बागमती एवम् अधवारा समूह घाटी की पारम्परिक सिंचाई व्यवस्था
ढेंकुल, कड़ीन, ढैंचा और रहट अब देखने को भी नहीं मिलता। इन सबको डीजल चालित पम्पों ने विस्थापित कर दिया है। इसकी वजह से जो काम पहले मानव श्रम या बैलों के माध्यम से प्रायः बिना मूल्य हो जाता था अब उसके लिए पूंजी लगती है। कमला नदी और पश्चिमी कोसी नहर से सिंचाई के जो सपने देखे गए थे उन सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिशें पिछले पचास वर्षों से जारी हैं मगर उनका कोई किनारा नहीं दिखायी पड़ता।
कृषि और अन्न उत्पादन में सिंचाई का महत्वपूर्ण स्थान है। मिथिला के इस क्षेत्र में तालाबों और पाइनों के माध्यम से सिंचाई की एक समृद्ध पारम्परिक व्यवस्था रही है। बागमती घाटी के अधिकांश क्षेत्रों में खरीफ के मौसम में धान और उसके बाद के रबी के समय खेतों में केवल बीज छींट देने और बाद में जाकर फसल काट लेने के किस्से बताने वाले बुजुर्गों की तादाद अब जरूर दिनों दिन घटती जा रही है लेकिन इस घाटी की उर्वर भूमि तथा सतही और भूमिगत जल की सुलभ उपलब्धि ने यहाँ की कृषि को हमेशा सहयोग दिया है। ‘पग-पग पोखर’ की उपस्थिति को अपनी शान मानने वाले इस क्षेत्र में तालाबों की भरमार है जिनका वर्गीकरण आमतौर पर या तो उनके आकार, उपयोगिता, स्थान या फिर वर्ष के विभिन्न भागों में उनमें पानी की उपलब्धता से होता था। आकार के अनुसार इन्हें कूप, वापी, पुष्करिणी या तड़ाग का नाम दिया जाता था। बाद में ह्रद इसमें और जुड़ गया जो कि विराट आकार का और काफी गहरा तालाब होता था जिसमें अगर कई वर्षों तक बारिश न भी हो तो भी पानी की कमी नहीं पड़ती थी। सरोवर और पुष्कर इसी श्रृंखला के संचयन जलाशय थे।महाभारत में भीष्म के माध्यम से वेदव्यास ने कोई तालाब कितने समय के लिए पानी संचित रख सकता है उसके अनुरूप उनका विभाजन किया है। उन्होंने इस तरह के तालाबों के निर्माण से मिलने वाले पुण्य की भी व्याख्या की है। हिन्दू संस्कृति में इस तरह के जल-स्रोतों का निर्माण एक धार्मिक कृत्य माना जाता रहा है और इसे अपनी कीर्ति रक्षा का सबसे सहज उपाय भी बताया गया है। कूप या कुएं इस श्रृंखला की सब से छोटी इकाई हुआ करते थे जो कि न केवल पेय जल के स्रोत थे वरन उनके आकार के अनुसार उनसे सिंचाई की भी संभावनाएं बनती थीं। कुओं से पानी निकालने का सबसे सुलभ साधन ढेंकुल का होता था जो कि लीवर के सिद्धान्त पर काम करने वाली एक संरचना है। इसमें Y के आकार के पतले वृक्ष के तने को सीधा जमीन में कुएं के पास गाड़ कर उस पर एक लम्बे बांस या लकड़ी को संतुलित किया जाता है। इस बांस या लकड़ी के एक सिरे पर मिट्टी का लोंदा छाप दिया जाता है और दूसरे सिरे पर रस्सी से बांध कर एक कूंड़ को लटका कर कुएं के अन्दर ले जाते हैं और पानी को ऊपर खींच लेते हैं (चित्र-2.1)। इसके अलावा कड़ीन और ढैंचा का उपयोग सतही जल को बहुत ही साधारण ढंग से खेतों तक पहुँचाने के लिए किया जाता था। रहट का जिक्र साधारणतः पानी को कुओं के अन्दर से ऊपर उठाने के साधन के रूप में आता है। मोठ, जो कि चमड़े का बना हुआ बड़ा थैला होता है, का प्रयोग भी पारम्परिक रूप से कुओं से पानी निकालने के लिए होता था जिसे कुओं पर एक घिर्री के जरिये लटका दिया जाता था। चमड़े के इस थैले को कुओं में उतारने और वापस खींचने का काम बैलों के माध्यम से होता था। सिंचाई के इस साधन का मिथिला में कोई उदाहरण नहीं मिलता मगर ढेंकुल, कड़ीन, ढैंचा और रहट का इस्तेमाल कुछ दशक पहले तक व्यापक रूप से होता था। इस संरचनाओं को चित्र-2.1 में दिखाया गया है। पेट्रोल, डीजल, मिट्टी के तेल, बिजली चालित पम्पों ने अब इन सभी साधनों का स्थान ले लिया है।
बागमती घाटी और अधवारा समूह के इस क्षेत्र में छोटी-छोटी नदियों का जाल सा बिछा हुआ है। इन छोटी-छोटी नदियों की धारा के सामने मिट्टी के अस्थाई बांध बना कर पानी के लेवल को ऊँचा उठा दिया जाता था और फिर उसे अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार वांछित दिशा में मोड़ कर सिंचाई कर ली जाती थी। जमीन और नदी के तल का बहुत हलका ढलान इस तरीके से पानी के प्रबन्धन में बहुत मदद करता है और इससे न सिर्फ सिंचाई की व्यवस्था हो जाती थी वरन् नौ-परिवहन भी आसान हो जाता था जिससे सामान और कृषि उपज ढोने में बड़ी मदद मिलती थी।
स्थानीय किसान सूखे के साल में अधवारा समूह की नदियों जैसे हरदी, कन्टावा, रातो, माढ़ा, जमुने, शिकाओ, खिरोई, सोइली या फिर बागमती घाटी की बहुत सी छोटी-छोटी नदियाँ जैसे पुरानी धार, कोला धार या लखनदेई आदि नदियों को जगह-जगह बाँध कर उसके पानी को खेतों की तरफ मोड़ कर सिंचाई की व्यवस्था कर लिया करते थे। इसी तरह जहाँ तालाब जैसा कोई सतही पानी का स्रोत उपलब्ध हो वहाँ कूंड़ या कड़ीन जैसे माघ्यमों से पानी को उठा कर फसल सींच ली जाती थी। इस इलाके की मुख्य फसल धान थी जिसमें से लगभग 60 प्रतिशत अगहनी धान हुआ करता था। यह धान जुलाई से अगस्त के महीनें में रोपा जाता था और दिसम्बर-जनवरी के महीनें में काट लिया जाता था। बाकी 40 प्रतिशत जमीन पर जून के महीने में भदई धान, मकई और मड़ुआ लगाने का रिवाज था। यह फसल सितम्बर तक घर आ जाती थी। अक्टूबर के अंत या नवम्बर की शुरुआत में खाली हुई जमीन पर खेसारी, चना, मटर, तेलहन और चीना छींट दिया जाता था। इस तरह से लगभग पूरे वर्ष कृषि कार्य चलता था और जीवन धारा सामान्य गति से चलती रहती थी।
पाइनों के माध्यम से सिंचाई व्यवस्था के बारे में अधवारा क्षेत्र के एक वयोवृद्ध किसान राम दरेस राय, ग्राम बंजरही, प्रखण्ड परिहार, जिला सीतामढ़ी ने लेखक को हरदी नदी के पानी का उपयोग करने का बड़ा दिलचस्प किस्सा बयान किया। बंजरही के ऊपर हरदी नदी में नेपाल से आने वाली दो छोटी-छोटी नदियाँ मिलती हैं जिनके नाम कन्टावा और गेरुका है। जहाँ यह तीनों नदियाँ मिलती हैं वहाँ आस-पास के गाँवों जैसे मलाही, फुलहट्टा, मजौलिया, बंजरही और शिवनगर आदि गाँवों के लोग रबी के मौसम में हरदी नदी पर मिट्टी का बांध बना कर नदी के पानी को किनारे से निकलने वाली नहर में ठेल दिया करते थे। इस नहर का निर्माण भी गाँव वालों ने पिछले वक्तों में अपने सामूहिक श्रम से किया था। कहते हैं इस नहर की गहराई और चौड़ाई इतनी थी कि उसमें अगर हाथी घुस जाए तो बगल से दिखायी नहीं पड़ता था। फिलहाल यह नहर काफी छोटी हो गयी है मगर इसका उपयोग अभी भी होता है। जब नदी में पानी का लेवल बढ़ता है या फिर गाँव वाले मिल कर नदी को बांध देते हैं तब वह नदी के पानी को नहर में मोड़ देने में समर्थ हो जाते हैं। आगे चल कर इस नहर के दो भाग हो जाते हैं। एक हिस्सा मलाही, फुलहट्टा, शिवनगर, चनपुरा और मलियाबाड़ी होता हुआ आगे बढ़ता है। दूसरा हिस्सा मुजौलिया, बंजरही, जलेदर और नरगा होता हुआ आगे जाता है और दोनों तरफ के खेतों को सींचता जाता है।
राम दरेस राय कहते हैं कि उनके बाबा बताते थे, ‘‘एक बार जब हरदी नदी पर बांध बांधा गया था तो आस-पास के गाँवों को खेतों की सिंचाई करने में समय लग गया और नीचे के गाँवों को पानी मिलने में देर हो गयी थी। तब वे लोग खुद यहाँ बांध काटने के लिए आ गए थे। सुलह-सफाई के लिए स्थानीय दारोगा को आना पड़ गया था और तब जाकर यह तय हुआ कि पानी लेने के लिए समय निर्धारित कर दिया जाए जिससे नीचे के इलाके वालों को कोई तकलीफ न हो। तब यह भी तय हुआ था कि पानी को एक सप्ताह से ज्यादा नहीं रोका जायेगा। यहाँ का निलहा साहब भी हाथी पर बैठ कर लोगों को समझाने आया था कि झगड़ा-झंझट से कोई फायदा नहीं होगा और सभी को पुलिस की कार्यवाही से बचना चाहिये। बाबा यह भी बताते थे कि हरदी नदी से होकर अंग्रेज लोग नावों के माध्यम से लकड़ी ले जाया करते थे। नदी में पानी कम होने पर कभी-कभी नावें फंस जाया करती थीं। तब नदी में मिट्टी का बांध बना कर पानी का लेवल ऊपर उठाया जाता था और नावें आगे बढ़ जाया करती थीं। इस तरह नावों से लकड़ी और दूसरे सामान को ढोने में बहुत मदद मिला करती थी। राज्य में इमरजेन्सी के बाद जब कर्पूरी ठाकुर की सरकार बनी तो यहाँ के तत्कालीन विधायक रामजीवन प्रसाद ने कोशिश की कि नदी पर बार-बार बांध बनाने की जगह कोई पक्की व्यवस्था कर दी जाए और नहर में पानी को नियंत्रित करने के लिए एक स्लुइस गेट का निर्माण कर दिया जाय। स्लुइस गेट तो बना मगर अब वह ध्वस्त हो चुका है और बांध तो कभी बना ही नहीं। बात फिर लोगों के आपसी सहयोग पर आकर टिक गयी है। बरसात में पानी अगर न बरसे या देर से बरसे तो लोग फिर मिल कर कोशिश करते हैं।’’
लगता है कि कर्पूरी ठाकुर के शासन काल में इन छोटी-छोटी नदियों से सिंचाई की कोशिश जरूर हुई थी। तब वे इसी जिले से चुन कर विधान सभा में पहुंचे थे। पास के रजवाड़ा पश्चिमी क्षेत्र में भी झीम नदी पर इसी तरह से स्लुइस बना कर आस-पास के गाँवों में सिंचाई करने का प्रयास किया गया था। यह एक अलग बात है कि वह स्लुइस गेट भी जाम हो गया और काम नहीं करता।
अभी हाल के वर्षों तक बेनीपट्टी के पास देपुरा गाँव में किसान कमला की बछराजा धार को बांध करके उसके पानी को हजमा नाले से देपुरा, नदौत और मुहम्मदपुर होते हुए बेनीपट्टी के चैर में पहुँचा दिया करते थे। यहाँ से देपुरा, नदौत, मुहम्मदपुर, भटहीसेर, बेनीपट्टी, पौआम, बिरौली, अधवारी और सलहा गाँवों के किसान रब्बी की फसल के लिए इस पानी का उपयोग कर लेते थे। यह इन गाँवों का परम्परागत स्रोत और साधन था। बेनीपट्टी में ही चम्मा टोल के उत्तर बछराजा धार के पूर्वी किनारे से एक नाला निकलता है जो नवकी पोखरा (बेनीपट्टी) में गिरता है और धोबघट पुलिया से फिर बाहर निकलता है। इस नाले से बरहा, कटैया, बनकट्टा, दामोदरपुर और बलिया तक सिंचाई होती है। बछराजा के पश्चिम से जो नाला निकलता है वह सरिसब, बेनीपट्टी, बेहटा, जगत और जगत एराजी को पानी देता हुआ सोइली धार में जा मिलता है।
इस तरह की सामूहिक कोशिशों की एक भोंडी नकल 1957 के राज्य व्यापी सूखे में बागमती नदी की खनुआं धार पर की गयी थी। सरकार ने धुबौली, बिलन्दपुर और खनुआं में तीन अलग-अलग जगहों पर नदी की धारा के सामने छोटे-छोटे बांध बनवाये। कार्यक्रम यह था कि पहले धुबौली वाले बांध में ठहरे पानी से ऊपरी क्षेत्र में सिंचाई होगी और फिर यह बांध काट दिया जायेगा और पानी बिलन्दपुर तक आयेगा और वहाँ संचयित होकर नहरों के माध्यम से अगल-बगल की जमीन को सींचेगा। यह सिंचाई पूरी होने पर इस बिलन्दपुर वाले बांध को भी काट दिया जायेगा और पानी खनुआं पहुंचेगा और वहाँ भी पानी को संचित करके खेतों की ओर मोड़ दिया जायेगा और वहाँ भी सिंचाई हो जायेगी। लेकिन बांध बनने के बावजूद इनमें से कुछ भी नहीं हुआ। हथिया में उस साल पानी बरसा ही नहीं और धान जानवरों को खिलाने लायक भी नहीं बचा। विधायक नितीश्वर प्रसाद सिंह ने बिहार विधानसभा में इस पूरे प्रकरण की जांच की बात उठायी थी और दोषी व्यक्तियों को दण्डित करने का आग्रह किया था।
सिंचाई की आधुनिक व्यवस्था ने इस इलाके में सदियों से चली आ रही पारम्परिक और सामूहिक सामाजिक व्यवस्था का विकल्प बनने का एक भोंडा प्रयास भर किया है। ढेंकुल, कड़ीन, ढैंचा और रहट अब देखने को भी नहीं मिलता। इन सबको डीजल चालित पम्पों ने विस्थापित कर दिया है। इसकी वजह से जो काम पहले मानव श्रम या बैलों के माध्यम से प्रायः बिना मूल्य हो जाता था अब उसके लिए पूंजी लगती है। कमला नदी और पश्चिमी कोसी नहर से सिंचाई के जो सपने देखे गए थे उन सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिशें पिछले पचास वर्षों से जारी हैं मगर उनका कोई किनारा नहीं दिखायी पड़ता।
पुपरी थाने में नदियों के माध्यम से अधिकांश सिंचाई हो जाती थी इसलिए वहाँ तालाबों से सिंचाई का रिवाज नहीं था। फिर भी पोखरी खुदवाने के काम को यहाँ बड़ा ही पुनीत कार्य माना जाता है और उसे अपनी कन्या के समान ही पवित्र दृष्टि से देखा जाता है। कन्या के विवाह जैसे पैतृक दायित्व की तरह पोखरी का विवाह भी जट्ठ या जैठ के साथ उसी धूम-धाम से होता है जैसा कि बेटी के ब्याह का जश्न मनता है। जैठ, जो कि आम तौर पर साल के पेड़ का विराट तना होता है, पोखरी में गाड़ दिया जाता है और इसी जैठ की मौजूदगी से पोखरी के विवाहिता होने का अंदाजा लगता है। सभी मांगलिक कार्य जैसे विवाह के समय मिट्टी कोड़ने की रस्म आदि ऐसी ही विवाहिता पुष्करिणियों (पोखरी) के किनारे होती हैं। देख-भाल और रख-रखाव में जो तवज्जो विवाहिता पोखरियों को मिलती है वह साधारण पोखरियों को नहीं मिलती।
पुपरी थाने में कभी पांच बड़े-बड़े तालाब हुआ करते थे जो कि कालक्रम में मिट्टी भर जाने के कारण मर गए और उन पर खेती शुरू हो गयी। तालाबों की यह बेदखली अभी भी रुकी नहीं है। मुजफ्फरपुर की (1901) सेटिलमेन्ट रिपोर्ट में बाबू नीलमणि दे ने बनौल के एक तालाब के बारे में लिखा था कि उसका क्षेत्रफल 60 एकड़ था। इस तालाब से शिवहर थाने के एक बड़े क्षेत्र में सिंचाई होती थी। शिवहर राज से इस तालाब की नजदीकी इसकी वजह रही होगी। पिछले वक्तों में बड़े-बड़े तालाबों का निर्माण करवाना हिन्दुओं के लिए एक धार्मिक और पुण्य का काम माना जाता था। मुस्लिम शासन की स्थापना से बहुत पहले एक राजा शिवै सिंह का जिक्र आता है जिन्हें तिरहुत के लोग राजोखर तालाब के निर्माणकर्ता के रूप में याद करते हैं। कहा भी है,
‘‘पोखर राजोखर और सब पोखरा
राजा शिवै सिंह और सब छोकरा।’’
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