कटान, खदान और जमीन हड़पो अभियान
बुंदेलखण्ड की समृद्धि का मॉडल एक समृद्ध प्राकृतिक-सांस्कृतिक-तीर्थ व परंपरागत वनक्षेत्र के रूप में ही हो सकता है। इसके लिए अलग राज्य नहीं, अलग समझ, संकल्प, आस्था व ईमानदारी की जरूरत है। जरूरी हो गया है कि आल्हा, उदल, बुंदेलों, चंदेलों व झांसी की रानी के इस इलाके का जनमानस अपने अतीत से प्रेरित हो बुंदेलखण्ड बचाने के लिए एकजुट हों। बुंदेलखण्ड के समग्र विकास की लोकयोजना बनाकर उसमें जुटे।
भू-सांस्कृतिक आधार पर समृद्धि की अलग योजना बननी ही चाहिए। भला इस बात से किसे विरोध हो सकता है? किंतु अलग भूसांस्कृतिक आधार पर अलग राज्य बनाने के नये अनुभव अच्छे नहीं है। नवगठित राज्यों में प्राकृतिक संसाधनों की हो रही लूट से सभी वाकिफ हैं। राज्य बने बगैर ही बुंदेलखण्ड में जिस तरह की लूट शुरु हो गई है, उससे बुंदेलखण्ड की शांति और प्राकृतिक-सांस्कृतिक अस्मिता पर संकट के नये बादल मंडराने लगे हैं। यह बात इसलिए भी चिंतित करती है, चूंकि जलवायु परिवर्तन के जिस वैश्विक खतरे से निपटने के लिए मिशन, प्रोजेक्ट और जाने क्या-क्या बनाकर अरबों खर्च करने की तैयारी है, प्राकृतिक समृद्धि के ऐसे टापू ही उस खतरे से दुनिया को बचा सकते हैं। 29,718 वर्ग किमी. वाले इस बुलंद बुंदेला टापू को नैसर्गिक रूप में संजोंकर रखना जरूरी है। जबकि बुंदेलखण्ड का नया दौर हमारे लिए कुछ नई मुश्किलें लेकर आया है।“बुढ़िया मर गयी, पर उससे भी बुरा यह हुआ कि यमराज को घर का पता चल गया।”
बुंदेलखण्ड के संदर्भ में बनारस की एक बहन चित्रा सहस्त्रबुद्धे की कही यह उक्ति एकदम सटीक साबित हो रही है। वर्ष 2003 से 2006 के मध्य बुंदेलखण्ड में हुई आत्महत्याओं तथा पलायन का शोर पूरी दुनिया में कुछ इस कदर मचा कि वह यमराज को घर के पता चलने जैसा ही साबित हो रहा है। नतीजा? व्यावसायिक निगाहें अब बुंदेलखण्ड की जमीन, पानी, जैवविविधता, शुचिता व समझ की लूट करने में लग गई हैं। हुआ यूं कि इलाके के कष्ट व लाचारी देखने के नाम पर बुद्धिजीवियों की जो भीड़ यहां आई, उसने यहां की बेशकीमती प्रकृति का पता दुनिया के बाजार को बता दिया। कुछ प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों ने देखा कि यहां जमीन बहुत सस्ती है और जमीन के भीतर का खजाना बेशकीमती कचरा फैलाने पर कोई बोलने वाला भी नहीं है। आबादी गरीब-गुरबा है। वे भूल गये कि यह इलाका जितना शांत है, वक्त आने पर उतना ही हिंसक भी हो उठता है। खैर, फिलहाल तो सस्ती और रासायनिक प्रदूषण से मुक्त जमीन की खबर सुनकर उद्योग भी आ रहे हैं, फार्म हाउस भी और यहां की वन व खनिज संपदा के लुटेरे भी। यूं कहें कि भारत में जमीन हड़पो अभियान वालों की निगाहें यहां भी गड़ गई हैं। उन्हे मदद करने के लिए काली सड़कें और रेल की पटरियां पहुंचने लगी है।
इसकी सबसे पहली मार तो यहां के जंगल, जंगली जीवों और नदियों पर ही पड़ने वाली है। केन-बेतवा नदी जोड़ में पहले ही बड़ी बेसमझी के साथ करोड़ों फूंके जा रहे हैं। इससे जो बर्बादी और अशांति आयेगी, उसका अभी सत्ता को अंदाजा नहीं है। इसी बीच बड़े पैकेज कर एक रेला भी यहां आया साथ में आये भ्रष्ट आचार का अनेक मौके। इस पैसे से जल संचयन के ढांचे कुछ इस तरह बनाये जा रहे हैं कि उनमें पानी तो नहीं रुक रहा; हां... पैसा पानी की तरह बहकर जरूर कई जेबों में जा रहा है। आरोप तो यह भी लगा है कि कई जगह ढांचे बनाये बगैर ही उन्हें पहले बना और बाद में बारिश में बह गया दिखा दिया गया है। दरअसल सूख गये सतही पानी को वापस संजोने की संजीदा कोशिश की जगह इंजीनियरों की रुचि हमेशा ही भूगर्भ का पानी खींचने वाली मशीनों में ज्यादा रहती है। वही हो रहा है। पानी प्रबंधन के नाम पर इंडिया मार्का हैंडपंप और गहरे नलकूप लग रहे हैं। नतीजा? कुएं और छोटे तालाब सूख रहे हैं। मनरेगा के तालाबों में पानी आने के रास्ते नही हैं। नहरों में पहले ही धूल उड़ रही है। इससे बुंदेलखण्ड में सिंचाई और पेयजल का नया संकट खड़ा हो रहा है।
कमीशनखोर यह समझने को तैयार नहीं हैं कि धरती के नीचे बहुत कम गहराई पर ग्रेनाइट, चूना और पत्थर की चट्टानी परत की वजह से बुंदेलखण्ड के पानी के एक्यूफर बहुत उथले हैं। यह इलाका भूजल की लूट की इजाजत नहीं देता। सतही जल का संचयन ही यहां की खेती, मवेशी व समृद्धि का प्राणाधार है। जल की समृद्धि का आधार होते हैं- नदी, तालाब, मेड़बंदियां और जंगल। चंदेलों ने इन्हीं को समृद्ध कर यहां की समृद्धि कायम रखी। उसी काल के तालाबों से प्रेरित होकर लिखी गई पुस्तक ‘‘आज भी खरे हैं तालाब‘‘ ने कई को प्रेरित किया। ध्यान देने की बात है कि जहां नदी, तालाब व जंगल पर हमला सबसे ज्यादा हुआ, वहीं आत्महत्याएं हुईं- बांदा, महोबा, हमीरपुर और चित्रकूट। करीब 70 हजार लोगों के अकेले इसी इलाके से पलायन का आंकड़ा है। यह बुंदेलखण्ड का वह हिस्सा है, जहां के जंगल आज पूरी तरह नेस्तनाबूद हो चुके हैं। खनन पर कोई नियंत्रण नहीं है। तालाबों पर बड़े पैमाने पर कब्जे हैं। भूजल स्तर में प्रतिवर्ष 5 से 50 सेमी. तक की सबसे ज्यादा गिरावट भी इन्हीं जिलों में है। समझने की बात है कि अंग्रेजों के आने के बाद का पहला बड़ा अकाल उत्तरी बुंदेलखण्ड के हमीरपुर और बांदा में ही क्यों आया? और अब जब 21वीं सदी का पहला अकाल (2003-2005) आया, तो सबसे बुरा दुष्प्रभाव भी इसी इलाके में पड़ा। क्यों?
यूं बुंदेलखण्ड में अकाल का जिक्र मोहम्मद बिन तुगलक के भारत प्रवेश के वक्त भी मिलता है। किंतु इतिहास प्रमाण है कि बुंदेलखण्ड में अकाल का पहला सबसे बुरा व लंबा दौर तब आया, जब 19वीं सदी में अंग्रेजों ने जंगलों का अधिग्रहण किया। शुरु में चालीसा का अकाल, फिर 1809-10, 1865 से 1889 का पच्चीसा का अकाल और फिर पूरी 20वीं सदी बुंदेलखण्ड के हिस्से में अकाल ही अकाल लाई। समझना होगा कि 950 मिमी. का वार्षिक वर्षा औसत कम नहीं होता। राजस्थान व गुजरात में बुंदेलखण्ड से काफी कम बारिश के कई इलाके हैं, लेकिन वहां किसानों ने कभी आत्महत्यायें नहीं की। क्यों? क्योंकि कम पानी के बावजूद उन्होंने अपने मवेशी, जंगल व चारागाहों को मरने नहीं दिया। बारिश की हर बूंद को संजोने के लिए सरकार का इंतजार नहीं किया। मोटा अनाज बोया। बुंदेलखण्ड की तरह धान व सोयाबीन का लालच नहीं किया। जहां भी जंगल-तालाबों की समृद्धि बनी रहेगी, वहां आत्महत्या की विवशता कभी नहीं होगी। जंगल न सिर्फ अपनी जड़ों में पानी, मौसम में आर्द्रता व जलसंरचनाओं से वाष्पन को रोककर रखते हैं, बल्कि बादलों को भी आकर्षित करते हैं। अब जंगल ही बुंदेलखण्ड को काल के गाल से बचा सकते हैं। जंगल ही जल का वाहक होता है। जंगल... अकाल मुक्ति की पहली शर्त है।
इस प्रमाणिक सत्य के बावजूद बुंदेलखण्ड में जंगल कटान, तालाबों पर कब्जे व भयानक खनन को रोकने की हिम्मत किसी सरकार में आज भी दिखाई नहीं दे रही। दिखाई दे तो दे कैसे...खान, क्रेसर मालिक व लकड़ी के ठेकेदार ही यहां के नियंता हैं। ताज्जुब है कि लोग भी थोड़ा-बहुत हल्ला मचाने के बाद चुपचाप बैठ गये हैं। बुंदेलखण्ड के विकास की लोकयोजना को लागू करने के लिए सरकारों को अभी तक विवश नहीं कर सके हैं। कुछ भी हो, बुंदेलखण्ड की समृद्धि का रास्ता यह नहीं है। सतही जल संचयन का पुख्ता इंतजाम, स्थानीय जैवविविधता का सम्मान करने वाले सघन वन-चारागाह-देशी बीज-जैविक खेती, कम पानी की फसलों को अधिक बाजार मूल्य, आजीविका के लिए खेती पर निर्भरता कम कर मवेशी-स्थानीय वनोत्पाद व हस्तकौशल आधारित कुटीर उद्योगों को प्राथमिकता देना, सहकारी तंत्र व शिक्षा की समृद्धि ही सटीक रास्ता है।
विकास की आधुनिक अवधारणायें विकास कम, इलाके से इंसान, मवेशी, वन्य जीव, वन संपदा, संस्कृति, रिश्ते-नाते व परंपरागत ज्ञानतंत्र.... इन सभी का पलायन व नाश ज्यादा करती हैं। इसकी भरपाई फिर कभी नहीं हो पाती। पर्यटन और तीर्थ के फर्क को समझते हुए बुंदेलखण्ड की समृद्धि का मॉडल एक समृद्ध प्राकृतिक-सांस्कृतिक-तीर्थ व परंपरागत वनक्षेत्र के रूप में ही हो सकता है। इसके लिए अलग राज्य नहीं, अलग समझ, संकल्प, आस्था व ईमानदारी की जरूरत है। जरूरी हो गया है कि आल्हा, उदल, बुंदेलों, चंदेलों व झांसी की रानी के इस इलाके का जनमानस अपने अतीत से प्रेरित हो बुंदेलखण्ड बचाने के लिए एकजुट हों। बुंदेलखण्ड के समग्र विकास की लोकयोजना बनाकर उसमें जुटे। काश! यह हो सके।
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