बागमती योजना के निर्माण की बहस जनता और जन-प्रतिनिधियों के बीच

दिसम्बर 1955 में सेन्ट्रल वाटर ऐण्ड पॉवर कमीशन के मुख्य अभियंता डॉ. के. एल. राव बागमती क्षेत्र का दौरा करने के लिए आये। उन्होंने बिहार के चीफ इंजीनियर एच. के. श्रीनिवास के साथ पूरे इलाके को देखा और नाव में बैठ कर 1 दिसम्बर 1955 के दिन नुनथर तक की यात्रा की जहाँ नदी पर एक बहूद्देशीय बांध प्रस्तावित था। यात्रा के अनुभवों को समेटते हुए डॉ. के. एल. राव का मानना था कि नुनथर बांध के निर्माण के साथ-साथ बागमती नदी के पानी को विभिन्न धाराओं की मदद से एक विस्तृत इलाके पर फैलाने की जरूरत है। उनके बयान से ऐसा लगता है कि वे नदी पर तटबन्धों के निर्माण के पक्ष में नहीं थे।

1953 और 1954 की बाढ़ तथा कोसी नदी पर तटबन्धों की स्वीकृति (दिसम्बर 1953) ने बागमती क्षेत्र की जनता के बीच जहाँ हताशा और उपेक्षा को जन्म दिया वहीं उसने स्थानीय नेताओं पर चुप्पी तोड़ने और क्षेत्र के लिए कुछ करने के लिए दबाव बढ़ाया और यहाँ के नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बागमती नदी की बाढ़ पर नियंत्रण की मांग करने के लिए प्रेरित किया। इसी सिलसिले में बागमती अधवारा सम्मेलन के संयोजक और सीतामढ़ी कांग्रेस समिति के मंत्री महन्त रघुनाथ दास ने पटना में बयान दिया ‘‘आश्चर्य की बात है कि अब तक जांच कार्य भी पूरा नहीं किया गया है और अधवारा योजना तैयार होने पर भी पूरी नहीं की जा रही है।’’ उनका मानना था कि बागमती नदी की बाढ़ किसी भी मायने में कोसी नदी की बाढ़ से कम भयंकर और कम नुकसान पहुँचाने वाली नहीं है मगर उनके क्षेत्र और नदी की उपेक्षा हो रही है। इन्हीं विचारों की अनुगूंज 16 मार्च 1954 को सीतामढ़ी में सम्पन्न बागमती-अधवारा सम्मेलन में भी सुनाई पड़ी जिसमें मांग की गयी कि इस क्षेत्र की बाढ़ प्रभावित जनता की भागीदारी और आम समझ के आधार पर बाढ़ नियंत्रण की योजना बनायी जाए। जय प्रकाश नारायण ने इस सम्मेलन में यहाँ की बाढ़ समस्या के वैज्ञानिक अध्ययन पर बल दिया।

बिहार विधानसभा में दामोदर झा और मौलवी मसूद के बयान इसी श्रृंखला की कड़ी थे। 1954 की बाढ़ से बागमती क्षेत्र बचा नहीं था। बाढ़ के बाद एक बार फिर बागमती को नियंत्रित करने के प्रस्ताव तेजी से उठने लगे। राम दुलारी सिंह का कहना था, ‘‘...मुजफ्फरपुर के सीतामढ़ी सब-डिवीजन में बाढ़ की जो चोट है वह भूकम्प की चोट से कई गुणा अधिक है (15 जनवरी 1934 के बिहार भूकम्प में 10,000 लोग मारे गए थे और मुजफ्फरपुर जिला सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था। इस भूकम्प में इस जिले के 2,539 लोग मारे गए थे। -लेखक)। उधर जनक सिंह ने 1953 में सरकार द्वारा गठित बाढ़ समिति पर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘‘... मैं बिना संकोच के यह कह सकता हूँ कि अंग्रेजों के समय जिस तरह उत्तर बिहार उपेक्षित था ठीक उसी तरह से आज भी उपेक्षित है। बाढ़ आने के बाद बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों का समाधान सोचा जाता है लेकिन इससे क्या समस्या का समाधान हो सकता है? ...अगर सरकार ने यह समझ रखा है कि कोसी योजना को कार्यान्वित कर देने से ही उत्तर बिहार की सारी समस्याएँ हल हो जायेंगी तो मैं समझता हूँ कि यह खयाल गलत है। बागमती, बूढ़ी गंडक, लखनदेई और सिकरहना नदी को पालतू बनाना बहुत जरूरी है ...नदियों की जांच पड़ताल करने के लिए तथा नियंत्रण के लिए केन्द्रीय कमीशन के साथ-साथ एक प्रान्तीय कमीशन की भी नियुक्ति हो।’’

इन भावनाओं की अनुगूंज 1955-56 के लिए बजट प्रस्ताव पर बहस के समय भी विधान सभा में सुनाई पड़ी जब 1954 की बाढ़ के समय सरकार की निष्क्रियता पर बार-बार उंगली उठाई गयी। विवेकानन्द गिरि का कहना था, ‘‘...बागमती एक ऐसी भयानक नदी है जिससे चम्पारण, मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिलों में काफी नुकसान होता है। यद्यपि कुछ लोगों का कहना है कि यह बहुत छोटी नदी है। छोटी होते हुए भी इसका जो प्रकोप होता है वह अत्यन्त भयंकर है। बागमती में बाढ़ आने से ही बूढ़ी गंडक और लखनदेई नदियों में जल प्राप्त होता है। इस नदी को कन्ट्रोल करने के लिए आज से 100 वर्ष पहले से योजना बनती रही और टूटती रही।’’ उधर गिरिजा नन्दन सिंह का कहना था, ‘‘...कोसी से नुकसान जो लोगों को होता है उससे कम बागमती से नहीं होता। फिर भी हम देखते हैं कि गवर्नर साहब की स्पीच में बागमती का कोई जिक्र नहीं है। यदि सचमुच में सरकार की ख्वाहिश बाढ़ रोकने की है तो बागमती को सबसे पहले नियंत्रित करना होगा।’’

इस साल यूँ तो पूरे बिहार में बाढ़ से भारी तबाही हुई थी मगर बाढ़ नियंत्रण के नाम पर जहाँ कोसी को नियंत्रित करने की बात जोर-शोर से चल रही थी वहीं छोटी नदियों के नियंत्रण के काम की शुरुआत 1954 में हो चुकी थी और बूढ़ी गंडक के दाहिने किनारे पर मुजफ्फरपुर से अखाड़ा घाट और उसके आगे पूसा तक तटबन्ध बनाने का काम शुरू हो गया था। यहाँ हम एक बार फिर याद दिला दें कि ब्रिटिश हुकूमत तटबन्धों के निर्माण के खिलाफ थी और इसकी खुमारी 1953 तक कायम रही। उस अमल के इंजीनियरों को तटबन्धों के निर्माण की बारीकियों का अन्दाजा नहीं था और शायद यही वजह थी कि बूढ़ी गंडक के किनारे तटबन्ध के निर्माण का यह कार्य नदी के एक ही तरफ हो रहा था। जब बरसात शुरू हुई तब नदी का पानी चढ़ना शुरू हुआ मगर तटबन्ध नदी के एक ही किनारे पर बना हुआ था। स्वाभाविक तौर पर बाढ़ का पानी दूसरी तरफ फैला। जब बाढ़ पीड़ितों ने शोर मचाना शुरू किया तब सरकार ने आश्वासन दिया कि अगले साल तक बाएं किनारे पर भी तटबन्ध पूरा कर लिया जायेगा। लोगों का कहना था कि अगर वह इस साल नदी की बाढ़ से बर्बाद हो ही जाते हैं तो अगले साल तटबन्ध बन जाने से भी क्या फायदा होगा?

आर्यावर्त, पटना ने अपने संपादकीय (31.10.54) ‘बाढ़ नियंत्रण का बेढंगा तरीका’ शीर्षक से लिखा, ‘‘...अभिप्राय यह है कि इस सुविचारित योजना के फलस्वरूप सकरा थाने का वह भाग जो गंडक के दक्षिणी किनारे पर पड़ता है बाढ़ से बचा लिया जायेगा, किन्तु बायें किनारे के सकरा थाने का हिस्सा, कटरा थाने का दक्षिणी हिस्सा और सदर थाने का कुछ हिस्सा तभी बच सकेगा जब भगवान ऐसा चाहेंगे।’’ समाचार पत्र का मानना था कि लखनदेई नदी के इर्द-गिर्द भी इसी तरह की परिस्थिति का निर्माण हो रहा है। इस समय (30 अक्टूबर 1954) समस्तीपुर में सम्पन्न एक बिहार बाढ़ नियंत्रण सम्मेलन में आचार्य कृपलानी ने कहा, ‘‘...जनता तो नेताओं में विश्वास करती है और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए भी तैयार रहती है मगर नेता ही फिसल जाते हैं। ऐसे कामों में जनता को स्वयं पूरी शक्ति से आगे बढ़ना चाहिये... अमीर-गरीब का भेद-भाव भुला कर सब एक साथ इस काम में जुट जायें। यदि सरकार आपके सामने कोई योजना लाती है तो सरकार के हाथों को आप अवश्य मजबूत करें।’’ इस गोष्ठी में जय प्रकाश नारायण, बी. पी. कोइराला और दादा धर्माधिकारी जैसे दिग्गज नेता और समाजकर्मी मौजूद थे।

उधर 25 नवम्बर 1954 के दिन समस्तीपुर में उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या पर तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की अध्यक्षता में ‘उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या’ पर सरकार की तरफ से एक गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें महेश प्रसाद सिन्हा, हरिनाथ मिश्र, दीप नारायण सिंह (सभी मंत्री), टी. पी. सिंह, एस. बी. सोहनी (दोनों प्रशासक) तथा राज्य के चीफ इंजीनियर एम. पी. मथरानी मौजूद थे। इस गोष्ठी में भी बूढ़ी गंडक के एक ही किनारे पर तटबन्ध बनाकर दूसरे किनारे पर हुई बर्बादी का प्रश्न चर्चा के लिए उठा। चीफ इंजीनियर को यह आश्वासन देना पड़ा कि यथाशीघ्र दूसरे किनारे के तटबन्धों को पूरा कर लिया जायेगा तथा और ज्यादा तबाही नहीं होने दी जायेगी। यह तसल्लियाँ थोथी साबित हुईं जिनकी ओर बिहार विधानसभा में गिरिजा नन्दन सिंह ने इशारा किया था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा था, ‘‘... आज आप बूढ़ी गंडक को बांध रहे हैं और वह भी एक किनारे पर बांध रहे हैं। इसका नतीजा यह होगा कि आप एक तरफ के लोगों को फायदा पहुँचावेंगे और दूसरी तरफ के लोगों को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचावेंगे। बूढ़ी गंडक वह नदी है जिसमें बागमती आदि नदियों का पानी गिरता है और उसी के जरिये इनके पानी के निकलने का रास्ता है। लेकिन जब आप इसमें बांध, बांध देंगे तो पानी निकलने का रास्ता बन्द हो जायेगा और उससे आप जहाँ 200 वर्ग मील के लोगों को फायदा पहुँचायेंगे वहाँ 600 वर्ग मील के लोगों को नुकसान पहुँचेगा।

पता नहीं किस इंजीनियर के दिमाग से यह बात निकली।’’ यह एक अलग बात है कि नदी के उत्तरी किनारे पर तटबन्ध का निर्माण 1955 की बाढ़ के समय भी नहीं हुआ था जैसा कि सदर थाना किसान सभा के मंत्री डॉ. हरि नन्दन ठाकुर द्वारा सम्पादक आर्यावर्त को लिखे एक पत्र से जाहिर होता है। उन्होंने इस पत्र में उत्तरी किनारे की बाढ़ से दुःसह स्थिति और विभाग की अकर्मण्यता पर चिन्ता व्यक्त की थी। इनमें से बहुत सी बातें आज भी कही जाती हैं और यह इशारा करता है कि इन 50-60 वर्षों में हमारे काम करने के तरीके में या सोचने के ढंग में कोई खास फर्क नहीं आया है और हम वहीं के वहीं खड़े हैं जहाँ पहले थे। यहाँ हम एक बार फिर आर्यावर्त के सम्पादकीय को उद्धृत कर रहे हैं जिसमें इस गोष्ठी और उस समय के उभरते विचारों पर प्रकाश पड़ सके, ‘‘...दक्षिण भारत के एक विशेषज्ञ इंजीनियर ने यह विचार व्यक्त किया है कि लोगों ने नदी के क्रीड़ा क्षेत्र में अपना क्रीड़ा क्षेत्र मनमाने ढंग से बना लिया है और पर्याप्त पुल नहीं बनाकर इस प्रकार रेलवे लाइनें और सड़कें बना दी हैं जिसमें पानी के बहाव की सम्यक व्यवस्था रहने नहीं दी गयी है और यह बाढ़ के प्रकोप के प्रमुख कारकों में है।

उक्त इंजीनियर ने नदियों के किनारों पर पुश्ते (तटबंध) बांधने के प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया है। एक दूसरे विशेषज्ञ ने यह विचार रखा है कि चूँकि उत्तर-पूर्व भारत की सभी नदियाँ हिमालय से निकलती हैं और बरसात में इनमें बाढ़ आ जाती है इसलिए इस भाग के हिमालय क्षेत्र में इस बात की जानकारी प्राप्त करने की व्यापक व्यवस्था होनी चाहिये कि कहाँ, कब, कितना पानी हुआ और उससे कहाँ किस रूप में बाढ़ आ सकती है। यह व्यवस्था बाढ़ के प्रकोप को रोक तो नहीं सकती किन्तु इससे लोगों को बाढ़ की भयानकता की पूर्व सूचना मिल जा सकती है। एक संयुक्त राष्ट्र संघीय विशेषज्ञ ने यह परामर्श दिया है कि बाढ़ वाले क्षेत्रों में ऐसे ही अनाज उपजाये जाएं जो पानी में भी हुआ करते हैं। यह उचित प्रतीत होता है और उत्तर बिहार में जहाँ बराबर पानी रहा करता है वहाँ इस प्रकार के धान की खेती होती भी है किन्तु उक्त विशेषज्ञ महोदय को बिहार, आसाम और बंगाल की खेती की स्थिति की पूरी जानकारी नहीं है और वे शायद नहीं जानते कि जहाँ बाढ़ आती है वहाँ पानी बराबर नहीं रहता और यदि पानी में होने वाले अनाज की सर्वत्र खेती की जाए तो वह खेती मारी जायेगी। एक व्यक्ति ने यह विचार प्रकट किया कि नदियों की शाखाएं निकाल कर उनकी बाढ़ की शक्ति नष्ट की जा सकती है और यदि उन्हें सरकार पचास करोड़ दे दे तो वे इस समस्या का समाधान कर दे सकते हैं।’’

यह सारे विचार प्रायः बिहार में तटबन्धों के निर्माण के पहले के हैं और यह सारी बातें कमोबेश आज भी कही जाती हैं। बूढ़ी गंडक के निर्माणाधीन तटबन्ध ने अपने उत्तरी किनारे पर परेशानियाँ पैदा कर दी थीं इसलिए उनकी चर्चा जरूरी थी। बागमती पर नुनथर में प्रस्तावित बांध की जानकारी शायद उस समय बहुत लोगों को नहीं थी इसलिए वह चर्चा में नहीं आयी। यही हाल नदियों की उड़ाही, गाँवों को ऊँचा करना और नदी-जोड़ योजना का भी रहा होगा। यह सारी चीजें बिहार और देश में बाढ़ नियंत्रण के इतिहास में बाद में जुड़ी हैं। कुछ विदूषक भी इस गोष्ठी में मौजूद थे जिन्हें यह पता नहीं था कि वे कह क्या रहे हैं। सम्मेलन में एक विशेषज्ञ का कहना था, ‘‘...यदि दक्षिणीय और पश्चिमीय मौसमी हवाओं को रोकने के लिए भारत के मध्य भाग में ऊँची दीवार खड़ी कर दी जाए या इसके लिए कोई दूसरी ही व्यवस्था की जाए तो बरसात के दिनों में इस नदी क्षेत्र में पानी कम बरसेगा, फलतः बाढ़ का प्रकोप भी जाता रहेगा।’’ तथाकथित विशेषज्ञ महोदय के इस मूर्खतापूर्ण वक्तव्य पर किसी भी प्रकार की कोई टिप्पणी की गुंजाइश नहीं है मगर दुःख इस बात का है कि समाचार पत्रों ने इस तरह की फजूल की बात को चर्चा का विषय बनाया।

गिरिजा नन्दन सिंह बागमती परियोजना के पक्षधर थे। उन्होंने 1970 में बिहार विधान सभा में सरकार को जो उलाहना दिया था वह बड़ा दिलचस्प है। उन्होंने कहा था, ‘‘...मैं एक दुःखद कहानी सुनाना चाहता हूँ। यह है कि 1947 में हम लोगों ने बागमती योजना के लिए एक आन्दोलन शुरू किया और इस ओर बहुत ज्यादा ध्यान सरकार का गया। हमें याद है कि 1951-52 में सरकार का एक ब्लू प्रिंट भी निकला था जिसमें 22 करोड़ रुपये की प्लानिंग थी। लेकिन 1952 में जो सरकार बनी उसमें गण्डक एरिया के मिनिस्टर हो गए और गण्डक का नाम आ गया। पाँच मिनिस्टर में चार मुजफ्फरपुर के थे और एक सारण के थे। इन पाँचों से मिल कर हमने कहा कि हमें तकलीफ है कि आपने बागमती को खटायी में फूलने दिया और उसको वेस्ट पेपर बास्केट में फेंक दिया और गण्डक योजना को ले लिया जिससे एक बूंद भी पानी नहीं मिल रहा है।’’

उधर 7 अप्रैल 1955 को शिवहर में बिहार राज्य के तत्कालीन सिंचाई मंत्री राम चरित्र सिंह ने बयान दिया कि बागमती के उद्गम के निकट तथा परदेशिया नाला के समीप ऐसे दो विस्तृत जलाशय बनाये जायेंगे जिससे भविष्य में नदी का धारा-परिवर्तन न हो। शायद उनका इशारा नुनथर में प्रस्तावित बांध की ओर था और सुगिया-परदेशिया में उन दिनों एक वीयर बनाने की बात चलती थी और मुमकिन है उन्होंने इसी उद्देश्य से परदेशिया का नाम लिया हो। नदी के दोनों किनारों पर तटबन्धों के निर्माण और उनमें जगह-जगह पर स्लुइस गेट बना कर नहरों द्वारा सिंचाई की व्यवस्था करने की ओर भी उन्होंने इशारा किया था। इतना हो जाने पर सिंचाई मंत्री का अनुमान था कि इलाके की कृषि पैदावार डेढ़ गुनी हो जायेगी। उन्होंने बरैगनियाँ में एक बिजली घर बनाने का भी वायदा उस दिन किया था जिससे वह पहले सीतामढ़ी और बाद में शिवहर को बिजली देना चाहते थे। ठाकुर गिरिजा नन्दन सिंह ने इस योजना के शीघ्र क्रियान्वयन पर बल दिया।

इन सारी कोशिशों के बीच 1955 की बाढ़ का मौसम आ गया और ढेंग पुल पर एक बार फिर उतना ही पानी आया जितना 1954 में आया था। इस साल नदी की बाढ़ से होने वाली तबाही का अलग रंग था। नदी से बहुत सी धाराएं फूटने लगीं जिसमें मरपा, देवापुर, जिहुली, ललुआ और सुगिया-परदेशिया गाँवों के पास फूटती धाराएं मुख्य थीं। इस बार नुकसान 1954 से कम हुआ था। दिसम्बर 1955 में सेन्ट्रल वाटर ऐण्ड पॉवर कमीशन के मुख्य अभियंता डॉ. के. एल. राव बागमती क्षेत्र का दौरा करने के लिए आये। उन्होंने बिहार के चीफ इंजीनियर एच. के. श्रीनिवास के साथ पूरे इलाके को देखा और नाव में बैठ कर 1 दिसम्बर 1955 के दिन नुनथर तक की यात्रा की जहाँ नदी पर एक बहूद्देशीय बांध प्रस्तावित था। यात्रा के अनुभवों को समेटते हुए डॉ. के. एल. राव का मानना था कि नुनथर बांध के निर्माण के साथ-साथ बागमती नदी के पानी को विभिन्न धाराओं की मदद से एक विस्तृत इलाके पर फैलाने की जरूरत है। उनके बयान से ऐसा लगता है कि वे नदी पर तटबन्धों के निर्माण के पक्ष में नहीं थे।

Path Alias

/articles/baagamatai-yaojanaa-kae-nairamaana-kai-bahasa-janataa-aura-jana-paratainaidhaiyaon-kae

Post By: tridmin
×