बच्चों के नाम, एक पाती पानी की

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प्रिय बच्चों,

जब इंसान जंगलों में अकेले-दुकेले भागते-भटकते थक गया, तो उसने देखा कि पानी हो, तो कुछ उगाया जा सकता है। वह पानी देखकर वहाँ टिक गया। जब कुछ उगाने की ललक हुई, तो साझे की जरूरत खुद-ब-खुद हो गई। इस तरह इंसान का एक परिवार हो गया; फिर कई परिवार और फिर आगे चलकर गाँव। एक जगह, एक साथ कई परिवारों के रहने की ललक के चलते पानी की जरूरत बढ़ी, तो इंसान ने अपनी मेहनत से आसमान से बरसे पानी को साल भर संजोकर रखने के लिये तालाब, झालरे, टांके, कुण्ड, चाल, खाल, पाल... आगे चलकर न जाने क्या-क्या तकनीक और नाम से जल ढाँचे बनाए।

जैसे तुम नहीं जानते कि तुम कैसे पैदा हुए, वैसे मैं भी नहीं जानता कि मैं कैसे पैदा हुआ। किन्तु मुझे इतना पता है कि सबसे पहले मैं ही पैदा हुआ; क्योंकि जब मैं पैदा हुआ, तो मुझे अपने सिवाय कुछ नहीं दिखाई दिया। इंसान का तो तब कहीं अता-पता भी नहीं था। चारों तरफ बस, मैं ही मैं था यानी पानी-ही-पानी।

मेरी उत्पत्ति


तुम्हारे पूर्वजों द्वारा रचा एक ग्रंथ है- मनुस्मृति। इसके प्रथम अध्याय (सृष्टि) का दसवें मंत्र के अनुसार कहूँ तो मैं, नर से प्रकट हुआ था :

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
तासू शेते स यस्माच्च तेन नारायणः स्मृतः।।


इसका मतलब है कि जल, नर से प्रकट हुआ है, इसलिये इसका नाम ‘नार’ है। भगवान इसमें अयन करते हैं यानी सोते हैं, इसलिये उन्हें नारायण कहा गया।

सबसे पुराना मैं


कहने वाले कहते हैं कि जीवन, सबसे पहले समन्दर में पाई जाने वाली मूँगा भित्तियों में आया। मैं पूछता हूँ कि आखिर मैं भी तो साँस लेता हूँ; मुझे भी साँस लेने के लिये ऑक्सीजन की जरूरत होती है; ऑक्सीजन की कमी होने पर मेरी भी साँस घुटने लगती है, तो आखिर मुझे भी तो जीवित की श्रेणी में रखना चाहिए कि नहीं?

यूँ भी मूँगा भित्तियाँ मुझसे पहले कैसे आ सकती थीं? पृथ्वी तो बाद में कछुए की पीठ की तरह एक तरह से मेरे गर्भ से निकलकर ऊपर आई। वनस्पति, बादल, इंसान सब बाद में आये। सब मेरी ही सन्तानें हैं। भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि और न से नीर: इन पाँचों को जोड़ो, तो क्या हुआ?

‘भगवान’ हुआ न? इस तरह हम पंचतत्वों को इंसान ने भगवान का नाम दे दिया। क्यों? क्योंकि हमने मिलकर ही तुम्हारी दुनिया बनाई; तो एक बात तो पक्की हो गई कि अगर तुमसे कोई पूछे कि तुम्हारी दुनिया में सबसे लम्बी उम्र किसकी है, तो तुम दावे के साथ कह सकते हो - ‘पानी की’।

मेरा नामकरण


मेरा नामकरण, मेरी ही सन्तान इंसानों ने किया। नीर, जल, वाटर जैसे कई नाम मुझे दिये। तुम्हारे भारत देश ने आकाश से बरसते जल को इन्द्रजल, भूमि के नीचे के जल को वरुण जल कहा। इन्द्रजल का वेग, बहुत होता है और वरुण जल विनम्र भाव से बहता है।

ऐसे ही नाद स्वर से उत्पन्न होने के कारण, भूमि के समानान्तर और लगातार बहते प्रवाहों को नदी कह दिया। पहाड़ी स्पर्श के साथ ऊँचाई से लगातार झरते जल को झरना कह दिया। वैज्ञानिकों ने मेरी संचरना में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन रासायनिक तत्वों के कारण मुझे ‘एच2ओ’ कहा।

हाइड्रोजन और ऑक्सीजन ऐसे नहीं मिलते, आकाश में एक खास तरह को स्पार्क इन्हें जोड़ता है। तभी बादल बरसते हैं। यदि ऐसा न होता, तो वैज्ञानिक, किसी भी प्रयोगशाला में मुझे बना लेते। वह आज तक ऐसा नहीं कर पाया।

मेरी तारीफ


खैर, देखता हूँ कि जीवों में इंसान, सबसे होशियार जीव है। चाहे जन्म का मौका हो, विवाह का अथवा मृत्यु का... इंसान मेरा आशीष लेने ज़रूर आया। उसने मेरी खूब तारीफ की: “जल ही जीवन है; जल, अमृत है; जल में औषधीय गुण हैं; जल न हो, तो कुछ न हो, वगैरह वगैरह..’’

दरअसल, मैं हूँ ही इतना अच्छा। कोई मुझे उपयोग करे, मैं आपत्ति नहीं करता। वनस्पति, जीव या समूची पृथ्वी, मुझसे भीगना चाहे, सूर्य मेरा पान करना चाहे या फिर वायु मुझसे शीतल होना चाहे, मैं किसी को नहीं रोकता। इंसान, आज मुझे घूमा भी रहा है, रोक भी रहा है, बाँधने की भी कोशिश कर रहा है; मुझमें गन्दगी भी डाल रहा है। मुझे कष्ट तो होता है, लेकिन मैं कहाँ कुछ बोलता हूँ। बोलूँ भी तो कौन मेरी बोली समझ पाता है। शायद तुम समझो, इसीलिये तुम बच्चों से अपनी कहानी कह रहा हूँ।

मैं और इंसान


फिलहाल समझो कि जब इंसान जंगलों में अकेले-दुकेले भागते-भटकते थक गया, तो उसने देखा कि पानी हो, तो कुछ उगाया जा सकता है। वह पानी देखकर वहाँ टिक गया। जब कुछ उगाने की ललक हुई, तो साझे की जरूरत खुद-ब-खुद हो गई।

इस तरह इंसान का एक परिवार हो गया; फिर कई परिवार और फिर आगे चलकर गाँव। एक जगह, एक साथ कई परिवारों के रहने की ललक के चलते पानी की जरूरत बढ़ी, तो इंसान ने अपनी मेहनत से आसमान से बरसे पानी को साल भर संजोकर रखने के लिये तालाब, झालरे, टांके, कुण्ड, चाल, खाल, पाल... आगे चलकर न जाने क्या-क्या तकनीक और नाम से जल ढाँचे बनाए।

इंसान ने अपने लिये पानी की जरूरत का इन्तजाम करना न सिर्फ बहुत जल्द सीख लिया था, बल्कि उसने इसकी सुन्दर व्यवस्था भी बना ली थी। अक्सर तो समाज की अपनी व्यवस्था थी, लेकिन जरूरत पड़ने पर राजा, पानी के ढाँचों के लिये ज़मीन व धन मुहैया कराता था और समाज अपने श्रम से योगदान करता था।

तालाब, कुआँ, बावड़ी बनाना, प्यासे के लिये प्याऊ लगाना तो धार्मिक दृष्टि से भी पुण्य का काम माना गया। एक समय में पानी के ढाँचे बनाने वाले असली इंजीनियर तो दक्षिण में नीरघंटी, छत्तीसगढ़ में रामनामी, महाराष्ट्र में चितपावन, राजस्थान के पुष्करणा, व बंजारे ही थे।

मैं और मेरी मशीनें


धरती से पानी निकालने के लिये कुएँ तो शुरू में ही बना लिये थे। कुएँ से मुझे निकालने के लिये चरखी, चड़स, रहट बनाए। नया जमाना आया, तो इंसान ने धरती में बोर करके यानी छेद करके इसके गहरे तलों से पानी निकालने के लिये हैण्डपम्प बनाए, उसमें भी चार इंची और छह इंची मशीन और इंडिया मार्का बनाया।

जैसे-जैसे मैं भूमि के ऊपरी तल से नीचे उतरता गया, इंसान भी बोरवेल, ट्युबवेल मोटरपम्प, समर्सिबल पम्प और अब तो जेट्पम्प जैसी मशीनें ले आया है। पानी गन्दा करने और फिर उसे साफ करने के उपाय भी इंसान ने कम नहीं किये। सीवेज, फिल्टर, आर ओ... सब तुम जानते ही हो।

मैं और इंसानी सभ्यताएँ


दरअसल, अधिक-से-अधिक सुविधा जुटाने की लत इंसान की बहुत पुरानी है। इसी लत के कारण, अधिक पानी की जरूरत की स्थिति में इंसान ने कभी नदियों के ऊँचे तटों के आसपास बसना शुरू किया था। सुविधा जुटाने की इस लत को उसने बड़ी होशियारी के साथ ‘सभ्यता’ का नाम दे दिया। नदियों के नाम पर सभ्यताओं का भी नामकरण कर दिया।

यूरोप में डेन्यूब, मिस्र में नील, मध्य एशिया में दजला, फरात, आमू, सर, चीन में यांगत्सी, भारत में गोदावरी, कावेरी से लेकर पंजाब की पाँच नदियों के किनारे कई सभ्यताएँ बसा दीं। उत्तरकाशी, श्रीनगर गढ़वाल, हरिद्वार, दिल्ली, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, पटना, कोलकाता, मुम्बई, हैदराबाद... कितने भारतीय शहरों के नाम गिनाऊँ; सभी-के-सभी नदियों के किनारे ही तो बसे हैं।

सभ्यता के विकास में मेरे यानी पानी के योगदान के बारे में आप भूगोल व इतिहास की किताबों में पढ़ सकेंगे। नदियों में स्नान के हर मौके को उत्सव की तरह मनाते तो आप आज भी देखते ही हैं। धर्मग्रंथों में आप पढ़ेंगे कि भारत में नदियों को माँ मानकर इनके पूजन का चलन कैसे चला।

मैं और मेरे कारण देवी-देवता


प्रख्यात लेखिका-सम्पादक मृणाल पांडे जी ने तो जल के देवी-देवताओं पर एक पूरा लेख ही लिखा है। लिखती है कि भारत ही नहीं, दुनिया के दूसरे देशों में भी जल के देवी-देवता मानकर पूजा जाता है: मिस्र की प्रमुख देवी है - आइसिस। आइसिस के पति ‘ओसिरिस’ को भी ‘समुद्र का सितारा’ माना जाता है। नील नदी का देवता है - हापी। यूनान के प्रमुख देवता क्रोनस के पोते ट्राइटन को जल से जुड़ा माना जाता है। नाएड्स, यूनान की जलपरी के रूप में पूजी गई और अफ्रोफाइड, समुद्र की बेटी के रूप में। रोम में जलदेवता के रूप में नेप्चून और खारे पानी की देवी के रूप में नेप्चून की पत्नी सलासिया की पूजा होती है। इया, सुमेर के लोगों की जलदेवी है। लातिस, ब्रितानी झीलों की देवी है। बोआन, आयरलैंड की बोआन नदी की देवी है। वेल्स के लोग, लायर को जलदेवी मानते हैं। रेड इंडियन कबीलों के बीच ‘चलचिटलीक्यू’ जल देवी के रूप में मशहूर है।

इंसानी चाल और मेरे हाल


यह तो हुई चर्चा मुझे पूजने और मेरे से अपनी जरूरत पूरी करने की, सभ्यता और एक समय की। आप यह भी जानना चाहेंगे कि किसने-किसने मेरी दुर्गति कैसे की। जब मेरी दुर्गति हुई, तो मैंने क्या किया? तुम्हारे कम्प्यूटर और इंटरनेट के इस ज़माने में मेरे क्या हाल है?

हिन्दी वाटर पोर्टल पर अपने हाल बताने जल्द ही लौटूँगा।
प्यारे बच्चों, मिलना ज़रूर।
आप सभी को प्यार
आपका अपना
पानी

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Post By: RuralWater
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