बाढ़ के पानी को रास्ता देने की जगह तटबन्ध का मजबूतीकरण

तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत बनाने का नकरात्मक असर उन लोगों पर पड़ता है जो अपने गाँव-घर के कट जाने या उन पर बालू पड़ जाने के कारण किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में तटबन्धों पर आ बसे हैं। तटबन्धों पर रहने वाले वहाँ तो कहीं न कहीं से उजड़ कर ही आये होंगे। अगर वे तटबन्धों के अन्दर के रहने वाले हों तो बहुत मुमकिन है उनके गाँव कट गए हों, घर बचे रहने का ऐसी हालत में सवाल ही नहीं उठता, इसलिये चले आये हों तटबन्ध पर रहने के लिये।

जहाँ नदी और बाढ़ का पानी यह इशारा कर रहा था कि उसे रास्ता दिया जाए, सरकार ने बागमती के तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत करने की मुहिम छेड़ी और रुन्नी सैदपुर से लेकर हायाघाट तक उसके विस्तार का 792 करोड़ रुपयों का एक कार्यक्रम हाथ में लिया। इसी तरह का प्रयोग महानन्दा घाटी में उसकी प्रायः सभी सहायक धाराओं पर तटबन्ध बनाने की 850 करोड़ रुपयों की एक महत्वाकांक्षी योजना पर हाथ लगा। तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत करने तथा उनमें से बहुत से तटबन्धों को पक्की सड़कों में परिवर्तित करने का कार्यक्रम हाथ में लिया गया। लेकिन तटबन्ध को ऊँचा और मजबूत कर देने मात्रा से बाढ़ की समस्या का हल हो जायेगा क्या? क्या तटबन्ध को ऊँचा या मजबूत कर देने से उनके बीच आने वाले पानी या बालू में कोई कमी आयेगी? क्या तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत किये जाने के बाद नदी की पेटी का ऊपर उठना रुक जायेगा? क्या तटबन्धों से होकर होने वाले सीपेज या तटबन्धों के बाहर होने वाले जल-जमाव में कोई कमी आयेगी? जिसे आज हम ऊँचा और मजबूत तटबन्ध कह कर खुश हो रहे हैं, कल यह नहीं टूटेगा क्या इसकी गारन्टी कोई इंजीनियर दे सकता है? इन सारे सवालों का एक ही जवाब है-नहीं।

तटबन्ध जितना ऊँचा और जितना मजबूत होगा, सुरक्षित क्षेत्रों में रहने वालों पर उनके टूटने पर खतरा उतना ही ज्यादा बड़ा होगा। यह बात हाकिमों की समझ में क्यों नहीं आती? तो फिर इस काम से फायदा? इसका फायदा है कि लोगों को आने-जाने में सहूलियत होंगी। इसके साथ सरकारी जीपों और मशीनों को भी आने जाने में मदद मिलेगी। इसके लिये लोगों को तटबन्धों पर से हटाया जायेगा और कहा यह जायेगा कि यह सब बाढ़ की रोक-थाम के लिये किया जा रहा है। वह इसलिये कि बाढ़ नियंत्रण बिकने वाली चीज है और इसी में नेताओं, प्रशासकों, इंजीनियरों और ठेकेदारों सब के स्वार्थ निहित हैं। पहले के दिनों में इनकी जूठन के तौर पर मजदूरों को कुछ रोजगार मिट्टी के कामों में मिल जाया करता था लेकिन आजकल वह भी बन्द है क्योंकि अब यह काम दूसरे प्रान्तों से मँगाये गए ट्रैक्टरों और मशीनों के माध्यम से होता है। तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत बनाने का नकरात्मक असर उन लोगों पर पड़ता है जो अपने गाँव-घर के कट जाने या उन पर बालू पड़ जाने के कारण किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में तटबन्धों पर आ बसे हैं।

तटबन्धों पर रहने वाले वहाँ तो कहीं न कहीं से उजड़ कर ही आये होंगे। अगर वे तटबन्धों के अन्दर के रहने वाले हों तो बहुत मुमकिन है उनके गाँव कट गए हों, घर बचे रहने का ऐसी हालत में सवाल ही नहीं उठता, इसलिये चले आये हों तटबन्ध पर रहने के लिये। दूसरा यह कि सरकार और बागमती प्रोजेक्ट की कृपा से उनके गाँव-घर, खेत-पथार पर पानी लग गया हो और वह हटने पर मजबूर हुए हों। यह भी मुमकिन है कि उनका गाँव-घर किसी टूटते तटबन्ध के मुहाने पर पड़ गया हो, इसलिये वहाँ तटबन्ध पर आ गए हैं। तटबन्ध पर जो भी लोग पहले से रह रहे थे या आज भी हैं उनमें से एक भी परिवार वहाँ अपने शौक से या पिकनिक मनाने के लिये नहीं है। उनमें शायद ही कोई शख्स ऐसा होगा जिसका उसके चारों तरफ पानी से घिरा होने पर दिल बहलता हो। वहाँ जो भी है वे अपने घर-द्वार से बेदखल होने के दर्द और दुख के साथ रह रहा है। तटबन्धों के बीच रहने वालों पर तो यह बात खास तौर पर लागू होती है। इन सारे कारणों को बला-ए-ताक पर रख कर सत्ता के दम्भ पर सरकार अगर उन्हें उजाड़ देती है और दबे हुए को और ज्यादा दबाने का काम करती है तो यह उसके लिए जरूरी हो सकता है मगर न्याय संगत नहीं है।

यह सच है कि तटबन्धों की मरम्मत और रख-रखाव के लिए जरूरी है कि वहाँ किसी तरह की रुकावट या अड़चन न पड़े मगर यह भी उतना ही जरूरी है कि सरकार उन लोगों को यह बताये कि उन्हें कहाँ रहना चाहिये। इनमें से अधिकांश लोगों के तटबन्धों पर रहने की जिम्मेवार सरकार खुद है और वह अपनी इस जिम्मेवारी से आँखें नहीं मूँद सकती। इस साल की बाढ़ विधान सभा में जबर्दस्त चर्चा का विषय रही मगर यह बहस सिर्फ रिलीफ और उसके बटवारे तक सीमित रही। लम्बी अवधि में बाढ़ के समाधान में पक्ष और विपक्ष में असाधारण एकता के दर्शन होते हैं जब दोनों नेपाल में बांधों के निर्माण को ही एक मात्र रास्ता मानते हैं। रिलीफ और नेपाल में बांधों के निर्माण पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

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Post By: tridmin
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