सतपुड़ा की नदियां वनजा हैं, हिमजा नहीं। यानी उनका जलस्त्रोत वन हैं, जबकि उत्तर भारत की सारी नदियां हिमालय से निकलती हैं। यानी हिमजा हैं। एक समय में सतपुड़ा में घना जंगल हुआ करता था, जो अब नहीं है। मैदानी क्षेत्र का जंगल साफ हो गया है। इसलिए हमें नदियों को पुर्नजीवित करने के बारे में सोचना चाहिए। हमें मिट्टी, पानी, पेड़ और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है। बारिश में जो नदी बहने लगी अगर लगातार कई स्तरों पर प्रयास किए जाएं तो क्या नदियां बारहमासी सदानीरा नहीं बन सकती? सतपुड़ा के जो नदी-नाले गर्मी में सूख जाते थे, वे इस बारिश में फिर से बहने लगे। जिन छोटे नदी-नालों में फरवरी-मार्च तक पानी सूख जाता था, इस वर्ष उनमें लगातार जलधाराएं प्रवाहित हो रही हैं। जहां कभी रेत और पत्थर ही रहते थे, वहां पानी की कल-कल, छल-छल का मधुर गीत सुनाई दे रहा है। पक्षियों का कलरव सुनाई देता है। जीवन की चहल-पहल होने लगी है। हाल ही मैंने होशंगाबाद जिले के पिपरिया से सालीचौका तक सड़क मार्ग से यात्रा की। इस दौरान कभी सूखे नदी-नालों में पानी बहता देखकर खुशी तो हुई ही, बीते दिन भी याद आ गए। जो नदियां गर्मी में लुप्त हो गईं वे बारिश में फिर बहने लगीं। पिपरिया से निकलते ही पहली नदी मछवासा पड़ी। यह पिपरिया शहर से गुजरती है। प्रायः इसमें पानी नहीं होता है और जो पानी दिखाई देता है, वह नदी का नहीं, शहर की गंदी नालियों का होता है। लेकिन इस बार लगातार बारिश से मछवासा में पानी है और नदी बह रही है। थोड़ा आगे चलने पर रामपुर के पास कोरनी नदी। इसकी जलधार भी चल रही है। गर्मी के दिनों में इसमें बूंद भी पानी नहीं रहता। इसी प्रकार आंजन नदी भी प्रायः सूखी रहती थी। इस नदी के किनारे सिंगाजी का मेला लगता है जिसमें बड़ी संख्या में ग्रामीण जुटते हैं।
ग्रामीण बताते हैं कि इस नदी में भी वर्ष भर पानी रहता था, मछुआरे मछली पकड़ते थे, अब पूरी तरह सूख गई है। लेकिन इसमें पानी देखकर सुखद आश्चर्य होता है। पत्थर और रेत की जगह साफ पानी की धार मनमोहक थी। बनखेड़ी कस्बे के बाजू से गुजरती है ओल नदी। यह नदी भी पूर्व में सदानीरा थी। साल भर पानी रहता था। जब ग्रामीण बनखेड़ी बाजार आते थे, तब जूता-चप्पल उतार कर नदी पार करना पड़ता था और बैलगाड़ी वाले अपने बैलों को इसी नदी में पानी पिलाते थे। यह नदी पूरी तरह सूख चुकी है। लामटा के पास भरगा। यह नदी नहीं, छोटा नाला है। बारिश में इसमें खूब पानी होता था और इसका पुल नीचा होने से अक्सर रपटे के ऊपर से पानी बहता था। यहां वाहनों का जाम लगा रहता था। लेकिन पिछले कुछ बरसों से इसमें पानी ही नहीं है। गर्मी के दिनों में यह पहचानना भी मुश्किल है कि इसमें पानी भी रहता होगा।
मछवाई, प्रायः बारिश में ही बहती थी। इसमें सतपुड़ा के पहाड़ों के ऊंचाई वाले इलाके से मछलियाँ आकर निचले खेतों में रहती थीं। धान और मछली की खेती साथ-साथ होती थी। धान के खेतों में अक्सर भूमिहीन लोग इनसे मछलियाँ पकड़ते थे और यही उनके भोजन व पोषण का स्रोत था। इन भूमिहीन समुदायों में रज्झर, गोंड व बरौआ होते थे। दुधी नदी, बड़ी नदी है। यह नदी होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले को विभक्त करती है। यह सतपुड़ा की छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट के आसपास से निकलती है और उत्तर में नर्मदा में आकर मिलती है। यह सदानीरा नदी थी, इसमें साल भर पानी रहता था।
दुधी यानी दूधिया जल। निर्मल साफ झक्क मीठा पानी। बुजुर्ग बताते हैं कि इसमें जब बारिश में पूर (बाढ़) आता था तो पार करना मुश्किल होता था। जिन किसानों के खेत नदी पार हुआ करते थे, वे किसान तैरने के लिए तूमा (तूमा कद्दू की तरह अंदर से खोखला होता था, जिसे रस्सी से बांधकर छाती में लगाकर तैरते थे) लेकर जाते थे। जो गाय-बैल चरने के लिए जाते थे, वे भी तैर कर ही वापस आते थे। छोटे बछड़े या भैसों को आने-जाने में परेशानी होती थी। कभी-कभार वे बहकर नीचे पार लगते थे। इसी प्रकार नदी में ज्यादा बहाव होता था, तब वे लोग भी बह कर बहुत नीचे पहुंच जाते थे। इस नदी के किनारे बरौआ, कहार आदि समुदाय के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। जिनका मुख्य रोज़गार मछली पकड़ना और डंगरबारी (तरबूज-खरबूज की खेती) करना है। जब नदी बारहमासी थी और वर्ष भर पानी रहता था तब वे दिन-दिनभर इसमें मछली पकड़ने इधर-उधर घूमा करते थे। यही इनके भोजन में मुख्य पोषण का स्रोत होता था।
तरबूज-खरबूज की खेती करने के लिए तो इनका डेरा नदी में ही रहता था। वे सपरिवार यहां रहते थे। वे दिन भर इनकी देखभाल करते थे। और रात में सभी डंगरबारी वाले एकत्र होकर लोकगीत सजनई गाते थे। इन मंत्रमुग्ध कर देने वाले गीतों में वाद्ययंत्र पीतल की थाली हुआ करती थी। इन नदियों के किनारे फलदार और हरे-भरे वृक्ष हुआ करते थे। हरी भाजियां, बेर व कंद-मूल मिलते थे। दुधी के किनारे बच्चे खूब रेत में खेलते थे और बेर तोड़ तोड़ कर खाते थे। बच्चों की स्मृतियाँ नदियों से जुड़ी रहती हैं।सतपुड़ा की नदियां वनजा हैं, हिमजा नहीं। यानी उनका जलस्त्रोत वन हैं, जबकि उत्तर भारत की सारी नदियां हिमालय से निकलती हैं। यानी हिमजा हैं, बर्फ है। एक समय में सतपुड़ा में घना जंगल हुआ करता था, जो अब नहीं है। मैदानी क्षेत्र का जंगल साफ हो गया है। इसलिए हमें नदियों को पुर्नजीवित करने के बारे में सोचना चाहिए। राजस्थान में तरूण भारत संघ ने इस पर अच्छा काम किया है, जहां कुछ नदियां जो सूख चुकी थी, फिर से बहने लगी। हमें मिट्टी, पानी, पेड़ और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है। बारिश में जो नदी बहने लगी अगर लगातार कई स्तरों पर प्रयास किए जाएं तो क्या नदियां बारहमासी सदानीरा नहीं बन सकती? यह सोचते हुए मैं घर लौट आया।
(लेखक विकास और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं)
ग्रामीण बताते हैं कि इस नदी में भी वर्ष भर पानी रहता था, मछुआरे मछली पकड़ते थे, अब पूरी तरह सूख गई है। लेकिन इसमें पानी देखकर सुखद आश्चर्य होता है। पत्थर और रेत की जगह साफ पानी की धार मनमोहक थी। बनखेड़ी कस्बे के बाजू से गुजरती है ओल नदी। यह नदी भी पूर्व में सदानीरा थी। साल भर पानी रहता था। जब ग्रामीण बनखेड़ी बाजार आते थे, तब जूता-चप्पल उतार कर नदी पार करना पड़ता था और बैलगाड़ी वाले अपने बैलों को इसी नदी में पानी पिलाते थे। यह नदी पूरी तरह सूख चुकी है। लामटा के पास भरगा। यह नदी नहीं, छोटा नाला है। बारिश में इसमें खूब पानी होता था और इसका पुल नीचा होने से अक्सर रपटे के ऊपर से पानी बहता था। यहां वाहनों का जाम लगा रहता था। लेकिन पिछले कुछ बरसों से इसमें पानी ही नहीं है। गर्मी के दिनों में यह पहचानना भी मुश्किल है कि इसमें पानी भी रहता होगा।
मछवाई, प्रायः बारिश में ही बहती थी। इसमें सतपुड़ा के पहाड़ों के ऊंचाई वाले इलाके से मछलियाँ आकर निचले खेतों में रहती थीं। धान और मछली की खेती साथ-साथ होती थी। धान के खेतों में अक्सर भूमिहीन लोग इनसे मछलियाँ पकड़ते थे और यही उनके भोजन व पोषण का स्रोत था। इन भूमिहीन समुदायों में रज्झर, गोंड व बरौआ होते थे। दुधी नदी, बड़ी नदी है। यह नदी होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले को विभक्त करती है। यह सतपुड़ा की छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट के आसपास से निकलती है और उत्तर में नर्मदा में आकर मिलती है। यह सदानीरा नदी थी, इसमें साल भर पानी रहता था।
दुधी यानी दूधिया जल। निर्मल साफ झक्क मीठा पानी। बुजुर्ग बताते हैं कि इसमें जब बारिश में पूर (बाढ़) आता था तो पार करना मुश्किल होता था। जिन किसानों के खेत नदी पार हुआ करते थे, वे किसान तैरने के लिए तूमा (तूमा कद्दू की तरह अंदर से खोखला होता था, जिसे रस्सी से बांधकर छाती में लगाकर तैरते थे) लेकर जाते थे। जो गाय-बैल चरने के लिए जाते थे, वे भी तैर कर ही वापस आते थे। छोटे बछड़े या भैसों को आने-जाने में परेशानी होती थी। कभी-कभार वे बहकर नीचे पार लगते थे। इसी प्रकार नदी में ज्यादा बहाव होता था, तब वे लोग भी बह कर बहुत नीचे पहुंच जाते थे। इस नदी के किनारे बरौआ, कहार आदि समुदाय के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। जिनका मुख्य रोज़गार मछली पकड़ना और डंगरबारी (तरबूज-खरबूज की खेती) करना है। जब नदी बारहमासी थी और वर्ष भर पानी रहता था तब वे दिन-दिनभर इसमें मछली पकड़ने इधर-उधर घूमा करते थे। यही इनके भोजन में मुख्य पोषण का स्रोत होता था।
तरबूज-खरबूज की खेती करने के लिए तो इनका डेरा नदी में ही रहता था। वे सपरिवार यहां रहते थे। वे दिन भर इनकी देखभाल करते थे। और रात में सभी डंगरबारी वाले एकत्र होकर लोकगीत सजनई गाते थे। इन मंत्रमुग्ध कर देने वाले गीतों में वाद्ययंत्र पीतल की थाली हुआ करती थी। इन नदियों के किनारे फलदार और हरे-भरे वृक्ष हुआ करते थे। हरी भाजियां, बेर व कंद-मूल मिलते थे। दुधी के किनारे बच्चे खूब रेत में खेलते थे और बेर तोड़ तोड़ कर खाते थे। बच्चों की स्मृतियाँ नदियों से जुड़ी रहती हैं।सतपुड़ा की नदियां वनजा हैं, हिमजा नहीं। यानी उनका जलस्त्रोत वन हैं, जबकि उत्तर भारत की सारी नदियां हिमालय से निकलती हैं। यानी हिमजा हैं, बर्फ है। एक समय में सतपुड़ा में घना जंगल हुआ करता था, जो अब नहीं है। मैदानी क्षेत्र का जंगल साफ हो गया है। इसलिए हमें नदियों को पुर्नजीवित करने के बारे में सोचना चाहिए। राजस्थान में तरूण भारत संघ ने इस पर अच्छा काम किया है, जहां कुछ नदियां जो सूख चुकी थी, फिर से बहने लगी। हमें मिट्टी, पानी, पेड़ और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है। बारिश में जो नदी बहने लगी अगर लगातार कई स्तरों पर प्रयास किए जाएं तो क्या नदियां बारहमासी सदानीरा नहीं बन सकती? यह सोचते हुए मैं घर लौट आया।
(लेखक विकास और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं)
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