बिहार सरकार, जल संसाधन विभाग

थीम पेपर, 02 अप्रैल 2003
नदियों को जोड़कर अतिरेक जल वाली नदी घाटी से जल की कमी वाली नदी घाटी में जल के अन्तरण की योजना तथा बिहार पर इसके प्रभाव
प्रस्तावना
विगत कुछ महीनों में भारत की नदियों को जोड़कर अन्तरघाटी जल के अन्तरण की योजना की आवश्यकता एक अहम मुद्दे के रूप में उभरकर सामने आयी है। स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को सम्बोधित अपने अभिभाषण में महामहिम राष्ट्रपति जी ने कहा कि पर्यावरण की अक्षुण्णता बनाये रखते हुए खेतों, गाँवों, शहरों एवं उद्योगों को पूरे वर्ष उनकी जल की आवश्यकता की पूर्ति हमारे जल-मिशन का उद्देश्य हो, यह समय की माँग है। उनके अनुसार हमारी नदियों को जोड़ना इस जल-मिशन का एक मुख्य अंग होगा। बाद में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान भारत सरकार को यह निर्देश दिया गया कि वह नदियों को जोड़ने की योजना को वर्ष 2012 तक पूरा करने हेतु आवश्यक कदम उठावें।

भारत सरकार के जल संसाधन मन्त्रालय द्वारा नदियों को जोड़ने की योजना से सम्बन्धित विभिन्न मुद्दों पर विचारार्थ माननीय सांसद श्री सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक कार्यबल (Task Force) का गठन किया गया है। इस टास्क फोर्स को दिए गए विचारणीय बिन्दुओं में संघ के राज्यों के बीच शीघ्र सर्वसम्मति स्थापित करने हेतु आवश्यक उपयुक्त संयंत्र की युक्ति करना है। इन विचारणीय बिन्दुओं में कतिपय परियोजना अवयवों से सम्बन्धित अन्तरराष्ट्रीय पहलुओं पर विचार किया जाना भी सम्मिलित है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अधिसूचना में परियोजना के विभिन्न पहलुओं के सम्बन्ध में संघ के राज्यों के बीच मतों में विभिन्नता और परियोजना के अन्तरराष्ट्रीय पहलुओं का संज्ञान लिया गया है।

टास्क फोर्स में तीन पूर्णकालिक तथा पाँच अंशकालिक सदस्य हैं। पाँच अंशकालिक सदस्यों में से जल अतिरेक राज्य तथा जल की कमी वाले राज्यों से एक-एक सदस्य हैं। स्पष्टतया इस विषय पर राज्यों के परिदृश्य इस बात पर निर्भर करेंगे कि वे जल की कमी वाले राज्य हैं अथवा अतिरेक जल वाले। वास्तव में यह राज्य विशेष के विकास के स्तर पर भी निर्भर करेगा।

बिहार के लिए इस विषय से सम्बन्धित सभी विषयों की पूर्णता में विषयनिष्ठ दृष्टि से विचार करना आवश्यक होगा ताकि यह तदनुकूल अपना दृष्टिकोण निर्धारित करे और आगामी विभिन्न विमर्शों में अपना दृढ़ मत प्रस्तुत कर सके। यह आवश्यक है कि राज्य के लोगों के हितों और अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके। इस पेपर का मुख्य उद्देश्य नदियों को जोड़ने की प्रस्तावित योजना पर बहस का आह्वान कर इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढना है कि यह योजना इस राज्य के लिए कहाँ तक लाभकारी होगी और इसे इसका क्या मूल्य चुकाना होगा? वर्तमान वर्ष 2003 संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा अन्तरराष्ट्रीय मृदु जल वर्ष (International Year of Fresh Water) घोषित किया गया है एवं यह उपयुक्त अवसर है कि हम अपने जल संसाधन को दृष्टिगत रखते हुए अपनी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप योजना सूत्रीकृत करें।

भूमिका
भारतीय परिप्रेक्ष्य में ‘नदियों को जोड़ने’ की अभिकल्पना का तात्पर्य जल संसाधन सम्पन्न ब्रह्मपुत्र और निचली गंगा घाटी के जल को पश्चिम की ओर अन्तरित कर अंतत: इसे जल की कमी वाले दक्षिणी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, सूखाग्रस्त राजस्थान और देश के प्रायद्वीपीय हिस्सों में अन्तरित करना है। इसका उद्देश्य देश के विभिन्न भागों में बहुधा एक ही साथ बाढ़ और सुखाड़ की हो रही समस्या का निदान ढूँढ़ना है। समस्या का कारण क्षेत्र और समय में अन्तर से वर्षापात के वितरण में भारी विभिन्नता है। इस प्रकार यह कथन कि नदियों को जोड़ने की यह योजना जल संसाधन के इष्टतम उपयोग के साथ-साथ बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा से बचाव करने का भी एक साधन होगा, अपने आप में सटीक और सही लगता है।

विशेषज्ञों की राय में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नदियों को जोड़ने की इस योजना से निम्नांकित लाभ होंगे :
1. देश में कुल उपयोग योग्य जल की मात्रा में बढ़ोत्तरी होगी।
2. देश के सूखा प्रवण क्षेत्रों में बेहतर जल उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकेगी।
3. बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में बाढ़ की विभीषिका कम की जा सकेगी।
4. इस परियोजना के अन्तर्गत विकसित की जाने वाली नहर प्रणाली से सस्ता और प्रदूषण मुक्त नौपरिवहन की सुविधा प्राप्त होगी। इससे वर्तमान रेलमार्ग और उच्च पथ प्रणालियों का वाहन-भार घटाने में सहायता मिलेगी।
5. विकास के उस स्तर पर जब पारम्परिक साधन से देश का कुल जल संसाधन उपयोग हो चुका होगा, नदियों को जोड़ने की योजना भावी विकास का एक मात्र विकल्प रह जाएगी।
6. इस विशाल परियोजना के लागू होने पर देश में बड़े पैमाने पर रोजगार तथा आर्थिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा।
7. देश में जल संसाधन विकास की एक समेकित योजना तैयार की जा सकेगी।

उपर्युक्त उपयोगिताओं के बावजूद योजना हेतु आवश्यक अत्यन्त ऊँची लागत राशि औरइसके पर्यावरणीय कुप्रभाव इस योजना की सम्भाव्यता के कमजोर पक्ष हैं।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
सर आर्थर कॉटन की योजना :

वर्ष 1839 के बाद दक्षिण भारत में जल संसाधन के विकास के जनक माने जाने वाले सर आर्थर कॉटन ने भारत में नौपरिवहन विकास के लिए भारतीय नदियों को जोड़ने की योजना बनायी थी। उस योजना के एक छोटे भाग का कार्यान्वयन भी किया गया था, लेकिन बाद में इसे रेलवे के पक्ष में त्याग दिया गया।

डा. के.एल.राव की योजना :
राष्ट्रीय स्तर पर एक नदी घाटी से दूसरी नदी घाटी की जल उपलब्धता में भारी अन्तर है। देश के गणमान्य अभियन्ता और तत्कालीन केन्द्रीय सिंचाई मन्त्री, डॉ. के.एल.राव, ने विभिन्न नदी घाटियों के बीच जल उपलब्धता में इस क्षेत्रीय विषमता की समस्या का समाधान करने और नौपरिवहन की सुविधा मुहैया कराने के उद्देश्य से एक राष्ट्रीय जल ग्रिड (National Water Grid) का प्रस्ताव दिया था। उनकी इस योजना में पटना के निकट गंगा नदी से एक लिंक नहर निकाल कर इसे क्रमश: सोन, नर्मदा, तापी, गोदावरी, कृष्णा और पेन्नार होते हुए अन्तत: कावेरी नदी में ग्रैण्ड एनीकट से मिलाने की अभिकल्पना की गई थी, जिसे गंगा-कावेरी योजना के नाम से जाना जाता है। 2640 किलोमीटर लम्बी इस लिंक नहर में गंगा नदी से 1680 क्यूसेक (60,0000 cusecs) बाढ़ मौसम के जलस्राव को पूरे वर्ष में 150 दिनों के लिए लेने की योजना थी। इसमें से 1400 क्यूसेक (50,000 cusecs) पानी को 450 मीटर की ऊँचाई में पम्प कर प्रायद्वीपीय क्षेत्र में इस्तेमाल किया जाना तथा शेष 10,000 क्यूसेक्स को गंगा नदी घाटी में ही व्यवहार किये जाने का प्रावधान था। यह परियोजना, सम्भवतया, अपनी अत्यन्त ऊँची लागत राशि के कारण मात्र एक परिकल्पना ही रह गई।

कैप्टन दस्तूर की माला नहर (गारलैण्ड कैनाल) - 1974 :
कैप्टन दस्तूर द्वारा परिकल्पित गारलैंड नहर दो भागों में बंटी थी। प्रथम भाग में 4200 किलोमीटर लम्बी और 300 मीटर चौड़ी हिमालयन नहर, जिसे हिमालय के दक्षिणी ढाल के किनारे रावी नदी से ब्रह्मपुत्र नदी और आगे तक निर्माण तथा दूसरे भाग में 9300 किलोमीटर लम्बी और 300 मीटर चौड़ी केन्द्रीय तथा दक्षिणी माला नहर का निर्माण प्रस्तावित था। इन दोनों भागों को दो जगहों पर (पटना तथा दिल्ली में) 3.7 मीटर व्यास वाली 5 पाइप के माध्यम से जोड़ा जाना प्रस्तावित था। परन्तु दस्तूर की यह योजना मात्र काल्पनिक बनकर रह गई और इस पर विशेषज्ञों द्वारा असहमति जताई गई।

एकीकृत जल संसाधन विकास हेतु राष्ट्रीय आयोग
भारत सरकार के जल संसाधन मन्त्रालय द्वारा वर्ष 1997 में डॉ. एस.आर हाशिम, सदस्य, योजना आयोग की अध्यक्षता में एकीकृत जल संसाधन विकास हेतु राष्ट्रीय आयोग गठित किया गया, जिसके विचारणीय बिन्दुओं में से निम्नांकित भी था:

'नदियों को जोड़ कर जल की कमी वाली नदी घाटी में अतिरेक जल के अन्तरण के उद्देश्य की पूर्ति हेतु आवश्यक Modalities का सुझाव देना'।

इस आयोग ने अपना प्रतिवेदन वर्ष 2000 में समर्पित किया। इसके प्रतिवेदन में उठाए गए कई बिन्दु इस सम्बन्ध में आयोग के रुख प्रतिबिम्बित करते हैं, जिनका उल्लेख नीचे किया जा रहा है :

क. इस कार्य में आवश्यक संचयन संरचनाओं और लिंक नहरों के वृहद् आकार और लम्बाई के कारण निर्माण कार्य की लागत और पर्यावरण समस्याओं का आयाम अत्यन्त विशाल होगा। ये तभी विचारणीय हो सकते हैं जब राष्ट्रीय हित में इन्हें अपरिहार्य समझा जाए।
ख. आयोग के अनुसार प्रकाशित सूचनाओं के आधार पर इसका यह मत है कि सिस्टम विश्लेषण तकनीक का उपयोग कर और विस्तृत अध्ययन करने के उपरान्त ही हिमालयी अवयव के सम्बन्ध में दृष्टिकोण निर्धारित किया जा सकता है। इसके अनुसार आगामी कुछ दशकों में इसके कार्यान्वयन की सम्भावना क्षीण है।
ग. अन्तरघाटीय अन्तरण में संचयन संरचना लम्बी-लम्बी नहरों तथा बड़ी संख्या में वृहद् नाला निनाल (Cross Drainage) कार्यों की आवश्यकता होगी, जिसके कारण जल जमाव की समस्या तथा सामान्य जल संसाधन परियोजनाओं की अपेक्षा अत्यधिक पर्यावरणीय कुप्रभाव पड़ने की सम्भावना है। जल अतिरेक राज्यों में पड़ने वाले इन पर्यावरणीय कुप्रभावों के कारण वहाँ इनका काफी विरोध अवश्यम्भावी है। निश्चय ही इसका पर्यावरण लॉबी तथा स्थानीय कुप्रभावित लोगों द्वारा तीव्र विरोध किया जाएगा। यदि लाभान्वित राज्य उस राज्य को, जहाँ से जल अन्तरित किया जा रहा है, इसकी क्षतिपूर्ति करें अथवा इसके बदले में कुछ प्रतिपूर्ति करें, जो आवश्यक नहीं कि जल प्रक्षेत्र से ही सम्बन्धित हो, तो उक्त विरोध को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।

आयोग की उपर्युक्त अभियुक्ति तर्कसंगत प्रतीत होती है।

राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण
देश में नदियों को जोड़ने के कार्य हेतु प्रारम्भिक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता को देखते हुए जुलाई, 1982 में ही भारत सरकार द्वारा जल संसाधन मन्त्रालय के अन्तर्गत राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण, जो एक स्वायत्तशासी संस्था है, गठित किया गया। इस अभिकरण को निम्नांकित कार्य सौंपे गये हैं :

क. देश में जल संसाधनों के इष्टतम उपयोग के लिए वैज्ञानिक विकास को उन्नत करना।
ख. सिंचाई मन्त्रालय (अब जल संसाधन मन्त्रालय) व केन्द्रीय जल आयोग द्वारा जल संसाधनों के विकास के लिए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के भाग प्रायद्वीपीय नदी विकास एवं हिमालय नदी विकास घटकों के प्रस्तावों की सम्भाव्यता स्थापित करने के लिए सम्भावित संचयी जलाशयों व अन्तरयोजित लिंकों का विस्तृत सर्वेक्षण व अन्वेषण करना।
ग. निकट भविष्य में बेसिन राज्यों की यथोचित आवश्यकताओं को पूर्ण करने के पश्चात् जिन विभिन्न प्रायद्वीपीय नदी तन्त्रों एवं हिमालय नदी तन्त्रों के जल को अन्य बेसिनों/राज्यों को अन्तरित किया जा सकता है, उनमें जल की प्रमात्रा का विस्तृत अध्ययन करना।
घ. प्रायद्वीपीय नदी विकास एवं हिमालय नदी विकास से सम्बन्धित योजनाओं के विभिन्न संघटकों की सम्भाव्यता रिपोर्ट तैयार करना।
ड. ऐसे सभी अन्य कार्य करना जिन्हें सोसाइटी उपर्युक्त उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अनिवार्य, प्रासंगिक, संपूरक या प्रेरक समझे।

नदियों को जोड़ने के कार्य का आकार अत्यन्त वृहद होगा। राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण द्वारा प्रायद्वीपीय अवयव तथा हिमालयीय अवयव के लिए निम्नांकित लिंकों का प्रस्ताव दिया गया है :

 

क्रमांक

प्रायद्वीपीय अवयव लिंकों के नाम

हिमालयीय अवयव

1

महानदी (मनिभद्रा) गोदावरी (डोलेस्वरम्)

कोशी-मेची

2

गोदावरी (इन्चाम्पली)-कृष्णा, (नागार्जुनसागर)

कोशी-घाघरा

3

गोदावरी (इन्चाम्पली)-लोडैम-कृष्णा (नागार्जुनसागर टेलपौंड)

गंडक-गंगा

4

गोदावरी (पोलावरम्-कृष्णा) विजयवाड़ा)

घाघरा-यमुना

5

कृष्णाा (अलमटी-पेन्नार)

शारदा-यमुना

6

कृष्णा (श्रीसैलम-पेन्नार)

यमुना-राजस्थान

7

कृष्णा (नागार्जुनसागर-पेन्नार)

राजस्थान-साबरमती

8

पेन्नार (सोमसिला)-कावेरी (ग्रैंड एनीकट)

चुनार-सोनबराज

9

कावेरी (कटालय)-वैगे-गुण्डर

सोन डैम-गंगा का दक्षिणी वितरणी

10

केन-बेतवा

ब्रह्मपुत्र-गंगा

11

पार्वती-कालीसिंध-चम्बल

ब्रह्मपुत्र-गंगा

12

पर-तापी-नर्मदी

फरक्का-सुन्दरवन

13

दमनगंगा-पिंजल

गंगा-दामोदर-स्वर्णरेखा

14

बेदती-वारदा

स्वर्णरेखा-महानदी

15

नेत्रावती-हेमावती

 

16

पम्बा-अचनकोविल-वैप्पा

 

 



राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण द्वारा निर्धारित लक्ष्य के अनुसार विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यकलापोंको पूरा करने हेतु निम्नांकित लक्ष्य वर्ष निर्धारित किए गए हैं :

परिप्रेक्ष्य योजना हेतु कार्यक्रम

 

क्रमांक

मद

कार्यक्रम

1

सम्भाव्यता प्रतिवेदन की तैयारी

प्रायद्वीप

हिमालयीय



2004

2008

2

समझौता एवं एकरारनामा का हस्ताक्षर इत्यादि

प्रायद्वीप

हिमालयीय




2009

2015

3

डीपीआर की तैयारी

प्रायद्वीप

हिमालयीय


2015

2020

4

तकनीकी इकोनौमिक एप्रेजल एवं इन्वेस्टमेंट क्लीयरेन्स

प्रायद्वीप

हिमालयीय




2017

2023

5

लिंक योजना के निर्माणकार्य का शुभारम्भ

प्रायद्वीप






हिमालयीय



2012 से 2020 अधिकतम 2012 से 2017 के बीच शुभारम्भ


2012 से 2028 एवं 2020 से 2025 के बीच शुभारम्भ

6.

लिंक योजना की तैयारी

प्रायद्वीप


हिमालयीय


2017 से 2035 के बीच

2020 से 2043 के बीच

 



ऊपर की विवरणी से यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि किये जाने वाले कार्यों का परिमाण अत्यन्त वृहद और अभूतपूर्व होगा। स्पष्टतया, इनके लिए लक्ष्य-वर्ष विभिन्न बाध्यताओं यथा निधि, सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय समस्याओं पर बिना विचार किए निर्धारित किए गए हैं। वास्तव में वर्तमान में मात्र सम्भाव्यता अध्ययन किए जा रहे हैं तथा योजना की तकनीकी सम्भाव्यता और आर्थिक व्यवहार्यता स्थापित करने में अभी काफी कुछ किया जाना होगा।

जो भी हो, यह स्पष्टत: देखा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक निकाय द्वारा नदियों को जोड़ने के कार्य से सम्बन्धित अध्ययन कार्य किए जा रहे हैं।

यह देखा जा सकता है कि प्रायद्वीपीय अवयव को प्राथमिकता दी जा रही है जो सहज है। किन्तु, बिहार जैसे बाढ़ग्रस्त राज्य को भी समानान्तर स्तर में रखते हुए कोसी-मेची, कोसी-घाघरा, चुनार-सोन बराज तथा सोन-बांध-गंगा की दक्षिणी सहायक नदियों के सम्भाव्यता अध्ययन भी वर्ष 2004 तक पूरे कर लिए जाने चाहिए।

भारत सरकार के जल संसाधन मन्त्रालय द्वारा नदियों को जोड़ने हेतु टास्क फोर्स के गठन की अधिसूचना के अनुसार नदियों को जोड़ने के कार्य को वर्ष 2016 तक पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसके विभिन्न कार्य-कलापों के लिए निम्नांकित लक्ष्य तिथियाँ तय हुई हैं :

 

क्रमांक

कार्यकलाप

लक्ष्य तिथि

1

टास्कफोर्स के गठन की अधिसूचना

16.12.2002

2

सम्भाव्यता अध्ययन पूरा करने के कार्यक्रम की रूप-रेखा विस्तृत योजना प्रतिवेदना, प्राक्कलित राशि कार्यान्वयन कार्यक्रम, परियोजना से लाभ आदि की रूप-रेखा देते हुए कार्य योजना-I तैयार करना

30.4.2003

3

परियोजना हेतु निधि की व्यवस्था, इसके कार्यान्वयन और लागत राशि की वसूली के सम्बन्ध में विभिन्न विकल्पों का उल्लेख करते हुए कार्य योजना-II तैयार करना

31.7.2003

4

मुख्यमन्त्रियों के साथ परियोजना पर विमर्श कर उनका सहयोग प्राप्त करना

मई/जून 2003

5

सम्भाव्यता अध्ययन पूरा रना (प्रगति में)

31.12.2005

6

विस्तृत योजना प्रतिवेदन पूरा करना (यह कार्य सम्भाव्यता प्रतिवेदन के साथ आरम्भ होगा, चूँकि 6 नदी लिंकों के लिए सम्भाव्यता अध्ययन का कार्य पूरा हो गया है)

31.12.2006

7

परियोजना का कार्यान्वयन (10 वर्ष)

31.12.2016

 



राष्ट्रीय जल नीति 2002
प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता और संघ के राज्यों के मुख्यमन्त्रियों के प्रतिनिधित्व वाली राष्ट्रीय जलसंसाधन परिषद की दिनांक पहली अप्रैल, 2002 को सम्पन्न पाँचवीं बैठक में संशोधित राष्ट्रीय जल नीति लागू की गई, जिसे इस बीच प्रचारित भी कर दिया गया है। इस नीति की प्रासंगिक कण्डिकाएं निम्नांकित हैं:

3.5 राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य पर आधारित क्षेत्रों और बेसिनों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए, जल की कमी वाले क्षेत्रों को अन्य क्षेत्रों से जल अन्तरण द्वारा जल उपलब्ध कराया जाना चाहिए, इसमें एक नदी बेसिन से दूसरी नदी बेसिन में जल का अन्तरण भी शामिल हो।

19.1 सूखा प्रवण क्षेत्रों में मृदा-नमी संरक्षण उपायों, जल संचयन पद्धतियों, वाष्पीकरण हानियों को कम करके, पुनर्भरण सहित भू-जल क्षमता के विकास तथा जहाँ व्यावहारिक और उपयुक्त हो, वहाँ अधिशेष जल वाले क्षेत्रों से सतही जल का अन्तरण करके सूखे से सम्बन्धित समस्याओं को कम किया जाना चाहिए।

इस प्रकार नदी घाटियों से उनकी विधि सम्मत आवश्यकताओं की पूर्ति के उपरान्त जल केअन्तरघाटी अन्तरण को राष्ट्रीय जल नीति में मान्यता दी गई है।

गैर नदी घाटी वाले राज्यों में जल का अन्तर नदी घाटी अन्तरण भारत में तथा अन्तरराष्ट्रीय अनुभव
भारत में अनुभव - जल संसाधन के एकीकृत विकास हेतु राष्ट्रीय आयोग के अन्तर बेसिन जल के अन्तरण सम्बन्धी वर्किंग ग्रुप के प्रतिवेदन में भारत में इस प्रकार की तीन महत्त्वपूर्ण योजनाओं का उल्लेख है, जिसमें जल का अन्तर-बेसिन अन्तरण होता है :

क. केरल में अवस्थित मूला पेरियार बांध से पेरियार नदी (जो पुरी से केरल राज्य में बहने वाली नदी है) के जल का तमिलनाडु में सिंचाई हेतु अन्तरण। बाद में इस पर जल विद्युत योजना का भी निर्माण किया गया है।
ख. कृष्णा नदी के तीनों सह-घाटी राज्यों द्वारा अपने-अपने हिस्से से चेन्नई शहर की जलआवश्यकता की पूर्ति हेतु 5-5 टीएमसी जल उपलब्ध कराने पर सहमति दी गई है।
ग. नर्मदा सह-घाटी राज्यों द्वारा एक एकरारनामा के तहत राजस्थान राज्य, जो नर्मदा घाटी का एक गैर-बेसिन राज्य है, को नर्मदा नदी के जल में 5 लाख एकड़ फीट जल के उपयोग का अधिकार दिया गया है।

अन्तरराष्ट्रीय अनुभव - उत्तरी कैलिफोर्निया में सैक्रामेन्टो नदी के मौसमी जल प्रवाह कोकैलिफोर्निया राज्य जल परियोजना द्वारा एक संचयन जलाशय से दक्षिणी भाग की नागरिक/औद्योगिक जलापूर्ति की आवश्यकता हेतु जल का अन्तरण संयुक्त राज्य अमेरिका में इस प्रकार का सर्वाधिक उल्लेखनीय उदाहरण है। इस योजना में कुल 1000 मीटर लिफ्ट वाला 715 किलोमीटर लम्बा कैलिफोर्निया एक्वेडक्ट है। कनाडा में भी जल के अन्तरघाटी अन्तरण के एक दर्जन से ज्यादा उदाहरण हैं, जिनमें मुख्यतया जल विद्युत उत्पादित होता है।

तत्कालीन सोवियत संघ में वृहद नहर प्रणाली द्वारा साइबेरिया की नदियों के जल का अन्तरण कर इसे कजाकिस्तान की जल की कमी वाली नदियों से जोड़ने की योजना थी। बर्फ पिघलने से विराट जल-राशि वाली साइबेरिया की नदियों को मध्य एशिया की अमू-दरिया और सिर-दरिया नदियों को जोड़ने हेतु 2200 किलोमीटर लम्बी नहर का निर्माण इस परियोजना का मुख्य अंग था। बाद में पारिस्थितिकी के दृष्टिकोण से इस योजना को छोड़ दिया गया।

समाचार माध्यमों की राय
जहाँ तक समाचार-माध्यमों की राय का प्रश्न है, अधिकांशत: इस योजना पर प्रश्नचिह्न लगाया गया है जबकि बहुत कम ने इसका स्वागत किया। इस परियोजना पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों के कथन का मुख्य तात्पर्य निम्नांकित है :

क. आने वाली अत्यन्त ऊँची लागत राशि (जो वर्तमान में रुपये 5,60,000 करोड़ आंकी गई है) के कारण वित्तीय दृष्टि से यह सम्भव नहीं लगता है।
ख. देश के उत्तरी भाग से दक्षिण के पठारी भाग में जल को लिफ्ट करने हेतु आवश्यक अत्यधिक विद्युत-ऊर्जा इस परियोजना को पूर्णतया अव्यावहारिक बना देता है।
ग. असंख्य जलाशयों और बराजों के साथ-साथ राष्ट्रव्यापी नहर प्रणाली वाली यह विशालकाय परियोजना पारिस्थितिकी को अत्यन्त विपरीत रूप से प्रभावित करेगी। इसके कारण कमजोर वर्ग और दरिद्र होंगे, पुनर्वास और पुनर्स्थापन की समस्या का प्रबन्धन, जल जमाव और मृदा-लवणता की समस्या पैदा होगी तथा दूर-दराज में फैले वनों को जोड़ने वाले गलियारों के मार्ग टूट जाने के कारण वन्य-प्राणियों के आवास-स्थल अस्त-व्यस्त हो जाएंगे। इस प्रकार यह योजना पर्यावरणीय विपत्ति का कारण बन सकती है ।
घ. इस परियोजना के कार्यान्वयन हेतु संघ के राज्यों की सम्मति अनिवार्य होने के कारण यह सम्भव है कि अंतत: यह कल्पना मात्र रह जाए। वास्तव में इस दिशा में हमारे अनुभव बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं हैं। जहाँ एक ओर कावेरी जल विवाद कर्नाटक और तमिलनाडु की जनता और सरकारों के बीच उग्र रूप धारण करती जा रही है वहीं यमुना नदी के जल की हिस्सेदारी के विषय पर पंजाब और हरियाणा का रुख परस्पर विरोधी है। इस विषय पर राज्यों के अलग-अलग दृष्टिकोण के साथ-साथ, इसके अन्तरराष्ट्रीय पहलू जटिल और संवेदनशील हैं।
निःसन्देह ऊपर व्यक्त विन्दुओं में से कई ऐसे हैं जो सुसंगत लगते हैं और जिन्हें सहज ही नकारा नहीं जा सकता है। विभिन्न स्तरों पर भविष्य में होने वाले विचार-विमर्श में इन पर गम्भीर रूप से चिन्तन अपेक्षित होगा।

बिहार का पक्ष
बिहार सरकार द्वारा इस विषय की गहन समीक्षा के उपरान्त यह महसूस किया जा रहा है कि राष्ट्रीय पैमाने पर जल के अन्तरघाटी अन्तरण से सम्बन्धित निर्णय निर्धारण की प्रक्रिया में निम्नांकित विन्दुओं पर विचार किया जाना आवश्यक होगा :

क. सर्वप्रथम सब-बेसिनों (एक बेसिन के अन्दर के) को जोड़कर इनके जल की आवश्यकता पूरी की जाए और तत्पश्चात इनके मूल्यांकन के बाद ही बेसिन को जोड़ने का कार्य किया जाए। इससे जहाँ एक ओर न्यूनतम लागत पर अधिकतम लाभ होगा, वहीं बेसिन में अतिरेक जल का वास्तविक आकलन भी सम्भव होगा। साथ ही यह अनुभव बाद में वृहद पैमाने पर बेसिनों को जोड़ने के कार्य में भी सहायक होगा।
ख. नदियों को जोड़कर जल के अन्तर-बेसिन अन्तरण के कार्य की अत्यन्त ऊँची लागतराशि के कारण यह आवश्यक होगा कि जल की कमी वाले बेसिनों के फसल-चक्र में सुधार कर कम जल की खपत वाली फसल-प्रणाली अपनाई जाये।
ग. यह महत्वपूर्ण निर्णय होगा कि अत्यन्त ऊँची लागत राशि द्वारा जल का सुदूर अन्तरण कर जल की कमी वाले बेसिन में कृषि उत्पादकता बढ़ाई जाए अथवा अपेक्षाकृत कम लागत में ही जल संसाधन सम्पन्न बेसिन में बेहतर प्रबन्धन के माध्यम से कृषि उत्पादकता वृद्धि के उसी उद्देश्य हेतु योजनाएं सूत्रीकृत की जाएं। यह एक विरोधाभास ही कहा जाएगा कि अतिरेक जल माने जाने वाले कई राज्य में कृषि उत्पादकता काफी कम है।
वास्तव में, उपर्युक्त दो विकल्पों की आर्थिक व्यवहार्यता का विश्लेषण करके ही इनके इष्टतम संयोग के एक युक्तिसंगत निर्णय पर पहुँचा जा सकता है।
घ. जहाँ तक 'जल-अतिरेक' और 'जल की कमी' वाले क्षेत्रों का प्रश्न है, इसके लिए निम्नांकित कसौटी विचारणीय है:

(i) 'अतिरेक जल' का आकलन भविष्य में प्रक्षेपित जल की आवश्यकता एवं राज्यों के विकास का स्तर, जो भिन्न-भिन्न है, को एक समरूप स्तर पर मानकर किया जाए।
(i) जल सम्पन्न बेसिन में महत्तम कृषि की उत्पादकता के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आवश्यक जल की प्रक्षेपित मात्रा ही कृषि प्रक्षेत्र में जल की आवश्यकता मानी जाए।
(II) ‘जल की कमी' वाले क्षेत्र के लिए यह आवश्यक हो कि वहाँ कम जल उपयोग वाली युक्तियों (Water Saving Devices) का प्रयोग किया जा रहा हो तथा जल की कमी उसके बावजूद हो।(iii) ‘जल की कमी’ उनकी फसल प्रणाली में परिलक्षित होती है।

‘अतिरेक जल’ वाले बेसिन, जहाँ से जल का अन्तरण 'जल की कमी' वाली बेसिन में किया जाएगा, को इसके एवज में क्या सुविधा प्राप्त होगी?

निश्चय ही इस विशालकाय परियोजना से असंख्य और अभूतपूर्व समस्याएं जुडी हैं। ऊपर उल्लिखित बिन्दुओं को संकेतात्मक माना जा सकता है तथा आशा है कि ये इस विषय पर परिचर्चा में सहायक होंगे।

Path Alias

/articles/baihaara-sarakaara-jala-sansaadhana-vaibhaaga

Post By: Hindi
×