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मध्य प्रदेश में शुरुआती बारिश अच्छी होने से जहाँ धरती पर चारों ओर हरियाली की चादर फैल गई है, वहीं दूर-दूर तक घास के मैदान बन जाने से इस बार लुप्तप्राय प्रवासी पक्षी खरमोर (लेसर फ्लोरिकेन) बड़ी संख्या में यहाँ पहुँच रहे हैं। बीते कुछ सालों से अवर्षा और सूखे की वजह से यहाँ हर साल पहुँचने वाले प्रवासी खरमोर पक्षियों की तादाद भी तेजी से घटने लगी थी।
पक्षी विज्ञानी अब इससे बेहद उत्साहित हैं वहीं सरकार भी खरमोर के संरक्षण के लिये तमाम जतन कर रही है। इसके लिये विशेष अभ्यारण्य बनाए गए हैं।
आसपास रहने वाले किसान भी खरमोर की प्रजाति को लुप्त होने से बचाने के लिये आगे आ रहे हैं। बर्ड लाइफ इंटरनेशनल ने इसे विलुप्ति के कगार पर बताया है।
अच्छे मानसून और बारिश का इन्तजार हम लोगों को ही नहीं होता, पशु-पक्षियों को भी बारिश का बेसब्री से इन्तजार रहता है। बारिश के मौसम में ज्यादातर पक्षियों के लिये प्रजननकाल भी होता है। अवर्षा और अल्प वर्षा का असर इनकी संख्या पर भी पड़ता है। बारिश पर्याप्त होने से इनकी तादाद बढ़ती है। जैव विविधता की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है।
अब खरमोर को ही लीजिए, दूर-दूर तक फैली घास की बीड और बरसात का सुहाना मौसम इन्हें खासा रास आता है इसीलिये कई सदियों से मध्य प्रदेश के कुछ खास जंगलों में खरमोर हजारों मील का फासला तय कर आते रहे हैं।
जुलाई के आखिरी पखवाड़े से आधे अक्टूबर तक सोनचिरैया परिवार के ये पक्षी यहाँ मेहमाननवाजी स्वीकारते हैं और इसके बाद फिर उड़ जाते हैं अपने देश को। ये खासतौर से यहाँ प्रणय यात्रा के लिये ही आते हैं। इन प्रवासी पक्षियों को देखने के लिये यहाँ बड़ी तादाद में लोग जुटते हैं। ये बहुत शर्मीले होते हैं और आहत पाते ही उड़ जाते हैं। यहाँ पहुँचने के करीब महीने भर बाद मादा खरमोर अंडे देती है और दोनों उन्हें सहेजते हैं, सात दिन बाद इन अण्डों से बच्चे निकल आते हैं।
खरमोर का आकार साधारण मुर्गी की तरह होता है पर देखने में यह उससे सुन्दर लगता है। सुन्दर सुराहीदार गर्दन और लम्बी पतली टांगों वाले खरमोर की ऊँची कूद देखने लायक होती है। मादा पक्षी को आकर्षित करने के लिये एक बार में नर पक्षी 400 से 800 बार तक कूदता है।
ये कहाँ से आते हैं और कहाँ जाते हैं, यह पता लगाने के लिये अब रेडियो चिप का सहारा लिया जा रहा है। प्रदेश में आने वाले खरमोर को यह चिप लगाई जा रही है। इसके बाद चिप से इनके प्रवास की स्थिति और अन्य जानकारियाँ हासिल की जा सकेगी।
खरमोर पर विशेष अध्ययन करने वाले प्राणी शास्त्री डॉ. तेजप्रकाश व्यास बताते हैं कि खरमोर को देश में और कहीं नहीं देखा जा सकता। प्रदेश के रतलाम, झाबुआ, धार जिले की आबोहवा और यहाँ के बड़े घास के मैदान हजारों मील दूर रहने वाले पंछियों को इतने पसन्द हैं कि वे यहाँ हर साल पहुँचते हैं। वे यहाँ अपना हनीमून (प्रजनन काल) बीताने आते हैं।
ये पक्षी लुप्तप्राय प्रजाति के हैं, इसलिये सरकार भी हर साल बड़े पैमाने पर तैयारियाँ करती है, ताकि इनकी तादाद बढ़ सके। बीते कुछ सालों के आँकड़े बताते हैं कि इनकी संख्या लगातार घट रही थी लेकिन इस बार शुरुआती मानसून में ही अच्छी बारिश होने से घास के मैदान हरे-भरे हो गए हैं तो सैलानी खरमोर की तादाद भी बढ़ने की उम्मीद है। अब तक यहाँ बड़ी तादाद में खरमोर पहुँच रहे हैं। इस बार 30 से ज्यादा पक्षियों के आने की उम्मीद जताई जा रही है।
अकेले रतलाम जिले के सैलाना खरमोर अभयारण्य के आँकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2005 में 26, 2006 में 28, 07 में 27, 08 में 30, 09 में 32, 2010 में 24 और 2011 में 18 खरमोर ही सैलाना पहुँचे थे। इसके बाद के सालों में इनकी तादाद लगातार कम होती गई है। 2012 में 33 और 2015 में यहाँ 15 खरमोर पहुँचे। बीते दो सालों में तो इनकी तादाद घटकर दर्जन के आँकड़े के आसपास ही सिमट गई थी। इससे वन्यजीव प्रेमियों की चिन्ताएँ बढ़ गई हैं।
वन्यजीव प्रेमी अजय गडीकर बताते हैं कि सैलाना में खरमोर आना शुरू हो चुके हैं। करीब दस दिन पहले भी यहाँ चार खरमोर ने अपना बसेरा बनाया है। अब धार-झाबुआ जिले में इनके पहुँचने की उम्मीद है। 1980 से पहले तक खरमोर बड़ी तादाद में आते थे लेकिन जैसे-जैसे मौसम में बदलाव और बारिश में कमी होती गई, वैसे-वैसे इनकी तादाद भी तेजी से घट रही है जबकि इनका अस्तित्व ही अब खतरे में आता जा रहा है। इन्हें विलुप्त होने की कगार पर मना जा रहा है।
करीब तीन दशक पहले प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी डॉ. सालिम अली ने जब सैलाना के पास पहली बार खरमोर को देखा तो वे चहक उठे। वे कहा करते थे कि खरमोर हमारे लिये प्रकृति का एक बेशकीमती नायाब तोहफा है। बाद में उन्हीं की पहल पर सरकार ने यहाँ खरमोर पक्षियों के प्रवास काल को सुखद बनाने के लिये 14 जून 1983 को विशेष अभयारण्य बनाया। इसके लिये 851.70 हेक्टेयर वन भूमि और 445.73 हेक्टेयर खेती की जमीन को अधिग्रहित किया गया।
यह पूरा इलाका खेतों और ऊँची-नीची घास की बीडो से आच्छादित है। यहाँ का वन अमला मानसून के साथ ही खरमोर के आने का इन्तजार करने लगता है। खरमोर या उनके अंडे देखे जाने की सूचना देने वाले किसानों को एक से पाँच हजार रुपए तक की नकद धनराशि का इनाम दिया जाता है। यहाँ के किसान खरमोर को बाधा नहीं पहुँचे, इसके लिये नवम्बर तक घास नहीं काटते।
सैलाना के बाद अब धार जिले के सरदारपुर में करीब 9 वर्ग किमी के (34 हजार 812 हेक्टेयर) क्षेत्रफल में तथा झाबुआ जिले के पेटलावद में भी विशेष अभयारण्य बनाए गए हैं। यहाँ 14 गाँव के 30 हजार किसान अपनी 13 हजार हेक्टेयर जमीन में खेती कर सकते हैं लेकिन इसे न बेच सकते हैं और न ही यहाँ कोई निर्माण कर सकते हैं।
सरदारपुर में अब ढाई सौ मीटर क्षेत्र को इको सेंसेटिव जोन में बदला जा रहा है। इसमें यहाँ बारिश के पानी को रोका जाएगा और जल संरक्षण की कई तकनीकें इस्तेमाल की जाएँगी। जैविक खेती और सौर ऊर्जा को बढ़ावा दिया जाएगा। लकड़ी काटना पूरी तरह से प्रतिबन्धित होगा तथा किसी तरह का निर्माण नहीं हो सकेगा।
पेटलावद में भी करीब 90 लाख रुपए खर्च कर घास के बड़े मैदान बनाए गए हैं। यहाँ 2009 में खरमोर के तीन जोड़े देखे गए थे। उसके बाद 2010 में भी तीन जोड़े आये पर तब से बीते साल तक यहाँ पक्षी नहीं देखे गए। इस बार बारिश अच्छी होने से उम्मीद बढ़ी है।
खरमोर कहाँ से आते हैं और कहाँ जाते हैं, यह पता लगाने के लिये अब रेडियो चिप का सहारा लिया जा रहा है। भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून इस पर शोध कर रहा है। इसमें प्रदेश में आने वाले खरमोर को यह चिप लगाई जा रही है। इसके बाद चिप की रेडियो फ्रिक्वेंसी से इनके प्रवास की स्थिति, ट्रेवलिंग रूट और अन्य जानकारियाँ हासिल की जा सकेगी।
इसी तरह बंगलुरु का इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस भी इन अभयारण्यों की घास बीड का विशेष अध्ययन कर रहा है। इसके आसपास के एक सौ वर्ग किमी क्षेत्र का इसरो के जरिए सेटेलाइट से खाका तैयार किया गया है। यहाँ की ग्रासलैंड ही खरमोर को रास आती है, इस पर शोध हो रहा है।
इंस्टीट्यूट में इकोलॉजी रिसर्च फैलो चैतन्य कृष्णा बताते हैं कि खरमोर, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, बंगाल ब्लैकबर्ड आदि कई पक्षी घास के मैदानों पर ही रहते हैं और घास पर ही कई अन्य जीवों और वनस्पतियों का भी जीवन निर्भर है। इससे यह आकलन भी हो सकेगा कि वास्तव में घास के लिये अब धरती पर कितनी जगह बची है।
इसे दस्तावेज में लेकर सार्वजनिक भी करेंगे। अब यह जरूरी होता जा रहा है कि जंगल की जमीन की तरह ही हम घास के मैदानों की जमीन के संरक्षण की भी सुध लें। उन्होंने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए बताया कि 6 हेक्टेयर घास मैदानों के अध्ययन में पता चला है कि इस पर 160 प्रकार के जीव और वनस्पतियाँ निर्भर हैं।
वन अधिकारी बताते हैं कि इलाके में खरमोर सहित प्रवासी पक्षियों की तादाद घटती-बढ़ती रहती है। बारिश से इसका सीधा सम्बन्ध है। इसके प्राकृतिक आवास और पारिस्थितिकी आदतों का अध्ययन अब तक नहीं हुआ है। ये सिर्फ मानसून के दौरान प्रणय के लिये मध्य प्रदेश आते हैं पर बाकी समय कहाँ रहते हैं। इसके लिये चिप लगे रिंग इन्हें पहनाए जाते हैं, जैसे पहले सारस को पहनाते थे।
उधर पर्यावरण प्रेमी बताते हैं कि खरमोर के लगातार कम आने की वजह अभयारण्य क्षेत्रों के आसपास बड़ी तादाद में गेहूँ और सोयाबीन की खेती के दौरान डाले जाने वाले रासायनिक खाद और कीटनाशक हैं, जो उनके जीवन के लिये सुरक्षित नहीं हैं। इतना ही नहीं इनके सतत इस्तेमाल से खरमोर के खाद्य कीटों पर भी बुरा असर हो रहा है। घास के ग्रीन हापर भी इससे खत्म हो रहे हैं।
वहीं खेतों में आबादी की बढ़ती आवाजाही भी इनके एकान्तप्रियता में खटकती है। सैलाना रियासत के विक्रमसिंह भी मानते हैं कि पहले यहाँ रियासत के दौरान शिकारवाड़ी हुआ करती थी। तब खरमोर बड़े-बड़े झुंडों में आया करते थे। तब यह जगह बहुत शान्त थी पर अब लोगों ने पट्टे की जमीनों पर खेत बना लिये हैं।
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