बेंगलुरु की कूड़ा कथा


मंडूर गाँव में अब एक जाँच केंद्र इस काम के लिये बनाया जाएगा जो हर क्षेत्र से कूड़ा लेकर आने वाले ट्रकों की संख्या दर्ज कर सके। प्रत्येक क्षेत्र को वैज्ञानिक उपायों द्वारा समय विशेष में कम की गई कूड़े की मात्रा का उत्तरदायी बनाया जाएगा। बेंगलुरु के येलाहनका जैसे इलाके में कचरे से गैस बनाने का संयंत्र लगाया जा रहा है। लेकिन पास पड़ोस के लोग इस कचरे के ढेर को अपने यहाँ लगने देने को तैयार नहीं।

बेंगलुरु का मंडूर गाँव। सात सौ से ज्यादा पुलिस वालों ने वहाँ मार्च निकाल कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। क्यों? कोई दंगा फसाद नहीं था। मंडूर गाँव अब अपने यहाँ बेंगलुरु का कचरा नहीं डालने दे रहा था। लगातार प्रदर्शन और विरोध चल रहा था। जिला प्रशासन ने इस गाँव में धारा 144 लगा दी थी। दस से अधिक लोगों का एक साथ खड़ा होना निषिद्ध कर दिया गया था।

फिर भी लोग जमा हो रहे थे। सौ से अधिक लोगों को हिरासत में ले लिया था। पुलिस मार्च इस आंदोलन कोदबाने के लिये ही था। यानी जबरदस्ती शहर का कूड़ा गाँव में डालने। यह घटना 3 जून 2014 की है।

प्रशासन ने उन चौदह दिनों के प्रयास के बाद वहाँ कूड़ा डालने की अवधि को और पाँच महीने के लिये बढ़वा लिया। इसके बदले में उसने मंडूर के निवासियों से पिछले आठ सालों से किए जा रहे वादे को एक बार फिर पूरा करने की बात कही है।

प्रशासन का कहना है कि अब से वह गाँव में कूड़ा डालने से पहले उसे अलग-अलग छाँट लेगा। और उसे कुछ हद तक थोड़ा बहुत निथार लेगा।

लेकिन यह पहली बार नहीं है। जिला प्रशासन इससे पहले भी मंडूर क्षेत्र में शहर का कूड़ा डालने की अवधि को जबरदस्ती बढ़ाता रहा है। और न मंडूर बेंगलुरु का पहला गाँव है, जो अपने यहाँ कूड़ा डालने का विरोध कर रहा है। सन 2012 में मवल्लिपुरा गाँव ने भी ऐसा ही विरोध प्रदर्शन किया था। बाद में न्यायालय के निर्णय के बाद इस गाँव में कूड़ा-भराव को बंद कर दिया गया। मवल्लिपुरा संकट के बाद बेंगलुरु न्यायालय ने यह अनिवार्य बना दिया कि कूड़े को पहले से ही गीले और सूखे दो भागों में बांटकर डाला जाए। सन 2012 के न्यायालय के निर्णय से पहले शायद ही कहीं कचरे को इस तरह बांटा और निथारा जाता था। नौकरशाही की उदासीनता और भ्रष्टाचार की दया से यह सब हुआ है। इस पृष्ठभूमि में बेंगलुरु को अपना कचरा ठिकाने लगाने के मामले में पाँच महीने का चैन तो मिल गया है। पर यह नाकाफी है।

आज एक तेज दुर्गंध मंडूर गाँव की हवा में हर समय मौजूद रहती है। यह दुर्गंध वहीं पास में इकट्ठे किए जा रहे कूड़े के विशाल पर्वतनुमा ढेर से आती है। वृहत बेंगलुरु महानगर पालिका ने सन 2006 में शहर का कूड़ा इस गाँव में डालने का निर्णय लिया था। कचरा डालने के बाद उसे साफ भी करना था। इस काम के लिये उसने निजी क्षेत्र की दो कंपनियों को जिम्मेदारी दी। इन्हें वहाँ का नौ सौ टन कूड़ा रोज साफ करना था। लेकिन गाँव के किसान कहते हैं कि यह कभी हुआ ही नहीं बस ढेर पर ढेर लगता गया। गाँव के ही निवासी श्रीधर गोड़ा बताते हैं कि एक कंपनी ने तो कुछ भी नहीं किया, दूसरी ने अधिकारियों के आने से पहले ही सही कभी-कभी यह काम किया। एक तीसरी कंपनी भी है। इसे प्रतिदिन 2 लाख रुपए का ठेका इस बात के लिये दिया गया कि वह इस कूड़े पर एक खास तरह का छिड़काव करेगी ताकि कचरे के दुर्गंध और उसके कीटाणु मर जाएं। छिड़काव का काम एक या दो बार ही किया गया। तो इस काम के लिये मिली सारी रकम इस कंपनी और नगरपालिका के अधिकारियों की जेब में चली गई।

मंडूर गाँव में रोजाना 800 टन कूड़ा डालना तय किया गया था। लेकिन वहाँ के निवासी कहते हैं कि वास्तविक मात्रा इससे कहीं ज्यादा है। यहाँ हर रोज 400-500 ट्रक कूड़ा लेकर आते हैं। एक ट्रक में लगभग पाँच टन कूड़ा लाया जाता है। यह जोड़ 2000-2250 टन होता है- यह भी बेंगलुरु के रोजाना के कुछ कूड़े का आधा है।

साथ ही थोड़ा-सा कूड़ा जो बेंगलुरु में ढोते समय अलग-अलग छांटा जाता है, वह कूड़ा ढुलाई के वक्त गड्डमगड्ड हो जाता है।

इस कूड़ा भराव में पहले से ही 4 लाख टन कूड़ा पड़ा हुआ है। जहरीले रिसाव से भूमिगत जल तो दूषित हो ही गया है। इसने अमराई और अंगूर के बाग भी बर्बाद कर दिए हैं। हर परिवार का कोई न कोई व्यक्ति मलेरिया, निरंतर बने रहने वाले बुखार, वात और त्वचा रोगों से प्रभावित है। यह सब भी तब है जब वे पीने के लिये 30 रुपए की पानी की एक बड़ी बोतल खरीदते हैं। जी हाँ गाँव में भी पानी खरीद कर पीना पड़ता है। यहाँ का पानी तो सब बर्बाद हो चुका है।

अब नगरपालिका ने लिखित रूप में वादा किया है कि वह पाँच महीने के भीतर मंडूर कूड़ा-भराव को खत्म करेगी। कर्नाटक न्यायलय ने एक दिन बाद ही यह आदेश दिया कि वहाँ पड़े 4 लाख टन कूड़े को अगले दो साल में साफ किया जाए।

कंपनियाँ कूड़े का निबटान करने के नाम पर बड़ी मात्रा में पैसा कमा रही हैं। इन्हें इस काम को पूरा करने के लिये जमीन भी आवंटित की गई है। इस जमीन पर कंपनी ने 90 करोड़ का कर्ज भी ले लिया है। कमाई, कर्ज, सब है पर काम नहीं पूरा हो पाया है।

ऐसे अनेक शहरों की तरह यहाँ बेंगलुरु में भी कचरा माफिया बन गए हैं। नई कंपनियाँ सफल नहीं हो पाईं तो फिर से इनकी बारी आएगी। एक बड़ा शहर क्या क्या नहीं करता- यह हमें दिखता नहीं।

नगरपालिका कूड़ा भराव की नई योजना और स्थान की खोज में पूरी व्यग्रता से लगी रही है। पर सब व्यर्थ गया है। बेंगलुरु के आस-पास के उपनगर जैसे डोड्डाबल्लापुर, रामनगरम, तुमकुर और चिक्काबल्लापुर में पहले से ही बेंगलुरु का कूड़ा आ रहा है। फिर वे ऐसे उपनगर हैं जो आपस में ही अपने कूड़े की समस्या से जूझ रहे हैं। तुमकुर ने अभी हाल में कूड़ा संकट का सामना किया, जब अज्जागोडनहल्ली गाँव ने वहाँ कूड़ा डालने का विरोध किया।

डोड्डाबल्लापुर उपनगर में वहाँ रोजाना 400 टन बेंगलुरु का कूड़ा डालने का एकजुट होकर विरोध किया है। तोगरीगट्टा और कोडीकरेनहल्ली गाँव ने कह दिया है- कूड़ा डालने यहाँ न लाएं। अब बड़ा शहर बड़े संकट में है। कहाँ जाए वह?

ऐसे में हताश दिख रही नगरपालिका अब गीले कूड़े को किसानों को देने के नए विकल्प पर काम रही है। हर क्षेत्र में ऐसे किसानों की पहचान की जाएगी जो खाद बनाने, पशुओं के लिये और सुअरों को खिलाने के लिये गीला कूड़ा लेने को तैयार हैं। इससे मंडूर गाँव जाने वाले कूड़े की मात्रा घटाई जा सकती है।

मंडूर गाँव में अब एक जाँच केंद्र इस काम के लिये बनाया जाएगा जो हर क्षेत्र से कूड़ा लेकर आने वाले ट्रकों की संख्या दर्ज कर सके। प्रत्येक क्षेत्र को वैज्ञानिक उपायों द्वारा समय विशेष में कम की गई कूड़े की मात्रा का उत्तरदायी बनाया जाएगा। बेंगलुरु के येलाहनका जैसे इलाके में कचरे से गैस बनाने का संयंत्र लगाया जा रहा है। लेकिन पास पड़ोस के लोग इस कचरे के ढेर को अपने यहाँ लगने देने को तैयार नहीं।

इतना कूड़ा-कचरा उगलने वाले शहर भला कैसे टिक पाएंगे?

अंग्रेजी से हिन्दी: वेदप्रकाश सिंह

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