जल हमारी सभी प्राकृतिक संपत्तियों में सबसे कीमती है। जल के बिना जीवन की कल्पना करना असंभव है। धरती पर जल के तीन प्राकृतिक स्रोत है। वर्षा जल, भूजल और सतही जल । पृथ्वी के समस्त जल का 96.5 प्रतिशत समुद्री जल है जो कि सतही जल के श्रेणी में आता है। पृथ्वी का 3.5 प्रतिशत जल ही ताजा पानी है जिसे धरती पर पशु और पौधे इस्तेमाल करते हैं।
3.5% उपयोग युक्त मीठा पानी (freshwater) में कुछ पानी सतह पर रह जाते हैं जैसे की नदी, तालाब, ताल, जिसे ब्लू वाटर भी कहा जाता है। और बाकी जल धरती में भूजल एवं मिट्टी में नमी के रूप में रहते हैं, जिसे ग्रीन-वाटर भी कहा जाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण वायुमंडल का तापमान बढ़ता जा रहा है, जिसके कारण मीठा पानी का भी संकट हो रहा है। फ्लोराइड भू-पटल में बहुतायत से पाया जाने वाला तेरहवां तत्व है। भूजल में फ्लोराइड का प्रदूषण चट्टानों और अवसादों का अपक्षय और उनमें फ्लोराइड युक्त खनिजों के लीचिंग के कारण होता है। इनके अतिरिक्त उर्वरक और एल्यूमीनियम फैक्टरी के अवशिष्ट जल के भूजल में मिलने से भी पानी फ्लोराइड युक्त हो सकता है। फ्लोराइड की मात्रा कुछ खाद्य पदार्थों में भी अधिक होता है जैसे की समुद्री मछली, पनीर, तुलसी एवं चाय, खाद्य-सामग्री में फ्लोराइड की मात्रा मुख्यतः मिट्टी के प्रकार, भू-पटल में उपस्थित लवणों एवं उपलब्ध पानी पर निर्भर करती हैं। पशु एवम् मनुष्य के शरीर में फ्लोराइड अथवा हाइड्रोफ्लोरिक अम्ल के अधिक प्रवेश होने से फ्लोरोसिस रोग होता है। इसके कारण पशुओं में बाँझपन, उत्पादन घाटा, दांत, हड्डियां, खुर, सींग में विकृति, और अन्य शारीरिक अंग प्रभावित हो सकते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार प्रति लीटर पानी में फ्लोराइड की मात्रा 1.5 मिलीग्राम से अधिक नहीं होनी चाहिए। फ्लोरोसिस भारत में गंभीर समस्याओं में से एक है, क्योंकि लगभग 20 राज्य फ्लोराइड से ग्रसित बताये गए हैं, जिनमें सबसे प्रमुख राज्यों में राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, झारखंड, बिहार आदि हैं। बिहार राज्य की लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग (पी.एचई.डी) के अनुसार बिहार के 11 जिलों में पेय जल स्रोत फ्लोराइड संदूषण से प्रभावित हैं। इस परिस्थिति में फ्लोराइड के जल में अधिक मात्रा में होने से पशुओं पर इसका कुप्रभाव एवं बचाव के उपाय के बारे में जानकारी रखना बहुत जरूरी हो जाता है।
बिहार राज्य में प्रभावित जिले
बिहार राज्य जनसंख्या के हिसाब से देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है। भौतिक और संरचनात्मक स्थितियों के आधार पर इसके तीन भाग हैं, 1. दक्षिणी पठार, 2. शिवालिक क्षेत्र और 3. गंगा का मैदानी भाग। इसके अलावा, बिहार का अपजाऊ मैदान खंड को गंगा नदी दो भागों (उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार ) में विभाजित करती है।
फ्लोरोसिस की समस्या दक्षिण बिहार के 11 जिलों के कई प्रखंडों से ज्ञात है। (टेबल 1) फ्लोराइड का इन जिलों के भूजल में होने का प्रमुख कारण जलभृत और चट्टानों की प्रकार से संबंधित है। बिहार में तेजी से शहरीकरण और व्यापक भूजल निकासी के चलते घटना जल स्तर भी फ्लोराइड संवर्धन के संभावित कारणों में से एक हो सकता है। बिहार के कुछ जिलों में मिट्टी में कुछ ऐसे खनिज पाए जाते हैं। जिसके कारण फ्लोराइड की मात्रा भूजल में बढ़ जाता है। हालांकि फ्लोराइड की मात्रा किसी जगह में उपस्थित उद्योग के प्रकार पर भी निर्भर करता पर्यावरण में फ्लोराइडयुक्त धुंए और अपशिष्टों को छोड़ते हैं।
बिहार के इन प्रभावित जिलों में इस प्रकार के उद्योग में प्रमुख है. ईंट भट्टे से राख, कोयला जलाने वाले बिजली पॉवर प्लांट, खनन उद्योग आदि। 20वीं पशुधन गणना के अनुसार (2019) बिहार राज्य में 3.65 करोड़ मवेशी की आबादी है जो की पूरे देश का भारत के पशुधन का 5.4% है। बिहार में 11 जिलों में लगभग 50 से 100 लाख मवेशी फ्लोराइड की जल में अधिक मात्रा होने से किसी न किसी तरीके से प्रभावित हो सकते है।
पशुओं में फ्लोराइड के स्रोत
मवेशी के लिए फ्लोराइड का स्रोत पानी और आहार है। ऐसे इलाकों में जहाँ औद्योगिक प्रदूषण या भूगर्भीय कारणों से फ्लोराइड की मात्रा पेयजल या सिंचाई जल में 1.5 पीपीएम से ज्यादा हो, उधर रहने वाले ए मनुष्य की तरह धीरे- धीरे फ्लुओरोसिस मे ग्रसित हो जाते हैं। फ्लोराइड की अधिक मात्रा में भूगर्भीय जान संदूषण होने से पशुओं में फ्लोराइड का जैव-संचय शरीर के कई अंगों एवं रक्त कोशिकाओं में होने लगता है। संदूषित जल का उपयोग खेती के लिए किये जाने से चारे और फसल में भी इसकी मात्रा बढ़ जाने से, ये भी मवेशी के स्रोत बन जाते हैं। पशुओं से प्राप्त उत्पाद जैसे की मूत्र इसका अवशेष आने लगता है। ऐसे क्षेत्रों में सरकार द्वारा पानी का उपचार और शुद्धि से उधर बसे मनुष्य इनके प्रभाव से बहुत हद तक सुरक्षित हो जाते है, लेकिन बेबस पशु संदूषित जल का सेवन करते रहते है और बीमार हो जाते है।
पशुओं में फ्लोरोसिस के लक्षण
फ्लोरीन एक सूक्ष्म तत्व है और शरीर के विकास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। पशु आमतौर पर बिना किसी प्रतिकूल प्रभाव के अपने आहार में थोड़ी मात्रा में फ्लोराइड का सेवन करते हैं और अनुकूल प्रभाव देता है । फ्लोराइड का अनुमेय सीमा से अधिक मात्रा का अंतर्ग्रहण पशुओं के लिए हानिकारक हो सकता है और फ्लोरोसिस की बीमारी से ग्रसित हो जाते है। फ्लोरोसिस एक जीर्ण रोग है। पशुओं में फ्लोरोसिस के लक्षण इस पर निर्भर करता है, कि ग्रसित पशु कितने दिनों से फ्लोराइड युक्त खाना पानी ले रहा है और इसकी मात्रा कितना अनुमेय सीमा से कितना अधिक है। इसके अलावा पशु के उम्र और प्रजाति पर भी निर्भर करता है। गौवंशी पशुओं में यह देखा गया है की कम उम्र के बछड़ों में इसका प्रभाव ज्यादा होता है। इसी प्रकार उससे क्षेत्र के बकरी और भेड़ कम प्रभावित होते हैं।
प्रभावित पशुओं में प्रमुख लक्षणों में विकृत विकासशील दांत या उनका भूरे रंग का हो जाना, मसूढ़ों का गलना, दांतों की जड़ों का उजागर होना और दांतों का असामान्य रूप से खराब होना, हड्डी कमजोर हो कर टेढ़ा होना, लँगडापन, खुर का बेडौल होना, रूखे झड़ते बाल, खाने में दिक्कत, शरीर का विकास रुक जाना, लार गिरना, रक्ताल्पता, कमजोरी, उत्पाद में कमी। इसके अलावा इन पशुओं में प्रजनन संबंधी समस्या भी ज्यादा होने लगता है, जैसे की लंबे समय तक प्रसवोत्तर एनोस्ट्रस (गरम नहीं होना), बार बार पाल नहीं रखना (Repeat breeding), योनी का बाहर आ जाना, आदि।
फ्लोरोसिस से हड्डियों में विकार
फ्लोरोसिस की जाँच (निदान) और उपचार
पशुओं में फ्लोरोसिस का संकेत उस क्षेत्र में भूजल में फ्लोराइड की मात्रा, ऐसे फैक्टरी का होना और कृषि कार्य में फ्लोराइड युक्त निविष्ठियां जैसे कीट नाशक, फॉस्फोरस उर्वरक से मिल सकता है। पशु के मूत्र में फ्लोराइड का मात्रा 5 पी.पी.एम से अधिक होना एवं खून की जाँच के बाद 0.2 पी.पी.एम से अधिक होना, फ्लोरोसिस के सांकेतिक हैं। ऊपर बताये लक्षणों से भी निदान संभव है। सामान्य मवेशियों में फ्लोराइड का स्तर, सीरम या प्लाज्मा में 0.2 पी.पी.एम और मूत्र में 2-6 पी.पी.एम तक होता है। फ्लोरोसिस ग्रसित पशुओं में इनका मात्रा इनसे 2-10 गुणा तक हो सकता है। फ्लोरोसिस का कोई विशिष्ट उपचार नहीं है। सबसे जरूरी उपाय है पशु को फ्लोराइड के स्रोत से अलग रखना या बचाना। पशुओं को साफ़ फ्लोराइड रहित या मापदंड के अनुरूप वाला जल ही देना चाहिए।
इमली का गुदा (20-30 ग्राम) या पत्तों को गुड़ में मिला कर देने से पशुओं में फ्लोरोसिस से फायदा देखा गया है। इमली का सेवन फ्लोराइड के मूत्र उत्सर्जन को बढ़ाकर फ्लोरोसिस की प्रगति में देरी करने में मदद कर सकता है। खाने में कैल्शियम या अलमुनियम मिश्रण ( 20-30 ग्राम) जैसे कैल्शियम कार्बोनेट, एल्यूमीनियम सल्फेट, पशु में फ्लोराइड के अवशोषण को कम और उत्सर्जन में वृद्धि कर, फ्लोरोसिस के नियंत्रण में मदद कर सकता है।
लेखक परिचय -
- रश्मि रेखा कुमारी (असिस्टेंट प्रोफेसर) भेषज व विष विज्ञान विभाग, बिहार वेटरनरी कॉलेज, पटना, बिहार
- मनोज कुमार त्रिपाठी, पंकज कुमार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का पूर्वी अनुसंधान परिसर, पटना
- मनीष कुमार (प्रोफेसर) जैव विज्ञान व जैव अभियांत्रिकी विभाग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान गुवाहाटी
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