एक बाँध परियोजना को पूरा होने में कितने लोगों को विस्थापित करना पड़ता है, गाँव-के-गाँव बेदखल हो जाते हैं। हजारों बीघा के खेत, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, भाषा-बोली, परिवेश सब कुछ खत्म हो जाता है। करोड़ों की लागत आती है और सबसे बड़ा तो इसका स्थानीय पर्यावरण और उसकी नदी के तंत्र पर विपरीत असर पड़ता है, जिसकी पूर्ति सम्भव कभी नहीं हो पाती है। ऐसे में नीति-नियंताओं को अब आगे की बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी देने से पहले इन बातों का ध्यान रखना होगा। मध्य प्रदेश की नर्मदा, तवा और चम्बल जैसी बड़ी नदियों के प्राकृतिक तंत्र को विकृत कर बिजली उत्पादन करने के लिये इन पर बड़े-बड़े बाँध बनाए गए हैं। बाँध के लिये न सिर्फ लाखों लोगों को विस्थापित किया गया बल्कि सदियों से चले आ रहे नदी तंत्र पर भी इसका स्थायी तौर पर बुरा असर पड़ा। कई सदियों से नदियाँ अपने प्राकृतिक रास्तों पर चलते हुए अपने आसपास के परिवेश को हरा–भरा करती रही थी लेकिन विकास की अन्धी दौड़ में सरकारों ने लाखों करोड़ का कर्ज लेकर अपनी नदियों का पानी इसीलिये रोका था कि इससे बिजली का उत्पादन कर प्रदेश को बिजली में आत्मनिर्भर बनाया जा सके।
मध्य प्रदेश अब ऊर्जा के मामले में काफी हद तक आत्मनिर्भर हो चुका है। कुछ सालों पहले तक प्रदेश को यहाँ–वहाँ से बिजली की आपूर्ति बमुश्किल करना पड़ती थी। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। यह अच्छी बात है किन्तु अब भी प्रशासन तंत्र की अक्षमता कहें या लापरवाही कि इन बाँधों का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। प्रदेश की बिजली कम्पनी ने सरकार को बीते दस महीनों में बिजली की स्थिति को लेकर रिपोर्ट प्रस्तुत की है, उससे एक बड़ा सवाल यह उभर कर आया है कि जनवरी 2017 तक बीते दस महीनों में प्रदेश के सभी बाँधों में पर्याप्त जलराशि उपलब्ध रहने के बावजूद इनसे अपेक्षित बिजली नहीं पैदा कर सके।
मध्य प्रदेश की अलग-अलग नदियों पर बने दस बड़े बाँधों से सरकार हर साल पानी की उपलब्ध मात्रा के आधार पर बिजली उत्पादन करती है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 6 फरवरी 2017 की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक चम्बल नदी पर बने मन्दसौर जिले के गाँधीसागर बाँध की कुल क्षमता 1312 फीट के मुकाबले फिलहाल 1303.59 फीट पानी भरा है और इससे 175 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। इसी प्रकार नर्मदा पर बने बरगी बाँध की कुल क्षमता 422.76 मीटर है और फिलहाल वहाँ 417.55 मीटर पानी भरा है, यहाँ भी 90 मेगावाट बिजली का ही उत्पादन हो सकता है। बाणसागर बाँध की कुल क्षमता 280 मीटर के मुकाबले 278 मीटर पानी भरा हुआ है और यहाँ 315 मेगावाट बिजली उत्पादन हो सकता है। उपर्युक्त इन तीन बाँधों से ही सरकार चाहती तो 590 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो सकता था।
इससे भी बड़ी खेद की बात है कि प्रदेश की बिजली आवश्यकताओं के लिये सरकारी खजाने से निजी कम्पनियों को पैसा दिया गया और उन्होंने सरकार को ऊँचे दामों पर बिजली बनाकर दी। गौरतलब है कि बाँधों से बिजली उत्पादन पर सरकार को इसकी लागत करीब 38 पैसे प्रति यूनिट आती है, जबकि निजी ताप विद्युत कम्पनियों की बिजली को सरकार 3 रुपए 68 पैसे प्रति यूनिट की दर से खरीदती है। इस तरह एक यूनिट पर सरकार को कम्पनी के खाते में 3 रुपए 30 पैसे ज्यादा का भुगतान करना पड़ता है। बीते दस महीनों में बाँधों से बिजली उत्पादन नहीं होने से सरकार ने निजी कम्पनियों से जो बिजली खरीदी उसके लिये उन्हें 557 करोड़ रुपए का भुगतान करना पड़ा।
इन बाँधों से अगर फुल लोड में बिजली का उत्पादन किया जाता तो बीते दस महीने में करीब 315 करोड़ यूनिट बिजली बन सकती थी। लेकिन इन दिनों में महज 164 करोड़ यूनिट का ही उत्पादन किया गया। बाकी बची हुई 151 करोड़ यूनिट बिजली सरकार को निजी कम्पनियों से खरीदना पड़ा। ऐसा क्यों हुआ और किसके इशारे पर बाँधों से कम बिजली बनाकर निजी कम्पनियों की बिजली महंगे दामों पर खरीदी गई, इस पर कोई जिम्मेदारी लेने फिलहाल सामने नहीं आ रहा है।
इसी बिजली को यदि हमारे गाँधीसागर, बरगी और बाणसागर बाँध से बनाया जाता तो इसकी लागत करीब 57 करोड़ रुपए ही आती यानी सरकार को इससे 500 करोड़ रुपए की अतिरिक्त बचत होती। निजी कम्पनियों से महंगे दामों में बिजली खरीदे जाने का बोझ अन्ततः बिजली उपभोक्ताओं की जेब पर ही पड़ता है। महंगी बिजली देने से जनता के बीच सरकारों की छवि प्रभावित होती है। एक तरफ सरकारें जनता के बीच अपनी जन हितैषी छवि बनाने की कोशिश करती है तो ऐसे कदम क्या सरकार की छवि के लिये ठीक हैं। यह भी कोई तर्क नहीं है कि अनुबन्ध के मुताबिक निजी कम्पनियों से सरकार को बिजली खरीदना जरूरी ही है। इसीलिये बाँधों से बिजली उत्पादन नहीं कर उनसे बिजली खरीदी गई।
इस मामले में प्रदेश के ऊर्जा मंत्री पारस जैन कहते हैं– 'सरकार के साथ पहले से ही निजी पावर प्लांट से बिजली खरीदी के लिये अनुबन्ध किया गया है। हमें अनुबन्धों की शर्तों का पालन करना पड़ता है। यदि हम बाँधों से ही बिजली बनाते और उनसे नहीं खरीदते तो कल को वे न्यायालय की का दरवाजा खटखटा सकते थे। इस रिपोर्ट के आने के बाद हमने तय किया है कि अब ताप विद्युत संयंत्रों से बनी बिजली का उपयोग कम करेंगे और सौर ऊर्जा पर ज्यादा फोकस करेंगे। सस्ती सौर ऊर्जा के लिये मध्य प्रदेश सरकार ने अनुबन्ध भी किया है।'
पहली बात सरकार के कामकाज के ढंग और प्रशासन की नीतियाँ इस तरह की होनी चाहिए कि जनता के पैसों को दुरुपयोग से बचाया जा सके। आमतौर पर सरकारें जिन लाखों करोड़ रुपयों का यहाँ–वहाँ उपयोग करती है, वह विभिन्न करों के माध्यम से सरकार के खजाने में जमा होता है। ऐसे में सरकारों से हमेशा यह अपेक्षा रहती ही है कि इसका एक भी रुपया यदि कहीं खर्च हो रहा है तो उसका जन हित में सम्यक उपयोग होना चाहिए। जन धन के दुरुपयोग का किसी को भी कोई अधिकार नहीं हो सकता।
और दूसरी महत्त्वपूर्ण बात कि बाँधों के निर्माण और वहाँ मौजूद सरकारी अमले पर लगातार खर्च होने के बाद भी हम उसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। यह सीधे तौर पर शासकीय राशि का दुरुपयोग ही है। यहाँ सवाल यह भी उठाना लाजमी है कि क्या हमें अपनी जलविद्युत परियोजनाओं के बारे में फिर से एक बार गम्भीरतापूर्वक सोच-विचार की जरूरत नहीं है कि इतने बड़े प्राकृतिक नदी तंत्र को बर्बाद कर देने के बाद भी यदि हम इनका समुचित दोहन नहीं कर पा रहे हैं तो इनका क्या अस्तित्व है।
यह भी कि एक बाँध परियोजना को पूरा होने में कितने लोगों को विस्थापित करना पड़ता है, गाँव-के-गाँव बेदखल हो जाते हैं। हजारों बीघा के खेत, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, भाषा-बोली, परिवेश सब कुछ खत्म हो जाता है। करोड़ों की लागत आती है और सबसे बड़ा तो इसका स्थानीय पर्यावरण और उसकी नदी के तंत्र पर विपरीत असर पड़ता है, जिसकी पूर्ति सम्भव कभी नहीं हो पाती है। ऐसे में नीति-नियंताओं को अब आगे की बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी देने से पहले इन बातों का ध्यान रखना होगा।
Path Alias
/articles/baandhaon-maen-labaalaba-paanai-phaira-bhai-kharaidai-baijalai
Post By: Editorial Team