बाढ़ तो फिर भी आयेगी


पृष्ठभूमि:


बिहार की गिनती भारत के सर्वाधिक बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में होती है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1980) के अनुसार देश के कुल बाढ़-प्रवण क्षेत्र का 16.5 प्रतिशत हिस्सा बिहार में है जिस पर देश की कुल बाढ़ प्रभावित जनसंख्या की 22.1 प्रतिशत आबादी बसती है। इसका मतलब यह होता है कि अपेक्षाकृत कम क्षेत्र पर बाढ़ से ग्रस्त ज्यादा लोग बिहार में निवास करते हैं। 1987 की बाढ़ के बाद किये गये अनुमान के अनुसार यह पाया गया कि बाढ़-प्रवण क्षेत्र का प्रतिशत सारे देश के संदर्भ में बढ़कर 56.5 हो गया है और इसका अधिकांश भाग उत्तर बिहार में बढ़ता है जिसकी जनसंख्या 5.23 करोड़ (2001) है तथा क्षेत्रफल 54 लाख हेक्टेयर है। यहाँ की 76 प्रतिशत ज़मीन बाढ़ से प्रभावित है जबकि जनसंख्या घनत्व 1,000 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।

उत्तर बिहार में आठ मुख्य नदियां है जिनके नाम घाघरा, गण्डक, बूढ़ी गण्डक, बागमती, अधवारा समूह नदियां, कमला, कोसी तथ महानन्दा हैं। यह सारी नदियां गंगा में समाहित हो जाती हैं। बूढ़ी गण्डक और महानन्दा को छोड़कर इन सारी नदियों का उद्गम नेपाल या तिब्बत में है। बूढ़ी गण्डक, पश्चिमी चम्पारण जिले के चौतरवा-चौर से निकलती है जबकि महानन्दा पश्चिम बंगाल में करसियांग के पास से निकलती है। इन दोनों नदियों का अधिकांश जलग्रहण क्षेत्र नेपाल में पड़ता है। यह सभी नदियां अपने प्रवाह में हिमालय से अत्यधिक मात्रा में मिट्टी और रेत बहा कर लाती हैं। हिमालय पर्वतमाला अपने निर्माण के प्रारंभिक दौर से गुजर रही है और एक तरह से भुरभुरी मिट्टी का ढेर है। इस तरह की मिट्टी का नदियां बड़ी आसानी से कटाव कर देती हैं और मिट्टी रेत को मैदानों में पहुँचा देती हैं। नदियां जब पहाड़ों से मैदानों में उतरती हैं तो उन का वेग एकाएक कम हो जाता है और पानी मिट्टी और रेत के साथ एक बड़े क्षेत्र पर फैल जाता है और नदी के कछारों का निर्माण होता है। कछारों में जमा होने वाली रेत/मिट्टी अगली बरसात के मौसम में नदी के प्रवाह की रूकावट बनती है जिसे काट कर नदी अपना नया रास्ता बना लेती है। हिमालय से आने वाली नदियों के कछार के निर्माण की प्रक्रिया रूकी नहीं है इसलिये उनका धारा परिवर्तन भी बंद नहीं होता है और इसीलिये बाढ़ें भी आती रहती हैं। बाढ़ की वजह से कृषि भूमि पर नई मिट्टी पड़ती है और उसे पोषक तत्व मिलते हैं। यही कारण रहा होगा कि शुरू-शुरू में लोग बाढ़ वाले इलाकों में बसे होंगे। यहाँ की उपजाऊ मिट्टी और पानी की बहुतायत ने उन्हें आकर्षित किया होगा। बाढ़ वाले क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व का ज्यादा होना बाढ़ों का प्रतिफल है। हिन्दू शास्त्र नदियों की स्तुति और वन्दना से भरे पड़े हैं। इनमें उन्हें ‘विश्व की माताओं’ के रूप में मान्यता मिली है।

कोसी:


इस नदी का जलग्रहण क्षेत्र 74,500 वर्ग किमी. है जिसका 85 प्रतिशत नेपाल और तिब्बत से पड़ता है। बाकी का हिस्सा भारत (बिहार) में है। इस नदी की कुल लंबाई 468 किलोमीटर है जिसमें से भारत में इस नदी की लम्बाई 248 किलोमीटर है। इस नदी में सर्वाधिक प्रवाह 'बराह-क्षेत्र' (नेपाल) में 25.880 घनमेक (1968) देखा गया है। वर्ष में पानी की हर साल लगभग 6,828 करोड़ घनमीटर मात्रा इस नदी से होकर प्रवाहित होती है और हर साल इस नदी में औसतन 9,495 हेक्टेयर मीटर मिट्टी/रेत आती है। नदी के भारत वाले जलग्रहण क्षेत्र में औसतन 9,495 हेक्टेयर मीटर मिट्टी/रेत आती है। नदी के भारत वाले जलग्रहण क्षेत्र में औसतन 1276 मिलीमीटर वर्षा होती है।

कोसी नेपाल के सप्तरी जिले में चतरा के पास पहाड़ों से मैदान में उतरती है और लगभग 50 किलोमीटर का सफर तय करके भीमनगर (जिला-सुपौल, बिहार) के पास भारत में प्रवेश करती है। धारा परिर्वतन के लिये प्रसिद्ध यह नदी कटिहार जिले में कुरसेला के पास गंगा में मिल जाती है। कई धाराओं में बहने वाली इस नदी की बाढ़ का अपना रंग हुआ करता था। उत्तर बिहार के सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार जिलों की एक इंच भी जमीन ऐसी नहीं है जिस पर से होकर कोसी कभी बही न हो। पिछले ढाई सौ वर्षों में यह नदी 112 किलोमीटर पश्चिम की ओर खिसक गई है। कोसी का व्यवहार सदियों से बड़ा अनिश्चित रहता है और अंग्रेजों ने इसे ‘बिहार’के ‘शोक’ की संज्ञा दी हुई थी।

कोसी को नियंत्रित करने के पूर्व प्रयास


भारत में जब अंग्रेजों का राज आया तो उन्होंने उन्नीसवीं सदी के मध्य में तटबंधों के माध्यम से दामोदर नदी को, जिसे वह ‘बंगाल का शोक’ कहते थे, नियंत्रित करने का काम किया। इस प्रयास में वह पूरी तरह से असफल हुए। इसलिये उन्होंने हिमालय से आने वाली नदियों को 'बाढ़-नियंत्रण' के लिये कभी हाथ नहीं लगाया क्योंकि उन नदियों का व्यवहार भी दामोदर की ही तरह अप्रत्याशित था। दामोदर से ‘मुंह की खाने’ के बाद वह 1947 तक इन नदियों से बचते रहे। इस बीच कोसी को नियंत्रित करने के लिये कितने ही प्रस्ताव उनके पास आए पर उनका मानना था कि कोसी को नियत्रित नहीं किया जाना चाहिए और तटबंध के जरिये तो हरगिज नहीं। उनकी इस विचारधारा पर 1953 तक अमल हुआ और इसके पीछे नदी को तटबंधों में कैद न करने की सौ साल से ज्यादा की बहस थी। इस बहस के विस्तार में पड़े बिना यहाँ इतना ही बता देना काफी होगा कि नदियां अपने पानी को गाद के साथ फैलाव क्षेत्र पर फैलाती हैं। अपने प्रवाह में भारी मात्रा में रेत/मिट्टी लाने वाली नदी को जब तटबंधों में जकड़ लिया जाता है तो उनका विस्तार सीमित हो जाता है और वह सारी मिट्टी/रेत जो अन्यथा एक बड़े इलाके पर फैलती, वह उन तटबंधों के बीच जमा होकर नदी के तल को ऊंचा करने लगती है। इसके साथ ही तटबंधों के बाहर की जमीन को नदी के पानी के कारण मिलने वाले पोषक तत्व भी नहीं मिल पाते हैं। लगातार ऊपर उठते रहने वाले नदी के तल के कारण तटबंधों को भी ऊंचा करना पड़ता है।

इसके अलावा तटबंधों के कारण नदी के स्वाभाविक जल-ग्रहण की प्रक्रिया में भी बाधा पड़ती है। वर्षा का वह पानी जो कि अपने आप नदी में आ जाता है अब वह तटबंधों के कारण बाहर अटक जाता है और सुरक्षित क्षेत्रों में जल-जमाव उत्पन्न करता है। तटबंधों से होकर नदी के पानी के रिसाव के कारण सुरक्षित क्षेत्रों में जल-जमाव की समस्या और भी ज्यादा जटिल हो जाती है। अगर कभी नदी की कोई सहायक धारा नदी से संगम करती है तो मुख्य नदी पर बने तटबंध उसका मुहाना बंद कर देते हैं। जब सहायक धारा का पानी या तो सुरक्षित क्षेत्रों में पीछे की ओर लौटेगा या फिर तटबंधों के बाहर नीचे की ओर बहने पर मजबूर होगा। अगर सहायक धारायें नदी के दोनों किनारे पर मिलती हों तो दोनों तटबंधों के बाहर ऐसी धाराएं बहेंगी। ऐसी परिस्थिति में यह मांग उठेगी कि संगम स्थल पर एक स्लुइस गेट बनाया जाय। इस स्लुइस गेट के साथ दिक्कत यह होगी कि बरसात भर इसे बंद रखना पड़ेगा क्योंकि अगर कभी स्लुइस गेट खुला हो और मुख्य धारा में अधिक पानी आ जाय तो स्लुइस गेट होकर बहुत सा पानी सहायक नदी से होता हुआ सुरक्षित क्षेत्रों में घुस जायेगा। इसलिये वर्षा के समय इन्हें बंद ही रखना पड़े तो स्लुइस गेट बनें या न बनें, कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। इसके आलावा निर्माण के कुछ ही वर्षों के अंदर नदी के तल में जमा होती हुई रेत/मिट्टी स्लुइस गेट को ही जाम कर देती है।

अब अगर स्लुइस गेट भी काम न करें तब अगली मांग उठती है कि सहायक नदी पर भी तटबंध बना दिये जायें। अगर ऐसा कर दिया जाय तो एक नई मुसीबत पैदा होती है और वह यह कि अब वर्षा का पानी मुख्य नदी और सहायक नदी के तटबंधों के बीच फंस जाता है और उन इलाकों को डुबाता है जहाँ अभी तक बाढ़ नहीं आती थी। तब एक ही रास्ता बचता है कि दोनों तटबंधों के बीच फंसे इस पानी को पम्प करके दोनों में से किसी नदी में डाल दिया जाए। इसके अलावा इस बात की गारन्टी कोई नहीं दे सकता कि नदी पर बना हुआ तटबंध कभी टूटेगा नहीं। अगर इन दोनों में से कोई भी तटबंध टूट जाता है तो बीच में रहने वाले लोगों की जल समाधि हो जायेगी। इसलिये तटबंधों के माध्यम से बाढ़ सुरक्षा योजना एक ऐसा दुष्चक्र है कि एक बार अगर कोई इस व्यूह में फंस जाय तो बाहर निकलना असंभव हो जाता है। इन कारणों से बहुत से इंजीनियर तटबंधों को 'बाढ़-नियंत्रण' के लिये उपयोगी नहीं मानते। दुर्भाग्यवश, तकनीक के इस छलावे को समझने में देर लगती है और जब तक प्रभावित लोगों की समझ में यह प्रपंच आये, काफी देर हो चुकती है।

दूसरी तरफ इंजीनियरों की एक अच्छी खासी जमात यह मानती है कि तब नदी पर तटबंध बनाये जाते हैं तो पानी का प्रवाह क्षेत्र कम हो जाता है और अगर पानी की एक समान मात्रा कम क्षेत्र से होकर प्रवाहित किया जाय तो उसका वेग बढ़ जाता है। पानी के बढ़े हुए वेग में किनारों के कटाव करने की अधिक क्षमता होती है और यह इंजीनियर ऐसा मानते हैं कि बदली परिस्थितियों में नदी की चौड़ाई और गहराई बढ़ जायेगी और उसके साथ ही नदी से ज्यादा पानी गुजरने लगेगा और बाढ़ स्वाभाविक रूप से कम हो जायेगी। तकनीकी हलकों में यह बहस की नदी पर बने तटबंधों के कारण बाढ़ कम होती है या बढ़ती है- अभी तक फैसले का इंतजार कर रही है। तटबंधों के पक्ष और विपक्ष में दिये जाने वाले दोनों तर्क तकनीकी रूप से इतने पुष्ट और प्रभावशाली हैं कि इंजीनियर लोग इनका उपयोग किसी भी योजना का अनुमोदन करने या उसे ध्वस्त करने में बड़ी आसानी से कर लेते हैं। उन्हें बस इतना ही विश्लेषण करना रहता है कि तत्कालिक सामाजिक परिस्थितियों की मांग क्या है और शासक वर्ग क्या चाहता है। एक बार यह स्पष्ट हो जाये तो वह अपना तर्क सामने रखते हैं और उनकी राय को चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि वह इंजीनियर हैं।

जब राजनीतिक यह फैसला करते हैं कि तटबंध नहीं बनाने चाहिए तब इंजीनियर पहले दिये गये तर्कों का आश्रय लेते हैं। जब वह यह तय करते हैं कि तटबंध बनने चाहिए तो इंजीनियर बाद वाला तर्क देते हैं। अगर किसी परियोजना को टाल देना हो तो वह लोग आंकड़ों की कमी का वास्ता देते हैं। इस प्रकार परिस्थिति चाहे जैसी भी हो वह उसका सामना बड़ी आसानी से कर लेते हैं। अंग्रेजों ने पहले उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाह्न और मध्य में तटबंध इसलिये बनायें क्योंकि वह बाढ़ से सुरक्षा देने के नाम पर लोगों से लगान वसूल सकें और उनके लिये तटबंधों का रख-रखाव नामुमकिन हो गया और राहत तथा पुनर्वास के खर्च बढ़ने लगे तब उन्होंने तटबंधों से तौबा कर ली। सरकार के इस कदम को उचित ठहराने के लिये उनके इंजीनियरों ने पहला वाला तर्क दिया। आजादी के बाद जब राजनेताओं को लगा कि बाढ़ से सुरक्षा मिलनी चाहिए और उसके लिये तटबंधों से उन्हें परहेज नहीं था तब दूसरे प्रकार के तर्क इंजीनियरों के काम आये।

बहुत से इंजीनियरों ने तो अपने अंग्रेजों के समय के सेवा काल में तटबंधों का खूब विरोध किया था मगर जब कोसी पर तटबंध बनाने के लिये राजनैतिक दवाब पड़ने लगा तो वह खुलकर तटबंधों के पक्ष में बोलने लगे।

1955-60 के बीच कोसी नदी पर तटबंध बना दिये गये और इसके साथ ही उत्तर बिहार की बाकी नदियों पर भी तटबंध बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया और उन पर भी तटबंध बन गये। इसका समुचित परिणाम सामने आया। 1952 में जब भारत में पहली बाढ़ नीति को मंजूरी नहीं दी गई थी, बिहार में नदियों के किनारे बनाये गये तटबंधों की कुल लंबाई 160 किलोमीटर थी और प्रान्त का बाढ़-प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था। इस वक्त (2002) राज्य में नदियों के किनारे बने तटबंधों की लंबाई 3,430 किमी. है, तब राज्य का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया है। इस बीच में 'बाढ़-नियंत्रण' पर राज्य में 1327 करोड़ रुपये खर्च हुये। बिहार में तटबंधों की लम्बाई 1992 में 3,465 किलोमीटर जा पहुँची थी मगर इसमें से 2000-01 में 11 किलोमीटर और 2001-02 में 24 किलोमीटर बह गई। जाहिर है कि बिहार में 'बाढ़-नियंत्रण' के क्षेत्र में निवेश फायदा की जगह नुकसान पहुँचा रहा है। इस विसंगति का सारा दोष नदियों के किनारे बने तटबंधों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसके कारण दूसरे भी हैं।

जल-निकासी की व्यवस्था किये बगैर सड़कों और रेल लाइनों के अंधा-धुंध निर्माण का निर्माण का इस गिरावट में अपना योगदान रहा है। केवल रोजगार पैदा करने के उद्देश्य से बनाई गई ग्रामीण सड़कों ने भी जल-निकासी और बाढ़ समस्या को बढ़ाया है क्योंकि इनमें से होकर जल निकासी का कोई इंतजाम आमतौर पर नहीं होता। कोसी तथा गण्डक परियोजना की नहरों ने सतही पानी के प्रवाह में बाधा पैदा की है तथा उनसे होने वाले रिसाव ने भूमिगत जल की सतह को ऊपर किया है। उत्तर-बिहार का मैदानी क्षेत्र लगभग सपाट है और गंगा के किनारे लगी पट्टी में तो जमीन का ढाल 11 सेन्टीमीटर प्रति किलोमीटर तक मिलता है। ऐसे में पानी के रास्ते की हल्की सी भी रूकावट जल-जमाव का कारण बनती है। नदियों के तटबंधों में अक्सर पड़ने वाली दरारें कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा करती है। बहुचर्चित कोसी तटबंध 1963, 1968, 1971, 1980, 1984, 1987 तथा 1991 में टुट चुके हैं। इन दुर्घटनाओं में 1984 वाली दरार सबसे घातक थी जिसने 11 गाँवों को नेस्तनाबूद कर दिया, 196 गावों को डुबाया और लगभग साढ़े चार लाख लोगों को बेघर बना दिया था। बिहार की 1987 वाली बाढ़ में विभिन्न नदियों के तटबंधों में 104 दरारें पड़ी और तटबंध टूटने की विनाश यात्रा अभी थमी नहीं है।

तटबंधों से कोसी हाई डैम की ओर:


कोसी पर 'बाढ़-नियंत्रण' के लिये पहली बार 1937 में एक बड़े बाँध का प्रस्ताव उस समय किया गया था जबकि सरकारी नीति जल निकासी की दशा सुधारने तथा पानी के रास्ते में आने वाली तमाम रूकावटों को खत्म कर देने की थी। अंग्रेज सरकार इस मसले पर नेपाल से किसी प्रकार के सहयोग पाने के प्रति आशावान नहीं थी इसलिये उन्होंने नेपाल से इस प्रस्ताव पर कोई खास पहल नहीं की। इस बाँध पर पहली बार 1945 में कोई गंभीर बयान नहीं आया जबकि बिहार सरकार ने कोसी नदी की पूरी लंबाई पर तटबंध बनाने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास भेजा था जिसने उसे स्पष्ट रूप से नकार दिया था। जाते-जाते ब्रिटिश हुकूमत बाढ़ से बचाव के लिये बड़ें बाँध का बीज बो गई और इस तरह कोसी पर 'बराह-क्षेत्र' की बात उठी। इसकी औपचारिक घोषणा 6 अप्रैल 1947 को निर्मली (जिला-सुपौल), बिहार में तत्कालीन केन्द्रीय योजना मंत्री सीएच. भाभा ने की थी। बाद में घटनाक्रम कुछ ऐसा बदला कि कोसी पर तटबंध ही बनाने पड़े गये मगर 'बराह-क्षेत्र' का भूत तभी से योजनाकारों पर अपनी छाया डाले हुए है। जब कभी भी बिहार में बाढ़ आती है तब बिना कोई समय खोए यह बयान सरकारी हलकों से दिया जाता है कि बिहार की बाढ़ समस्या का समाधान 'बराह-क्षेत्र' बाँध ही है। यह बात तब भी कही जाती है जबकि बाढ़ कोसी के अलावा दूसरी नदियों में भी आती है। तब समाचार पत्रों में पत्र आने लगते हैं कि इस बाँध के निर्माण पर शीघ्र ही कार्यवाही हो, सरकार की तरफ से आश्वासन दिया जाता है कि वह 'बराह-क्षेत्र' बाँध के निर्माण सजग और गम्भीर है, फिर काठमांडू और नई दिल्ली के बीच उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मण्डल की आवाजाही होती है। अगस्त से लेकर नवम्बर के बीच इस तरह की खबरें समाचारपत्रों में भरी रहती हैं और जैसे ही नदियां शांत होती है, यह सारा कर्मकाण्ड भी शान्त हो जाता है अगले साल के अगस्त महीने तक के लिये। यह ड्रामा सन 1956 से चल रहा है जबकि कोसी तटबंधों के निर्माण के समय ही नदी में भयंकर बाढ़ आ गई थी। लोगों को तभी से बार-बार यह बताया जाता है कि तटबंध बाढ़ समस्या का अस्थाई समाधान है और असली समाधान तो नेपाल में प्रस्तावित इस बाँध में ही है।

'बराह-क्षेत्र' बाँध:


1947 में 'बराह-क्षेत्र' में प्रस्तावित 'बराह-क्षेत्र' बाँध से भारत और नेपाल के 12 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई होने का अनुमान था। इससे 3,300 मेगावाट बिजली पैदा होती और निचले क्षेत्रों में बाढ़ से सुरक्षा देने का वायदा किया गया था। तब इस बाँध की लागत 100 करोड़ रुपये थी। प्राथमिक सर्वेक्षण और अध्ययन के दौरान 1952 में इस बाँध की अनुमानित लागत 177 करोड़ रुपयों तक जा पहुँची जबकि इस योजना का ख्याल छोड़ दिया गया और 1953 में कोसी पर तटबंध के निर्माण की स्वीकृति दी गई। इस योजना पर गंभीरतापूर्वक पुनर्विचार एक बार फिर 1971 में हुआ जब बिहार एक भयंकर बाढ़ की चपेट में आया।

इस बाँध की संरचनात्मक सुरक्षा पर भूगर्भ वैज्ञानिकों में मतभेद रहा है क्योंकि इसका निर्माण उस क्षेत्र में होगा जहाँ बड़े भूकम्प आने की संभावना है और यह गुत्थी अभी भी सुलझी नहीं है। जब कोसी नदी पर तटबंध बनाये जाने का प्रस्ताव किया गया था तो यह बात बिहार विधानसभा में उठी कि क्यों 'बराह-क्षेत्र' बाँध के स्थान पर तटबंध बनाये जा रहे है। तब सरकार की तरफ से 22 सितंबर 1954 को बिहार विधान सभा में अनुग्रह नारायण सिंह ने बयान दिया कि सरकार प्रस्तावित बाँध के निचले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के प्रति चिन्तित है और इसलिये इस बाँध पर काम नहीं हो सकेगा और इस पृष्ठभूमि में तटबंधों का निर्माण करना पड़ रहा है।

बिहार में बाढ़इस बाँध के निर्माण के लिये कुछ प्रस्ताव बनाये गये हैं। बिहार के द्वितीय सिंचाई आयोग (1994) में योजना का जो स्वरूप बताया गया है उसके अनुसार इस बाँध की अनुमानित लागत 4,074 करोड़ रुपये (1986) हो गई है। आजकल जो राजनीतिज्ञों और इंजीनियरों द्वारा बयान दिये जाते हैं उसके अनुसार इस बाँध की अनुमानित लागत 35 से 40,000 करोड़ रुपयों तक पहुँच गई है। प्रश्न यह उठता है कि इतना पैसा हम कहाँ से लायेंगे? जाहिर है, बहुत सी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थायें सरकारों को यह काम करने के लिये प्रोत्साहित कर रही हैं। 'बराह-क्षेत्र' के बाँध पर जापान की ‘ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड’ की नजर है। उदारीकरण के इस दौर में यह संस्थाएं अब केवल कर्ज की व्यवस्था न करके स्वयं निर्माण में उतरना चाहती है। जैसे हालात अब बन रहे हैं उनके अनुसार यह कम्पनियां बाँध बनायेंगी। नेपाल को उसकी रॉयल्टी और टैक्स देंगी तथा भारत को बिजली बेचेंगी, जिसकी दरें अभी तय नहीं हो पा रही है और भारत यह बिजली खरीदेगा ही, इस पर भी कोई समझौता नहीं हो पा रहा है। इन बात का अंदेशा व्यक्त किया जाता है कि इन बाँधों से पैदा होने वाली बिजली इतनी महंगी होगी कि भारतीय उपभोक्ता उसकी कीमत नहीं अदा कर पायेगा और इसीलिये यह बहु-राष्ट्रीय कंपनियां अपने निवेश पर सरकार से ‘लाभ की गारंटी’ चाहती हैं। इन बहु-राष्ट्रीय कंम्पनियों का 'बाढ़-नियंत्रण' जैसे कल्याणकारी कामों में कितनी रूचि होगी यह कह पाना मुश्किल है पर यह निश्चित है कि वह कंपनियां जन-कल्याण का काम नहीं करतीं।

बाढ़ तो फिर भी आयेगी:


इसके अलावा भी कुछ अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनकी विवेचना होनी चाहिए। नेपाल में 'बराह-क्षेत्र' के पास जिस साइट नं. 13 पर बाँध का प्रस्ताव किया गया है वहाँ कोसी का जल-ग्रहण क्षेत्र 59.500 वर्ग किलोमीटर है। साइट नं. 13 से भीमनगर बैराज के बीच में कोसी का जलग्रहण क्षेत्र 2266 वर्ग किलोमीटर बढ़ जाता है। बराज के नीचे कुरसेला में कोसी के गंगा से संगम तक नदी का जलग्रहण क्षेत्र 11,410 वर्ग किलोमीटर और बढ़ जाता है। इस तरह से 'बराह-क्षेत्र' बाँध के नीचे भी कोसी में 13,676 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से पानी आता है। बागमती नदी का जलग्रहण क्षेत्र इससे थोड़ा सा ही ज्यादा है और कमला नदी का जलग्रहण क्षेत्र इसका लगभग आधा है। इसका सीधा मतलब यह होता है कि 'बराह-क्षेत्र' बाँध के निर्माण के बाद भी बागमती नदी के प्रवाह जितना था कमला के प्रवाह से दुगुना पानी बाँध के नीचे किसी भी हालत में बहेगा। जिसने भी इन दोनों नदियों को उफनते देखा है वह इस पानी का आसानी से अंदाजा लगा सकता है। आजकल यही पानी कोसी के पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के किनारे जमा होता है और जल-जमाव को स्थायी बनाता है।

पश्चिमी तटबंध के पश्चिम में बहने वाली पांची, धोकरा, धोरदह, खड़क, बिहुल, भुतही बलान, गेहुमां और सुपैन जैसी नदियों पर 'बराह-क्षेत्र' बाँध का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। कमला बलान और बागमती नदियां भी इसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर हैं। इस तरह से पश्चिमी तटबंध के पश्चिम में बाढ़ परिस्थिति पर 'बराह-क्षेत्र' बाँध बनने के बाद भी कोई अन्तर नहीं पड़ेगा क्योंकि इन नदियों का उद्गम और उनका अंतिम बिन्दु दोनों ही, 'बराह-क्षेत्र' बाँध के बाहर होंगे। ठीक इसी तरह से पूर्वी तटबंध के पूर्व में फरियानी धार, हरसंखी धार, गोरहो धार, हरेली धार, बंसवारा धार, सौरा धार, सपनी धार, बैलदौर धार, चौसा धार, लछहा धार, सुरसर धार, तिलाबे धार और गाई धार के प्रवाह पर 'बराह-क्षेत्र' बाँध का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इन क्षेत्रों में कोसी नदी पर तटबंध बनाये जाने के बाद तथाकथित रूप से बाढ़ से सुरक्षित इलाकों में 'बराह-क्षेत्र' बाँध के बनने या न बनने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।

इंजीनियरों का समुदाय तथा राजनीतिज्ञ पिछले 55 वर्षों से इसी बात की दुहाई देते आये हैं कि तट-बंध सक्षम रूप से तभी काम करेंगे जब 'बराह-क्षेत्र' बाँध बना लिया जायेगा। जैसा कि हमने ऊपर देखा है कि यह तटबंधों के बाहर रहने वाले लोगों के लिये जल-जमाव की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा और यह प्रस्तावित बाँध उनके लिये कतई फायदेमंद नहीं होगा, उसी तरह कोसी तटबंधों के बीच उसे 338 गाँवों के लगभग 8 लाख बाशिन्दों पर भी इसका कोई अलग प्रभाव नहीं पडे़गा। ऐसा बताया जाता है कि बाँध बन जाने के बाद सारी मिट्टी/रेत उसके अंदर रूक जाती है और बाहर छोड़ा जाने वाला पानी गाद-मुक्त होगा और इसलिये नदी स्थिर रहेगी तथा तटबंधों को भी चुस्त-दुरूस्त हालात में रखा जायेगा। पहली बात तो ये है कि न तो बरसात में नदी में आने वाले सारे पानी को रोक पाना मुमकिन है और न ही जो पानी बाँध से छोड़ा जायेगा वह भी गाद-मुक्त होगा और इसलिये तटबंधों के अंदर नदी की धारा बदलती रहेगी और कटाव भी जारी रहेगा। नदी के पानी को बरसात भर बहने दिया जाय और वर्षा के अंत में ही जलाशय भरा जाये तब तो जो परिस्थिति आज है वह बनी ही रहेगी। अगर बरसात के अंत होते-होते तक जलाशय भर लिया जाता है तब भी खतरा समाप्त हो जायेगा, इसकी कोई गारन्टी नहीं है क्योंकि 1968 या 1978 जैसी बाढ़ें अक्टूबर के महीने में आई थीं। ऐसी स्थिति में जलाशय तो भरा रहेगा और पानी बरसने पर सारे फाटक खोल देने पड़ेंगे। तब ऊपर से पानी बरसेगा और बाँध के पानी का भी मुकाबला करना पड़ेगा। सितंबर के बाद आने वाली बाढ़ में इस बाँध की कभी भी कोई उपयोगिता नहीं होगी।

पश्चिम बंगाल की अक्टूबर 1978 की बाढ़ दामोदर घाटी निगम के बाँधों के कारण और उसके बावजूद आई थी। 2000 में पश्चिम बंगाल में इस घटना की पुनरावृत्ति हुई और दामोदर घाटी के बाँध खामोशी से तमाशा देखते रह गये। इधर हाल में सितंबर 1999 में नर्मदा घाटी में भोपाल और होशंगाबाद में जो बाढ़ आई थी वह भी बरगी, बारना और तवा बाँधों की वजह से और उनके बावजूद आई थी। वहाँ भुक्त-भोगियों का मानना है कि बाढ़ इन बाँधों द्वारा अत्यधिक पानी छोड़ने के कारण आई थी। जुलाई 2001 में उड़ीसा के तटीय क्षेत्रों में बाढ़ आने का मुख्य कारण महानदी पर बने हुए हीराकुंड बाँध से छोड़ा जाने वाला पानी था। ऐसे मौकों पर अधिकारियों का एक नपा-तुला जबाव होता है कि अगर बाँध नहीं रहे होते तो तबाही और भी ज्यादा हुई होती। ऐसी परिस्थितियों में तटबंधों के अंदर रह रहे लोगों पर खतरा पहले से ज्यादा बढ़ा हुआ रहेगा मगर विडंबना यह है कि वही लोग सबसे आगे बढ़ कर 'बराह-क्षेत्र' बाँध की मांग करेंगे। हम फिर याद दिला दें कि कोसी तटबंधों के बीच 338 गाँव फंसे हैं जिनकी कुल आबादी लगभग 8 लाख है। और 'बराह-क्षेत्र' बाँध से होने वाली किसी भी दुघर्टना या पानी छोड़े जाने के पहले शिकार यही लोग होंगे।

बहाना दर बहाना:


इस तरह 'बराह-क्षेत्र' बाँध बने या न बने, इस इलाके में बाढ़ की स्थिति यथावत बनी रहेगी लेकिन प्रचार-प्रसार के लिये हमेशा 'बाढ़-नियंत्रण' के लाभ का ही नाम लिया जायेगा। अगर हम इस बाँध के 1986 वाले प्राक्कलन पर एक नजर डालें तो 'बाढ़-नियंत्रण' के नाम पर लोगों को भरमाने की धुंध थोड़ी सी छंटती है। बाँध की कुल लागत 4074 करोड़ रुपयों में से 2,677 करोड़ रुपये विद्युत उत्पादन तथा 1,347 करोड़ रुपये सिंचाई पर खर्च किये जाने का प्रावधान है। बाकी बचे 50 करोड़ रुपये जल-समेट और भूमि संरक्षण योजनाओं पर खर्च किये जायेंगे। जलाशय में आने वाली गाद को रोकने या कम करने के लिये इतना ही आवंटन है जो कि कुल लागत का 1.3 प्रतिशत है। जब 'बराह-क्षेत्र' बाँध से बाढ़ नहीं रूकेगी तब इंजीनियरों की अगली पीढ़ी इसी बहाने का उपयोग करेगी कि उनके पहले के इंजीनियरों ने जल-समेट और वनीकरण के महत्व को नहीं समझा और उसके लिये समुचित प्रावधान नहीं किया। अभी जो भी 'बाढ़-नियंत्रण' इस बाँध से किया जायेगा वह जलाशय के नियमन से ही किया जायेगा। इसमें जल-ग्रहण या जलसमेट क्षेत्रों के सुधार का कोई खास प्रावधान नहीं लगता।

आज जब हम यह कहते हैं कि तटबंध काम करते जरूर मगर 'बराह-क्षेत्र' बाँध के बनने पर ही इनका पूरा उपयोग हो पायेगा तब आज से 50 या 100 साल बाद लोगों को बताया जायेगा कि 'बराह-क्षेत्र' बाँध काम करता जरूर मगर यह तब तक नहीं हो पायेगा जब तक कि वनीकरण और जल-समेट पर काम न हो। फिर जल-समेट और वनीकरण का काम चलेगा। मगर नदी में बाढ़ तब भी आती थी और उसकी धारा तब भी बदलती थी जब सारे के सारे जंगल सही सलामत थे। उस दिन कहा जायेगा सिल्ट/रेत इस क्षेत्र की नदियों में ज्यादा इसलिये आती है क्योंकि यह इलाका भूगर्भीय रूप से अस्थिर है। यहाँ भूकम्प आते हैं जो कि हिमालय को अस्थिर कर देते हैं, इससे भू-स्खलन होता है और नदियों में इनकी गाद पर जाती है। भू-स्खलन रोकने में जंगलों की कोई भूमिका नहीं है। जो भूकम्प हिमालय की पूरी संरचना को अस्थिर कर देते हैं वह बाँध को बख्श देंगे क्या? सच यह है कि कमाने खाने वालों को न तो कभी काम की कमी होगी और नहीं बहानों की। नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव इस तरह के बहानेबाजी की सबसे ताजातरीन कड़ी है।

वास्तव में यह बाँध विद्युत उत्पादन के लिये बनेंगे और इनका 'बाढ़-नियंत्रण' से कोई लेना-देना हो ही नहीं सकता। इनकी पब्लिसिटी जरूर बाढ़ के नाम पर होगी जिससे कि जन-समर्थन इन बाँधों के पक्ष में जुटाया जा सके। सवाल इस बात का है कि अगर यह बाँध विद्युत उत्पादन के लिये बनता है तो ऐसा कहने में हर्ज क्या है? आखिर बिजली की भी जरूरत तो हम सबको है। क्यों लोगों को एक और झूठी तसल्ली दी जाती है।

सिंचाई या मृग-तृष्णा:


अब एक नजर सिंचाई के दावों पर डालें। प्रस्तावित 'बराह-क्षेत्र' बाँध से भारत और नेपाल में 12.17 लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई का अनुमान है। इसी तरह का एक दावा 1953 वाली वर्तमान कोसी परियोजना प्रस्ताव में भी किया गया था। उस समय यह कहा गया था कि कोसी परियोजना से 7.12 लाख हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई की जायेगी। बाद में (1975) में कोसी सिंचाई समिति (राम नारायण मण्डल समिति) ने पाया कि यह अनुमान पूरी तरह गलत था और यह कि कोसी परियोजना से किसी भी हालत में 3.74 लाख हेक्टयेर के कृषि क्षेत्र से ज्यादा पर सिंचाई हो ही नहीं सकती। पूर्वी कोसी मुख्य नहर से सर्वाधिक सिंचाई 1983-84 में 2.13 लाख हेक्टेयर पर हुई थी और इस नहर से होने वाली सिंचाई एक लाख पैंसठ हजार हेक्टेयर की सीमा को पिछले कई वर्षों में पार नहीं कर पाई।

यही हाल पश्चिमी कोसी नहर का हुआ। जब इस योजना का प्रस्ताव पहली बार 1962 में किया गया तब उसकी अनुमानित लागत 13.49 करोड़ रुपये थी और इससे 2.61 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई का प्रस्ताव था। इस नहर का पहला शिलान्यास जगजीवन राम ने 1957 में किया था और उसके बाद कितने ही नेताओं ने इसका शिलान्यास किया। इस नहर से 1996, 1997 और 1998 में खरीफ के मौसम में क्रमश: 15,120 हेक्टेयर तथा 17,421 हेक्टेयर और 18943 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई की क्षमता अर्जित हुई और सिंचाई हुई केवल 6,270 हेक्टेयर, 9,310 हेक्टेयर और 9,300 हेक्टेयर में। 1999 में भुतही बलान ने इस नहर को झांझ पट्टी के पास तोड़ दिया और तब से रही सही सिंचाई भी चौपट हो गई। क्षमता अर्जित कर लेने भर से तो खेत सींचे नहीं जा सकते। इस परियोजना पर 2002 तक 462 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हुए थे और 1999 में इसकी अनुमानित लागत 830 करोड़ रुपये थी जो कि अपने मूल प्राक्कलन से इकसठ गुने से भी ज्यादा थी। बिहार सरकार का ऐसा विश्वास है कि यह नहर 2004 में पूरी कर ली जायेगी मगर जो काम की रफ्तार है उसके हिसाब से नहर का काम पूरा होने में वास्तव में कितना समय लगेगा कह पाना मुश्किल है। पूर्वी कोसी मुख्य नहर के आधे अधूरे निर्माण पर अनुमान से दस गुने से ज्यादा खर्च हुआ था और अब अगर 'बराह-क्षेत्र' बाँध बनाने का काम हमारा यही नकारा तंत्र करे और उसकी प्राक्कलित-राशि 35,000 करोड़ से बढ़कर वास्तविक खर्च 3,50,000 करोड़ हो जाये तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बिहार का वार्षिक बजट 3000 करोड़ के आसपास होता है। 'बराह-क्षेत्र' बाँध अकेले बिहार के पूरे बजट का बारह वर्ष का प्रावधान खा जायेगा जिसमें हमारी दो पंचवर्षीय योजनायें पूरी हो जायेंगी। जापान का ‘ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड’ नेपाल में 13 ऐसे बाँधों को बनाने का दम भरता है। यदि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को मनमानी करने की छूट मिल जाय तो देश कर्ज की गिरफ्त में फंसेगा और यदि यह खुद निर्माण के क्षेत्र में उतर आयीं तब तो भगवान ही मालिक है। हम लोगों ने अभी हाल में ही एनरान के हाथों महाराष्ट्र में बिजली के दामों की तथा कर्नाटक में काजेन्ट्रिक्स की सरकार द्वारा मान-मनौवल की एक झांकी देखी है।

बिजली की आंख मिचौली


जैसा कि कहा जाता है कि 'बराह-क्षेत्र' बाँध से 3300 मेगावाट बिजली पैदा होगी। राज्य-विभाजन के समय बिहार और झारखंड में इस समय 1950 मेगावाट बिजली पैदा करने की स्थापित क्षमता है, जबकि गर्मी के महीनों में बिरले ही 350 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो पाता है। वैसे भी प्रान्त में जो बिजली की ट्रान्समिशन लाइन है वह 1,000 मेगावाट से ज्यादा बिजली का बोझ वहन नहीं कर सकती। एक नया बाँध बनाने और उससे बिजली पैदा करने के पहले क्यों यह अच्छा नहीं होगा कि जो मौजूदा क्षमता है उसका समुचित उपयोग किया जाय। इसकी बात कोई क्यों नहीं करता? और इस बात की गारन्टी कौन देगा कि 'बराह-क्षेत्र' से बिजली का उत्पादन 3300 मेगावाट की जगह 500 मेगावाट नहीं होगा।

बेभाव जल जमाव:


इसके अलावा पूर्वी तटबंध के पूर्व में 1,82,000 हेक्टेयर जमीन पर जल-जमाव है। पश्चिमी तटबंध के पश्चिम में 44.19 मीटर कन्टूर लाइन के नीचे 94,000 हेक्टेयर तथा उसके ऊपर 34,000 हेक्टेयर जमीन जल-जमाव से ग्रस्त है। साथ ही दोनों तटबंधों के बीच, 1,10,000 हेक्टेयर जमीन हमेशा के लिये बाढ़ में फंसी है। इस तरह कुल मिलाकर किसी न किसी तरह 4,20,400 हेक्टेयर जमीन पानी में गई। जल-जमाव वाले क्षेत्रों में जल निकासी की योजनायें बनती हैं, कहीं-कहीं कुछ काम भी होता है पर बाद में फिर वही ढाक के तीन पात। जब 1953 वाली कोसी परियोजना पर काम शुरू हुआ था तब यह कहा गया कि कोसी तटबंधों से 2,12,000 हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचाया जायेगा लेकिन ऐसा करने के बजाय परियोजना ने इससे दुगुने क्षेत्र को डुबाने का काम किया है।

नेपाल की अपनी परेशानियां:


बिहार में बाढ़फिलहाल नेपाल में 30 बाँधों के निर्माण का तथा 60 ऐसी जल-विद्युत परियोजनाओं के निर्माण का प्रस्ताव है जिनमें नदी को बिना बाँधे, उसके प्रवाह से ही बिजली पैदा की जायेगी। इन तीस बाँधों में से 7 बाँधों की ऊंचाई 50 से 100 मीटर के बीच है, 12 बाँधों की ऊंचाई 100 से 200 मीटर के बीच में और 11 बाँधों की ऊंचाई 200 मीटर से ज्यादा होगी। इन योजनाओं से 1,45,000 गीगा-वाट/आवर बिजली पैदा हो सकेगी जिससे दक्षिण एशिया में बसने वाले जैसे 70 करोड़ परिवारों की बिजली की जरूरतें पूरी हो सकेंगी। इस काम में 50 करोड़ टन लोहा, 10 करोड़ घनमीटर कंक्रीट और 100 करोड़ घनमीटर पत्थरों का इस्तेमाल होगा। इन बाँधों में प्रतिवर्ष 70 करोड़ टन रेत/मिट्टी हर साल जमा होगी और इनका जीवन काल 30 से 75 वर्ष का होगा। इन बाँधों में नेपाल की 2,200 वर्ग किलोमीटर जमीन डूबेगी जो कि नेपाल की कुल जमीन का 1.5 प्रतिशत है और इसमें वहाँ की 20 प्रतिशत सिंचित कृषि भूमि भी डूब जायेगी। डूब क्षेत्र में जंगल और गाँव भी शामिल है। इन बाँधों के निर्माण से करीब 6,00,000 लोग विस्थापित होंगे जो कि नेपाल की कुल आबादी का 3 प्रतिशत है। क्या इन कीमतों पर नेपाल अपने यहाँ बाँध निर्माण करवायेगा- यह एक यक्ष प्रश्न है।

नेपाल में अरूण नदी पर बने अरूण-3 बाँध का एक अनुभव हमारे पास है और उसके नतीजे कुछ उत्साह वर्धक नहीं हैं। कोसी की सहायक धारा पर बन रहे 115 मीटर लंबे और 68 मीटर ऊंचे, प्रथम चक्र में 201 मेगावाट क्षमता वाले अरूण-3 बाँध की प्राक्कलित-राशि 108.2 करोड़ अमरीकी डालर थी और इस काम में विश्वबैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक, जर्मनी, फ्रांस तथा स्वीडेन की सरकारें मदद कर रहीं थीं। इस बाँध का काम जब 1992 में शुरू हुआ तब नेपाल में बुद्धिजीवियों तथा सक्रिय समूहों में बहस छिड़ गई कि इस परियोजना का औचित्य है भी या नहीं। उन लोगों का मानना था कि इस परियोजना से नेपाल को फायदा नहीं होगा और दाता संस्थायें अपने-अपने व्यापारिक हितों का पोषण करने के लिये नेपाल को कर्ज के गर्त में ढकेल रही हैं। इन लोगों का यह भी मानना था कि नेपाल को रोजगार के क्षेत्र में भी कोई लाभ नहीं होने वाला नहीं है तथा योजना से पैदा होने वाली बिजली इतनी मंहगी होगी कि नेपाली उपभोक्ता उसका खर्च वहन ही नहीं कर पायेगा। उनकी आशंका थी कि इस बिजली की कीमत लगभग वही होगी जो कि एक अमेरिकी उपभोक्ता अपने देश में अदा करता है और भारतीय उपभोक्ता जिस दर से बिजली का भुगतान करता है, यह बिजली उससे दुगुनी मंहगी होगी। अगर ऐसा होता है तो भारत यह बिजली खरीदेगा ही नहीं जबकि बाँध इसी उम्मीद पर बन रहा था कि भारत यह बिजली ले लेगा।

अभी हम कहाँ हैं:


नेपाल में प्रस्तावित इन बाँधों के बारे में भारत में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। जो कुछ भी जानकारी मिलती है वह नेपाल से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं और समाचार पत्रों से ही मिलती है। हमारे पास जो भी सूचनाएं आती हैं वह इन योजना प्रस्तावों पर नेपाली जनता या बुद्धिजीवियों की टिप्पणी की शक्ल में ही मिलती हैं और इन योजनाओं पर जो कुछ भी बहस होनी चाहिए वह यहाँ हो ही नहीं पाती है। हमारी बाँध की सुरक्षा के प्रति दुःश्चिन्ता हो सकती है। क्योंकि अकेले 'बराह-क्षेत्र' बाँध में इतना पानी संचित किया जा सकता है जिससे पूरे उत्तर बिहार पर एक फुट पानी की चादर बिछाई जा सके। प्रस्तावित बाँध के कारण होने वाली विस्थापन और पुनर्वास की समस्या, यद्यपि इससे हमारा कोई सीधा संबंध नहीं है, एक बड़ा ही पेचीदा मामला है। हमारे यहाँ की नर्मदा घाटी के बाँधों, सुवर्णरेखा या टिहरी परियोजनाओं विस्थापन के प्रश्न पर योजनाओं के कार्यन्वयन पर बुरा असर पड़ा है। इन परियोजनाओं की आर्थिक दक्षता और उनके पूरा होने में अनुमान से ज्यादा लगने वाला समय अपने आप में एक समस्या है। बिहार में हमारे खुद की सिंचाई और 'बाढ़-नियंत्रण' की परियोजनाओं की उपलब्धि सभी के लिये चिन्ता का विषय बनी हुई है और केवल क्षीण सी आशा है कि इस पूरे अकर्मण्य तंत्र की छाया नेपाल में प्रस्तावित बाँधों पर नहीं पड़ेगी।

इसके अलावा, बाँध कितनी ही दक्षता और फूर्ति से बनाया जाय, इसके निर्माण में 12 से 15 वर्ष का समय अवश्य लग जायेगा। इस अंतरिम समय में बाढ़ का मुकाबला करने की कोई योजना हमारे पास है क्या? या फिर यह समय 'बराह-क्षेत्र' बाँध के निर्मित हो जाने के आश्वासन पर ही कट जायेगा? बिहार के जल-संसाधन सचिव ने 2 मार्च 2002 को पटना विश्वविद्यालय के ‘वाटर रिसोर्स डेवलपमेन्ट सेन्टर’ में अपने एक भाषण के दौरान बताया कि उन्हें आने वाले 50-60 वर्षों में इस बाँध के निर्माण की कोई उम्मीद नहीं है। इसमें यदि थोड़ी सी भी सच्चाई है तो मामला और भी गंभीर हो जाता है।

इस इलाके में बाढ़ की समस्या के पीछे नदियों में आने वाली अत्याधिक गाद की मात्रा है और यह प्रस्तावित बाँध गाद को रोकने की दिशा में कुछ भी नहीं कर पायेगा। दिक्कत यह है कि इंजीनियरों को पानी के साथ क्या करना है यह तो मालूम है, पर उसके साथ आने वाली मिट्टी का क्या करना है, इसका कोई सस्ता समाधान निकालने की विद्या अभी तक नहीं आती है। बाढ़ वाले क्षेत्र के किसी भी ग्रामीण से पूछिये तो वह आप को बतायेगा कि कैसे पहले बाढ़ का पानी आता था, चारों ओर फैलता था, खेतों पर नई मिट्टी पड़ती थी और ज्यादा से ज्यादा दो ढाई दिन के अंदर बड़ी से बड़ी बाढ़ समाप्त हो जाती थी। अगर कभी असाधारण सी बाढ़ आ गई और खरीफ की फसल पूरी तरह चौपट हो गई तो रबी की एक जबरर्दस्त फसल इस नुकसान की भरपाई कर देती थी। बड़े इलाके पर गाद फैलने के कारण उसके लिये अलग से कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती थी और नदी भूमि निर्माण का अपना काम बिना किसी रूकावट के पूरा करती थी। अनियंत्रित विकास की प्रक्रिया ने बाढ़ों के स्वरूप को विकृत कर दिया है। बाढ़ का इंजीनिरिंग समाधान कर के हमने नदियों को सच्चे मामले में विनाशकारी बना दिया है। अब वह अपने स्वाभाविक धर्म-जल-ग्रहण क्षेत्र के पानी की निकासी के बदले उसमें पानी फैलाने का काम कर रही है।

इसके अलावा नवम्बर 2000 में ‘विश्व बाँध आयोग’ द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में भविष्य में बनने वाली बाँध परियोजनाओं में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि इन योजनाओं से होने वाले लाभ का बराबर का बंटवारा, निर्माण और संचालन में दक्षता, जवाबदेही, निर्णय लेने की प्रक्रिया में आम लोगों की भागीदारी तथा टिकाऊपन सुनिश्चित हो सके। भारत सरकार के ‘केन्द्रीय जल आयोग’ ने ‘विश्व बाँध आयोग’ की रिपोर्ट को एक सिरे से खारिज कर दिया है मगर बहुत सी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों ने इस रिपोर्ट की सिफ़ारिशों को स्वीकार किया है। नेपाल सरकार द्वारा इस रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया हुआ है और अगर यह इसे स्वीकार कर लेती है तो नेपाल में बड़े बाँधों के निर्माण पर व्यापक बहस होगी। इस स्वीकृति से वहाँ बाँधों के निर्माण में मुश्किलें जरूर बढ़ेंगी।

तब क्या यह जरूरी नहीं है कि बाढ़ों पर एक नई दृष्टि डाली जाय। बड़े-बड़े बाँधों पर निर्भर करने के बदले क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि पानी को गाँवों तक आने दिया जाय और स्थानीय स्तर पर उनसे निबटा जाये और एक बार और हमेशा के लिये बड़े बाँधों और नदियों की बाढ़ के रिश्तों को समाप्त कर दिया जाय क्योंकि ऐसे बाँधों की मदद से बाढ़ न तो पहले कभी रूकी है और न ही भविष्य में कभी रूक पायेगी। हमने बाढ़ों के साथ जीवन निर्वाह की विधा को अभी तक केवल बातचीत के स्तर तक ही सीमित रखा है। जो कुछ भी हमारे सामने पड़ता है-क्या हम उसको अपने कब्जे में कर लेने की धींगा-मुश्ती से बाज आयेंगे। क्या हम बाढ़ रोधी घरों के स्थान पर बाढ़ को बर्दाश्त कर लेने वाले घरों के बारे में सोच सकते हैं। क्या हम बाढ़ विरोधी फसलों के बदले बाढ़ बर्दाश्त करने वाली फसलों को उगाने का प्रयास करेंगे। अगर इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो प्रस्तावित बाँध, जहाँ तक 'बाढ़-नियंत्रण' का प्रश्न है, अपने आप आम जनता द्वारा पुनरीक्षण के दायरे में आ जायेगा।

पूरे देश में सूखा-प्रवण क्षेत्रों में विकास के बहुत से सफल प्रयोग हुए हैं मगर बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को आज भी एक ‘मसीहा’ का इंतजार हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि सूखा-प्रभावित क्षेत्रों में दो-एक गाँवों को लेकर विकास का काम किया जा सकता है जबकि बाढ़ वाले क्षेत्रों में यही काम क्षेत्रीय स्तर पर या कुछ गाँवों के समूह को लेकर ही करना पड़ेगा। यह जरा महंगा मुकाम है मगर इस पर काम होना चाहिए।

इसी तरह से क्या हम सिंचाई के लिये भी कुछ कर सकते हैं। कम से कम हम योजना काल के अपने सिंचाई प्रकल्पों का एक मूल्यांकन कर लें। पूर्वी कोसी मुख्य नहर से जितना सिंचाई आज होती है उससे ज्यादा योजना बनने से पहले कोसी कमाण्ड में लोग भूमि पर सिंचाई अपने दम पर कर लिया करते थे। इससे क्या वह सबक नहीं मिला कि देश के इस हिस्से में सिंचाई के क्षेत्र में किया गया निवेश न केवल बट्टे-खाते में चला गया वरन काफी बड़ा क्षेत्र जल-जमाव की भेंट चढ़ गया। दरअसल पहले से ही भूमिगत जल ऊपर रहने वाले इलाके में नहरों से सिंचाई का प्रयोग ही नहीं होनी चाहिए था। अब समय आ गया है कि हम अपने पारम्परिक सिंचाई के साधनों की पुनर्स्थापना आधुनिक मगर जन-विज्ञान के जरिये करने का प्रयास करें, क्योंकि वह सुनिश्चित था और उसमे अपने संसाधनों को समाज अपने नियंत्रण में रखता था। इसमें न तो बड़ी नहरों के टूटने का खतरा है और न ही मरम्मत न होने के कारण उनसे सिंचाई बंद होने का डर रहता है। इन स्रोतों पर बालू भी नहीं पड़ता है और न ही ऐन मौके पर इंजीनियरों के हड़ताल पर जाने का खतरा रहता है जबकि सिंचाई की मांग अपने चरम पर हो।

अगर हम बाँध केवल बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिये बनाए जा रहे हैं तब इस बात की जरूरत है कि हम अपनी बिजली की मांग का अध्ययन कर लें। अपने मौजूदा बिजलीघरों की कार्य क्षमता बढ़ाना, बिजली पैदा करने की सारी संभावनाओं को तलाश करना और उसका दुरुपयोग रोकना आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर गंभीरता से विचार होनी चाहिए और जिस तरह के बाँध को बनाने की बात चल रही है वह तभी बने जबकि उस के अलावा कोई चारा न बचा हो।

पिछले कुछ वर्षों में बिहार में दो बड़े ताप बिजली घरों बाढ़ और चतरा बिजली घरों (क्षमता 2000 मेगावाट) और पुसौली ताप बिजली घर (क्षमता 500 मेगावाट) की नींच रखी गई है। इन दोनों बिजली घरों से कुल मिलाकर 2,500 मेगावाट बिजली उपलब्ध हो सकेगी जबकि राज्य की सन् 2020 की बिजली का मांग 2750 मेगावाट होने का अनुमान है। अगर यह बिजली घर काम करने लगें और अगर हम कांटी बरौनी और कहलगाँव की अपनी वर्तमान क्षमता को सुधार सकें तो विद्युत उत्पादन के लिये भी 'बराह-क्षेत्र' बाँध की जरूरत नहीं पड़ेगी। अधिकांश बड़े बाँध विद्युत-उत्पादन के उद्देश्य से बनते हैं। हां इनका प्रचार-प्रसार सिंचाई या 'बाढ़-नियंत्रण' के नाम पर अवश्य होता है। यह बाँध गरीबों और उनके विकास की दुहाई देकर बनते हैं। मगर बाँध बनने क बाद की प्राथमिकताओं का अगर अध्ययन किया जाय तो यह गरीब ही होते हैं जो कि पीछे छूट जाते हैं।

नेपाल में प्रस्तावित बाँधों पर एक राष्ट्रव्यापी बहस की जरूरत है जो कि पर्यावरण, संरचनात्मक सुरक्षा, लागत, निर्माण पूरा करने का समय, विस्थापन या पुनर्वास। यद्यपि यह मुद्दा सीधे हमको प्रभावित नहीं करता है मगर निर्माण कार्य को बहुत प्रभावित कर सकता है, और भारतीय उपभोक्ता को मिलने वाली बिजली और उसकी कीमत आदि विषयों को समेटे। बहस अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की भूमिका पर भी होनी चाहिए और बहुराष्ट्रीय कंपनियां क्यों इन योजनाओं में इतनी ज्यादा रूचि ले रही हैं, वह भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए। जरूरी है कि वर्तमान कोसी परियोजना का भी मूल्यांकन उसके कथित उद्देश्यों की पृष्ठभूमि में किया जाय। लोगों के पास योजना बनाने वालों की बातों पर विश्वास करने का समुचित कारण होना चाहिए क्योंकि जिन योजनाओं की बात चल रही है वह बहुत ही मंहगी है।

 

बाढ़ तो फिर भी आयेगी

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

बाढ़ तो फिर भी आयेगी

2

Floods Despite Dams

 

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