मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले में सोयाबीन की खेती की शुरूआत हुई। पहले इसे फैलाने और बढ़ाने के लिए मुफ्त में बाँटा गया। जब कोई चीज मुफ्त में मिलती है तो सभी लोग ले लेते हैं। ऐसा सोयाबीन के साथ भी हुआ और सोयाबीन यहां तेजी से फैला। इससे समृद्धि भी दिखाई दी। धीमे और पैदल चलने वाले किसान और उनके बेटे मोटर साइकिल से दौड़ने लगे। शादी-विवाह में खर्चीले हो गए। जीवनशैली बदली। कहा यह गया कि भारतीय भोजन में प्रोटीन की कमी है, जिसकी पूर्ति सोयाबीन से होगी। लेकिन सोया खली, जिसमें प्रोटीन रहता है, उसे निर्यात किया गया। यहां सिर्फ सोया तेल की आपूर्ति की गई। खेती-किसानी का संकट अब मौसमी न होकर स्थाई हो गया है। कभी सूखा, कभी बाढ़, कभी अधिक वर्षा और कभी कम वर्षा ने किसानों की कमर तोड़ दी है। हाल ही हुई भारी बारिश ने एक बार फिर किसानों का संकट बढ़ा दिया है। इससे न केवल मूंग की खड़ी फसल खराब हो गई है बल्कि सोयाबीन की फसल प्रभावित हुई है। धान की फसल की बढ़वार भी रुक गई है। इस बार लगातार बारिश से मूंग की फसल खेत में सड़ गई। उसकी फल्लियां किसान तोड़ ही नहीं पाए। सोयाबीन की बुआई भी किसान नहीं कर पाए और जिन्होंने बुआई की, उनकी फसल बारिश से नष्ट हो गई है। अगर हम बारिश मध्य प्रदेश मे होशंगाबाद जिले के बारिश के आंकड़ों पर नजर डालें तो इतनी बारिश 14 साल बाद हुई है। यहां अब तक 1000 मिमी औसत बारिश से अधिक हो गई जबकि यहां की औसत बारिश 1311.7 मिमी है। पिछले कुछ सालों से किसान सूखे की मार झेल रहे थे अब अधिक बारिश ने उनका चैन छीन लिया है। किसान अब आंदोलित हो रहे हैं और फसल बीमा राशि देने की मांग कर रहे हैं।
किसानों के इस अभूतपूर्व संकट के कई कारण हैं। ऊपर से प्राकृतिक आपदा दिखाई देती है, लेकिन अगर हम गहराई से देखें तो इसका कारण हरित क्रांति के साथ आए चमत्कारी बीज हैं, जो अब अपनी चमक खो चुके हैं। एकफसली खेती का होना भी इसका एक कारण है। पहले खेती बहुफसली होती थी जिसमें अगर एक फसल मार खा गई तो दूसरी से क्षतिपूर्ति हो जाती थी। होशंगाबाद जिले में हरित क्रांति की शुरूआत तवा बांध बनने के बाद से हुई। सतपुड़ा के पहाड़ से निकली तवा नदी पर यह बांध बना है। नर्मदा में मिलने से पहले तवा नदी पचमढ़ी से निकली देनवा नदी में मिलती है। तवा और देनवा के संगम पर ही तवा बांध बना है। सत्तर के दशक में यह बांध बना। यहां नर्मदा कछार की अधिकांश उपजाऊ काली मिट्टी है। इसे काली कपासीय मिट्टी (ब्लेक कॉटन साइल) भी कहा जाता है। पहले यहां ज्वार, मक्का, कोदो, कुटकी, समा, बाजरा, देशी धान, देशी गेहूं, तुअर, तिवड़ा, चना, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, अलसी आदि कई तरह की फसलें हुआ करती थीं। लेकिन तवा परियोजना की नहरों से सिंचाई के बाद अब उन्हारी (रबी) फसल में गेहूं और सिहारी (खरीफ) फसल मे ंसोयाबीन प्रमुख हैं। परंपरागत फसलें या तो लुप्त हो गई या नाममात्र रह गई।
फसल विविधता खत्म हो गई। अब उन्हीं फ़सलों व उनके उसी भाग को महत्वपूर्ण माना जाने लगा जिसका व्यापार किया जा सके। जैसे पहले मिश्रित व मिलवा फसलें हुआ करती थीं। ज्वार के तुअर और गेहूं के साथ चना की बिर्रा खेती होती थी। उतेरा या गजरा की फसलें होती थी। इसी तरह कहीं नवदान्या यानी नौ या उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में बारहनाजा यानी 12 या उससे अधिक फसलें होती थी। अब उनका स्थान एकल फसलों ने ले लिया है। इसके अलावा, खेत में गेहूं के साथ बथुआ होता था, जिसकी भाजी मजे से लोग खाते थे और इसे पशुओं के लिए चारे के रूप में उपयोग करते थे। झुरझुरू और समेला जैसा खरपतवार होता था, जिसे गरीब ग्रामीण खाने के रूप में इस्तेमाल करते थे। अब इसे खरपतवार के रूप में देखा जाता है और कोई महत्व नहीं दिया जाता। बल्कि खरपतवारनाशक डालकर नष्ट कर दिया जाता है।
मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले में सोयाबीन की खेती की शुरूआत हुई। पहले इसे फैलाने और बढ़ाने के लिए मुफ्त में बाँटा गया। जब कोई चीज मुफ्त में मिलती है तो सभी लोग ले लेते हैं। ऐसा सोयाबीन के साथ भी हुआ और सोयाबीन यहां तेजी से फैला। इससे समृद्धि भी दिखाई दी। धीमे और पैदल चलने वाले किसान और उनके बेटे मोटर साइकिल से दौड़ने लगे। शादी-विवाह में खर्चीले हो गए। जीवनशैली बदली। कहा यह गया कि भारतीय भोजन में प्रोटीन की कमी है, जिसकी पूर्ति सोयाबीन से होगी। लेकिन सोया खली, जिसमें प्रोटीन रहता है, उसे निर्यात किया गया। यहां सिर्फ सोया तेल की आपूर्ति की गई।
इस बीच लागत बढ़ी, डीजल, पानी, बिजली, रासायनिक खाद के दाम बढ़े। ट्रैक्टर से जुताई महंगी हुई। दूसरी तरफ उपज घटती गई। अत्यधिक रासायनिक खाद व कीटनाशकों के इस्तेमाल से ज़मीन की उर्वरता कम होती गई। अधिक सिंचाई से भूक्षरण और ज्यादा रासायनिक खादों के इस्तेमाल से ज़मीन को उर्वर बनाने वाले जीवाणुओं का खत्म होना, भूमि को अनुपजाऊ बनाता गया। चूंकि यही समय है कि जब भारत की नीतियों की दिशा भी बदली। विश्व व्यापार संगठन के सदस्य बनने के बाद खुले बाजार की नीति अपनाई गई। कृषि में भी खुले आयात को छूट दी गई। वहां से कृषि उत्पाद खरीदे और हमारे किसानों का अनाज माटी मोल भी नहीं खरीदा गया। पूरी तरह किसानों को बाजार के हवाले छोड़ दिया जबकि उन्हें सरकारी संरक्षण मिलना चाहिए था।
इन नीतियों में यह वकालत की है कि भारत को निर्यातोन्मुखी खेती करनी चाहिए और खाद्यान्नों फ़सलों की जगह नक़दी फ़सलों को लगाना चाहिए। लेकिन यह आत्मघाती कदम जैसा हो गया है। कई प्रांतों में किसान इसके चलते किसान आत्महत्या जैसे अतिवादी कदम उठाने को मजबूर हैं। होशंगाबाद जिलें में भी यह सिलसिला शुरू हो गया है। अब जरूरत इस बात की है कि इस संकट को गंभीरता से समझकर किसानों व ग्रामीणों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया जाए। एक तो इस बारिश के पानी की बूंद-बूंद संजोने की कोशिश होनी चाहिए। पहले इस क्षेत्र में कुएं, तालाब, बावड़ी आदि परंपरागत स्रोत थे। वे सब खत्म हो गए। सदानीरा नदियां भी सूख गई हैं। उनके किनारे पानी को सोखकर रखने वाले पेड़ कट गए हैं। नदियों में पानी जज्ब कर रखने वाली रेत उठा ली गई है। सर्पाकार नदियों में कम पानी से जनजीवन प्रभावित हो रहा है। हमें फिर से इनके पुनर्जीवन के बारे में प्रयास करना चाहिए।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि जब कम बारिश वाले राजस्थान में लोग पानी को बचाते आ रहे हैं, तो हम तो पानी के मामले में अमीर हैं। उनकी प्रसिद्ध किताब आज भी खरे हैं तालाब हमारा मार्गदर्शन कर सकती है। इसके अलावा, मिट्टी के उपजाऊपन, चरागाह व वनों की रक्षा की जाए। इसके लिए जरूरी है कि हम प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाली तकनीकें न अपनाएं। जिनसे मिट्टी का उपजाऊपन खत्म हो, जिनसे जलस्रोतों में रसायन घुलें, जिनसे पर्यावरण का संकट न बढ़े, इसलिए हमें ट्रैक्टर के स्थान पर हल-बैल की खेती की ओर बढ़ना चाहिए। इसी से हमारे किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान हो पाएगा।
किसानों के इस अभूतपूर्व संकट के कई कारण हैं। ऊपर से प्राकृतिक आपदा दिखाई देती है, लेकिन अगर हम गहराई से देखें तो इसका कारण हरित क्रांति के साथ आए चमत्कारी बीज हैं, जो अब अपनी चमक खो चुके हैं। एकफसली खेती का होना भी इसका एक कारण है। पहले खेती बहुफसली होती थी जिसमें अगर एक फसल मार खा गई तो दूसरी से क्षतिपूर्ति हो जाती थी। होशंगाबाद जिले में हरित क्रांति की शुरूआत तवा बांध बनने के बाद से हुई। सतपुड़ा के पहाड़ से निकली तवा नदी पर यह बांध बना है। नर्मदा में मिलने से पहले तवा नदी पचमढ़ी से निकली देनवा नदी में मिलती है। तवा और देनवा के संगम पर ही तवा बांध बना है। सत्तर के दशक में यह बांध बना। यहां नर्मदा कछार की अधिकांश उपजाऊ काली मिट्टी है। इसे काली कपासीय मिट्टी (ब्लेक कॉटन साइल) भी कहा जाता है। पहले यहां ज्वार, मक्का, कोदो, कुटकी, समा, बाजरा, देशी धान, देशी गेहूं, तुअर, तिवड़ा, चना, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, अलसी आदि कई तरह की फसलें हुआ करती थीं। लेकिन तवा परियोजना की नहरों से सिंचाई के बाद अब उन्हारी (रबी) फसल में गेहूं और सिहारी (खरीफ) फसल मे ंसोयाबीन प्रमुख हैं। परंपरागत फसलें या तो लुप्त हो गई या नाममात्र रह गई।
फसल विविधता खत्म हो गई। अब उन्हीं फ़सलों व उनके उसी भाग को महत्वपूर्ण माना जाने लगा जिसका व्यापार किया जा सके। जैसे पहले मिश्रित व मिलवा फसलें हुआ करती थीं। ज्वार के तुअर और गेहूं के साथ चना की बिर्रा खेती होती थी। उतेरा या गजरा की फसलें होती थी। इसी तरह कहीं नवदान्या यानी नौ या उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में बारहनाजा यानी 12 या उससे अधिक फसलें होती थी। अब उनका स्थान एकल फसलों ने ले लिया है। इसके अलावा, खेत में गेहूं के साथ बथुआ होता था, जिसकी भाजी मजे से लोग खाते थे और इसे पशुओं के लिए चारे के रूप में उपयोग करते थे। झुरझुरू और समेला जैसा खरपतवार होता था, जिसे गरीब ग्रामीण खाने के रूप में इस्तेमाल करते थे। अब इसे खरपतवार के रूप में देखा जाता है और कोई महत्व नहीं दिया जाता। बल्कि खरपतवारनाशक डालकर नष्ट कर दिया जाता है।
मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले में सोयाबीन की खेती की शुरूआत हुई। पहले इसे फैलाने और बढ़ाने के लिए मुफ्त में बाँटा गया। जब कोई चीज मुफ्त में मिलती है तो सभी लोग ले लेते हैं। ऐसा सोयाबीन के साथ भी हुआ और सोयाबीन यहां तेजी से फैला। इससे समृद्धि भी दिखाई दी। धीमे और पैदल चलने वाले किसान और उनके बेटे मोटर साइकिल से दौड़ने लगे। शादी-विवाह में खर्चीले हो गए। जीवनशैली बदली। कहा यह गया कि भारतीय भोजन में प्रोटीन की कमी है, जिसकी पूर्ति सोयाबीन से होगी। लेकिन सोया खली, जिसमें प्रोटीन रहता है, उसे निर्यात किया गया। यहां सिर्फ सोया तेल की आपूर्ति की गई।
इस बीच लागत बढ़ी, डीजल, पानी, बिजली, रासायनिक खाद के दाम बढ़े। ट्रैक्टर से जुताई महंगी हुई। दूसरी तरफ उपज घटती गई। अत्यधिक रासायनिक खाद व कीटनाशकों के इस्तेमाल से ज़मीन की उर्वरता कम होती गई। अधिक सिंचाई से भूक्षरण और ज्यादा रासायनिक खादों के इस्तेमाल से ज़मीन को उर्वर बनाने वाले जीवाणुओं का खत्म होना, भूमि को अनुपजाऊ बनाता गया। चूंकि यही समय है कि जब भारत की नीतियों की दिशा भी बदली। विश्व व्यापार संगठन के सदस्य बनने के बाद खुले बाजार की नीति अपनाई गई। कृषि में भी खुले आयात को छूट दी गई। वहां से कृषि उत्पाद खरीदे और हमारे किसानों का अनाज माटी मोल भी नहीं खरीदा गया। पूरी तरह किसानों को बाजार के हवाले छोड़ दिया जबकि उन्हें सरकारी संरक्षण मिलना चाहिए था।
इन नीतियों में यह वकालत की है कि भारत को निर्यातोन्मुखी खेती करनी चाहिए और खाद्यान्नों फ़सलों की जगह नक़दी फ़सलों को लगाना चाहिए। लेकिन यह आत्मघाती कदम जैसा हो गया है। कई प्रांतों में किसान इसके चलते किसान आत्महत्या जैसे अतिवादी कदम उठाने को मजबूर हैं। होशंगाबाद जिलें में भी यह सिलसिला शुरू हो गया है। अब जरूरत इस बात की है कि इस संकट को गंभीरता से समझकर किसानों व ग्रामीणों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया जाए। एक तो इस बारिश के पानी की बूंद-बूंद संजोने की कोशिश होनी चाहिए। पहले इस क्षेत्र में कुएं, तालाब, बावड़ी आदि परंपरागत स्रोत थे। वे सब खत्म हो गए। सदानीरा नदियां भी सूख गई हैं। उनके किनारे पानी को सोखकर रखने वाले पेड़ कट गए हैं। नदियों में पानी जज्ब कर रखने वाली रेत उठा ली गई है। सर्पाकार नदियों में कम पानी से जनजीवन प्रभावित हो रहा है। हमें फिर से इनके पुनर्जीवन के बारे में प्रयास करना चाहिए।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि जब कम बारिश वाले राजस्थान में लोग पानी को बचाते आ रहे हैं, तो हम तो पानी के मामले में अमीर हैं। उनकी प्रसिद्ध किताब आज भी खरे हैं तालाब हमारा मार्गदर्शन कर सकती है। इसके अलावा, मिट्टी के उपजाऊपन, चरागाह व वनों की रक्षा की जाए। इसके लिए जरूरी है कि हम प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाली तकनीकें न अपनाएं। जिनसे मिट्टी का उपजाऊपन खत्म हो, जिनसे जलस्रोतों में रसायन घुलें, जिनसे पर्यावरण का संकट न बढ़े, इसलिए हमें ट्रैक्टर के स्थान पर हल-बैल की खेती की ओर बढ़ना चाहिए। इसी से हमारे किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान हो पाएगा।
Path Alias
/articles/baaraisa-nae-badhaayaa-kaisaanaon-kaa-sankata
Post By: admin