आकाश पानी रोकेंगे, पाताल पानी बढ़ाएँगे.... यह महज कोई कल्पना या ख्याली पुलाव जैसी बात नहीं है, बल्कि देश में इसे लेकर बीते सालों में बड़े काम हुए हैं और ऐसा करना मुमकिन भी हो सका है। मध्यप्रदेश के देवास में करीब 15 साल पहले बारिश के पानी को रोकने की बड़ी पहल शुरू की गई थी। यहाँ के एक भूगर्भ वैज्ञानिक ने मकानों के छत से हर साल व्यर्थ बह जाने वाले पानी को जमीन में रिसाने के लिए एक सस्ती, आसान और अब तक की सबसे अच्छी रूफ वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक विकसित की। तब देवास मॉडल के नाम से इसकी देशभर में खूब चर्चा भी हुई और देश के कई हिस्सों में इस तरह का काम शुरू भी किया गया लेकिन अब यह महज कागजी रस्म बनकर रह गया है। इसे लागू करने का जिम्मा सरकार ने स्थानीय स्वसाशी संस्थाओं को दिया है पर प्रदेश में कहीं भी इसे ढंग से अमल में नहीं लाया जा रहा है। इस वजह से बारिश का सैकड़ों गैलन पानी हर साल व्यर्थ बहकर नदी नालों में चला जाता है और धरती की कोख प्यासी की प्यासी ही रह जाती है।
रूफ वाटर हार्वेस्टिंग के देवास मॉडल में मकानों की छतों पर गिरने वाले बरसाती पानी को पीवीसी पाइप के जरिये जल स्रोतों (नलकूप, हैण्डपम्प, कुआँ, बावड़ी आदि) में भेजा जाता है। इसमें इन जल स्रोतों का जल स्तर तो बढ़ता ही है, साथ ही पानी की कठोरता भी कम होती है। बरसाती पानी के आने से वह कठोर पानी को मृदु पानी में बदल देता है। इससे पानी अपेक्षाकृत स्वादिष्ट हो जाता है। इस तकनीक के जरिए किसी भी प्रकार की अशुद्धि जल स्रोत में नहीं जा सके, इसके लिए विशेष प्रकार के फिल्टर बनाये गए हैं। प्रारम्भ में यह तकनीक बहुत खर्चीली थी किन्तु जटिल संरचनाओं वाली इस तकनीक को देवास में सरल व सस्ता किया गया है। एक अनुमान के मुताबिक यदि 1 सेमी बारिश होती है तो हजार वर्ग फीट की छत से हजार लिटर पानी बह कर निकल जाता है। यदि औसत बारिश 100 सेमी होती है तो इस हिसाब से एक वर्षाकाल में 1000 वर्गफीट की छत से लगभग 1 लाख लीटर पानी जल स्रोत तक पहुँचाया जा सकता है। शुरू में लोगों ने इसे लेकर कई तरह की शंकाएं जताई लेकिन बाद में इस तकनीक के फायदे देख कर इसे ख़ुशी से अपनाया है।
पिछले दिनों को याद करते हुए देवास मॉडल को विकसित करने वाले भूजलविद सुनील चतुर्वेदी बताते हैं कि 1998 में ही जगह–जगह से जल संकट की गूँज सुनाई देने लगी थी, बल्कि इससे भी कुछ सालों पहले से। देखते ही देखते पर्याप्त पानी वाले इलाकों में भी पानी के हालात चिन्ताजनक होने लगे। लोग धरती में पानी ढूँढने गहरे और गहरे तक जा रहे थे। बारिशें लगातार अनियमित और कम होती जा रही थी। ऐसी खबरे पढ़कर मन विचलित हो जाता। क्या होगा आगे यह सोच–सोच कर घबराहट सी होती। सोचा, क्यों न कुछ शुरुआत की जाए छोटी ही सही। कम से कम जमीन से तो पानी मिलता रहे। भू-विज्ञान पढ़ा था। क्यों न बारिश के लाखों गैलन पानी को व्यर्थ बहने से रोककर जमीन में उतारा जाये ताकि जमीन का जल स्तर बढ़ सके। बारिश के पानी के इस्तेमाल का कभी नहीं सोचा गया। जब पहली बार इस और ध्यान गया तो पाया कि अगर इस पानी को किसी तरह जमीन में उतारा जा सके तो भू-जल स्तर ऊँचा उठाया जा सकता है। और इस तरह शुरुआत हुई इस काम की। इस काम को आगे बढ़ाने में मदद की देवास के तत्कालीन जिला कलेक्टर एम मोहन राव ने। उन्होंने प्रशासनिक स्तर पर ही नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी सुनिश्चित कर इसे एक जन आन्दोलन का रूप देने का बीड़ा उठाया। इस तरह 15 मई 1999 को देवास में देश के पहले भू-जल संवर्धन मिशन की शुरुआत की गई।
इस तकनीक में मकान की छत की ढाल के अनुसार बरसाती पानी के आउटलेट से जल स्रोत तक पीवीसी पाइप लगाए जाते हैं। स्रोत के समीप इसी पाइप लाइन में फ़िल्टर लगाया जाता है। बस यही है रूफ वाटर हार्वेस्टिंग और इस तरह आकाश का पानी पाताल की गहराई में पहुँचता है। 140 मिमी व्यास व 1.2 मीटर पीवीसी पाइप में फ़िल्टर के लिए 6 से 12 मिमी लम्बे व 12 से 20 मिमी व्यास बाले बोल्डर फ़िल्टर मटेरियल के रूप में भर दिए जाते हैं। इसके बाद पाइप के दोनों सिरों पर 6 मिमी व्यास से कम छिद्रों वाली एक तार की जाली लगाकर 140/63 मिमी के रिड्युसर लगा दिए जाते हैं। नलकूप की और वाले फिल्टर के सिरे पर एक 63 मिमी की टी भी लगाई जाती है। इससे फ़िल्टर को बेकवाश किया जा सकता है तथा जैविक प्रदूषण टोकने के लिए सोडियमहाइपो क्लोराइड या पोटेशियम परमेगनेट का घोल भी यहाँ से डाला जा सकता है। फ़िल्टर के पूर्व पाइप लाइन में एक ड्रेन वाल्व भी लगाया जाता है, जिससे बरसात के शुरूआती पानी को ड्रेन किया जा सकता है। ताकि वर्ष भर की छत की गन्दगी भी घुलकर बह सके।
इस तकनीक ने कुछ ही दिन में देवास शहर में खासी लोकप्रियता हासिल कर ली। जिले में इस काम की ऐसी मिसाल कायम की कि देशभर में इसकी गूँज सुनाई देने लगी। इसी साल देवास के काम को देखने पहुँची सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड की टीम ने भी इस तकनीक की प्रशंसा की। वर्ष 2000 में इसे इंटरनेशनल व्यापार मेले में अवार्ड भी मिला। इसके बाद तो देशभर में इस तकनीक को इतनी सराहना मिली कि देवास इसके नाम से पहचाने जाने लगा। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड की अनुशंसा पर केन्द्र सरकार ने वर्ष 2002 में इसे देशभर में अनिवार्य कर दिया। अब देश में नगर पालिकाएं और नगर निगम जैसी स्थानीय संस्थाएं लोगों को मकान बनाने का नक्शा पास करने से पहले यह सुनिश्चित करती है कि नए बनाए जा रहे मकान में अनिवार्य रूप से देवास मॉडल रूफ वाटर हार्वेस्टिंग लगाया जाए। इसके लिए कुछ राशि भी जमानत के तौर पर जमा कराई जाती है और तकनीक इस्तेमाल करने के बाद यह राशि वापस कर दी जाती है। इस दिशा में कई जगह बहुत अच्छा काम हो रहा है पर जल संकट की भयावहता को देखते हुए अभी बहुत काम किया जाना जरूरी है। इस तरह की तकनीकों के इस्तेमाल पर जोर देकर ही हम इस संकट के खतरे का सामना कर सकते हैं।
लेखक से सम्पर्क, 11 – ए, मुखर्जी नगर, पायोनियर स्कूल चौराहा, देवास म.प्र 455001, मो.नं. 9826013806
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