बाकी जगह भी कोई फर्क नहीं है

मसहा आलम में तो तीन चौथाई परिवारों को पुनर्वास मिला ही नहीं। सारे संपर्कों के बावजूद अखता में भी लोग छूट ही गए और वह सचमुच सड़क पर हैं। एक दूसरे गाँव बरवा टोला में पुनर्वास मिला मगर वहाँ कोई गया ही नहीं। इस गाँव के मुहम्मद शकील बताते हैं, ‘‘...हमारा साठ सदस्यों का संयुक्त परिवार था जब पुनर्वास की बात उठी थी। हम लोग चार भाई थे और चारों जवान थे। हम लोगों को डर था कि अगर चार नाम अलग-अलग लिखवाये जायेंगे तो चारों को सरकार अलग-अलग जगहों पर बसा देगी। इस यकीन पर कि हमारे परिवार के सदस्यों की तादाद और उस समय के हमारे मकान की जमीन को देखते हुए उसी के जैसा पुनर्वास मिलेगा हमलोग इत्मीनान कर के बैठे थे। अफसोस, कुल मिला कर पूरे परिवार को 7 डेसिमल (लगभग 3,000 वर्ग फुट) जमीन मिली। हमारा पुराना घर 8 कट्ठा 10 धुर (करीब 16,000 वर्ग फुट) में था। अब वहाँ पुनर्वास में जा कर क्या करते? उस जमीन तक जाने का रास्ता भी नहीं था, हम लोगों ने रास्ते की बात उठाई जो आज तक (जून 2010) नहीं बना। वह जमीन वैसे ही पड़ी हुई है। जमीन भी नीची है और उसके नीचा होने के कारण वहाँ कमर भर पानी लगा रहता है। इसलिए गाँव का कोई आदमी वहाँ नहीं गया। हमलोगों की खेती की जमीन यहीं है। आज कल तो हालत यह है कि दस कदम चल कर मजदूर जाने को तैयार नहीं है तो 1-2 किलोमीटर जा कर कौन सा मजदूर काम करेगा? अब मेरे चार लड़के हैं, दूसरे भाई के पाँच और तीसरे के दो लड़के हैं। चौथा भाई साथ रहता है। इतने परिवार के लोग डेढ़ कट्ठे जमीन में कैसे जिंदगी बसर करते? लाठी भांजने की ताकत हम में है नहीं, ताकत बस इतनी ही है कि आप हमसे सवाल पूछें और हम जवाब दें। बगल के चकवा गाँव वाले हाईकोर्ट गए थे पुनर्वास की जमीन के लिए और वहाँ से उनकी डिग्री भी हुई थी कि उनको हर परिवार पीछे पाँच कट्ठा जमीन मिलेगी। मगर सब डेढ़ कट्ठे में सिमट कर रह गए। एक कट्ठा करीब पौने पाँच डेसिमल होता है। किसी को भी उसका हक नहीं दिया। न जाने कितने परिवार छूट गए जो बाद में दौड़ते रह गए मगर लिस्ट में नाम नहीं जुड़वा पाये।’’

उधर पिपराढ़ी सुल्तान गाँव के निवासियों को शिवहर वाले पिपराढ़ी में पुनर्वास मिला। जो चला गया उसने इच्छानुसार जमीन दखल कर ली। जो रह गया वह वैसे ही पड़ा हुआ है। मरपा ताहिर गाँव के पुनर्वास के लिए जब सूची बन रही थी तब उसमें मुंशी ताहिर लिखना भूल गया और जब उन नामों के साथ मरपा की सूची का सत्यापन किया गया तब वहाँ उन नामों का कोई व्यक्ति मिला ही नहीं। दरअसल, यह सत्यापन मरपा सिरपाल में हो रहा था जो मेजरगंज प्रखंड का एक गाँव है। मरपा ताहिर का नाम सूची में जुड़वाने में गाँव वालों के छक्के छूट गए और काम तभी बन पाया जब ठाकुर गिरिजा नन्दन सिंह ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया। गिरिजा नन्दन सिंह इलाके की बड़ी राजनैतिक हस्ती थे और विधायक तथा सांसद भी रह चुके थे।

यहाँ तो खैर गिरिजा नन्दन सिंह ने लोगों की मदद की और उनका कुछ भला हो गया मगर जहाँ मदद का हाथ बढ़ाने वाला कोई नहीं था वहाँ तो लोग अर्श से फर्श पर आ गए। ऐसे ही लोगों की त्रासदी बताते हैं बनबीर (बकठपुर) के अवधेश कुमार शर्मा जिनका कहना है, ‘‘...पुनर्वास की जमीन का जब अधिग्रहण हो रहा था तब काफी विवाद हुआ था। एक ही व्यक्ति की जमीन मान लीजिये बांध के लिए अक्वायर हुई और उसी की जमीन पुनर्वास के लिए अक्वायर हुई तो वह आदमी तो सड़क पर आ जायेगा और इस ज्यादती के खिलाफ लड़ेगा। जब बांध यहाँ तक पहुँचा तब यहाँ तो नदी आजाद थी और तटबंध के बाहर भी निकल कर घूमने लगी। उसमें हम लोगों की जमीन ढह गयी। बांध आगे बढ़ा तो नदी ने अंदर की जमीन को काट दिया, फिर हमारी ही जमीन पुनर्वास के लिए अक्वायर होती है। एक ही आदमी की जमीन को आप कितनी बार अक्वायर कीजियेगा या कटवा दीजियेगा? पुनर्वास के नाम पर आप किसी को भूमिहीन क्यों बना देंगे? बांध की बात तो समझ में आती है कि जिसकी जमीन अलाइनमेन्ट में पड़ गयी वह जायेगी मगर बाकी कामों के लिए तो कुछ तो समझदारी से काम लेना पड़ेगा। हम लोगों की जमीन बकठपुर में बनबीर गाँव में थी-वह पुनर्वास में चली गयी। हमारा बांध के अंदर कुआं था, खलिहान था-वह सब चला गया। मान लीजिये आपका कोई बड़ा प्लॉट था और उसके बीच में से बांध बनता तो आपकी जमीन के तीन टुकड़े हो गए। बांध वाली जमीन का मुआवजा मिल गया और दोनों तरफ की जमीन से मिट्टी काट कर बांध पर डाल दी गयी। दोनों तरफ गड्ढ़े हो गए औरतब वह बची हुई जमीन किसी काम की नहीं रही। इससे अगर आपको तकलीफ है तो लड़ाई लड़ते रहिये। कितने परिवार शून्य पर पहुँच गए। क्या हम किसी भी चीज के हकदार नहीं थे, सिर्फ इसलिए कि हमारा घर अलाइनमेन्ट के बाहर था?’’

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Post By: tridmin
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