से आना, जल्दी वापस हो जाना दोनों बीच लंबा सूखा अंतराल, जल संग्रह क्षेत्रों में पानी का न हो पाना, कुआँ का सूख जाना इत्यादि ने यहां कि कृषि को पूरी तरफ नष्ट कर दिया। यहां तक कि कुछ वर्षों में तो किसान फसल की बुवाई तक नहीं कर पाए। विगत 3 दशकों में तो यहां की स्थिति काफी दयनीय हो गई है। प्राकृतिक आपदाओं ने इस पुरे क्षेत्र की तस्वीर ही बदल दी है, जिसकी वजह से यहां की सामाजिक व आर्थिक स्थिति काफी हद तक बिगड़ चुकी है। इस क्षेत्र के अधिकांश जनपद सूखा से प्रभावित हैं, जिसका सीधा असर यहां की कृषि पर पड़ा है। एक बार पुनः इस वर्ष बुंदेलखंड भयंकर रूप से सूखा की मार झेल रहा है। वैसे तो यह क्षेत्र सूखा और सूखा जैसी स्थिति का सामना विगत कई वर्षों से करता आ रहा है परंतु इस वर्ष यह अपनी भयावह स्थिति में है।
सामान्यतः बुंदेलखंड में औसत वर्षा 800-1000 मि.मी. होती रही है, परंतु विगत पांच वर्षों का औसत देखा जाए तो इसमें 40-50 प्रतिशत की कमी आई है अर्थात औसत 450-550 मि.मी. वर्षा ही प्राप्त हुई है, जो कोढ़ में खाज उत्पन्न होने जैसी स्थिति है।
वर्षा क्रम
किसी भी क्षेत्र में सतही जल, भूगर्भ जल अथवा अन्य जल का एक मात्र स्रोत वर्षा ही होता है। बुंदेलखंड की औसत मानसूनी वर्षा (1 जून से 30 सितम्बर) 839.97 मिमी. ही है। जिसमें लगभग 90 प्रतिशत वर्षा जुलाई से सितम्बर के बीच 30 से 35 दिनों में ही हो जाती है।
मानसून का देर से आना, कम समय में ज्यादा वर्षा का होना और दो वर्षों के बीच में बारिश का लंबा अंतराल इस क्षेत्र में सूखा की स्थितियाँ उत्पन्न करने में सहायक है।
2005 में बुंदेलखंड में सामान्य वर्षा से 25 प्रतिशत कम वर्षा हुई जो 2007 में 56 प्रतिशत तक कम हो गई और इस वर्ष बुंदेलखंड को भीषण सूखे की मार झेलनी पड़ी।
धीरे-धीरे कृषि का उत्पादन घटता गया, रोज़गार की सम्भावना क्षीण होती गई और पलायन की प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आजीविका के साधन सीमित हो जाने के कारण लोग अत्यंत गरीब एवं वंचित होते जा रहे हैं और कमोबेश शोषण के शिकार हो रहे हैं। आर्थिक तंगी के चलते एवं सामाजिक शोषण व उपेक्षा से त्रस्त इस क्षेत्र के किसान आत्महत्या करने तक को मजबूर है। इस क्षेत्र में खाद्य सुरक्षा सही मायनों में 6 से 8 महीने भी बमुश्किल हो पा रही है। सिंचाई के लिए पानी का अभाव और भीषण गर्मी होने के कारण पूरा क्षेत्र कृषि के मामले में काफी पिछड़ा हुआ है।
उपरोक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि इस क्षेत्र की कृषि मुख्य रूप से नहरों की सिंचाई पर निर्भर है परंतु विगत कई वर्षों से इन नहरों से निकले रजवाहों में पानी की एक बूंद भी नहीं आई।
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