बाढ़ के सच से मुंह मोड़ता मीडिया

भारत में बाढ़ तो वैसे भी कोई समाचार है नहीं, जबकि विलायत में बाढ़ अस्वाभाविक सी बात है। इसे आज बदलते पर्यावरण के कारण पैदा होने वाली आपदा भी समझा जा रहा है। और इसीलिए ये सुर्खियों का हिस्सा भी बनता है। भारत में बाढ़ तो लगभग हर साल की बात है। एक के बाद दूसरे क्षेत्र में बाढ़ और उसके बाद सुखा और फिर मलेरिया से लेकर दस्त तक, पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के कारण बनने वाले विनाश-चक्र में रिपोर्टिंग लायक बात क्या है? बाढ़ की कहानी में कुछ स्वाभाविक ज़रूर है, लेकिन बहुत कुछ अस्वाभाविक भी है। मैं अखबार पढ़ती हूं और रंग-बिरंगे चैनलों पर ख़बरें भी देखती हूं। ताज़ा-तरीज घटनाओं की जानकारी से मुझे लैस करने वाले इतने स्रोतों के बावजूद मैं ये जान नहीं पाती कि भारत का एक बड़ा हिस्सा अब भी बाढ़ से तबाह है। मैं ये भी नहीं जान सकती हूं कि 2,800 से ज्यादा लोगों को लील चुकी ये आपदा अब तक की सबसे भीषण आपदा है। मैं ये भी नहीं जान पाऊंगी कि प्रकृति के इस प्रकोप के बाद डूबे गाँवों में क्या हो रहा है, या फिर अपने फसल, मवेशी, बचा – खुचा सामान, घर, सड़कें और स्कूल यानी अपना सब कुछ गँवा चुके लाखों लोग इससे कैसे निबट रहे हैं? मैं सोचती हूं तो पाती हूं कि भारतीय मीडिया में जम्मू-कश्मीर, बिहार और असम, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश या फिर कर्नाटक और गुजरात से कहीं ज्यादा हाल में ब्रिटेन में आई बाढ़ के दृश्य मैने देखें हैं।

भारत का मध्यवर्ग, मीडिया जिसके लिए आज न्यूज़ (इनफोटेनमेंट) दिखाता है, उसकी रुचि भारत के ग़रीबों को प्रभावित करने वाली घटनाओं में नहीं रह गई है। साथ ही, मीडिया के दिन-ब-दिन मजबूत होते जा रहे व्यापार में, विज्ञापनों से होने वाली आय तभी बढ़ती है, जब वो बाजार से असंबद्ध पक्षों के स्थान पर, समाज में क्रय शक्ति रखने वाले पक्षों की हित पूर्ति करता है।

भारत में बाढ़ तो वैसे भी कोई समाचार है नहीं, जबकि विलायत में बाढ़ अस्वाभाविक सी बात है। इसे आज बदलते पर्यावरण के कारण पैदा होने वाली आपदा भी समझा जा रहा है। और इसीलिए ये सुर्खियों का हिस्सा भी बनता है। भारत में बाढ़ तो लगभग हर साल की बात है। एक के बाद दूसरे क्षेत्र में बाढ़ और उसके बाद सुखा और फिर मलेरिया से लेकर दस्त तक, पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के कारण बनने वाले विनाश-चक्र में रिपोर्टिंग लायक बात क्या है? बाढ़ की कहानी में कुछ स्वाभाविक ज़रूर है, लेकिन बहुत कुछ अस्वाभाविक भी है। काफी कुछ हम जानते हैं, फिर भी इस पर कान धरना नहीं चाहते ताकि तबाही का दुःख कमतर रहे । इन सबसे बीच काफी कुछ ऐसा भी है जो हम जानते ही नहीं। इसी कारण इससे पैदा होने वाला दर्द काफी भयानक है। हम जानते हैं कि बाढ़ प्रवण क्षेत्रों के रूप में चिन्हित क्षेत्र पिछले दशक में लगातार बढ़ते चले गए हैं। बाढ़ प्रवण क्षेत्र उसे कहा जाता है जो नदियों में आने वाले बाढ़ के पानी से डूबता है, उन क्षेत्रों को नहीं, जो भारी बारिश के पानी से डूबते हैं। बाढ़ प्रवण क्षेत्र 1960 में 25 मिलियन हेक्टेयर था। 1978 में ये बढ़कर 40 मिलियन हेक्टेयर हो गया। 1980 के दशक के मध्य तक अनुमानतः 58 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल बाढ़ प्रभावित हो चुका था। पर महत्वपूर्ण यह है कि इन वर्षों में बाढ़ से प्लावित क्षेत्र में वृद्धि होती गईं, जबकि, बारिश की औसत स्तर में वृद्धि नहीं हुई है।

दूसरे शब्दों में, जब प्रबंधन के अपने कार्य में हम ऐसा कुछ गलत ज़रूर करते रहे हैं कि हर मौसम में नदियां उफनाती जाती हैं। हिमालय से निकलने वाली विशाल नदियों के बाढ़ के मैदान से लेकर छोटे-छोटे जल संभरों तक से बनने वाले बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में, जल प्लावन, उपजाऊ मिट्टी लाती रही है। इससे भूमिगत जल स्तर भी रिचार्ज होता है और फल भरपूर हो जाती थी।

लेकिन इतने वर्षों में हमने बाढ़ के साथ रहना नहीं सीखा है। हमने दलदली ज़मीन पर निर्माण कर दिया है। उन सरिताओं को भर दिया, जो नदी जल को बांट दिया करती थी। वैसे निचले इलाकों में भी रहना शुरू कर दिया जिनका डूबना निश्चित हुआ करता था। हमने अपने जंगल भी काट डाले जो जल प्रवाह के आगे रुकावट पैदा करके काफी हद तक बाढ़ की तीव्रता को झेलने लायक बना दिया करते थे। कुल मिलाकर हमने खुद को हर वर्ष आने वाली बाढ़ को लेकर असुरक्षित बना लिया है। हालिया बाढ़ में और भी बहुत कुछ है। हॉल के वर्षों में बारिश की तीव्रता में बदलाव आया है और इससे बाढ़ की विभीषिका और बढ़ गई है। निरंतर होने वाली बारिश के पानी को रास्ता मिलता नहीं और बाढ़ जल्दी-जल्दी आती है। अभी पिछले सप्ताह आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के गाँवों में हुई मूसलाधार बारिश से 60 लोगों की जान चली गई। हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन मॉडलों में मूसलाधार बारिश के ऐसे ही दृश्यों की भविष्यवाणी की गई है। तो क्या इन सबके बीच कोई सहसंबंध है?

इसके बाद मुद्दा है बारिश के पानी से प्लावित क्षेत्रों में जलाशयों से पानी छोड़े जाने का। यूँ लगता है जैसे आज हम जिस प्रकार बाढ़ से दो-चार हैं, उसमें इन्हीं सब बातों का मिला-जुला प्रभाव सबसे बड़ी भूमिका निभाता है। इसके प्रमाण हैं कि जलप्लावित भूमि क्षेत्र के ऊपर नदियों में बने डैम, मानसून की शुरुआत के पहले भरे हुए थे। ये डैम क्या ग्लेशियरों के पिघलने से जल-प्रवाह में हुई वृद्धि के कारण तो भरे नहीं थे? हालांकि अभी इसकी पुष्टि के ठोस प्रमाण नहीं हैं, लेकिन संभावना तो है।

हम जानते हैं कि बांध से जुड़ा प्रशासन, बारिश की अनिश्चितता के कारण, जलाशयों में जल स्तर ऊंचा बनाए रखता है। हम ये भी जानते हैं कि तीव्र बारिश से जल स्तर एकाएक इतना बढ़ जाता है कि खुद इन बांधों को ही खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसके कारण इनके गेट खोल दिए जाते हैं। और पानी निकल भागता है। इस जल प्रवाह के साथ उस क्षेत्र में हो रही लगातार बारिश का पानी भी उसमें मिल जाता है तो बाढ़ का आना अवश्यंभावी हो जाता है। हम जानते हैं कि हमारे यहां बारिश की परिवर्तनीयता में लगातार वृद्धि हो रही है। तो फिर, भविष्य में हमारे जलाशयों के प्रबंधन के संदर्भ में इसका आशय क्या है? यहां सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि क्या बाढ़ की घटना को समझते भी हैं?

नहीं, हम नहीं समझते। हमारे पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो हमें बारिश की तीव्रता में हो रहे परिवर्तनों से, हमारे जलाशयों में बढ़ते जल प्रवाह और तदुपरांत प्रशासन द्वारा जलाशयों से पानी छोड़ने के तौर-तरीकों से अवगत रख सके। आज की बाढ़ हमारी भूमि और जल के साथ-साथ विज्ञान और आंकड़ों के मिले-जुले कुप्रबंधन से पैदा होने वाली दोहरी त्रासदी है। और ये कुप्रबंधन आपराधिक है।

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