बाढ़ प्रभावित नदी घाटी में जलजमाव की समस्या

आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार बिहार की 9.42 लाख हेक्टेयर भूमि में से 8.36 लाख हेक्टेयर भूमि उत्तर बिहार में है, जलभराव का सामना कर रही है। यह उत्तर बिहार के कुल क्षेत्रफल का 16 फीसदी है। इस क्षेत्र की 52,312 वर्ग कि.मी. भूमि पर प्रतिवर्ग कि.मी. जनसंख्या घनत्व 1,263 है। इससे यह भी पता चलता है कि करीब एक करोड़ लोग जलभराव की समस्या से जूझ रहे हैं भले ही वर्षा सामान्य हो या कम हो।भारत में जलजमाव भू-क्षरण की बड़ी समस्या में से एक है। सिंचित भूमि में मिट्टी, जल और फसलों का अवैज्ञानिक प्रबन्धन और विविध विकासात्मक कार्यक्रमों हेतु प्राकृतिक निकास प्रणाली में बाधा के कारण ही जल अन्तःस्रवण और निकासी का सन्तुलन बिगड़ता है जिसके कारण जलजमाव की समस्या पैदा होती है। बारहवीं योजना के तहत बाढ़ प्रबन्धन और क्षेत्रीय विशिष्ट मुद्दों से जुड़े कार्य-समूह की रिपोर्ट बताती है कि सिंचाई सुविधाओं में काफी वृद्धि दर्ज की गई है, लेकिन कृषि भूमि के कुछ क्षेत्रों में जलजमाव से खासा नुकसान भी देखा जा रहा है। देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में कृषि रोजगार का एक प्रमुख स्रोत है, लेकिन इसके बावजूद जलजमाव पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जितनी इसकी जरूरत है। हम बिहार के विशेष सन्दर्भ में इसकी चर्चा करेंगे।

बिहार (2011 की जनगणना के अनुसार इसकी आबादी 10 करोड़ 38 लाख है) का भौगोलिक क्षेत्र 94.163 वर्ग कि.मी. है और जनसंख्या घनत्व प्रतिवर्ग कि.मी. 1,102 है। बिहार को देश के सर्वाधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों की सूची में रखा गया है और यहाँ सामान्य वर्षा 1205 मि.मी. और वार्षिक तौर पर 53 वर्षा दिवस है।

उत्तर बिहार में गंगा के उत्तरी हिस्से में मैदानी भाग हैं और यहाँ आठ प्रमुख नदी घाटियाँ घाघरा, गण्डक, बूढ़ी गण्डक, बागमती, अधवारा नदी समूह, कमला, कोसी और महानन्दा हैं। घाघरा और महानन्दा इस प्रदेश में क्रमशः उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंग से होकर प्रवेश करती हैं। उत्तर बिहार में प्रवेश करने वाली सभी नदियों का उद्गम (बूढ़ी गण्डक को छोड़) नेपाल है। इस नदी का भी नेपाल में बड़ा जलग्रहण क्षेत्र है। समतल तराई के इलाके और जल की मात्रा में विविधता से उत्तर बिहार के समतल मैदानों में काफी बाढ़ आती है। सतह की ढलान भारत-नेपाल सीमा पर 22 से.मी. प्रतिवर्ग कि.मी. से गंगा के उद्गम के पास 7.5 से.मी. तक है। हिमालयी नदियों के न्यूनतम और अधिकतम बहाव में काफी अन्तर देखा जाता है। सामान्य दिनों में मानसून के समय शीत ऋतु की अपेक्षा ये नदियाँ 10 से 20 गुना अधिक जल की मात्रा का वहन करती हैं, जबकि जलग्रहण क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा की स्थिति में यह अन्तर 100 गुना तक बढ़ जाता है।

मानसून के समय हिमालयी नदियाँ बड़ी मात्रा में तलछट लेकर आती हैं। पहाड़ों पर अत्यधिक वर्षा से समतल की तरफ भारी मात्रा में मिट्टी बहकर आती है। जैसे ही यह पानी समतल मैदानों में पहुँचता है, वहाँ सारी मिट्टी जमा हो जाती है और मैदान उथला होने के कारण पानी का प्रसार क्षेत्र बढ़ जाता है। कोसी जैसी नदियाँ अपना रुख बदलने के लिए कुख्यात हैं। रिकॉर्ड बताते हैं कि आज से 200 साल पहले कोसी वर्तमान स्थान से 160 कि.मी. पूर्व में बहा करती थी। नदी की इस गतिविधि से अपरदन काफी बढ़ा, जमीनें बह गईं, कई जगह जमीन उथली हो गई और जल प्लावित क्षेत्र तैयार हो गए जिन्हें स्थानीय भाषा में चंवर कहते हैं। और यहाँ उपज शुरू होने से पहले कई साल तक जलभराव बना रहा।

पूर्वी और पश्चिमी चम्पारण उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पश्चिम की ओर मौजूद 49 चंवर इस बात की ओर इशारा करते हैं कि बूढ़ी गण्डक कभी इस दिशा में बहा करती थी। बागमती, और महानन्दा की स्थिति भी अलग नहीं है। इनके कारण बिहार की भूमि का एक बड़ा हिस्सा जलभराव की त्रासदी झेल रहा है। यह एक ऐसा चक्र है, जो विकास के साथ बढ़ता ही गया है। प्राकृतिक जल निकास को किनारा बनाने, नहर, सड़कें और रेल की पटरियाँ बिछाने से अवरोध पैदा हो गया है। आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार बिहार की 9.42 लाख हेक्टेयर भूमि में से 8.36 लाख हेक्टेयर भूमि उत्तर बिहार में है, जलभराव का सामना कर रही है। यह उत्तर बिहार के कुल क्षेत्रफल का 16 फीसदी है। इस क्षेत्र की 52,312 वर्ग कि.मी. भूमि पर प्रतिवर्ग कि.मी. जनसंख्या घनत्व 1,263 है। इससे यह भी पता चलता है कि करीब एक करोड़ लोग जलभराव की समस्या से जूझ रहे हैं भले ही वर्षा सामान्य हो या कम हो। उत्तर बिहार की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर है और जिन इलाकों में जलभराव होता है वहाँ जुताई नहीं हो सकती और जाहिर है खेती भी नहीं हो सकती। इससे कृषि पर ही निर्भर किसानों के सामने बेरोजगारी की समस्या खड़ी हो जाती है और इस कारण देश के अन्य हिस्सों में किसानों का बड़ी संख्या में पलायन होता है।

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा सूखा प्रभावित क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधाएँ विकसित करने के अच्छे परिणाम दिखाई पड़े थे। ऐसा ही उन्होंने बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लिए भी किया था। उन्होंने इस बात की कोशिश की कि बाढ़ को पहले ही नियन्त्रित किया जा सके और नदियों से जो पानी अधिक मात्रा में रिसकर आता है, उससे सिंचाई की जाए। ब्रिटिश शासकों ने दोनों की तरीकों से धन अर्जित करने की योजना पर काम किया, यानी बाढ़ नियन्त्रण और कृषि से आय, ताकि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। हालाँकि ओडिशा और बंगाल में यह युक्ति नहीं चल पाई। 1850 के दशक में दामोदर नदी के किनारों को ऊँचा करने का प्रभाव यह हुआ कि नदी का तल उथला हो गया। इससे किनारों पर जलभराव तथा जल निकासी में संकुचन हुआ जिससे मलेरिया जैसे रोग उभर आए। उनकी सोच थी कि नदी के किनारे के तटबन्ध यदि दस साल तक सुरक्षित रहते हैं और ग्यारहवें साल में टूट जाते हैं, तो इन दस सालों में कमाया गया मुनाफा राहत और पुनर्वास के काम आ सकता है। उन्होंने इसके बाद किसी भी तलछट से भरी नदी को नियन्त्रित करने की योजना पर काम ही नहीं किया।

बिहार के जल संसाधन विभाग के अनुसार पूर्वी कोसी तटीय इलाकों की 1.82 लाख हेक्टेयर भूमि में जलभराव है। 1988 की बिहार सरकार के जलभराव पर स्पेशल टॉस्क फोर्स की रिपोर्ट बताती है कि कोसी के पश्चिमी किनारों के पश्चिम की ओर 145 फीट के कण्टूर के नीचे 90,450 हेक्टेयर भूमि में जलभराव है। बाढ़ग्रस्त घाटी में सिंचाई सुविधाएँ बहाल करने में नाकाम रहने के कारणों ने ब्रिटिशों को सिंचाई के लिए सचेत किया। सन् 1971-72 में बंगाल के तत्कालीन लेफ्टिनेण्ट गवर्नर ने चम्पारण में गण्डक की एक नहर का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और कहा कि इससे वर्दवान जिले में दामोदर से छेड़छाड़ होगी, जिसके परिणामस्वरूप जलभराव होगा, लोग वही पानी पीने के काम में लाएँगे और सेहत बिगड़ने के साथ-साथ मलेरिया जैसे रोगों का प्रसार होगा। नहर बनाने में खर्च भी काफी आएगा और इसके खर्च की वापसी भी नहीं हो पाएगी। यह प्रस्ताव फिर से 1874 में उनके समक्ष रखा गया, लेकिन उन्होंने यह माँग फिर अस्वीकार कर दी। हालाँकि 1874 के दुर्भिक्ष के समय सारण नहर और तिउर नहर जैसी छोटी परियोजनाएँ पूरी की गईं। इन परियोजनाओं से भी अपेक्षित लाभ नहीं मिल सका, क्योंकि किसानों को साल भर पानी की उतनी जरूरत नहीं रहती थी और इसके बदले वे कोई भी शुल्क आखिर क्यों देते?

इन नदियों के साथ-साथ अन्य कुछ नदियों में जमीन्दारों द्वारा किनारों को ऊँचा किए जाने के कारण भी नदियों के स्वतन्त्र प्रवाह में रुकावटें पैदा हुईं और जलभराव बढ़ा। चम्पारण में सन् 1896 के दुर्भिक्ष के दौरान त्रिवेणी और ढाका दो अन्य नहरें बनीं, लेकिन वे अपने उद्देश्य पूरा नहीं कर सकीं। ये नहरें पश्चिम से पूर्व की तरफ बनाई गई थीं, जबकि जमीन की ढलान उत्तर से दक्षिण की ओर थी। इसका असर यह हुआ कि बरसात में इन नहरों में पानी भर जाने के कारण जलभराव हो जाता था और किनारे टूटने पर काफी क्षति भी होती है। इसका तीसरा कोई उपाय नहीं था। ब्रिटिशों ने सिर्फ बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया और लाभप्रद न होने के कारण उन्होंने इस मुद्दे को कभी गम्भीरता से नहीं लिया। यहाँ तक कि 1873 में (पश्चिम पंजाब, अब पाकिस्तान) में एक ब्रिटिश सिंचाई परियोजना पर काम कर रहे अभियन्ता रॉबर्ट ग्रीन कैनेडी ने यह पाया कि नहर का 28 फीसदी पानी ही खेती के उपयोग में आता है, बाकी का पानी जलभराव की समस्या ही पैदा करता है। इस बात के खुलासे के लिए उस अभियन्ता को अफगानिस्तान के युद्ध क्षेत्र में स्थानान्तरित कर दिया गया था।

इन घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया गया है और सन् 1950 और 1960 में क्रमशः कोसी और गण्डक परियोजनाएँ तैयार करते वक्त वही समस्याएँ खड़ी हुईं, जो सैकड़ों साल पहले अंग्रेजों ने झेली थी। बिहार के जल संसाधन विभाग के अनुसार पूर्वी कोसी तटीय इलाकों की 1.82 लाख हेक्टेयर भूमि में जलभराव है। 1988 की बिहार सरकार के जलभराव पर स्पेशल टॉस्क फोर्स की रिपोर्ट बताती है कि कोसी के पश्चिमी किनारों के पश्चिम की ओर 145 फीट के कण्टूर के नीचे 90,450 हेक्टेयर भूमि में जलभराव है। इस कण्टूर लाइन के उत्तर में सहरसा, समस्तीपुर, दरभंगा और मधुबनी जिले में 33,749 हेक्टेयर भूमि में भी जलभराव है। इसमें 50 एकड़ से कम का चंवर शामिल नहीं किया गया है। इस प्रकार पश्चिमी कोसी तट के पश्चिमी किनारों की 1.24 लाख हेक्टेयर भूमि को शामिल करते हुए कुल जलभराव जमीन का आँकड़ा 3.05 लाख हेक्टेयर जा पहुँचता है।

कोसी परियोजना (1953) का सिंचाई लक्ष्य 7.12 लाख हेक्टेयर जमीन था, जबकि सिर्फ एक बार 1983-84 को छोड़कर कभी यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका। हाल ही में आईआईटी मुम्बई का एक अध्ययन बताता है कि गण्डक कमान में 2.11 लाख हेक्टेयर भूमि में जल भराव है। सन् 1994 में स्थापित द्वितीय सिंचाई आयोग का मानना है कि कुल 9.42 लाख हेक्टेयर के जलभराव क्षेत्र में से 2.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जलभराव से मुक्ति का कोई उपाय नहीं किया जा सकता। जहाँ तक जलभराव का प्रश्न है ब्रिटिश और स्वातन्त्रयोत्तर काल के प्रयासों में कोई अन्तर दिखाई नहीं पड़ता। यह सिर्फ बिहार में नहीं है। अन्य राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, पश्चिम बंग, तटवर्ती ओडिशा जैसे राज्य भी ऐसी ही समस्या से जूझ रहे हैं।

जलभराव का लोगों पर असर


तकनीकी भाषा में जब भू-जल सारिणी में वृद्धि होती है, तो यह पौधों की जड़ में पहुँचकर ऑक्सीजन की आपूर्ति रोक देता है, जिसके परिणामस्वरूप पौधों का विकास और पैदावार पर नकारात्मक असर पड़ता है। पौधे पानी के लवण भी अवशोषित कर लेते हैं। यह नमक पौधों की पत्तियों से बाहर निकलता है और जमीन की सतह पर रेह की पर्त तैयार करता है, जिससे पैदावार पर असर पड़ता है। ऐसा ही जलभराव की स्थिति में होता है। लेकिन अवांछित जल और भी ज्यादा असर करता है। यह उर्वर भूमि को स्थैतिक जल क्षेत्र में तब्दील कर देता है। पानी बढ़ते हुए गाँवों को अपनी चपेट में ले लेता है और आवागमन प्रभावित हो जाता है। साइकिलों और बैलगाड़ियों की जगह नाव ले लेते हैं। यह एक भूपति को एक पैदावारहीन जमीन के मालिक के रूप में बदल देता है। चावल जैसी फसल की जगह मेढ़कों, केकड़ों और घोंघे का आहार ही उपलब्ध रहता है। इससे एक किसान दिहाड़ी मजदूर बनने पर विवश हो जाता है और दिहाड़ी मजदूर बेरोजगार हो जाता है। उसे रोजगार के लिए गाँव से पलायन करना पड़ता है। परिवार को दूर देश से भेजे जाने वाले मनीऑर्डर का इन्तजार करते रहना पड़ता है। इससे शादीशुदा महिलाओं को विधवाओं का और बच्चे को अनाथ की स्थिति का सामना करना पड़ता है। माता-पिता को बच्चे की देखभाल से वंचित होना पड़ता है।

जलभराव को दूर करना सिंचाई सुविधा देने जैसा आकर्षक रोजगार नहीं है। जलभराव दूर करने के पहले ही मान लिया जाता है कि यह मानव-जनित समस्या है और अनियोजित विकास का पहला प्रहार सबसे पहले जल निकासी की कुयोजना के रूप में सामने आता है। सड़क-निर्माण, रेल पटरी बिछाना, किनारों को ऊँचा करना, नहर और बाढ़ इलाकों के समतल मैदानों में अतिक्रमण बदस्तूर चलते रहते हैं और जब समस्या गम्भीर रूप लेती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। इस रास्ते में सबसे बड़ी बाधा कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के रूप में भी सामने आती है। सन् 2007 में बिहार में आई बाढ़ इस समस्या का सही परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण नहीं करने का एक ज्वलन्त उदाहरण है। इस राज्य ने पिछले कुछ सालों में कई गम्भीर बाढ़ की स्थितियाँ झेली हैं, जिनका विवरण नीचे प्रस्तुत है।

तकनीकी भाषा में जब भू-जल सारिणी में वृद्धि होती है, तो यह पौधों की जड़ में पहुँचकर ऑक्सीजन की आपूर्ति रोक देता है, जिसके परिणामस्वरूप पौधों का विकास और पैदावार पर नकारात्मक असर पड़ता है। पौधे पानी के लवण भी अवशोषित कर लेते हैं। यह नमक पौधों की पत्तियों से बाहर निकलता है और जमीन की सतह पर रेह की पर्त तैयार करता है, जिससे पैदावार पर असर पड़ता है। ऐसा ही जलभराव की स्थिति में होता है। वर्ष 2007 में बरसात एक जुलाई से शुरू होकर दो अगस्त तक होती रही और पूरा उत्तर बिहार का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। लगातार बारिश के बावजूद उत्तर बिहार की किसी भी बड़ी नदी ने रिकॉर्ड बाढ़ स्तर को पार नहीं किया। इस स्थिति में बाढ़ से कम नुकसान होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बाढ़ से कई किनारे टूटे, नहर, सड़क और रेल पटरियों पर पानी भर गया लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान जलनिकासी व्यवस्था नहीं होने के कारण हुआ। नतीजा यह हुआ कि बाढ़ का पानी दो-ढाई महीने तक इसी तरह सड़कों, पटरियों पर भरा रहा। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार इस बाढ़ से 22 जिले, 264 प्रखण्ड, 12,610 गाँव प्रभावित हुए। लगभग 2.48 करोड़ लोगों पर इसका असर पड़ा। बाढ़ ने 16.63 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फसलें बर्बाद कर दीं। लगभग 7.37 लाख मकान बर्बाद हो गए, 960 लोगों और 1006 पशुओं की मौत हो गई।

बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग ने नदियों के 3,430 कि.मी. लम्बे तटबन्ध बनाए हैं (2002 के आँकड़ों के अनुसार 3,629 कि.मी. तटबन्ध हैं) और इसके द्वारा कुल 69 लाख हेक्टेयर में से 29 लाख हेक्टेयर बाढ़ प्रभावित भूमि को बचाना उद्देश्य था। इन तटबन्धों पर सरकार को सबसे ज्यादा भरोसा था, उनमें से 32 जगहों पर तटबन्ध टूट गए। इस बाढ़ में 54 जगहों पर राष्ट्रीय उच्चपथ को नुकसान पहुँचा और 829 जगहों पर गाँव की सड़कें टूट गईं और 1,353 पुल और कलवर्ट बाढ़ की भेंट चढ़ गए।

यह सरकार का दायित्व था कि वह जल निकास प्रणाली को दुरुस्त करती, कलवर्ट को और चौड़ा करती, पुलों का विस्तार करती और जल निकासी सुनिश्चित करती। लेकिन वह तटबन्धों को ऊँचा करने में ही लगी रही और बाढ़ का पानी अन्य किनारों पर अबाध बहते हुए तबाही मचाता रहा। क्या सिर्फ तटबन्धों को ऊँचा करना ही बाढ़ प्रभावित लोगों की समस्याओं का समाधान है? क्या इससे तटबन्धों का रिसाव और तलछट का आना रुकेगा? क्या इससे रिसाव में सुधार होगा और किनारों के जलभराव इलाके में कोई सुधार आएगा? क्या कोई अभियन्ता इस बात की गारण्टी दे सकता है कि भविष्य में ये ऊँचे किए गए तटबन्ध नहीं टूटेंगे? इन सवालों के जवाब नहीं में हैं। जितना ऊँचा तटबन्ध होगा, किनारों पर रहने वालों पर खतरा हमेशा उतना ही ज्यादा होगा। तटबन्धों को ऊँचा करने का फायदा सिर्फ सड़क परिवहन को होगा, वो भी तब तक जब तक कि वे रिसाव के कारण टूट कर बह नहीं जाते। यह बताया जा रहा है कि ऐसा करने से बाढ़ नियन्त्रण होगा, क्योंकि यह आइडिया बिकता है। सिंचाई सुविधाएँ देना सर्वकालिक एजेण्डा रहा है और इसकी सफलता पर हमेशा सन्देह रहा है, जबकि इसके नुकसानों पर शायद ही कभी सवाल उठाए गए हों।

यह आशा की जा सकती है कि इस समस्या की तरफ भरपूर ध्यान दिया जाएगा। यह ज्यादा सही होगा कि सभी विकासात्मक कार्यों और गतिविधियों को फिर से मूल्याँकन हो। ब्रिटिशों ने 1860 में दामोदर के तटबन्धों का एक बड़ा हिस्सा ध्वस्त कर दिया था, क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि यह ढाँचा अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा है। क्या हम इससे कुछ सीख लेकर सही दिशा में आगे बढ़ेंगे?

(लेखक जल विशेषज्ञ हैं)
ई-मेल : dkmishra108@gmail.com

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