मध्य प्रदेश का एक गाँव इन दिनों खुदकुशी का गाँव बन चुका है। यहाँ के लोग एक के बाद एक लगातार मौत को गले लगा रहे हैं। बीते तीन महीनों में ही यहाँ कई मौतें हो चुकी हैं। इसे लेकर स्थानीय प्रशासन भी परेशान है लेकिन अब तक इसका कोई समुचित समाधान नहीं ढूँढा जा सका है। इस गाँव की ऐसी हालत के लिये यहाँ के बाशिंदे यहाँ पानी के अकाल को बड़ा कारण मानते हैं।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब 400 किमी तथा इन्दौर से 250 किमी दूर पिछड़ा हुआ जिला है खरगोन। इसी जिले का गाँव है बाड़ी। जिला मुख्यालय से करीब 25 किमी की दूरी पर। गाँव बाड़ी इन दिनों हर घर में पसरे मातम से चर्चा में है। यहाँ के लोगों पर खुदकुशी की सबसे ज्यादा मार पड़ी है।
ढाई हजार की आबादी वाले इस गाँव में तीन सौ परिवारों की बस्ती है। लेकिन गाँव का कोई परिवार सुखी नहीं है। अमूमन घर–घर में आत्महत्याओं का मातम है। किसी का पिता नहीं रहा तो किसी का बेटा। बीते चन्द महीनों में ही यहाँ के दर्जनभर लोग खुदकुशी कर चुके हैं।
गाँव में कदम रखते ही सांय–सांय सन्नाटा महसूस होता है और किसी के भी दरवाजे पर दस्तक देते ही अपनों के हमेशा के लिये खो जाने का दर्द सिसकियों में फूट आता है। सरपंच का घर भी अछूता नहीं है। खुद सरपंच ने भी कुछ समय पहले ही आत्महत्या कर ली है। इस गाँव में युवा सरपंच राजेन्द्र सिसौदिया सहित कई युवा और अधेड़ किसान बीते कुछ महीनों से लगातार आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें कुछ महिलाएँ और किशोर भी शामिल हैं।
गाँवों से खत्म होते पानी की वजह से बर्बाद होती फसलों ने यहाँ की माली हालत तो चरमरा ही दी है। अब यहाँ आत्महत्याओं का सिलसिला भी थम नहीं पा रहा है। मालवा–निमाड़ के कई गाँवों की यही कहानी है। बीते साल अकेले निमाड़ में 700 लोगों ने खुदकुशी कर ली। आत्महत्या के इस आँकड़े ने सबको चौंका दिया है।
मध्य प्रदेश के मालवा–निमाड़ अंचल में बीते साल के आत्महत्याओं के आँकड़े खासे चौंकाने वाले हैं। पुलिस रिकार्ड में दर्ज ये आँकड़े बताते हैं कि किस तेजी से यहाँ के लोगों में खुदकुशी की प्रवृत्ति बढ़ रही है। बीते एक साल 2015 में मालवा–निमाड़ के मात्र 8 जिलों में ही करीब 1700 से ज्यादा लोगों ने खुदकुशी की है। इनमें इन्दौर जिले में 615, धार में 27, झाबुआ में 152, अलीराजपुर में 169, खरगोन में 381, बड़वानी में 137, खंडवा में 167 तथा बुरहानपुर जिले में 73 लोगों ने अपने ही हाथों अपनी जीवनलीला समाप्त की है। अकेले खरगोन जिले में बीते तीन महीनों में ही 80 आत्महत्याओं के मामले सामने आ चुके हैं।
ये आँकड़े इसलिये भी चौंकाते हैं कि इनमें ज्यादातर खुदकुशी के मामले शहरों के मुकाबले गाँवों में हुए हैं। खरगोन जिले में बीते साल का आँकड़ा 381 का है यानी हर दिन एक मौत। साल के 365 दिनों में 381 जिन्दगियाँ खत्म हो गईं। अकेले बाड़ी गाँव में 45 से ज्यादा खुदकुशियाँ बीते कुछ सालों में हुई हैं।
ज्यादातर मामलों में खुदकुशी के कारणों का पता नहीं है पर इलाके में खेती की स्थिति कमजोर होना प्रमुख कारण बताया जा रहा है। सरपंच जीवन सिसौदिया बताते हैं कि गाँव किसी राक्षस या भूत की छाया में है, इसीलिये घर–घर ऐसी घटनाएँ हो रही है। हालाँकि गाँव के ही कई लोग उनकी इस बात से सहमत नहीं है।
इलाके के पढ़े–लिखे लोग इसके पीछे पानी को कारण मानते हैं। वे बताते हैं कि इस गाँव में कुछ सालों पहले तक अच्छी खेती होती थी। यह इलाका सफेद सोने यानी कपास का बड़ा उत्पादक रहा है। यहाँ पानी की पर्याप्तता थी और लोग अपनी खेती–बाड़ी में व्यस्त और मस्त थे लेकिन बीते 20 सालों में जैसे–जैसे खेती के तौर–तरीके बदलते गए, वैसे–वैसे खेती की परेशानियाँ बढ़ती रही और इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है किसानों को। खेती के फायदे और नुकसान दोनों ही किसान के सिर ही होते हैं।
ज्यादा-से-ज्यादा उपज लेने की होड़ में किसानों ने धरती से जरूरत से ज्यादा पानी उलीचना शुरू कर दिया तो खेतों की उपज को बचाने के लिये बड़ी तादाद में रासायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल करना भी शुरू कर दिया। किसानों के पास पैसे नहीं होने पर भी वे जेवर–जमीन गिरवी रखकर या ऊँची ब्याज दर पर उधार लेकर कीटनाशक और खाद खरीदने लगे।
पानी के लिये गहरे और गहरे धरती का सीना छलनी किया जाने लगा। गाँव और कस्बों के कुछ धन्ना सेठों ने इस मौके को अपने फायदे में खूब भुनाया, उन्होंने किसानों को सपने बेचे बड़े किसान बनने के। उन्होंने किसान को पहले उधार लेने के लिये उकसाया और इसके बाद ब्याज-पर-ब्याज चढ़ाकर परेशान करने की हद तक वसूली के लिये दबाव बनाया गया। गाँवों का सदियों से बना सहज सन्तोष खत्म हो गया और रातोंरात अमीर बन जाने की होड़ में किसान लगातार कर्ज के साथ हताशा, कुंठा और अवसाद में डूबता चला गया।
इस दुष्चक्र में फँसने के बाद उसके पास इससे बाहर निकलने का कोई चारा नहीं बचता है। सिवाय आत्महत्या के। इससे किसान और उसका परिवार तनाव में रहने लगता है और खेती में यथोचित फसल नहीं आने से वह और अवसाद में डूब जाता है। तनाव से उनके पारिवारिक रिश्तों और खर्चों के समय पर पूरा नहीं कर पाने से भी तमाम तरह की मानसिक परिस्थितियाँ व्यक्ति को आत्महत्या के लिये उकसाती हैं। इलाके में बड़ी तादाद में कपास की खेती के लिये गाँव–गाँव कीटनाशक आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। ज्यादातर खुदकुशी इसी के उपयोग से हुई है।
मनोचिकित्सक डॉ. कुलदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि फसल ठीक नहीं होने से किसानों पर कर्ज बढ़ रहा है तो दूसरी ओर गाँवों में बीते कुछ सालों में उपभोक्ता संस्कृति भी तेजी से बढ़ी है। इसमें बाजार तरह–तरह की चीजों से भरे पड़े हैं। गाँव के सक्षम लोग तो इन्हें खरीद लेते हैं लेकिन निम्न आयवर्गीय परिवारों में लोग कुंठित और अवसादग्रस्त हो जाते हैं। इससे इन दिनों लोग खुदकुशी तक कर लेते हैं। वे कहते हैं कि कई बार कीटनाशक के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल या असावधानी से शरीर में जाने से भी व्यक्ति की मौत हो सकती है। लोग इसे भी खुदकुशी मान लेते हैं। कीटनाशकों में ऑर्गेनोफास्फेट की अधिकता भी अवसाद को कई गुना तक बढ़ा देती है।
खरगोन एसपी अमित सिंह मानते हैं कि अधिकांश मामलों में हताशा और कुंठा होती है। इसकी एक वजह कीटनाशकों का आसानी से मिलना भी हो सकता है। सुसाइड नोट मिलने से स्थिति साफ हो जाती है। इस इलाके में खुला माहौल और काउन्सिलिंग जरूरी है।
जानकारी मिलने पर कलेक्टर अशोक कुमार वर्मा और एसपी अमित सिंह ने गाँव का दौरा कर ग्रामीणों से बात की। ग्रामीणों ने बताया कि गाँव में बीते कुछ महीनों से लगातार लोग खुदकुशी कर रहे हैं। बीते कुछ सालों से लगातार बर्बाद होती खेती से लोग परेशान और हताश हैं, वहीं गाँव में शराब, गांजा और कीटनाशक जैसी चीजें यहाँ बेरोक-टोक बिक रही है। ग्रामीणों ने इस पर रोक लगाने की माँग की। गाँव की पानी और अन्य व्यवस्थाओं पर भी बात हुई।
एसपी सिंह ने गाँव की चौपाल पर ग्रामीणों से पूछा कि गाँव में बढ़ रही आत्महत्याओं के क्या कारण हो सकते हैं। उन्होंने ग्रामीणों को भरोसा दिलाया कि कीटनाशक, शराब व मादक पदार्थों की बिक्री पर नकेल कसेंगे। उन्होंने ग्रामीणों से आग्रह किया कि वे अपने परिवारों में बातचीत का खुलापन लाएँ और सब बैठकर समस्याओं का समाधान करें। उन्होंने गाँव के लोगों को शराब या गांजा नहीं पीने का संकल्प भी दिलाया।
गाँव के युवक सुनील सिंह ने बताया कि देर सबेर प्रशासन ने पहल तो की है। शायद इससे यहाँ के लोगों में पसरा सूनापन व अवसाद खत्म हो सके और आत्महत्याएँ थम सके।
लेकिन सवाल इस अकेले गाँव का नहीं है, इस इलाके में एक नहीं कई गाँव हैं, जो आज नहीं तो कल बाड़ी गाँव की ही तरह आत्महत्याओं के मुहाने पर हैं। अभी से इन गाँवों में खुदकुशी की मनहूसियत साफ तौर पर महसूस की जा सकती है। जरूरत है कि समय रहते हम पानी और खेती को बचाने, सहेजने के लिये गम्भीर और ठोस काम शुरू करें।
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