बारानी खेती में अधिक पैदावार लेने की तकनीक

बारानी खेती में काफी उपयोगी हैं, स्प्रिंकलर, फोटो साभार - झारखंड सरकार
बारानी खेती में काफी उपयोगी हैं, स्प्रिंकलर, फोटो साभार - झारखंड सरकार

सिंचित कृषि में उत्पादकता वृद्धि की स्थेतिक गति को ध्यान में रखते हुए, राष्ट्रीय खाद्य उत्पादन में असिंचित (बारानी) कृषि के योगदान को बढ़ने की आवश्यकता है। कई वर्षों से, इसका योगदान लगभग स्थिर है, जिसे बढ़ाने की आवश्यकता है यदि हमें समता के साथ विकास के उद्देश्यों को पूरा करना है। उनत कृषि हेतु जल एक महत्वपूर्ण संसाधन हैं। इसकी अधिकता या कमी दोनों ही पादपों के विकास को प्रभावित करती है। हमारे प्रदेश में लगभग तीन चौथाई क्षेत्र असिंचित है। इस असिंचित क्षेत्र में वर्षों की मात्रा और वितरण के अनुसार फसल उत्पादन का स्तर बदलता रहता है। इसलिए, हमें वर्षा वाले क्षेत्र में उन्नत खेती के तकनीकों को लेकर काम करना चाहिए ताकि हम सुनिश्चित कर सकें कि उत्पादन में सुधार हो। कम और असामयिक वर्षा वाले क्षेत्रों में नमी संरक्षण हेतु फसल उत्पादन तकनीक को ऐसे अपनाएं जिससे फसलों की अधिक से अधिक पैदावार हो सके, उसे हम बारानी खेती कहते हैं। तकनीकी दृष्टि से उन क्षेत्रों में जहां वार्षिक वर्षा 400 मिलीमीटर से कम होती है, वहां पर वर्षा आधारित खेती बारानी खेती के तहत आती है। राज्य में वर्षा के अनुसार फसल क्षेत्र, उत्पादन और उत्पादकता में विशेष रूप से विविधता होती रहती है। वर्षा के दिन भी गिनती के होते हैं और वर्षा का वितरण अनिश्चित होता है। कभी-कभी बारिश इतनी भारी होती है कि उपजाऊ भूमि नष्ट हो जाती हैं, जबकि कभी वर्षा बस छिड़काव के रूप में होती हैं। मानसून समय भी बहुत पहले या बहुत बाद आ सकता है और वर्षाकाल में लंबा सूखा भी हो सकता है। पिछले चार दशकों के दौरान खाद्य उत्पादन आत्मनिर्भरता और उत्पादन अधिशेष में परिणत हुआ है। हालांकि, अगली सहस्राब्दी में लगातार बढ़ती आबादी की खाद्य मांग को पूरा करना एक कठिन कार्य बना हुआ है। देश को वर्ष 2030 तक लगभग 1.5 बिलियन लोगों की खाद्य मांग को पुरा करने के लिए हर साल 5-6 मीट्रिक टन अतिरिक्त अनाज की आवश्यकता होगी। इसलिए, इस प्रकार की परिस्थितियों में बारानी खेती की उन्नत कृषि विधियाँ अत्यंत आवश्यक हैं ताकि हम संभावित सभी उत्पादकता को हासिल कर सकें। बारानी खेती के लिए महत्वपूर्ण ऊत्रत कृषि विधियाँ निम्न प्रकार है:- 

खेत की तैयारीः बारानी खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए भूमि में सचित नमी पर निर्भर होता है। मृदा की जल सोखने और जलधारण क्षमता को बढ़ाने के लिए, रबी फसलों के कटने के तुरंत बाद या खाली खेतों में गर्मियों के दौरान मिट्टी को गहरी जुताई की जानी चाहिए। इससे हानिकारक कीट, रोगाणु और खरपतवार नष्ट हो जाते है और मृदा का तापमान और जलधारण क्षमता भी बढ़ती है। रेतीले क्षेत्रों में गर्मियों के दौरान जुताई करना अनुचित हो सकता है। 

खेत को समतल बनानाः वर्षा जल को समान रूप से फैलने देना चाहिए ताकि वर्षा जल संरक्षित रूप से मृदा में चला जाए। इस संरक्षित नमी में, लंबे समय तक वर्षा नहीं होने पर भी, फसल पर सूखे का प्रभाव कम होता है या बिल्कुल नहीं होता। 

खेतों में ढाल के विपरीत जुताई करें: इस प्रकार जुताई करने से कूड़ में पानी इकट्ठा होगा और भूमि को पानी सोखने के लिए अधिक समय मिलेगा। खेतों में ढाल के विपरीत थोड़ी-थोड़ी दूरी पर डोलियां बनाएं और वानस्पतिक अवरोध लगाएं ताकि वर्षा जल रूककर भूमि में समा सके। बारिश के बाद छोड़े गए खेतों में खरपतवार को नष्ट करने और जल सोखने की क्षमता बढ़ाने के लिए वर्षों के दौरान दो-तीन बार जुताई करनी चाहिए। क्योंकि अंतिम वर्षा और बुवाई के बीच का अंतराल लंबा रहता है, इसलिए नमी संरक्षण के लिए पाटा लगाना जरूरी है। प्रत्येक तीसरे वर्ष वर्षा आरंभ होने से 15-20 दिन पहले खेत में प्रति हे. 10-15 टन सड़ी हुई देशी गोबर की खाद जरूर डालनी चाहिए, अगर संभव हो सके तो प्रति वर्ष प्रति हे. 5 टन सड़ी हुई देशी गोबर की खाद जो पोषक तत्व प्रदान करने के साथ ही जल धारण करने की क्षमता भी बढ़ाती है और मृदा में जैविक पदार्थ जीवांशों की मात्रा में वृद्धि होती हैं।

जीवाणु खाद का उपयोगः फसल में नत्रजन की आपूर्ति यूरिया जैसे उर्वरकों से की जाती हैं। यूरिया में केवल 46% नत्रजन होती है, जबकि हमारे वायुमंडल में लगभग 78% नत्रजन होती है। वायुमंडल की इस नत्रजन को पौधों को-राईजोबियम एवं एजेटोबैक्टर आदि जीवाणु खाद का उपयोग कर उपलब्ध कराया जा सकता है। राईजोबियम जीवाणु दलहनी फसलों की जड़ों में सहजीवी के रूप में ग्रन्थि (गांठ) बनाकर रहते हैं। यह वायुमंडल से नत्रजन प्राप्त करके सीधे पौधों को उपलब्ध करा देते हैं। एजेटोबैक्टर स्वतंत्र रूप से जमीन में रहते हैं और वायुमंडल की नत्रजन को जमीन में पौधों हेतु उपलब्ध अवस्था में छोड़ देते हैं। इस प्रकार ये भूमि को उर्वराशक्ति को बढ़ाते हैं। इसी प्रकार फॉस्फेट विलेयक (पी.एस.बी.) जीवाणु खाद जमीन में बेकार अनुपलब्ध पड़े फॉस्फोरस को घोलकर पौधों को उपलब्ध करा देता हैं। इससे पहले खेत में उपयोग किए गए डी.ए.पी. और सिंगल सुपर फॉस्फेट का भी समुचित उपयोग हो जाता है। बीज को कल्चर से उपचारित करने हेतु 250 ग्राम गुड़ और आवश्यकता के अनुसार पानी गरम करके घोल बनाएं। घोल के ठंडा होने पर इसमें 600 ग्राम जीवाणु खाद मिलाएं। इस मिश्रण को एक हेक्टर में बोए जाने वाले बीज में इस प्रकार मिलाएं कि बीजों पर एक समान परत चढ़ जाए। छोटे आकार के बीजों के लिए जीवाणु खाद की कम मात्रा का उपयोग करें। इसके बाद बीजों को छांया में सुखाकर बुवाई कर बुवाई करें। 

शीघ्र पकने वाली फसल व किस्म का चयनः बारानी खेती के लिए शीघ्र पकने वाली, सूखा सहने की क्षमता वाली और अधिक उत्पादन देने वाली फसलों (बाजरा, मोठ, ग्वार, मूंग एवं तिल) और उनकी किस्मों का चयन करना चाहिए। इस चयन में भूमि की किस्म और सम्भावित वर्षा का ध्यान रखना चाहिए। विभिन्न फसलें और उनकी किस्में बारानी खेती के लिए उपयुक्त हो सकती हैं जो स्थानीय मौसम और भूमि की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए स्थान विषेष के लिए अनुशासित की गई हैं।

सही समय पर बुवाईः 

बारानी खेती में समय पर बुवाई करना बहुत महत्वपूर्ण है। खरीफ की बुवाई मानसून की प्रथम वर्षा के साथ ही करें, इससे बीजों का अच्छा जमाव होता है और वर्षा से पूरा लाभ मिलता है। खरीफ में बुवाई का उपयुक्त समय मध्य जून से जुलाई के पहले सप्ताह में होता है। अगर समय पर वर्षा हो रही है, तो सबसे पहले खाद्यान्न फसलों की बुवाई करें और इसके बाद दलहनी और तिलहनी फसलों की बुवाई करें। 

बुवाई विधिः बीज को कर कर कतारों में बोयें, कतारों के बीच की दूरी बढ़ाना भी पानी की कमी होने की स्थिति में लाभदायक रहता है। ऊर कर बोने से बीज उपयुक्त गहराई पर नमी क्षेत्र में गिरता है और अंकुरण सुनिश्चित हो जाता है। छिड़काव विधि से बुवाई नहीं करनी चाहिए इससे बीज की अधिक मात्रा भी लगती है। ढलान वाले खेतों में बीज की बुवाई दाल के विपरीत दिशा में करनी चाहिए। 

पौधों की संख्या: बारानी क्षेत्रों में अंकुरण प्रायः कम होता है। इसलिए पौधों की समुचित संख्या बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस पर उत्पादन निर्भर करता है। इस कारण से प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा सामान्य से 20 प्रतिशत अधिक रखी जाती है। अंकुरण के बाद पास-पास घने उगे पौधों में से कमजोर रोगी पौधों और खरपतवारों को उखाड़ देना चाहिए, अन्यथा पौधों की अधिक संख्या से पौधों का पूर्ण विकास नहीं होता है तथा उपलब्ध सीमित जल का उपयोग पौधों की वानस्पतिक वृद्धि में ही हो पाता है। फूल और दाना बनने की अवस्था में नमी की कमी हो जाती है। फलस्वरूप दाना बनता ही नहीं और यदि बनता है तो पतला रह जाता है। इसलिए प्रति इकाई क्षेत्र में पौधों की संख्या को कम रखना चाहिए, लेकिन यह कतारों के बीच की दूरी बढ़ाकर करना चाहिए ताकि भूमि में लंबे समय तक नमी बनी रहे। 

मिलवां फसलः बारानी खेती में अंतराशस्य और मिलवां फसलों को बोना लाभदायक होता है। विभिन्न। फसलों को अलग-अलग कतारों में एक निश्चित अनुपात में बोना चाहिए। उपयुक्त अंतराशस्य लेने से मुख्य फसल की उपज पर कोई अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ता और लाभ में वृद्धि होती है, साथ ही सूखे के कुप्रभाव से भी बचाव होता है। अंतराशस्य हेतु एक फसल अधिक ऊंचाई वाली होनी चाहिए, दूसरी कम ऊंचाई वाली या एक फसल गहरी जड़ वाली तथा दूसरी कम गहरी जड़ों वाली। खरपतवार नियंत्रणः खरपतवार फसल से अधिक तीव्रता से नमी का शोषण करने के साथ-साथ पोषक तत्वों का भी उपयोग करते हैं, इसलिए फसल की 20 से 25 दिन की अवस्था पर निरंतर निगरानी कर खरपतवारों को निकाल देना चाहिए। सूखे की स्थिति में भूमि की ऊपरी परत को गुड़गोभरी करना चाहिए, ताकि सचित नमी केपिलरी ट्यूब (केशनल) द्वारा वाष्पीकरण से उड़कर नष्ट नहीं हो, और पौधों की वृद्धि में काम आए। खरपतवार नियंत्रण हेतु कुली (बक्खर) का उपयोग करें, ताकि खेत में नमी संरक्षित रहे। 

उर्वरक प्रबंधनः शुष्क खेती में जैविक खाद (गोबर की खाद कम्पोस्ट) देने से पौधों को आवश्यक पोषक तत्व मिलते हैं और भूमि की उर्वरता शक्ति लंबे समय तक बनी रहती है। भूमि की भौतिक संरचना में सुधार होता है और जल धारण क्षमता बढ़ती है। सूक्ष्म जैविक संघटक सक्रिय हो जाते हैं और पोषक तत्व पौधों को प्राप्त होते हैं। बुवाई के समय उर्वरक देने से पौधों की वृद्धि के साथ-साथ उनकी जड़ों की भी वृद्धि होती है, जिससे भूमि की गहरी सतह से भी पौधा नमी ग्रहण कर सकता है, सूखे सहन करने की क्षमता बढ़ती है और शिथिलांक (विल्टिंग पोइंट) देर से आता है। नमी अभाव में भी उर्वरक दी हुई फसल से दाना और चारे की उत्पादन प्राप्त हो जाता है, जबकि अन्य फसलें सूख जाती हैं। खाद्यात्र फसलों में नत्रजन की आधी और फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय देनी चाहिए, और शेष नत्रजन फसल की 20-30 दिन की अवस्था पर वर्षा होने पर देनी चाहिए। दलहनी फसलों में उर्वरकों की पूरी मात्रा ऊर कर देनी चाहिए। गोबर की खाद और फॉस्फोरस व सल्फर युक्त उर्वरक बुवाई पूर्व देने से दलहनी फसलों की जड़ों में गांठों की बढ़ोतरी होती है।

पौध संरक्षणः 

तना गलन, जड़ गलन आदि रोगों के कारण बीज कम उगते हैं, या उपकर नष्ट हो जाते हैं। खरीफ फसलों जैसे बाजरा के एक किलोग्राम बीज को 3 ग्राम थाइरम से और मूंग, मोठ के एक किलोग्राम बीज को 3 ग्राम केप्टान से उपचारित करें। बाजरा को हरित बाली रोग से बचाने के लिए 6 ग्राम एप्रोन (35 एस.डी.) से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करें। ग्वार में अंगमारी रोग की रोकथाम के लिए एक ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन को 10 लीटर पानी में घोलकर 3 घंटे तक बीज को भिगाएं। सामान्यतः फसलों में रस चूसने और काटकर कुतरकर हानि पहुंचाने वाले कीटों का प्रकोप होता है। रस चूसने वाले कीटों जैसे मोयलाध्चेंपा, तेला, थ्रिप्स, सफेद मक्खी, मकड़ी आदि कीट प्रायः पत्तियों की निचली सतह पर पाए जाते हैं। इनकी रोकथाम के लिए मिथाइल डिमेटोन 25 ई.सी., बइमिथोएट 30 ई.सी., मोनोक्रोटोफास 36 एस. एल. आदि में से किसी एक दवा की एक लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। इसी तरह पौधों के ऊपरी भागों को काटकर/कुतरकर खाने वाली लटों/सूडियों, फड़का, काटरा आदि कीटों की रोकथाम के लिए क्यूनालफोस 25 ई.सी., मोनोक्रोटोफास 36 एस. एल., मैलाथाइयोन 50 ई.सी. आदि में से किसी एक दवा की एक लीटर प्रति हे. की दर से छिड़काव करें। अंग है। के भारत में वर्षा आधारित खेती कृषि क्षेत्र का एक गतिशील और अभिन्न है, जो खाद्य उत्पादन और ग्रामीण आजीविका में महत्वपूर्ण योगदान देता परिवर्तनशील वर्षा, मृदा स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो पारंपरिक ज्ञान, संधारणीय प्रथाओं, सरकारी सहायता और तकनीकी हस्तक्षेपों को जोड़ती है। जैसा कि भारत कृषि विकास और खाद्य सुरक्षा के लिए अपने प्रयासों को जारी रखता है, वर्षा आधारित खेती प्रणालियों की अनूठी जरूरतों को संबोधित करना कृषक समुदाय की भलाई और समग्र रूप से कृषि क्षेत्र की लचीलापन सुनिश्चित करने के लिए सर्वोपरि रहेगा। आधुनिक तकनीकों, संधारणीय प्रथाओं और समुदाय-आधारित दृष्टिकोणों का एकीकरण भारत में वर्षा आधारित कृषि के भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका। निभाएगा। इस संदर्भ में, कृषि क्षेत्र को टिकाऊ और जलवायु परिवर्तन के प्रति प्रतिरोधी बनाने के लिए वर्षा आधारित कृषि पर ध्यान केंद्रित करना अनिवार्य है।


लेखकगण - 
राघव सिंह मीना, डॉ. दिनेश कुमार डॉ. रविन्द्र सिंह शेखावत भा.कृ.अ.प. केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, प्रादेशिक अनुसंधान स्थात्र बीकानेर (राजस्थान) 

स्रोत - मध्य भारत कृषक भारती, सितम्बर 2024
 

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Post By: Kesar Singh
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